Wednesday 31 December 2014

मीडिया विरोधी है कानून

अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता पर जिसमें मीडिया की स्वतंत्रता भी शामिल है जब भी राज्य की तरफ से हमला हुआ है तो यही कहा गया है कि इससे राष्ट्र की संप्रभुता, सुरक्षा और लोक व्यवस्था को क्षति पहुंचती है। ऎसा लगता है कि मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए एक चौतरफा कोशिश चल रही है। कार्यपालिका ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के माध्यम से मीडया के हाथ बंाधने का प्रयास करती है। विधायिका विशेषाधिकार कानून से मीडिया को रोकती है। न्यायपालिक के पास अदालत की अवमानना का चाबुक है, तो सामान्य आदमी की जुबान पर लगाम लगाने के लिए मानहानि कानून है। मीडिया को बांधने के प्रयास सभी ओर से हो रहे हैं। तमाम सरकारी संस्थाओं ने अपने प्रतिवेदन और साथ ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बार-बार यह कहा गया है कि गोपनीयता कानून की उपादेयता खत्म हो गई है। 12 जून 2006 को दो घटनाएं हुई। मोइली की अध्यक्षता वाले द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी की जिसमें गोपनीयता कानून, 1923 को खत्म करने की अनुशंसा की गई। अनुशंसा का आधार था सूचना का अधिकार, 2005 का प्रभाव में आना। हालांकि उसी दिन किसी के जन्मदिन की पार्टी में मीका ने राखी सावंत का चुंबन किया और न्यूज चैनल दिन भर इस खबर को दिखाते रहे, पर यह खबर दबा दी गई। शायद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को यह जानकारी नहीं है कि गोपनीयता कानून तकनीकी रूप से अब वजूद मे नहीं है। यह कानून अब अस्त्तिवहीन हो चुका है। मीडिया विरोधी अतीतयह कानून सबसे पहले ब्रिटेन में 1889 में मीडिया को दबाने के लिए वजूद में आया था। उसी समय यह भारत में भी लागू कर दिया गया था। हुआ यह था कि 11 साल पहले 1878 में ब्रिटिश फॉरेन सर्विस के एक कर्मी ने मारविन ने रूस और ब्रिटेन के बीच हुए एक करार को लीक कर दिया था, जो कि उस समय ग्लोग मैग्जीन में छपा। पूरी संसद में हंगामा हो गया। पूरे देश में सरकार के खिलाफ चर्चा होने लगी। चूंकि इस समय ऎसा कोई कानून नहीं था इसलिए मारविन को जेल नहीं भेजा जा सका। नया कानून भारत में भी लागू हो गया था, पर इस कानून में कड़े प्रावधान नहीं थे, लिहाजा आजादी के आंदोलन में सक्रिय देशभक्त पत्रकारों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही थी। 1911 में ब्रिटिश संसद ने इसे नया प्रारूप दिया जो कि 1920 में पूरी तरह से लागू किया गया। भारत में इसी कानून को 1923 में ऑफिशियल सीके्रट एक्ट के नाम से लागू किया गया। यह तब से भारत में लागू चला आ रहा है। इसका प्रयोग पंडित नेहरू के कार्यकाल में खासकर 1951-52 के कार्यकाल में बार-बार हुआ। आज सूचना का अधिकार कानून आने के बाद इसका औचित्य नहीं रहा और यह निष्प्रभ हो गया है। भारत के संविधान में पहला संशोधन भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए ही था जो कि नेहरू के कार्यकाल के दौरान ही लाया गया था। इस संशोधन के अंतर्गत अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए तीन निर्बंध शामिल किए गए, जो कि मूल संविधान में नहीं थे। ये संशोधन थे कि लोक व्यवस्था , विदेशी राज्यों के साथ दोस्ताना संबंध और किसी को अपराध के लिए उकसाने पर राज्य मीडिया को अथवा किसी व्यक्ति को अभिव्यक्ति से रोक सकता है। दंडित कर सकता है। इस संविधान संशोधन की भी एक कहानी है। थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास मामले में सरकार को सुप्रीम कोर्ट में उस समय मंुह की खानी पड़ी जब "क्रॉसरोड" अखबार का प्रसार रोकने के लिए राज्य ने एक सर्कुलर जारी किया कि इन जगहों पर इस अखबार का प्रसार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस सर्कुलर को गलत ठहरा दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को प्रभावहीन करने के लिए नेहरू संविधान के इस प्रथम संशोधन को लाए थे, जिसमें अभिव्यक्ति की, मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए लोक-व्यवस्था के निबंüध को शामिल किया गया। इस दौरान 195 अखबारों के खिलाफ कार्रवाई की गई।


rajsthan patrika

२०१५ और मोदी की चुनौतियाँ – बाहर से ज्यादा अन्दर की



चीनी दार्शनिक कन्फ़्यूशियस ने कहा था: “एक अच्छे राजा को तीन चीज़ों की ज़रुरत होती है--रसद, हथियार और प्रजा का विश्वास. अगर एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये कि उसे ये तीनों उपलब्ध न हो सकें और चुनाव करना हो तो उसे पहले रसद छोड़ना चाहिए, उसके बाद हथियार और आखिर में प्रजा का विश्वास.” अगर उस ज़माने में आज के प्रजातंत्र की अवधारणा होती तो शायद कन्फ़्यूशियस यह भी जोड़ते कि प्रजा के विश्वास का मतलब मात्र “बहुसंख्यक का विश्वास या केन्द्रीय या राज्य विधायिकाओं में विश्वासमत हासिल करना” नहीं होता. 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जनता ने विश्वास किया है. इस विश्वास की प्रकृति थोड़ा अलग है. ना तो यह कांग्रेस के नेहरु-इंदिरा शासन काल के दौरान स्वतन्त्रता काल की थकान वाला ऊनीदापन से पैदा होने वाला विश्वास है ना हीं १९७५ के आपातकाल के गुस्से का अस्थाई भाव. ना हीं १९८४ के४ एक नेता की ह्त्या पर उमड़ी शोक-जनित क्षणिक दया का भाव. मोदी के प्रति इस विश्वास में मंदिर-मस्जिद से पैदा साम्प्रदायिक उन्माद अगर था भी तो गौड़ पक्ष की रूप में. सन २०१४ के चुनाव परिणाम इस बात की दस्दीक हैं. यह बात इस तथ्य से भी सिद्ध होती है कि मंदिर उन्माद में भी बहुसंख्यक हिन्दू ने १९९६, १९९८ और १९९९ में भारतीय जनता पार्टी को औसतन मात्र २४ प्रतिशत मत दिए थे जो कि २००४ और २००९ के चुनावों में घटते-घटते १८.८ प्रतिशत तक आ गए थे. २०१४ के चुनाव में अगर पार्टी को ३१ प्रतिशत (या डेढ़ गुने से ज्यादा मत मिले) तो यह किसी भारतीय जनता पार्टी को नहीं सिर्फ मोदी को. जनता में एक बदलते भारत की ऐसी तड़प थी जिसे एक नेतृत्व चाहिये था. याने मोदी की वजह से यह विश्वास नहीं पैदा हुआ बल्कि मोदी इस विश्वास की उपज थे. मोदी में जनता ने एक ऐसा शासक देखा जो निरपेक्षरूप से बेहतर शासन देगा यानि मंदिर बनाने, या धर्म-परिवर्तन के लिए लंपटतावादी सोच बढाने के बजाय विकास करेगा. एक ऐसा शासन जिसमें भ्रष्टाचार नहीं होगा, जहाँ विकास मतलब मात्र सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोत्तरी नहीं होगी बल्कि उस बढ़ोत्तरी का मानव विकास सूचकांक बेहतर करने  से सीधा रिश्ता होगा.
                                             मोदी के पक्ष में तीन स्थितियां
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मोदी के पक्ष में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों करक हैं. २४ साल बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है याने गठबंधन का सही-गलत दबाव नहीं है. अन्तर-राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में जबरदस्त गिरावट का सरकार को सन २०१५ में लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये का फायदा मिलगा जिससे राजकोषीय घटा कम होगा और विदेशी पूंजी निवेश के लिए माहौल बनेगा, अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी. इसके साथ हीं जज्बे से भरा युवा वर्ग तकनीकी रूप से विधेश में अपनी पैठ बनाने में सक्षम हो रहा है और अगले वर्ष कमाया हुआ कोई ९० अरब डॉलर (पांच लाख करोड़ रुपये ) भारत में भेजेगा.
लेकिन नकारात्मक पहलू यह है कि अबकी बार रबी का रकबा कम हुआ है और कृषि उत्पादन कम होने की भारी आशंका है. लिहाज़ा एक जबरदस्त भ्रष्टाचार मुक्त सरकारी मशीनरी की ज़रुरत है जो कि ग्रामीढ़ भारत को इन लाभों को भेज सके और कृषि उत्पादन को नयी दिशा में अग्रसर कर सके. “मेक इन इंडिया” के नारे के तहत लोगों को रोजगार मुहैय्या हो सके. विकास की एक अन्य शर्त है कि देश में माहौल शांत और विकास की ओर उन्मुख हो.   
मोदी के प्रति इन सब का विश्वास है. लेकिन यह विश्वास भी शाश्वत नहीं होता. इसकी भी एक मियाद होती है. ऐसे में अगर प्रधानमंत्री के सामने चुनौतियाँ सन २०१५ में होने वाले दिल्ली और बिहार के चुनाव जीतने की हीं नहीं है बल्कि वह विश्वास भी कायम करने की है जो जनता ने उन पर रखा है. मोदी को भूलना नहीं चाहिए कि ऐसा हीं विश्वास दिल्ली की जनता ने अरविन्द केजरीवाल को दिया था लेकिन छह महीने में वह विश्वास कम होने लगा.
मोदी को यह भी ध्यान रखना होगा कि सन २०१४ के आम चुनाव में जो १० लोग मत देने गए थे उनमें मात्र तीन (३१ प्रतिशत) ने हीं उन्हें अपना समर्थन दिया. ताज़ा झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव इस बात की गवाही हैं कि अगर मुख्य -विपक्ष कांग्रेस का अपने गठबन्धनों को कायम रखती तो परिणाम कुछ और होते.
उदाहरण के लिए बिहार को लें. जहाँ कांग्रेस ने अपनी अदूरदर्शिता का फायदा इन दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को बढ़त दिलाकर दे दिया वहीं बिहार के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों –नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव—ने अपनी वर्षों पुरानी दुश्मनी दफना कर गठबंधन की राजनीति का एक नया आगाज़ किया. इस गठबंधन पर लोगों का विश्वास भी बढ़ा है और इसकी अनुगूंज से उत्तर हीं नहीं दक्षिण भारत की गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दल भी मुतास्सिर हुए बिना नहीं रह सके हैं. एक बार फिर “जनता परिवार” साथ होने लगा है. जो भी राजनीतिक विश्लेषक बिहार को ठीक से समझते हैं वे वह कह सकते हैं अगर कांग्रेस ने “एकला चलो रे” वाली पुरानी भूल ना दोहराई तो २०१५ के उत्तरार्ध में होने वाले विधानसभ चुनाव में मोदी का विजय रथ का घोड़ा यहीं थम जाएगा. जनता परिवार अगर आपसी कलह का शिकार न हुआ तो वोटों का बिखराव रूकेगा. इसके बाद मोदी को राजनीतिक तौर पर लगातार देश के अन्य हिस्सों में चुनौती मिलती रहेगी.
मोदी की जो सबसे बड़ी चुनौती सन २०१५ में रहेगी वह है संघ परिवार से. बाबरी मस्जिद ढहने के बाद के एक नहीं आधे दर्जन आम चुनावों ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दू मूलरूप से उदारवादी है और कट्टरवादी धार्मिक उन्माद से अपने को दूर रखता है. वर्ना देश की ८० प्रतिशत आबादी हिन्दू है फिर भी आज तक इस पार्टी को पिछले ३० सालों के मंदिर आन्दोलन के दौरान औसतन आठ में से दो हिन्दू हीं क्यों वोट देता.
प्रजातंत्र की एक खराबी यह भी है कि सत्ता में जब भी परिवर्तन होता है तो समाज का एक बड़ा लम्पट वर्ग सशक्तिकरण की झूटी एवं स्व-घोषित चेतना से सुसुज्जित हो कर भ्रष्टाचार या अन्य आड़े-तिरछे या कानूनेतर कामों में लिप्त होने लगता है. उदाहरण के तौर पर हाल हीं में एक हिन्दू संगठन के नेता ने गोडसे की मूर्ति लगाये जाने की वकालत करते हुए एक टीवी चैनल के डिस्कशन में तीन बातें कहीं: (१) गाँधी लाखों लोगों के हत्यारे थे (२) नेहरु ने उनकी हत्या कराई थी और (३) इस हिन्दू संगठन ने मोदी और भारतीय जनता पार्टी को २०१४ के चुनाव में जिताने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी. पहली दो बातें तो उस नेता या दल की सोच के निम्न स्तर को समझते हुए ख़ारिज की जा सकती है पर तीसरी बात यह साबित करती है कि प्रधानमंत्री के सुशासन में क्या-क्या अवरोध आने शुरू हो गए हैं और कैसे उनकी विश्वसनीयता घटने की स्थिति तैयार होने लगी है.
मोदी की दूसरी चुनौती यह होगी कि क्या वह इस बात को भूलते हुए कि उनको यहाँ तक लाने में मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अप्रतिम भूमिका रही है, याने क्या वह यह बता सकेंगे कि हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम पांच साल के लिए सड़क बनवाना, फैक्ट्री लगवाना, अस्पतालों या शिक्षण संस्थाओं या रेलवे टिकट बुकिंग में भ्रष्टाचार कम करना, किसान को खाद और पानी मुहैया करवाना मुसलमान को हिन्दू बनाने से ज्यादा प्रभावी और सार्थक कदम होगा क्योंकि गरीब मुसलमान बने या हिन्दू वह गरीब हीं रहेगा.                        
आज़ादी के ६५ साल में यह विश्वास टूटता गया था. हमें लगने लगा था कि ऱाजा पांच साल में एक बार आता है, हमारे मरते विश्वास को “कोरामिन” का इंजेक्शन दे कर कुछ क्षण के लिए जिन्दा करता है और फिर वह शासन (या शोषण) करने चला जाता है. उसने यह मान लिया था कि शोषण उसकी नियति है याने खरबूजा चाकू पर चले या चाकू खरबूजे पर , कटेगा खरबूजा हीं. मोदी को अपना विश्वास दे कर जनता ने यह अपेक्षा की है कि “राजा अपनी तीसरी चीज (जनता का विश्वास) कायम रखेगा.” क्या मोदी इस विश्वास पर खरे उतरेंगे? दूसरी स्थिति यह बन सकती है कि देश सांप्रदायिक रूप विभाजित हो जाये और अल्पसंख्यकों में दहशत का माहौल घर कर जाये. मोदी चुनाव तो जीत जायेंगे पर विश्वास हार जायेंगे. “बगैर विश्वास का राजा” !!!! सोच के हीं डर लगता है. 

