चीनी दार्शनिक कन्फ़्यूशियस
ने कहा था: “एक अच्छे राजा को तीन चीज़ों की ज़रुरत होती है--रसद,
हथियार और प्रजा का विश्वास. अगर एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये कि उसे ये
तीनों उपलब्ध न हो सकें और चुनाव करना हो तो उसे पहले रसद छोड़ना चाहिए, उसके बाद
हथियार और आखिर में प्रजा का विश्वास.” अगर उस ज़माने में आज के प्रजातंत्र की
अवधारणा होती तो शायद कन्फ़्यूशियस यह भी जोड़ते कि प्रजा के विश्वास का मतलब मात्र
“बहुसंख्यक का विश्वास या केन्द्रीय या राज्य विधायिकाओं में विश्वासमत हासिल करना”
नहीं होता.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
पर जनता ने विश्वास किया है. इस विश्वास की प्रकृति थोड़ा अलग है. ना तो यह
कांग्रेस के नेहरु-इंदिरा शासन काल के दौरान स्वतन्त्रता काल की थकान वाला ऊनीदापन
से पैदा होने वाला विश्वास है ना हीं १९७५ के आपातकाल के गुस्से का अस्थाई भाव. ना
हीं १९८४ के४ एक नेता की ह्त्या पर उमड़ी शोक-जनित क्षणिक दया का भाव. मोदी के
प्रति इस विश्वास में मंदिर-मस्जिद से पैदा साम्प्रदायिक उन्माद अगर था भी तो गौड़
पक्ष की रूप में. सन २०१४ के चुनाव परिणाम इस बात की दस्दीक हैं. यह बात इस तथ्य
से भी सिद्ध होती है कि मंदिर उन्माद में भी बहुसंख्यक हिन्दू ने १९९६, १९९८ और
१९९९ में भारतीय जनता पार्टी को औसतन मात्र २४ प्रतिशत मत दिए थे जो कि २००४ और
२००९ के चुनावों में घटते-घटते १८.८ प्रतिशत तक आ गए थे. २०१४ के चुनाव में अगर
पार्टी को ३१ प्रतिशत (या डेढ़ गुने से ज्यादा मत मिले) तो यह किसी भारतीय जनता
पार्टी को नहीं सिर्फ मोदी को. जनता में एक बदलते भारत की ऐसी तड़प थी जिसे एक
नेतृत्व चाहिये था. याने मोदी की वजह से यह विश्वास नहीं पैदा हुआ बल्कि मोदी इस
विश्वास की उपज थे. मोदी में जनता ने एक ऐसा शासक देखा जो निरपेक्षरूप से बेहतर
शासन देगा यानि मंदिर बनाने, या धर्म-परिवर्तन के लिए लंपटतावादी सोच बढाने के
बजाय विकास करेगा. एक ऐसा शासन जिसमें भ्रष्टाचार नहीं होगा, जहाँ विकास मतलब
मात्र सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोत्तरी नहीं होगी बल्कि उस बढ़ोत्तरी का मानव विकास
सूचकांक बेहतर करने से सीधा रिश्ता होगा.
मोदी के पक्ष में तीन स्थितियां
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मोदी के पक्ष में राजनीतिक,
आर्थिक और सामाजिक तीनों करक हैं. २४ साल बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है
याने गठबंधन का सही-गलत दबाव नहीं है. अन्तर-राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों
में जबरदस्त गिरावट का सरकार को सन २०१५ में लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये का फायदा
मिलगा जिससे राजकोषीय घटा कम होगा और विदेशी पूंजी निवेश के लिए माहौल बनेगा,
अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी. इसके साथ हीं जज्बे से भरा युवा वर्ग तकनीकी रूप से
विधेश में अपनी पैठ बनाने में सक्षम हो रहा है और अगले वर्ष कमाया हुआ कोई ९० अरब
डॉलर (पांच लाख करोड़ रुपये ) भारत में भेजेगा.
लेकिन नकारात्मक पहलू यह है
कि अबकी बार रबी का रकबा कम हुआ है और कृषि उत्पादन कम होने की भारी आशंका है.
लिहाज़ा एक जबरदस्त भ्रष्टाचार मुक्त सरकारी मशीनरी की ज़रुरत है जो कि ग्रामीढ़ भारत
को इन लाभों को भेज सके और कृषि उत्पादन को नयी दिशा में अग्रसर कर सके. “मेक इन
इंडिया” के नारे के तहत लोगों को रोजगार मुहैय्या हो सके. विकास की एक अन्य शर्त
है कि देश में माहौल शांत और विकास की ओर उन्मुख हो.
मोदी के प्रति इन सब का
विश्वास है. लेकिन यह विश्वास भी शाश्वत नहीं होता. इसकी भी एक मियाद होती है. ऐसे
में अगर प्रधानमंत्री के सामने चुनौतियाँ सन २०१५ में होने वाले दिल्ली और बिहार
के चुनाव जीतने की हीं नहीं है बल्कि वह विश्वास भी कायम करने की है जो जनता ने उन
पर रखा है. मोदी को भूलना नहीं चाहिए कि ऐसा हीं विश्वास दिल्ली की जनता ने
अरविन्द केजरीवाल को दिया था लेकिन छह महीने में वह विश्वास कम होने लगा.