lokmat

Tuesday 23 December 2014

झारखंड के परिणाम के मायने ?

झारखण्ड में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बारे में अनुमान लगना कोई राकेट साइंस नहीं था. एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे जो अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की कमियों के बावजूद जनता को लुभा रहे थे तो दूसरी तरफ अवसादग्रस्त कांग्रेस थी और उसके साथ हीं आदिवासी वोटों को बंटती क्षेत्रीय पार्टियाँ थीं.
नए राज्य के रूप १४ सालों में नौ मुख्यमंत्री और तीन बार राष्ट्रपति शासन याने एक शासन काल औसतन १३ महीने का. मानव विकास सूचकांक पर २४वेन पायदान पर. भ्रष्टाचार में कई मुख्यमंत्री जेल में तो कई पर गंभीर आरोप. सारे के सारे आदिवासी मुख्यमंत्री और इनमें से अधिकांश समय भारतीय जनता पार्टी का शासन. फिर भी अगर जनता ने इस पार्टी को चुना तो इसे सामाजशास्त्र और चुनाव शास्त्र के नए पैमाने पर देखना होगा. पूरे चुनाव में लगभग यह भी संकेत मिलते रहे कि भारतीय जनता पार्टी अबकी बार आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं करेगी. फिर मोदी पर इतना विश्वास क्यों?  
इन प्रश्नों के उत्तर जानने के पहले हमें कुछ अन्य तथ्य समझने होंगे. भारत में प्रचलित चुनाव पध्यति -- फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफ पी टी पी)— की एक बड़ी खराबी है किसी पार्टी के पड़े मतों के प्रतिशत और हासिल हुआ सीटों के प्रतिशत में कोई अनुपात नहीं होता. कई बार किसी पार्टी को पिछले चुनाव से ज्यादा मत प्रतिशत मिलते हैं लेकिन सीटें घट जाती है और कई बार मत प्रतिशत कम हो जाता है लेकिन सीटें बढ़ जाती हैं. आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मत मिले ३१ प्रतिशत लेकिन सीटें ५२ प्रतिशत. झारखण्ड में भी यही स्थिति रही है. भारतीय जनता पार्टी की सीटें जीतने और मत प्रतिशत हासिल करने में अनुपात वही नहीं रहा.
यहाँ दो किस्म के विश्लेषण किये जाते हैं. यह बात सहीं है कि आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कुल ८१ सीटों में से ५६ सीटों पर बढ़त मिली थी लेकिन विधान सभा में इन सभी सीटें जीत नहीं रहीं. साथ हीं मत प्रतिशत भी आम चुनाव के मुकाबले १३ प्रतिशत कम रहा. लेकिन तर्क-शास्त्र का तकाजा है कि हम तुलनेय के बीच हीं तुलना करते हैं और इस अधर पर हमें पिछले विधान सभा में बी जी पी की क्या स्थिति रही थी इसके मुकाबले अब की बार पार्टी कहाँ है यह देखना होगा. और तब हम यह कह सकते हैं कि जहाँ झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जी एम् एम् ) ने आदिवासी क्षेत्रों में मोदी के प्रभाव को काफी हद तक प्रभावहीन किया और वह सत्ता में रहने के बावजूद वहीं तमाम आदिवासी नेता चुनाव हारे भी.
इस चुनाव का सबसे बड़े सन्देश यह है कि महज आदिवादी नेता होना अब २८ प्रतिशत आदिवासियों का वोट हासिल करने का दारोमदार नहीं रहा. शायद आदिवादी आज अपने को इन नेताओं द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं.   
झारखण्ड चुनाव के नतीजों को भी इससे चश्में से देखना होगा. एफ पी टी पी के सबसे अच्छे परिणाम तब आते है जब एक तरफ एक मजबूत राजनीतिक दल या नेता की स्वीकार्यता हो तो दूसरी तरफ उतना हीं सुगठित विरोधी एकता हो. इस चुनाव में या आम चुनाव में भी एक तरफ मोदी एक जबरदस्त जन स्वीकार्यता ले कर विकल्प के रूप में रहे तो दूसरी तरह इस स्वीकार्यता को प्रभावहीन करने का विकल्प रहा हीं नहीं. या रहा तो बंटा रहा. आदिवासी नेताओं की अपनी विश्वसनीयता ख़त्म होती गयी और वे आपस में बंटे रहे जिसकी वजह से १४ सालों में मात्र अस्थिरता, भ्रष्टाचार और कुशासन का बोल-बाला रहा.
झारखण्ड आदिवासी बाहुल्य (२८ प्रतिशत) वाला राज्य है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) के आंकड़ों के अनुसार यहाँ हर छह दिन में एक औरत को, जो मनोविकार से पीड़ित है और जिसे मनो-चिकित्सक द्वारा इलाज की दरकार है पत्थरों से या अन्य रूप से सामूहिक तौर पर मार दी जाती है यह मानते हुए कि वह डायन है और पूर गोंव को खा जायेगी. याने समाज का एक वर्ग है जो अभी भी चेतना, अपेक्षित जानकारी और तर्क-शक्ति के स्तर पर बेहद नीचे है और लम्बे समय से शोषण का शिकार रहा है. अलग राज्य की मांग एल लम्बे समय से जाली आ रही थी जिसे १४ साल पहले अंजाम दिया गया. आदिवासी नेता उभरे सत्ता में आये, अधिकांश ने भ्रष्टाचार किया. आदिवासी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए देश के हर कोने का शोषक यहाँ डेरा डालने लगा. नतीज़तन आदिवासियों का प्रतिशत कम होता रहा. गरीबी बढ़ती रही.
ऐसे में जो राजनीतिक व्यवहार शहरी या बाहर से आये वर्ग का हो वही यहाँ के मूल निवासियों यह एक पहेली है. संपन्न शहरी वर्ग या गैर-आदिवासी भी भारतीय जनता पार्टी या उसके नेता नरेन्द्र मोदी को वोट दे और दूसरी तरफ आदिवासी भी इसको चुनाव विज्ञान की दृष्टि से समझना कुछ दुरूह कार्य है.
प्रश्न यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी १४ सालों में ज्यादातर समय शासन में रही और आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, फिर भी अपनी सारी कमियों के बावजूद जनता ने  मोदी पर इतना विश्वास क्यूं किया? इसमें कोई दो राय नहीं है कि झारखण्ड की जनता ने पूरे देश की तरह हीं मोदी को भारतीय जनता पार्टी के नेता के रूप में नहीं बल्कि एक परा-पार्टी नेतृत्व के रूप में देखा याने पार्टी की नकारत्मक छवि मोदी की छवि को धूमिल नहीं कर पाई .
दूसरी ओर जो वर्ग इस पार्टी की कमियों से नाराज था (और वह एक बड़ा वर्ग रहा है) उसे यह नहीं समझ में आ रहा था कि वह किसे विकल्प के रूप में चुने जो मोदी से बेहतर हो. कांग्रेस को पूरे चुनाव के दौरान लकवाग्रस्त पाया गया. बाकि पार्टियों में बिखराव अपनी चरम पर था.
बिहार में नीतीश कुमार ने जहाँ इस स्थिति को पहचान लिया और इस बिखराव को रोकने के लिए और सषक विकल्प देने के लिए अपने धुर –विरोधी लालू प्रसाद यादव से चुनाव के डेढ़ साल पहले हीं हाथ मिला लिया झारखण्ड के गैर-भाजपा नेताओं में यह विवेक नहीं दिखा. कांग्रेस यह कार्य कर सकती थी लेकिन वह कहीं मरणासन्न अवस्था में कोने में सिमटी दिखाई दी .
भारतीय जनता पार्टी की इस जीत के पीछे संघ का वर्षों का कार्य भी एक नियामक भूमिका में रहा है. और अब केंद्र के समर्थन से शायद मोदी और पार्टी की एक-सूत्रीय कार्य होगा नक्सलवाद को ख़त्म करना. इसके लिए जो भी बल  प्रयोग करना पड़े या प्रभावित क्षेत्रों में विकास करना पड़े न नयी सरकार करेगी ताकि देश भर में एक सन्देश जाये और दूसरी और संघ अपने प्रभाव को आदिवासी क्षेत्रों में और विस्तृत कर पाए.
लेकिन मोदी की व्यापक जन-स्वीकार्यता के पीछे का एक कारक और है जो भूलना नहीं चाहिए. वह यह कि जहाँ भी चुनाव हो रहे हैं वहां भाजपा शासन में नहीं रही है इसे एंटी-इन्कोम्बेन्सी का दंश नहीं झेलना पडा है. असली टेस्ट तब होगा जब भाजपा शासन के बाद चुनाव हो.   


lokmat

Sunday 21 December 2014

सांप ट्रेनिंग नहीं मानता, नहीं कोई सांप “अच्छा” होता हैं


सांप ट्रेनिंग नहीं मानता. बीन की धुन पर फन हिलाने का दृश्य धंधे के लिए मदारी करता है. दरअसल सांप के कान हीं नहीं होते तो सुनेगा कैसे, बीन हो चाहे बांसुरी? तीन साल पहले अक्टूबर, २०११ में अमरीकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पाकिस्तान के शीर्ष अधिकारियों से एक बैठक में कहा था कि अपने आँगन में सांप पालोगे और चाहोगे कि “ वह केवल पडोसी (भारत) को (अच्छे तालिबानी की तरह) काटे, यह संभव नहीं है”. सांप बढ़ते गए. पाकिस्तान की गली , मोहल्ले. चौराहे इनसे पटे पड़े हैं. पाकिस्तान की आर्मी अगर पांच लाख सैनिकों की है तो देश में आतंकवादी २.५० लाख से ऊपर पहुँच चुके हैं. इसके तीन गुना सक्रिय समर्थक हैं. बाकि लोग दहशत में इनके सामने सज्दारेज़ हैं.
राष्ट्र और उसके समाज की सम्यक उन्नति की एक शर्त है कि वह कुछ खास लम्हों में सामूहिक सोच में गुणात्मक परिवर्तन करे और संयुक्तरूप से तन के खड़ा हो. इस सोच को विकसित करने में शिक्षा, तर्क-शक्ति, तथ्यों का जन-संवाद के धरातल में पूर्णरूप से आना जरूरी होता है. उधर आतंकवाद के जिंदा रहने की एक हीं शर्त है—व्यकतिगत भय. पेशावर बाल नरसंहार के बाद आज जब थोडा बहुत सामूहिक प्रतिकार की जन चेतना का भाव बनने लगा है तो तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान  ने ताज़ा धमकी दी है कि वे राजनेताओं और सैनिक अधिकारियों के बच्चों को निशाना बनायेंगे.  सामान्य आदमी तो छोडिये, जज, सेनाधिकारी, राजनेता, पुलिस अधिकारी सब के परिवार है, बच्चे हैं और रिटायरमेंट हैं. सांप घर में हीं फुफकारने लगा है.
आज़ादी के पहले २५ सालों यह मात्र छिटपुट कट्टरपंथ के रूप में रहा. लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे यह बढ़ता गया. राज्य अभिकरणों ने इसका इस्तेमाल करना शुरू किया. सैनिक शासकों ने इसका इस्तेमाल भारत और अफ़ग़ानिस्तान के खिलाफ किया तो राजनेता भुट्टो ने एक कदम आगे बाद कर. पाकिस्तान का संविधान १९७३ में औपचारिकरूप से धर्मनिरपेक्ष से धर्म-सापेक्ष हुआ  और इसे एक इस्लामिक राज्य बना दिया गया. एक कदम और बढ़ाते हुए मदरसा शिक्षा को राज्य के नियंत्रण से बाहर कर दिया गया. सैनिक शासक जिया क्यों पीछे रहते. उन्होने मदरसे के शिक्षा हासिल करने वालों को एम् ए के समकक्ष डिग्री की मान्यता देदी. आतंकवाद की पौध लगने लगी. मदरसों की संख्या जो पाकिस्तान की आज़ादी के समय मात्र २४५ थी वह पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सन २००० में ६७६१ हो गयी. आज एक अनुमान के अनुसार आज पाकिस्तान में करीब १२,००० मदरसे हैं जिनमें से ६००० केवल पंजाब सूबे में हैं. विडम्बना यह है कि आज़ादी के ६५ साल में पाकिस्तान की साक्षरता में मात्र १० प्रतिशत की हीं वृद्धि हुई है.
तालिबानीकरण की प्रक्रिया में पहले तो गरीब अपने बच्चों को इस लिए मदरसा भेजता था क्योंकि वहां खाना भी मिलता था और रहने को भी जो सरकार के नियंत्रण वाले औपचारिक विद्यालयों में नहीं उपलब्ध था. सन २००४ में एक बार सरकार ने चाहा कि सरकारी मदद इन मदरसों को बढा दी जाये बशर्ते इनमें अन्य विषयों की शिक्षा भी उपलब्ध हों. मदरसों ने इसे ख़ारिज कर दिया. आज ये मदरसे ना केवल आतंकियों की पौध लगते हैं बल्कि उन्हें एक उद्योग के रूप में तालिबानियों को बेंच कर पैसे कमाते हैं. उधर फाटा क्षेत्र में और उत्तरी एवं दक्षिणी वजीरिस्तान गाँव में सुसाइड बम की बेल्ट बनाने का कुटीर उद्योग बन गया है और इन बेल्टों से लैस आत्मघाती बाल दस्तों को अन्य आतंकी संगठनों को बेंच रहे हैं.
जब सब संस्थाएं ढहने लगती हैं तो एक उम्मीद होती है न्यायपालिका से. लेकिन पाकिस्तान में वह शुरू से हीं कमजोर और मौकापरस्त रही. १९५८ में जब पहली बार गें अय्यूब खान के शासन की वैधता को लेकर मशहूर “दोषी” केस सुप्रीम कोर्ट में आया तो इसे कोर्ट ने बेशर्मी की हद तक जाते हुए इसे  “क्रांतिकारी वैधानिकता का सिद्धांत” बताते हुए सही ठहराया. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर क्रांति सफल हो जाती है तो इसकी वैधानिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है”. जनरल याहिया खान के सत्ता हथियाने को भी अदालत ने १९६९ में “राज्य की ज़रुरत के सिद्धांत” के आधार पर सही माना. जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ भी सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से सही थे. हल्लंकी की बाद में इस शीर्ष कोर्ट का शिकंजा मुशर्रफ पर कसने लगा.      
इस परिप्रेक्ष्य में एक हाल की घटना लें. आसिया बीबी जामुन से छोटा जंगली फल फालसे चुनने वाली एक मजदूर थी. लाहौर के ३० किलोमीटर दूर के एक गोंव के अकेली ईसाई परिवार की सदस्य थी. पडोसी मुसलमान महिला जो साथ में हीं फल चुन रही थी उससे बैर भाव रखती थी. वैसे भी अल्पसंख्यक ईसाई हे दृष्टि से देखे जाते थे. काम के दौरान कुएं से पानी निकाल कर लाने को कहा गया. उसने पानी निकला और पास के बर्तन से उस पानी से थोडा पी लिया. झगडा हुआ कि वह छोटे धर्म को मानने वाली होकर भी पानी के लिए बर्तन कैसे जूठा कर सकती है. बैर रखने वाली महिला ने कहा कि इसने मुहम्मद साहेब की शान में अपशब्द कहे. पाकिस्तान की दंड संहिता की धारा २९५ (ग) जो ईशनिंदा को लेकर बनाया गया है के तहत उसे फांसी की सजा निचली अदालत से हुई. लाहौर उच्चन्यायलय ने इस सजा को बरकरार रखा हालांकि पूरे विश्व के नेताओं ने आसिया को छोड़े जाने की अपील की. उधर एक करोड़ पाकिस्तानियों ने कहा अगर मौका मिला तो आसिया बीबी को वह खुद मौत के घाट उतरेंगे.
अब गौर करें. पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर ने आसिया बीबी की सजा को गलत माना और उससे मिलने जेल चले गए. कुछ दिन में हीं उनके सुरक्षा गार्ड मुमताज़ कादरी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी और मौके पर हीं पकड़ा गया. जज ने उसे फांसी की सजा तो दे दी लेकिन वह इसका अंजाम जानता था लिहाज़ा उसी दिन डर के मारे पाकिस्तान छोड़ कर परिवार के साथ अन्य मुल्क में बस गया. पूरे देश के मुसलामानों का और वकीलों का बड़ा वर्ग कादरी की सजा के खिलाफ खड़ा हो गया. कादरी को हीरो माना जाने लगा. इस्लामाबाद और रावलपिंडी के वकीलों के एक वर्ग ने ऐलान किया कि जिस किसी जज ने इस सजा को बहाल रखा वह ज़िंदा नहीं रहेगा. जब कादरी अदालत में पेश होने जा रहा था तो एक वकील ने कादरी को चूमा. वह वकील कुछ दिन बाद जज बना दिया गया है. आज वह फैसला करता है.
आसिया बीबी को मारने की हसरत रखने वाले, तासीर को मारने वाले, कादरी को हीरो बनाने वाले, पेशावर में स्कूली बच्चों को गोली से भूनने वाले, ईसा मसीह को सूली पर चढाने वाले, सुकरात को ज़हर देने वाले और गलेलिओ को खगौलिक खोज के लिए जेल में डालने वाले – ये सभी एक हीं मानसिकता के रहे हैं, केवल सोच को अमल में लाने के जज्बे का अंतर है.  और ये अपने कृत्य को गलत तो छोडिये एकदम दिल से सही मानते हैं. उन्हें लगता है कि एक बड़ा पुण्य का काम किया जा रहा है उनके द्वारा.
आम- जन तो छोडिये, पाकिस्तान के संविधान, १९७३ के अनुच्छेद ६२ (च) के अनुसार वही मुसलमान सांसद हो सकता है जो इस्लाम की यथोचित शिक्षा रखता हो याने अगर चुनाव अधिकारी उससे किसी कुरान-ए-पाक की आयत बोलने को कहे और वह न जानता हो तो उसका नामांकन हीं रद्द कर सकता है.
ऐसे में एक हीं चारा बचता है भरपूर जनसमर्थन के साथ सैनिक प्रतिष्ठान का दृढ-संकल्प के साथ इसे नेस्तनाबूद करना क्योंकि वही इस तरह के हिंसक उन्माद का मुकाबला कर सकता है. एक बार अगर यह शुरू हो गया तो बाकि संस्थाएं भी तनब कर खडी हो सकती हैं.