मोदी को यह भी ध्यान रखना
होगा कि सन २०१४ के आम चुनाव में जो १० लोग मत देने गए थे उनमें मात्र तीन (३१
प्रतिशत) ने हीं उन्हें अपना समर्थन दिया. ताज़ा झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव
इस बात की गवाही हैं कि अगर मुख्य -विपक्ष कांग्रेस का अपने गठबन्धनों को कायम
रखती तो परिणाम कुछ और होते.
उदाहरण के लिए बिहार को
लें. जहाँ कांग्रेस ने अपनी अदूरदर्शिता का फायदा इन दोनों राज्यों में भारतीय
जनता पार्टी को बढ़त दिलाकर दे दिया वहीं बिहार के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों –नीतिश
कुमार और लालू प्रसाद यादव—ने अपनी वर्षों पुरानी दुश्मनी दफना कर गठबंधन की
राजनीति का एक नया आगाज़ किया. इस गठबंधन पर लोगों का विश्वास भी बढ़ा है और इसकी
अनुगूंज से उत्तर हीं नहीं दक्षिण भारत की गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दल भी
मुतास्सिर हुए बिना नहीं रह सके हैं. एक बार फिर “जनता परिवार” साथ होने लगा है.
जो भी राजनीतिक विश्लेषक बिहार को ठीक से समझते हैं वे वह कह सकते हैं अगर
कांग्रेस ने “एकला चलो रे” वाली पुरानी भूल ना दोहराई तो २०१५ के उत्तरार्ध में
होने वाले विधानसभ चुनाव में मोदी का विजय रथ का घोड़ा यहीं थम जाएगा. जनता परिवार
अगर आपसी कलह का शिकार न हुआ तो वोटों का बिखराव रूकेगा. इसके बाद मोदी को
राजनीतिक तौर पर लगातार देश के अन्य हिस्सों में चुनौती मिलती रहेगी.
मोदी की जो सबसे बड़ी चुनौती
सन २०१५ में रहेगी वह है संघ परिवार से. बाबरी मस्जिद ढहने के बाद के एक नहीं आधे
दर्जन आम चुनावों ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दू मूलरूप से उदारवादी है और कट्टरवादी
धार्मिक उन्माद से अपने को दूर रखता है. वर्ना देश की ८० प्रतिशत आबादी हिन्दू है
फिर भी आज तक इस पार्टी को पिछले ३० सालों के मंदिर आन्दोलन के दौरान औसतन आठ में
से दो हिन्दू हीं क्यों वोट देता.
प्रजातंत्र की एक खराबी यह
भी है कि सत्ता में जब भी परिवर्तन होता है तो समाज का एक बड़ा लम्पट वर्ग
सशक्तिकरण की झूटी एवं स्व-घोषित चेतना से सुसुज्जित हो कर भ्रष्टाचार या अन्य
आड़े-तिरछे या कानूनेतर कामों में लिप्त होने लगता है. उदाहरण के तौर पर हाल हीं
में एक हिन्दू संगठन के नेता ने गोडसे की मूर्ति लगाये जाने की वकालत करते हुए एक
टीवी चैनल के डिस्कशन में तीन बातें कहीं: (१) गाँधी लाखों लोगों के हत्यारे थे
(२) नेहरु ने उनकी हत्या कराई थी और (३) इस हिन्दू संगठन ने मोदी और भारतीय जनता
पार्टी को २०१४ के चुनाव में जिताने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी. पहली दो बातें
तो उस नेता या दल की सोच के निम्न स्तर को समझते हुए ख़ारिज की जा सकती है पर तीसरी
बात यह साबित करती है कि प्रधानमंत्री के सुशासन में क्या-क्या अवरोध आने शुरू हो
गए हैं और कैसे उनकी विश्वसनीयता घटने की स्थिति तैयार होने लगी है.
मोदी की दूसरी चुनौती यह
होगी कि क्या वह इस बात को भूलते हुए कि उनको यहाँ तक लाने में मातृसंस्था
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अप्रतिम भूमिका रही है, याने क्या वह यह बता सकेंगे कि
हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम पांच साल के लिए सड़क बनवाना, फैक्ट्री लगवाना,
अस्पतालों या शिक्षण संस्थाओं या रेलवे टिकट बुकिंग में भ्रष्टाचार कम करना, किसान
को खाद और पानी मुहैया करवाना मुसलमान को हिन्दू बनाने से ज्यादा प्रभावी और
सार्थक कदम होगा क्योंकि गरीब मुसलमान बने या हिन्दू वह गरीब हीं रहेगा.
आज़ादी के ६५ साल में यह
विश्वास टूटता गया था. हमें लगने लगा था कि ऱाजा पांच साल में एक बार आता है,
हमारे मरते विश्वास को “कोरामिन” का इंजेक्शन दे कर कुछ क्षण के लिए जिन्दा करता
है और फिर वह शासन (या शोषण) करने चला जाता है. उसने यह मान लिया था कि शोषण उसकी
नियति है याने खरबूजा चाकू पर चले या चाकू खरबूजे पर , कटेगा खरबूजा हीं. मोदी को
अपना विश्वास दे कर जनता ने यह अपेक्षा की है कि “राजा अपनी तीसरी चीज (जनता का
विश्वास) कायम रखेगा.” क्या मोदी इस विश्वास पर खरे उतरेंगे? दूसरी स्थिति यह बन
सकती है कि देश सांप्रदायिक रूप विभाजित हो जाये और अल्पसंख्यकों में दहशत का
माहौल घर कर जाये. मोदी चुनाव तो जीत जायेंगे पर विश्वास हार जायेंगे. “बगैर
विश्वास का राजा” !!!! सोच के हीं डर लगता है.
lokmat