lokmat

Sunday 14 December 2014

संघ का भ्रम-द्वन्द और मोदी की परेशानी



छाती ५६ इंच फिर भी संसद के सदनों में घूम-घूम कर माफ़ी की गुहार. आखिर क्यों? डेढ़ साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर आये तब हीं से जनता को लगा कि सड़ी-गली राजनीति का दौर ख़त्म होगा और राजनीतिक संवाद में “पैराडाइम शिफ्ट” होगा. लेकिन क्यों संसद के इस सत्र में   इतिहास में पहली बार दस दिन के अन्दर हीं प्रधानमंत्री को अलावा, सत्तारूढ़ पार्टी के दो (जिसमें एक मंत्री है) और विपक्ष के एक सदस्य को सदन में अपने वक्तव्य  के लिए माफी मांगनी पडी? क्यों संविधान के अभिरक्षण और परिरक्षण की शपथ लेने वाला राज्यपाल मंदिर बनाने की बात कह कर सर्वोच्च न्यायलय में चल रहे विवाद को प्रभावित करता है तो दूसरी तरफ “घर-वापसी” का रेट खोल दिया गया है? बड़ी उम्मीद थी ८७ करोड़ वोटरों को कि विकास होगा, भ्रष्टाचार कम होगा, नौकरी का माहौल पैदा होगा , ट्रेनें समय पर चलेंगी, सदन में बहस होगी तो विकास को लेकर.   लेकिन “आगरा धर्म परिवर्तन” , “रामजादे बनाम हरामजादे” “ताजमहल या तेजोमहालय (शिवमंदिर)” से ऊपर ना तो पार्टी बढ़ पा रही है न मोदी के नेतृत्व की सरकार. पिछले १९० दिनों के शासनकाल में हर तीसरे दिन प्रतीक की राजनीति का सबसे घिनौना चेहरा-- “साम्प्रदायिक वितंडावाद”-- देखने को मिल रहा है.  
यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं. आखिर मोदी की मजबूरी क्या है? और दूसरा क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन हिन्दुत्व की गरिमा को इतना नीचे धकेल रहे हैं? संघ एक विचारवान, वैचारिकरूप से प्रतिबद्ध, अनुशासित और बेहद व्यापक संगठन है. क्या यह अपने लोगों को रोक नहीं पा रहा है या इतनी जल्दी में है कि “युद्ध में सब कुछ जायज है” के भाव में आ गया है और नतीज़तन मोदी की विश्वसनीयता को हीं जाने-अनजाने में आघात पहुंचा रहा है? क्या उचित न होता कि अगले पांच बर्षों तक मोदी को सिर्फ देश के विकास में हीं संलग्न रखते और पूरे समाज को यह सन्देश देते कि “यह होता है सुशासन” और इससे सामाजिक समरसता बढा कर पारस्परिक दुराव से ग्रस्त कई खानों में बंटे हिन्दू समाज को हीं नहीं अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ करते?
धर्म-परिवर्तन का हीं मुद्दा लें. इसमें संघ का भ्रम-द्वन्द साफ़ झलकता है. एक तरफ संघ तथाकथित धर्म-निरपेक्षता के जवाब में बताता रहा है कि दरअसल धर्म और पंथ अलग-अलग हैं. पूजा-पध्यती अलग हो सकती है पर चूंकि हिन्दू या सनातन धर्मं जीवन पध्यती है लिहाज़ा मुसलमान या ईसाई चाहे कोई पूजा-पध्यती रखे वे भी सनातन धर्म के वृहत छाते के हीं अन्दर हैं. सरसंघचालक मोहन भगवत ने हाल हीं में मुसलमानों को भी हिन्दू मान कर इस संघीय अवधारणा पर मुहर लगाई है. अब अगर मुसलमान भी हिन्दू है तो फिर किस की घर वापसी? वह तो घर हीं में हैं न? खाली उसने पूजा-पध्यती हीं तो अलग रखी है. फिर विवाद किस बात का. दूसरा संघ ऐसे सधे और रणनीतिकुशल विचारकों का इतना भौंडा प्रदर्शन कि धर्म-परिवर्तन के लिए चिट्ठी लिखी जाती है यह कहते हुए कि मुसलामन को हिन्दू बनाने में पांच लाख रुपये देने है और ईसाई को हिन्दू बनाने में दो लाख. और यह चिट्ठी भी मीडिया को लीक हो जाती है. संघ के पास अपनी इज्ज़त छिपाने के लिए एक चार-इंच का कपड़ा भी नहीं रह जाता.
फिर किसकी घर वापसी? जो लोग  छोड़ कर गए उसमें अधिकांश तो घर में भी रह कर सदियों तक अछूत हीं रहे था और तभी तो घर बदला था. क्या संघ ने वे कुरीतियाँ ख़त्म कर दी हैं? कितने आन्दोलन संघ द्वारा किये गए हैं हिन्दू धर्म में निचले तबके को  समान अधिकार दिलाने के? लगभग ८८ साल के अपने जीवन में संघ के शीर्ष नेतृत्व में (गुरु जी के काल में)  ने ना तो स्वतान्त्रता आन्दोलन में भाग लिया (हालांकि स्वयंसेवक छटपटाते रहे), न हीं दिल से समाज सुधार की दिशा में कोई सायास कदम उठाये. एकचालाकानुवर्ती (एक नेता द्वारा चालित)  ब्राह्मणवादी व्यवस्था से स्वयं जकडे संघ ने रज्जू भैया के कार्यकाल में “समरसता की कोशिश भी कि तो बेमन ढंग से. शीर्ष नेताओं ने बड़े आडम्बर और लाव-लश्कर के साथ बनारस (वाराणसी) के डोम राजा के घर खाना तो खाया लेकिन अन्य जगहों पर दलितों के यहाँ पानी न पीकर कार में रखी मिनरल वाटर की बोतल से पानी पीते रहे. समरसता का आन्दोलन दृढ- इच्छाशक्ति के अभाव में असफ़लत रहा. हिन्दू समाज के अन्य बुराइया जैसे बाल –विवाह, विधवा प्रताड़ना, दहेज़ परंपरा पर सरकारी कानून के अलावा संघ ने अपनी तरफ से शायद हीं कुछ सार्थक प्रयास किये हों.
ऐसा नहीं हैं कि संघ के पास अच्छे , उदारवादी विचारकों की फौज नहीं हैं पर लगता है कि उनपर वह वर्ग भारी पड़ रहा है जो मोदी की सत्ता की आंच में अपने को सेंकने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है. वर्ना ८९ साल के इस संगठन को क्या यह समझ में नही आ पाया कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक व्याधि है और इसके खिलाफ जनमत बनाना भी इसका हीं काम था ना कि किसी अन्ना हजारे का. ना तो संघ अपना मूल कार्य --हिन्दू धर्म यानि अपने घर को बेहतर  करना ताकि परिवार के सभी सदस्यों को समान दर्ज़ा मिले कर सका --ना हीं भ्रष्टाचार ऐसे सामजिक व्याधि के खिलाफ में चरित्र –निर्माण का बीड़ा उठा पाया. नौ दशक के जीवन काल में संघ एक शाश्वत भाव लेकर चला और वह था “उनका और हमारा “ (अस वर्सेज देंम). आज जब सत्ता साथ में है तो संघ समर्थित एक वर्ग लम्पटवादिता की राह से या उश्रिंखलता के जरिये “घर-वापसी” अभियान चलाया जा रहा. अलीगढ के एक भाजपा सांसद का दावा है कि हजारों ईसाई दिसम्बर २५ को “घर-वापसी” करेंगे. क्या यह संघ से अपेक्षित नहीं था कि पहले वह अपना घर रहने लायक बना ले. घर वापसी की ललक तो सब में रहती है. इसके लिए कोई रेट तय करने की ज़रुरत नहीं होती. 
एक और पक्ष लें. मोदी इतने कमज़ोर रहते तो अपने मन का पार्टी अध्यक्ष ना बना पाते ना हीं पार्टी के दिग्गज नेताओं को हाशिये पर ला सकते. लिहाज़ा अगर उत्तर प्रदेश के उप-चुनाव में कोई गेरुआधारी आदित्यनाथ चुनाव का मुखिया बनाया जाता है तो मोदी के “विकासकर्ता” के स्वरुप पर शक होने लगता है. यह शक तब और भी पुख्ता हो जाता है जब एक कीर्तन करने वाली फर्स्ट-टाइमर सांसद साध्वी निरंजनज्योति इतने विशाल भारत की मंत्री बनाई जाती है और अगले सत्र में हीं वह सदन की गरिमा रसातल में पहुंचाते हुए कहती है कि “या ते रामजादों को वोट दें या हरामजादों को”. शायद कीर्तन सुनने वाले कुछ लोग इस पर ताली बजाते हो पर संसद शर्मसार हो गया.
विडम्बना यह कि मोदी ने उस मंत्री के कहे पर दोनों सदनों में माफ़ी तो मांगी लेकिन फिर वही प्रतीक और अलगाव की राजनीति ! शाम तक पार्टी के प्रवक्ता ने कहा “चूंकि साध्वी दलित वर्ग की हैं (हालाँकि वह अति-पिछड़े वर्ग की हैं) इसलिए विपक्ष उनको लक्षित कर रहा है. प्रधानमंत्री ने अगले दिन हीं इस सधिव को दिल्ली चुनाव प्रचार करने याने उसे अपनी भाषा में बोलने की इज़ाज़त दे दी.

मोदी और संघ को चुनना पडेगा अपना रास्ता. अगर यही रास्ता है तो वह अनैतिक, गैर-प्रजातान्त्रिक , घृणा फ़ैलाने वाला होगा और जनता निराश हो जायेगी क्योंकि मोदी पर उसने अपनी सारी बोली लगा दी थी. वैसे भी ताज़ा सरकारी रिपोर्ट के अनुसार कृषि उत्पादन पांच साल में सबसे कम होगा क्योंकि रबी का रकबा काफी कम हुआ है. इन सात महीनों के शासन काल में मोदी सरकार कम से कम किसानों को प्रोत्साहित कर सकती थी इस रकबे को बढाने के लिए जो नहीं हुआ. अच्छे दिन आयेंगे पर शायद फिर किसी और के लिए.   

prabhat khabar

Friday 12 December 2014

धर्म –स्वातंत्र्य: दबाव में बने अनुच्छेद का प्रावधान बदलें


धर्म-परिवर्तन को लेकर संसद में उठे आगरा के मुद्दे पर कुछ मूल सवाल खड़े होते हैं जो इसकी जड़ में जाने को मजबूर करते है. संविधान सभा में भारतीय संविधान के “धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार” है. इससे सम्बंधित अनुच्छेद २५ (१) में मौलिक अधिकार के रूप में दी गयी “प्रचार करने की स्वतन्त्रता” धर्म परिवर्तन और तज्जनित ६५ साल पुराने विवाद की जड़ है. सभा में हुई बहस को अगर समग्रता में देखा जाये तो यह कहा जा सकता है कि “प्रचार” शब्द दबाव में लाया गया जिसका मकसद अल्पसंख्यको को खुश करने के अलावा कुछ नहीं था. यह भी समझ में आता है कि “खूंटा यहीं गड़ेगा” के भाव में इसके विरोध में आये सभी स्वरों को तिरस्कृत किया गया. 
दिसम्बर ६, १९४८ की बात है (वैसे दिसम्बर ६ अन्य तरह से भी चर्चित रहा है). संविधान सभा में इस अनुच्छेद (उस समय यह अनुच्छेद १९ था) के ड्राफ्ट विषय-वस्तु पर बहस चल रही थी. पीठासीन थे सभा के उपाध्यक्ष और बंगाल के ईसाई नेता डा. हरेन्द्र कुमार मुखर्जी. बहस का पटाक्षेप करते हुए के एम मुंशी  ने कहा “ साफ़-साफ़ कहूँ तो चाहे परिणाम कुछ भी हो हमें एक समझौता करना पडेगा”. अल्पसंख्यक समिति ने पिछले साल (तत्संबंधी) रिपोर्ट के सभी प्रावधानों पर सर्वसम्मति से मोहर लगा दी. इस सर्वसम्मति के कारण बहुसंख्यक समुदाय में भी सौहार्द्र और विश्वास का वातावरण बना लिहाज़ा इस अनुच्छेद में “प्रचार” शब्द बनाये रखना चाहिए ताकि अल्पसंख्यक समिति द्वारा समझौते के रूप में हासिल उपलब्धि को डिस्टर्ब न किया जाये”. 
जैसे हीं सभा के ओडिसा (तब उड़ीसा) से से चुने गए एक सदस्य लोकनाथ मिश्र प्रचार शब्द हटाने के सन्दर्भ में अपनी दलील में तथाकथित “सेकुलरिज्म” के खिलाफ लिखित कागजों से कुछ पढने लगे पंडित जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें रोकते हुए उपाध्यक्ष से पूछा “महोदय, क्या सभा में हस्तलिपि पढ़ने की अनुमति दी जा सकती है?” मुखर्जी ने कहा “मैं आम तौर पर नहीं अनुमति देता लेकिन चूंकि सदस्य का एक खास नज़रिया इस मुद्दे पर है और अगर इससे उन्हें सहजता होती है तो मैं इसकी अनुमति देता हूँ”. इस पर नेहरु ने फिर टोकते हुए पूछा “लेकिन मुद्दा क्या है”? शायद नेहरु का इशारा अनुच्छेद के विषय –वस्तु की जगह सेकुलरिज्म पर बोलने की ओर था. 
इसके कुछ महीने पहले की एक अन्य घटना लें जो यह दर्शाती है कि अल्पसंख्यकों को खुश करने की कवायद में सभी स्वरों को किस कदर नज़रंदाज़ किया गया. अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर बनी उप-समिति ने अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए विधायिकाओं में सीट आरक्षित करने के समान मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी आरक्षण की अनुशंसा की. उप-समिति की अनुशंसा सलाहकार समिति ने मानते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष के पास भेज दी थी. यह लगभग पारित होने हीं जा रही थी लेकिन चूंकि अंग्रेजों ने पाकिस्तान बनाने की पहल स्वीकार कर ली लिहाज़ा इस प्रयास से मुसलमानों को खुश रखने की कवायद स्वतः हीं ख़त्म हो गयी. फिर भी सेकुलरिज्म के नाम पर यह प्रक्रिया जारी रही. 
एक मकाम पर आ कर जून १, १९४९ को संविधान सभा में बोलते हुए संविधान के रचयिता और समिति के अध्यक्ष डा. अम्बेदकर को भी यह कहना पड़ा कि समिति के पास कोई विकल्प नहीं था. वह तो सिद्धांतों में बंधी थी. बाद में भी उन्होंने अपने भाषणों में कहा कि “आप पाएंगे कि समिति ने उन निर्देशों का निष्ठापूर्वक पालन किया जो उन्हें दिए गए थे”. प्रश्न यह है कि किसने उनको निर्देश दिए और क्यों उनका अनुपालन उनकी मजबूरी थी? 
ये घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि किस मानसिकता में और तज्जनित दबाव में संविधान सभा में “प्रचार” शब्द को इस अनुच्छेद में जगह दी  गयी. इस अनुच्छेद को लाने में दो चालाकियां साफ़ दिखाई देती हैं जिसमें कुतर्क का सहारा लिया गया है और जिसे  सर्वोच्च न्यायलय ने स्टेंस्लास बनाम मध्य प्रदेश सरकार में भी गलत ठहराया है. इस अनुच्छेद में प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतन्त्रता और अपने धर्म (या पंथ) को मानने , आचरण करने और साथ हीं प्रचार करने की स्वतन्त्रता का प्रावधान मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया. प्रचार के अधिकार के खिलाफ बोलने वालों को यह कह कर चुप करा दिया गया कि चूंकि अनुच्छेद १९(१) में अभिव्यकी स्वतन्त्रता का अधिकार पहले से हीं सुनिश्चित है लिहाज़ा यह शब्द नहीं होगा तब भी अपने धर्म की अभिव्यक्ति की जा सकती है. लिहाज़ा यह विरोध बेमानी है. 
यह तर्क गलत था. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नागरिकों को है जब कि इस प्रावधान में प्रत्येक व्यक्ति को यानी ईसाई मिशनरियों को भी. दूसरा अभिव्यक्त करना एक बात है और प्रचार करना एक अलग. अभिव्यक्ति में मानने का आग्रह या दबाव नहीं होता जो प्रचार में होता है. धर्म प्रचार की उद्देश्य हीं धर्मान्तरण के लिए प्रेरित करना होता है. संविधान सभा में प्रचार शब्द के पक्ष में बोलने वाले जो ज्यादातर कांग्रेस के लोग थे , यह कहने लगे कि प्रचार का मौलिक अधिकार केवल ईसाईयों या मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि हिन्दुओं के लिए भी है. 
लेकिन यह सब जानते हैं कि हर धर्मानुयाइयों की आर्थिक और सामजिक स्थिति समान नहीं होती. लिहाज़ा यह प्रावधान “लेवल प्लेइंग फील्ड” नहीं देता. यह भी सब जानते हैं कि किस तरह विदेशी पैसे का इस्तेमाल कर ईसाई मिशनरियों ने प्रलोभन दिया और उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों में , आन्ध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में पिछले ७० सालों में गरीब, आदिवासियों का धर्म-परिवर्तन कराया. इसके ठीक उल्टा हिन्दु संगठन में वह आर्थिक ताकत नहीं थी और हिन्दू समुदाय में सुधारवादी आन्दोलन उस तर्ज़ पर नहीं हो पाए थे जिससे गरीबी हिन्दू नौकरी, सम्मान, चिकित्सा और शिक्षा पा सके. प्रचार के माध्यम से वह सब कुछ किया गया जिससे हिन्दू समाज में बिखराव लाया जा सके और तब उन्हें अपना धर्मं बदलने को मजबूर किया जा सके. अगर कमज़ोर तबके का हिन्दू मुसलमान बना तो वह सैकड़ों साल के मुग़ल सत्ता के दबाव में और अगर आदिवासी ईसाई बना तो वह पहले अंग्रेज़ी हुकूमत के दबाव में और आज़ादी के बाद विविध प्रलोभन के वशीभूत होकर. इसके खिलाफ कानून न लाकर देश के शासनकर्ता कई दशाब्दियों तक इसे “धर्म-निरपेक्षता” मानते रहे. 
नतीजा यह हुआ कि मध्य प्रदेश और उड़ीसा में जब धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून लाया गया तो इसके प्रावधानों को ईसाई मिशनरी स्टेंस्लास ने चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायलय में कहा कि प्रचार के अन्दर धर्म-परिवर्तन निहित है. सन १९७७ के फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने स्टेंस्लास के तर्कों को ख़ारिज करते हुए कहा कि प्रचार में धर्म-परिवर्तन निहित नहीं है. इसके बाद अरुणाचल प्रदेश में ने भी धर्म-परिवर्तन के खिलाफ ऐसा कानून बनाया. लेकिन अन्य किसी राज्य ने इस तरह की हिम्मत नहीं दिखाई क्योंकि सत्ता में बैठी हर पार्टी को मुसलमान वोट से वंचित होने का ख़तरा था. यहाँ तक कि देश के स्तर पर भी इमरजेंसी के तत्काल बाद जनता पार्टी से चुने गए लोक सभा सदस्य ओम प्रकास त्यागी ने “धर्म की स्वतन्त्रता” एक प्राइवेट मेम्बर विधेयक नो १७८ , दिसम्बर २, १९७८ में सदन के पटल पर रखा जिसमें दबाव, प्रलोभन, या धोखे से धर्म परिवर्तन को निषिद्ध किया गया था. लेकिन संसद भंग हो गयी और विधेयक स्वतः ख़त्म हो गया. 
आज देश के सामने ना पाकिस्तान बनाने का दबाव है ना हीं किसी वर्ग विशेष को खुश करने की जिद्दोंजेहद. एक सम्यक भाव लेते हुए इस मुद्दे पर सोचना होगा. वरना वोट की राजनीति में और सरकारी दबाव में राजनीतिक दल के चपेट में गरीब वह मुसलमान हो या हिन्दू पिसते रहेंगे. 

jagran

Friday 5 December 2014

सत्य की खोज में खड़ा सिस्टम यादव सिंह के “सत्य” में समाहित हो चुका है


सड़ते सिस्टम में फलते-फूलते यादव सिंह, आखिर निदान क्या है ?

सत्य की खोज पुलिस से शुरू होती हुई मीडिया के रास्ते चलती हुई जांच कमीशनों की दहलीज़ पार कर न्याय की तराजू पकडे अदालत की अंतिम मंजिल तक जाती है. यहाँ भी कई सीढ़ियों पर सत्य की खोज होती है. अगर यह खोज आगे बड़ी भी तो सर्वोच्च न्यायलय की अंतिम चौखट पर जा कर ख़त्म हो जाती है. 
इनकम टैक्स के छापे में उत्तर प्रदेश के नॉएडा प्राधिकरण सहित दो अन्य प्राधिकरणों के इंजिनियर-इन-चीफ यादव सिंह के यहाँ छापे में १००० करोड़ रुपये की अघोषित सम्पति मिलती है (कार में रखे १० करोड़ के कैश सहित) . करीब २० साल से यह व्यक्ति इन सत्य खोजने वाली संस्थाओं को ठेंगा दिखाता हुआ, आउट-ऑफ़-टर्न प्रमोशन पाता हुआ देश की छाती पर मूंग दलता रहा. भारत का संविधान, प्रजातंत्र, कानून की व्यवस्था, सरकार और न्यायपालिका सत्य की खोज में लगे रहे. चुनाव होते रहे , नेता मंत्री बन कर “संविधान औए विधि के शासन” में निष्ठा” दिखाते रहे. देश के यादव सिंह विकास का पैसा लूटते रहे. 
यादव सिंह व्यक्ति नहीं है. एक व्याधि है. मध्य प्रदेश में एक भ्रष्ट और जेल में बंद आई ए एस दंपत्ति उसी व्याधि का मवाद हैं. आखिर हम इसे दूर क्यों नहीं कर पा रहे हैं? यादव सिंह दिक्- काल सापेक्ष नहीं है. एक सरकार इस जूनियर इंजिनियर की  “क्षमता” देख कर इतनी प्रभावित होती है कि उसे यह कहते हुए २० असिस्टेंट इंजिनियरों के ऊपर प्रमोट करती है कि अगले तीन सालों में ये इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर लेंगे. प्रतिस्पर्धी मुलायम सिंह यादव या उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकारें भी उन्ही “क्षमता” से प्रभावित हो कर उसे व्यापक प्रभार दे डालती हैं. इस बीच सत्य की खोज में भटकता सिस्टम अगर कभी यादव सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला सी बी , सी आई डी (राज्य सरकार के अपनी पुलिस से हीं निकली जांच संस्था) को सौपता भी है तो वह जांच में या तो बेहद देरी करती है या आरोपी को पाक साफ़ बता देती है. यादव फिर बड़ी व्याधि के रूप में समाज के शरीर को खाने में लग जाता है. ऐसा वह अकेले हीं नहीं करता. सत्य की खोज में लगी उन सभी संस्थाओं के लोगों को भी बन्दर-बाँट का हिस्सा बनाता है. इनकम टैक्स विभाग को उसकी डायरी में नेताओं और अफसरों के नाम मिलते हैं. 
सत्य की खोज के लिए हीं हमने संविधान प्रदत्त अधिकारों वाली संसद में कानून पास करके दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाब्लिश्मेंट एक्ट के तहत सी बी आई बनाई गयी . पर ताज्जुब हुआ कि इसी सत्य की खोज के लिए रखा गया सी बी आई डायरेक्टर स्वयं कटघरे में दिखा. 
सत्य की खोज में मीडिया की भूमिका वहीं ख़त्म हो जाती है जब अदालत सरकारी संस्थाओं द्वारा लाये “सत्य” का संज्ञान ले लेता है. याने मामला सब -जुडिस (अदालत के जेरे नज़र) हो जाता है. इसके लिए अदालत की अवमानना कानून भी बनाया गया है. अब मान लीजिये नीचे की अदलत ने इस सत्य पर अपना फैसला दिया याने सही या गलत ठहराया तो वह उस काल का अंतिम सत्य होगा. लेकिन अगर दोनों में से किसी पक्ष ने –क्योंकि सरकारी अभियोजन पक्ष भी उतना हीं सत्य की खोज में लगा है जितना आरोपी उसे गलत ठहराने में— ऊपर की अदालत में अपील की तो अब सत्य जानने के लिए फिर रुकना पडेगा. ऐसे तमाम मामले होते हैं जिनमें नीचे की अदालत की सत्य उपर की अदालत न केवल ख़ारिज करे बल्कि उसे उल्टा करते हुए कि नीचे की अदालत “सत्य की बारीकियों को समझ नहीं पाई” ऐसी टिपण्णी करता है. चित्रलेखा बनाम मैसूर , १९६४ में सर्वोच्च अदालत हाई कोर्ट के सत्य को पलट देती है तो वहीं एक अन्य बलात्कार व ह्त्या के मामले में सेशन कोर्ट के सत्य को, जिसमें उसने आरोपी  को कठोर सजा दी थी , इलाहाबाद हाई कोर्ट अपने वाले सत्य से पलट देती है और आरोपी बरी हो जाता है. पर राज्य पुलिस सत्य की तह पहुँचना चाहती है लिहाज़ा अपील में सुप्रीम कोर्ट जाती है. देश की सर्वोच्च अदालत हाई कोर्ट के सत्य को उल्टा करते हुए अपराधी की सजा बहाल करती है याने निचली अदालत का सत्य “अंतिम सत्य” या “परम सत्य”  हो जाता है. याने परम सत्य इस बात पर निर्भर करता है कि आरोपी या पुलिस में उस सत्य के खोज के प्रति सीढी दर सीढी जाने की “कितनी लगन है”. 
ऐसे से में “यादव सिंहों” को पूरा मौका रहता हैं कि अपने “सत्य” की बदौलत अन्य सत्यों को ना केवल जमीन के दस गज नीचे दफना दें बल्कि उनकी कोशिश भी रहती है कि अगर अन्य सत्यों के खोजकर्ताओं को अपने सत्य के साथ जोड़ लें ताकि सत्य एक हो कर अपनी रोशनी से देश का सर्वनाश करता रहे.  मायावती का सत्य , मुलायम सिंह का सत्य और अखिलेश यादव का सत्य , उन तमाम अफसरों व ठेकेदारों का सत्य इसीलिये यादव सिंह के सत्य के साथ “यकसां” हो जाते हैं. यह तो बेडा गर्क हो इनकम टैक्स वालों का कि इनका सत्य यादव के सत्य से अलग हो गया वरना “अपने सत्य” की खातिर यादव सिंह सौ-पचास करोड़ तो ऐसे हीं लुटा देता था. यादव सिंह ने हजारों करोड़ रुपये की लागत से (जनता के पैसे जो प्राधिकरणों में आये थे ) स्कूल, अस्पताल और सड़कें बनवाने के ठेका दिया. यादव सिंह का “सत्य” विस्तृत होता गया और किसी की हिम्मत नहीं होती थे कि उसके सत्य के आगे अपना सत्य खड़ा कर सके. बड़े –बड़े आई ए एस उसके पास अपनी पोस्टिंग के लिए आने लगे क्योंकि सत्ता के शीर्ष बैठे लोगों का सत्य यादव सिंह के सत्य के साथ था.   
श्रद्धा चिट फण्ड केस में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सांसदों का सत्य और चिट फण्ड मालिक का सत्य मिल जाते है लेकिन मुख्यमंत्री इसे बदले की कारवाई कह कर जांच एजेंसियों को केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लगाती हैं. 
सत्य की खोज का अंतिम पड़ाव सुप्रीम कोर्ट है. इसके तीन मुख्य न्यायाधीशों पर और अनेकों न्यायाधीशों पर आरोप लगते रहे हैं. याने सत्य यहाँ भी आकर अंतिम सत्य नहीं रह पाता. फिर ऐसे में हमें यह भी नहीं पता कि “सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, सारी हीं की नारी है कि नारी हीं की सारी है” के भाव में ये सिस्टम यादव सिंहों से हीं बना है या यादव सिंह सिस्टम से बने हैं. ये  कहाँ कहाँ बैठे है. अगर एक यादव सिंह के पास १००० करोड़ रुपये की संपत्ति निकलती है तो सारे यादवों जो पूरे सिस्टम में, सिस्टम से बाहर या सिस्टम को दबाते हुए बैठे हैं, के पास कितना “सत्य” है. अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार के आंकलन के अनुसार अगर देश में ब्लैक मनी ने होता तो हनारी प्रति व्यक्ति आय यूरोप के कई समृद्ध देशों के बराबर होती. लेकिन क्या किया जाये संविधान कहता है “हम भारत के लोग” और हमारे कानून , हमारी संस्थाएं और उनमें लगे लोग सभी “सत्य” की खोज में लगे है. यादव सिंह का सत्य सभी अन्य सत्यों को अपने में समाहित करता जा रहा है कई स्तर पर. 

jagran, lokmat

Wednesday 26 November 2014

मोदी के छह माह: उम्मीद बरकरार है


“रही न ताकते-गुफ्तार (बात करने की शक्ति), और अगर हो भी तो,
किस उम्मीद से कहिये, कि आरज़ू क्या है” ---मिर्ज़ा ग़ालिब
आज से कुछ महीने पहले तक समाज इसी “कोई नृप हो हीं, हमें का हानि” के भाव में था. लेकिन एक नेता के आने से ताकते-गुफ्तार भी आ गयी, आरजू भी बन गयी और उम्मीद भी बंध गयी. लेकिन ये भाव हैं , शाश्वत नहीं रहते.
किसी भी व्यक्ति, काल-खंड, शासन या घटना के निरपेक्ष विश्लेषण के लिए तत्कालीन कारकों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी होता है. ऐसा न होने पर वह विश्लेषण “चुनिन्दा तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष” (सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन) के तर्क दोष का शिकार होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्य-काल का छह माह २६ नवम्बर को पूरा हुआ. कहा जा सकता है कि आंकलन के लिए यह समय कम है भारत जैसे ३२.८ लाख वर्ग किलोमीटर, १२५ करोड़ की आबादी और सैकड़ों परस्पर विरोधी पहचान समूहों वाले देश में. परन्तु इन १८० दिनों में अगर सफाई एक जन-अभियान बन सकता है तो शासन की दशा-दिशा भी दिखाई डी जानी चाहिए और उसका विश्लेषण भी  किया जाना चाहिए. यह और भी आसान होता है अगर पूर्ववर्ती शासन काल में क्षमताएं कम रहीं हों या विकास (मानव विकास के स्तर पर ना कि खोखले आर्थिक विकास के आंकड़ों के आधार पर) का पैमाना काफी गिर चुका हो.
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि पूरे देश में माहौल बदला है. राजनीतिक वर्ग को लेकर जो विश्वास का संकट बन गया था और लोग “कुछ भी नहीं होगा” के भाव में थे , वे आज कहने लगे हैं कि कुछ हो रहा है.
मोदी के छह माह के कार्यकाल में यह आशा कि “देश बदलेगा”  न केवल बरकरार रहा है बल्कि बढा भी है. साथ हीं समाज जडत्व की गर्त से निकल कर सोचने लगा है. अब जब दिल्ली की सडकों पर कार की खिड़की से तथाकथित पढ़ा-लिखा व्यक्ति कूड़ा सड़क पर फेंकता है तो देखने लगता है कि कोई उसे घूर कर देख रहा है. इस सोच की सबसे महत्व पूर्ण पहलू यह है यह ज्यामितीय विस्तार के साथ फैलता है. सामूहिक सोच के नियति होती है कि उसमें “खरबूजे को देख कर” बाकि खरबूजे भी रंग बदलने लगते है.
पर यहाँ विश्लेषण पाक्षिक हो जाएगा अगर हम किसी राजनीतक नेतृत्व के मूल कार्यों का आंकलन न करें. “आशा” , उम्मीद” “उत्साह” आदि मात्र भाव होते हैं. सफाई के प्रति सजग रहना समाज के उत्साह और नेतृत्व के प्रति विश्वास की उपज है. और इसी विश्वास से नरेन्द्र मोदी को (ना कि भारतीय जनता पार्टी को) वोट मिले थे. जनता के मन की बात और मोदी के मन की बात में एक तादात्म्य और सादृश्यता हुई और भाजपा का वोट प्रतिशत लम्बी छलांग लगा कर १८.८ प्रतिशत से ३१.१ प्रतिशत पहुंचा था. अब मोदी से “मन की बात” की जगह “काम की बात” अपेक्षित है. जब कूड़ा साफ़ करने के लिए जनता झाड़ू लगाती है तो यह भी जानना चाहती है कि इस कूड़े को कहाँ फेंका जाये. और यह कार्य सरकार का (याने राज्य अभिकरणों) का है. लब्बो-लुआब यह कि जनता ने उस परिवर्तन में अपनी भूमिका निभाना शुरू कर दिया है लेकिन यह भाव क्षणिक सकारात्मक उद्वेग न होकर शाश्वत भाव तभी बन पायेगा जब राज्य और उसके जंग लगे भ्रष्ट अभिकरण भी इस क्रांतिकारी परिवर्तन को अपने अन्दर लायें. और यह गुरुतर काम भी मोदी को हीं करना है. दो दिन कूड़ा सही जगह फेंकने के बाद अगर जनता यह पायेगी कि कूड़ा वहीं पड़ा है और कोई नगर पालिका की गाड़ी उसे उठाने नहीं आयी तो वह भी जल्द हीं यथा-स्थिति के भाव में फिर आ जाएगी.
निरपेक्ष विश्लेषण के लिए विश्लेषक को भाव –शून्य होना पड़ता है. विश्लेषक जनता की तरह नहीं सोचता. अगर यह सत्य भी हो तो भी  “मोदी अच्छे हैं” के भाव में निरपेक्ष और वस्तुपरक विश्लेषण नहीं हो सकता. एक आलोचनात्मक सोच ज़रूरी होता है. मोदी से अपेक्षाएं क्या है-- “सरकार भ्रष्टाचार ख़त्म करे, सरकारी अमले की क्षमता बड़े, आर्थिक विकास का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाया जाये और काले धन को न सिर्फ विदेश से लाये जाये बल्कि इसकी पैदाइश हीं न हो ऐसे उपक्रम किया जाये”.
देश में २.४० करोड़ लोग ट्रेन पर सफ़र करते है. इनमें लाखों लोग रिजर्वेशन के लिए घूस देते हैं. रेलवे रिजर्वेशन में घूस ख़त्म करना कोई पंचवर्षीय योजना से नहीं , बल्कि मात्र रेलमंत्री व रेलवे बोर्ड के कुछ अफसरों की हफ्ते भर की दृढ इच्छा-शक्ति से संभव हो सकता है और पूरे देश में प्रधानमंत्री को लेकर आशा विश्वास में बदल सकती है. क्या यह उचित नहीं कि यह काम पहले किया जाये और सडकों और योजनाओं का नाम बदलने का काम फिलहाल रोक दिया जाये. मैक्स मुलर रोड को अगर दीनदयाल उपाध्याय मार्ग बना दिया जाये तो गरीब के पेट में रोटी नहीं पहुंचेगी. “हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा” या “आर्य भारत के थे या बाहर से आये”, “संस्कृत पढ़ायें या जर्मन”, “नेहरु बड़े थे या पटेल” क्या कुछ दिनों के लिए रोक कर काला धन पूर्णतः रोकना क्या ज्यादा उपादेय नहीं होता?
छह महीने याने १८० दिन या २,५९,२०० मिनट. मोदी की अपील होती है कि हर देशवासी अगर एक कदम चले तो देश १२४ करोड़ कदम आगे बढ़ जाएगा. अगर इन २,५९,२०० मिनट में सरकार दस कदम भी प्रति मिनट चलती तो देश की अपेक्षाएं फलीभूत होने की दिशा में मोदी सरकार २५९२ किलोमीटर चल चुकी होती.
प्रतीक की राजनीति उत्प्रेरक का कार्य करती है. प्रारंभिक दौर में इसके ज़रुरत होती है ताकि समाज मुतासिर हो, झाड़ू हाथ में लेले. परन्तु सरकार बनाने के लिए जब जनता मत देती है तो वह समाजसुधारक को नहीं बल्कि एक ऐसे राजनेता को देते है जो राज्य और उसके अभिकरणों को जन-अपेक्षाओं  के अनुरूप कार्य करने को मजबूर करे. अब समय आ गया है कि सरकार के कार्य दृष्टिगोचर भो हों. नीतियां बने हीं नहीं , काले धन की पैदाइश पर भी आघात हो.
माहौल बदला है. वर्षों पुराने मिशन वाले प्रयास के तहत मंगल-ग्रह पर एक हीं कोशिश में पहुँचाना या गत जुलाई माह में आये  जी डी पी विकास दर वृद्धि को भी लोगों ने मोदी जी  का प्रयास माना क्योंकि उन पर हीं विश्वास था. लेकिन इसे जगाये रखने के लिए प्रतीक की राजनीति से हट कर काफी कुछ करना होगा.          
देश में हीं नहीं , विदेश में भी भारत के प्रति रवैया बदला है. यह हमारे विकास को चार चाँद लगा सकता है बशर्ते राज्य अभिकरण अपना चरित्र बदलें और समाज अपना. समाज तो अपना बदल रहा है और कुछ हद तक सरकार भी पर अभी नीतियों या क्षमता के स्तर पर यह बदलाव धरती पर नहीं दिखाई दे रहा है. फिर भी उम्मीद है कि मोदी देश को बदलेंगे.
आज़ादी के ६५ साल में भारतीय समाज ने अपेक्षाएं रखना भी छोड़ दिया था और नैराश्य शाश्वत भाव में आ गयी थी. सरकारों, सत्ताधारियों और राजनीतिक वर्ग के प्रति एक घोर अविश्वास का भाव घर कर गया था. किसी समाज में ऐसे भाव आना बेहद खतरनाक होता है. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिस तरह अचानक समाज जगा तो लगा कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है.  के बाद यह लगने लगा
फिर आज देश  लेकिन अगर घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था, ट्रेन चल रही थी, पैसे खा के भी  सड़क बन रही थी और मोबाइल गाँव तक पहुंचा था तो कहीं लगता था कि समाज में हीं कोई पांच प्रतिशत ऐसा वर्ग है जो आज भी काम करता जा रहा है. ऐसे में एक नेतृत्व आता है और इस पांच प्रतिशत को ५० प्रतिशत तक विस्तारित करता है कम से कम आशा के भाव में लाता है.    

मोदी हीं एक ऐसे नेता हैं जो सोचते हैं , विकास के प्रति एक ललक है और अद्भुत वाक्-, कार्य – व संकल्प-शक्ति है जो सहज में विश्वास पैदा करती है. इस आशा, उम्मीद और आरजू को फलीभूत करने में कुछ उपक्रम हुआ भी है पर इसकी रफ़्तार बढ़नी होगी.

lokmat 

गलती रामपाल या आश्रम की नहीं, समाज के अवैज्ञानिक सोच है


पिछले एक सप्ताह में तीन घटनाएँ हुई जो भारतीय समाज की पैथोलॉजी को प्रदर्शित करती हैं. एक तथाकथित “संत” रामपाल ने अपने भक्तों या भक्तनुमा हथियारनुमा गुंडों  के साथ पूरे संविधान, कानून और संप्रभुता को चुनौती दी   और सरकार को  नाकों चने चबवा दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में खाप पंचायत के मुखिया ने करीब ५० गाँव के लोगों के बीच आदेश दिया कि “अगर तुम्हारी बेटी किसी अन्य जाति या समान गोत्र के किसी व्यक्ति से शादी करने की बात करती है तो पहले उसे समझाओ और अगर ना माने तो उसे “गंगा दिखा दो” (मतलब उसे गगा में डूबा दो). इस फरमान को वहां बैठे सैकड़ों गाँव वालों ने न केवल सराहा बल्कि उसके अनुपालन का वायदा भी किया. उसी दिन एक माँ-बाप ने देश की राजधानी दिल्ली में अपनी बेटी को जो उनकी मर्जी के खिलाफ गैर जाति के एक युवा से शादी की, हत्या कर दी. तीसरी घटना में बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि अगर बिहार के विकास में केंद्र से मदद नहीं दिलाई तो राज्य के सात केन्द्रीय मंत्रियों को बिहार में घुसने नहीं दिया जाएगा.
“संत” रामपाल पर हत्या का मुकदमा था और अदालत ने उसे हाज़िर होने का आदेश दिया था. रामपाल ने आदेश मानने से इनकार किया और इस “संत” के गुर्गों ने तमाम राज्यों में फैले भक्तों को जिसमें औरतें और बच्चे भी थे , यह कह कर बुलाया था कि “संत” जी का प्रवचन है और उनका आशीर्वाद भक्तों पर समागम के दौरान बरसेगा. ये भक्त इस संत में भगवान् का अक्स   देखते थे. संत पहले जूनियर इंजिनियर था और उसे मालूम होगा कि संविधान और भारतीय दंड संहिता में “संत” के लिए कोई अलग से प्रावधान नहीं है. खाप पंचायत के मुखियाओं को भी मालूम है कि अपने गोत्र में या गैर-जाति के व्यक्ति से शादी की जिद करने वाली बेटी को गंगा में डुबाना ह्त्या है जो कानूनी रूप से जुर्म है. मुख्यमंत्री मांझी ने भी मुख्यमंत्री पद   की शपथ लेते वक्त संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा की शपथ ली थी. और संविधान या तज्जनित कानून में उनके राज्य का विकास ने करने के कारण केंद्र के किसी मंत्री को राज्य में न घुसने देने का कोई प्रावधान नहीं है.
इन तीनों घटनाओं के सूत्रधार वे चाहे रामपाल के “भोले” भक्त हो या खाप का मुखिया या मुख्यमंत्री चेतना का  एक समान स्तर देखने को मिलता है. क्यों कोई व्यक्ति किसी “बाबा” में ईश्वर देखने लगता है और फिर अपनी बेटी को बाबा के आश्रम में छोड़ देता है, पढ़ने के लिए? जिस देश  में गीता ऐसा ग्रन्थ हो वहां  क्योंकि चलती हैं बाबाओं की दूकाने? धर्म में आस्था तो समझ में आती  है पर किसी व्यक्ति में आस्था क्यों? एक बाबा अपने भक्तों को शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे काले कुत्ते को पीला चना खिलाने  को कहता है और फिर ईश्वरीय आश्वासन देता   है कि तुम्हारे बेटे की नौकरी लग जायेगी. पडोसी के नुक्सान के लिए नवरात्रि के दिनों में कटा नीबू अक्सर चौराहों पर देखा जा सकता है. क्या दो हज़ार साल बाद भी हम जंगल से बाहर नहीं निकल पाए हैं? आज भी क्यों झारखण्ड में हर सात दिन में मनोविकार से पीड़ित कोई औरत को जो भटकते हुए दूसरे दूर के गाँव में चली आती है, पत्थर से मार दिया जाता है यह मान कर कि डायन है , पूरे गाँव को खाने आयी है.
इसमें आर्थिक स्तर, शिक्षा या समृद्धि से कोई अंतर नहीं पड़ता. एक मंत्री अपने ज्योतिषी के कहने पर ३.३७ बजे हीं शपथ लेता है क्योंकि उसका मानना है कि ज्योतिष की बात मानाने से हीं वह यहाँ तक पहुंचा है. उस ज्योतिषी में उसकी अटूट आस्था है. कई  बड़े आई ए एस अधिकारियों को एक बाबा में आस्था है. नतीज़तन, पूरा अमला हर हफ्ते उस बाबा के आश्रम में हाँथ बांधे खड़ा रहता है क्योंकि वह अधिकारी भी बाबा के पैर पर गिर कर अगली पोस्टिंग के लिए  आशीर्वाद लेना चाहता है. हाल हीं में ऐसे हीं एक अधिकारी को एक बाबा ने एक देवी के   मंदिर में बली चढाने का आदेश दिया और अगली फ्लाइट से हीं वह पूरे परिवार के साथ वहां पहुँच गया. चम्बल के डाकू भी डाका डालने जाने के पहले काली मंदिर में पूजा करते रहे हैं. रामपाल के “भक्तों” ने जिस तरह संविधान की धज्जी उड़ाते हुए पुलिस पर पेट्रोल बम फेंके क्या इस अफसर से डर नहीं है कि छिप कर हीं सही यह भी अपनी “आस्था के प्रतीक “ बाबा के कहने पर “अमुक भक्त का प्रमोशन “ और अमुक भक्त के दुश्मन पड़ोसी के खिलाफ मुक़दमा” कर जेल ना भेजे. आखिर “श्रद्धा” भी तो कोई चीज होती है और फिर “बाबा” की आज्ञां भी तो ईश्वर की हीं आज्ञा है !!
कभी बजरंग बली के या विन्ध्याचल मंदिर में जाएँ तो पाएंगे कि तमाम अधिकारी अपनी नीली बत्ती गाड़ी के साथ पूजा अर्चना करने आते हैं. बाकी भक्तों को रोक दिया जाता है. जैसे नीली बत्ती और देवी में कोई अलग रिश्ता है.
आखिर क्या हो गया है इस हिन्दू समाज को? कौन रोकेगा इन धर्मे के ठेकेदारों को जिनमें अक्सर बलात्कारी मिलते हैं. आसाराम के केस लें. उस पर बलात्कार के आरोप कई बार लगे. मीडिया ने साक्ष्य न होने के कारण आवाज में वह बुलंदी नहीं दिखाई. लेकिन आखिरी बार जब ऐसा ही आरोप लगा तो मध्य प्रदेश व राजस्थान में चुनाव था. एक पार्टी के नेता ने इस बाबा को सचरित्र होने का सर्टिफिकेट दिया क्योंकि उस प्रदेश में बाबा के भक्त बड़ी संख्या में थे. फिर राजस्थान की कांग्रेस सरकार क्यों पीछे रहती. वहाँ भी चुनाव था और बाबा के भक्त भी. वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा बाबा को गिरफ्तार करने का सवाल हीं नहीं उठता. चार दिन यह नाटक चलता रहा क्योंकि बाबा के वोट इन दलों को चाहिए थे. तब मीडिया को अपनी आवाज तेज करनी पडी और बाबा आज महीनों से दूसरों का भाग्य तो छोडिये अपना भाग्य भी नहीं संवार पा रहा है.
समस्या रामपाल या आसाराम की नहीं है. ये तो उस कुत्सित सोच की पैदाइश है जिसमें हम इनके पास बेटे की नौकरी के लिए जाते हैं, या प्रमोशन के लिए पैर पड़ते हैं. समस्या उस गैर-वज्ञानिक सोच की है जिसमें हम सरकारी गाड़ी से मंगलवार को बजरंग बलि के दर्शन करते हैं. क्या शनिवार के दिन काले कुत्ते को पीला चना खिलने पर काम बनाने का ईश्वरीय आदेश देने वाले बाबा की गलती है या उसकी जो वहां इस आशय से गया है. अगर समाज बेवकूफ है तो इसे लूटने वाले , इसकी बेटियों से बलात्कार करने वाले बाबा को गलत कह कर क्या  बचा जा सकता है?      
हमें अपनी वैज्ञानिक सोच बनाने वाली संस्थाओं को तेज़ी से विकसित करना होगा. पाकिस्तान यह नहीं कर सका नतीजतन गरीबी की मार झेल्र रहे माँ-बाप अपने बच्चे को कुछ पैसे लेकर धर्म से ओतप्रोत आतंकी संगठनों को दे देते हैं ताकि वह “अल्लाह” के काम आ सके. ये बच्चे कुछ दिनों की ट्रेनिंग ले कर आत्मघाती दस्ते में शामिल हो जाते हैं और मरते दम तक वे बच्चे या उनके माँ-बाप यही मानते कि अल्लाह के काम के लिए मरना  सबसे बड़ी इबादत है 

देश के जनमानस में वैज्ञानिक सोच विकसित किये बगैर सारा आर्थिक विकास बेमानी हो सकता है 

lokmat

झारखण्ड: आखिर विकास न होने के पीछे कौन ?


           
झारखण्ड के किसी पत्रकार मित्र ने मुझे सन २०१२ की राज्य सरकार की डायरी दी. इस डायरी के अंत में राज्य का नक्शा दिया गया है जो उलटा है. राज्य का क्षेत्रफल ७९ हज़ार किलोमीटर दिया है (जो पढ़ने में ७९.७२३ किलो मीटर लगता है और वर्ग शब्द गायब है). राज्य के हीं जिले पलामू का क्षेत्रफल इस डायरी में ८४ हज़ार किलोमीटर. याने राज्य से ज्यादा जीजे का क्षेत्रफल.  इसमें भी वर्ग शब्द नदारत है. यह डायरी अन्य राज्यों की डायरी से ज्यादा महंगी दिखाई देती है. यह उदाहरण महज इस बात का परिचायक है कि राज्य अभिकरण अपने काम के प्रति कितना गैर-ज़िम्मेंदाराना रवैया रखते हैं.
किसी राजनीतिक –सामाजिक विश्लेषक के लिए झारखण्ड की वर्तमान स्थिति एक अबूझ पहेली है. जन-चेतना के स्तर पर देखा जाये या सामूहिक क्रियाशीलता के स्तर पर परखा जाये तो शायद इस क्षेत्र के आदिवासी किसी भी पड़े –लिखे और तज्जनित अधिकार के प्रति सजग अन्य भारतीय समाज से ज्यादा आगे दिखाई देंगे. अंग्रेजों के खिलाफ और गैर-जनजाति लोगों द्वारा शोषण के खिलाफ बिरसा मुंडा के आन्दोलन से लेकर सिबू सोरेन के पृथक राज्य के आन्दोलन तक इस आदिवासी समाज में अद्भुत चेतना का मुजाहरा होता है. लेकिन फिर कहाँ फंस गया इस क्षेत्र की विकास ? 
झारखण्ड को पृथक राज्य बने आज १४ साल हो गए. इसे पृथक राज्य बनाने के पीछे एक लम्बा इतिहास है. या यूं कहें कि अगर भारत में कोई एक क्षेत्र अपनी अस्मिता (जिसमें पृथक राज्य बनाने की मांग भी शामिल है) के लिए सबसे लम्बी लड़ाई लड़ा और सबसे ज्यादा कुर्बानी दी तो वह झारखण्ड था. सम्माजिक-सामूहिक चेतना के स्तर पर १४ साल पहले आज के दिन हीं जिन दो अन्य क्षेत्रों को राज्य का दर्ज़ा मिला वे थे छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड. छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में काफी समानता है. दोनों आदिवासी क्षेत्र है दोनों में नक्सलवाद अपनी चरम सीमा पर है. पर दोनों के विकास में जबरदस्त असमानता है. झारखण्ड में औसतन हर दो साल पर मुख्यमंत्री बदल जाता है और एक जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है, जबकि जबकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर रही है. मानव विकास सूचकांक में भी दोनों राज्यों में जमीन- आसमान का अंतर है. इस राज्य में १४ साल में १२ बार सरकारें बदली, तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा और तीन-तीन बार शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा ने अपनी पारी खेली और बाकी समय बाबू लाल मरांडी, मधु कोड़ा और हेमंत सोरेन के बीच राज्य अस्थिरता में झूलता रहा. याने कोई भी एक शासन औसतन साल भर हीं रह पाया. मधु कोड़ा और सिबू सोरेन पर भ्रष्टाचार और अन्य आपराधिक मामले भी रहे हैं. नए राज्य की रूप में जन्म से आज तक इस राज्य में केवल आदिवासी हीं मुख्यमंत्री बने हैं या फिर अस्थिरता की वजह से राष्ट्रपति शासन रहा है.  
राजनीति-शास्त्र की सामान्य अवधारणा है कि किसी अशिक्षित और मुख्यधारा से कटे समाज के तीव्र विकास के लिए बेहतर होता है उन्हें स्व-शासन देना. भारत की आज़ादी के पीछे भी मूल तर्क यही था. जंगल या आदिवासी समाज को स्व-शासी बनाने के पीछे भी यही तर्क रहता है यह मानते हुआ कि अन्य वर्ग से आया शासक उसका शोषण करता है. आदिवासी शासक उनकी मूल-समस्या से वाकिफ होता है और तब शोषण की संभावना क्षीण हो जाती है.
लेकिन शायद आदिवासी चेतना की गुणवत्ता को समझने में भूल हुई. १५० साल पहले का १५ साल लंबा बिरसा मुंडा का आन्दोलन जो सन १९०० तक चला वह “बिरसा भगवान्” के प्रति आदिवासियों की निष्ठां का आक्रामक प्रगटीकरण था. अभी हाल तक कुछ इलाकों में शीबू सोरेन में भी ईश्वरीय अंश वहां के आदिवासियों के एक वर्ग देखता है. “शीबू भगवान की माया है कभी गाँव में दिखाई देते है तो कभी उसी समय दिल्ली में”, इस तरह के किस्से आम हैं अपने नेता के बारे में. राजा में ईश्वरीय गुण प्रतिष्ठापित करना प्रजा के सिस्टेमेटिक शोषण का पहला सोपान होता है. लिहाज़ा कोई सोरेन या कोई कोड़ा अगर सभी समाज के पैरामीटर से भ्रष्टाचार का दोषी मन जाता है तो गलती ना तो किसी सिबू या कोड़ा की है ना हीं अपने लीडर में भगवान् का अंश देखने वाले आदिवासी की. समस्या है उस उस राजनीतिक वर्ग की जो आज तक उस आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ नही पाया या जोड़ना नहीं चाहता और उनके वोटों से जीते किसी मुंडा, किसी सोरेन या किसी कोड़ा को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए इस्तेमाल करता रहा है. कोई भ्रष्ट कोड़ा उसके लिया फायदे का सौदा है क्योंकि वह कमज़ोर होगा कोई अपेक्षाकृत  ईमानदार बाबू  लाल मरांडी उसके सिस्टम को रास नहीं आता.
यही कारण है कि पूरे जंगल में रहने वाले आदिवासियों की तमाम पहचान समूहों में बाँट दिया गया है और फिर कोशिश यह की गयी है कि कोई बिरसा मुंडा जैसी सर्व-स्वीकार्यता न हासिल कर पाए. लिहाज़ा मुंडा आदिवासियों का अलग पहचान समूह बन गया तो उराओं पहले हीं से अलग कर दिए गए. अब मांग यह उठ रही है कि अगर राज्य में मात्र २९ प्रतिशत हीं आदिवासी है तो फिर आदिवासी हीं मुख्यमंत्री क्यों? शेष ७२ प्रतिशत (उसमें बाहरी वर्ग के तर्क के हिसाब से १२ प्रतिशत और १३.५ प्रतिशत मुसलमान भी शामिल है) तो गैर-आदिवासी है. भारतीय जनता पार्टी के यशवंत सिन्हा आदि इसे तर्क पर अपने मुख्यमंत्री पद के दावे को हवा दे रहा हैं. 
कहना ना होगा कि जिस आधार पर यह राज्य बना था और जिन लोगों की कुर्बानियों से बना था उसके आसपास भी यह बाहरी वर्ग नहीं था बल्कि दरअसल इन्हीं के शोषण के खिलाफ समूचा आदिवासी आन्दोलन था. लिहाज़ा ज़रुरत यह नहीं है कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बने बल्कि आदिवासियों में हीं नए युवा और अच्छी छवि के नेता उभारे जाएँ. वे ऐसे नेता हों जो विकास और ‘भ्रष्टाचार –जनित व्यक्तिगत “विकास” में अंतर समझ सकें और भ्रष्टाचार को कानूनी हीं नहीं नैतिक अपराध भी समझें, दल –बदलने के लिए पैसा ना लें. याने अभी भी आदिवासी समाज में और उनके नेतृत्व में चेतना की गुणवत्ता बढानी   होगी ताकि वे समझ सकें कि पैसे ले कर पार्टी नहीं बदली जाती या राज्य सभा के प्रत्याशी को वोट नहीं दिया जाता (हालांकि कि इसमें आदिवासी विधायकों से ज्यादा गैर-आदिवासी विधायक शामिल हैं). नक्सलवाद जो इस चेतना को जगाना तो दूर शोषण का एक नया पर्याय बन गया है , से  निपटने के लिए राज्य-अभिकरणों का नेतृत्व करने वाले लोगों में, जो मुख्यरूप से आदिवासी समाज से हों एक नयी इच्छा –शक्ति और नयी समझ की ज़रुरत है. नेतृत्व की इच्छा –शक्ति, राज्य-शक्ति का साथ और आदिवासियों का विश्वास हीं नक्सली दंश को ख़त्म कर सकेगा. समझ इसलिए कि अफसरशाही डायरी को भी अन्यमनस्क ढंग से ना छपे और सरकारी पैसे की क़द्र समझे.  


 lokmat