Tuesday 15 October 2013

आपदा/भीड़ प्रबंधन और सरकारों की आपराधिक उदासीनता



 दो दिन पहले से कल दिन तक २४ घंटे के भीतर  दो घटनाएँ हुई जिनमें राज्य और उसके तंत्र की बड़ी भूमिका अपेक्षित थी. पहला था ओडिसा का समुद्री तूफ़ान जिसकी गति ६२ मीटर प्रति सेकंड थी और जिसमें बड़े से बड़े मकान को गिराने की क्षमता रही. दूसरी घटना थी दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर में आई श्रद्धालुओं की भीड़ में हुई भगदड़ जिसमें ११५ लोग मारे गए. इसके आलावा हाल में हीं एक और घटना थी केदारनाथ में हुई प्राकृतिक आपदा जिसमें हजारों जाने गयीं. तीनों घटनाओं के चरित्र और राज्य अभिकरणों की भूमिका का विश्लेषण करने से कुछ नए तथ्य सामने आये हैं. तीनों घटनाओं को देखने की बाद जो सबसे खास बात नज़र आई वह यह कि सरकार के अभिकरण अगर पहले से जाग जाये तो बड़ी से बड़ी आपदा से बिना किसी जन-हानि के उबरा जा सकता है. दूसरा यह कि अगर राज्य सरकार के अधिकारी आपराधिक रूप से निष्क्रिय हैं तो एक सामान्य सा मेला भी सैकड़ों जान ले सकता है.

कोई १२४ करोड़ वाले भारत ऐसे देश में एक  या डेढ़ लाख की भीड़ का , जो लगातार संचरण में (मोबाइल) हो , जो उपद्रव करने नहीं के मोड में नहीं बल्कि “दर्शन” के भाव में आयी हो, और जो संप्रभु आदेशों को आदतन मानती हो और जिसमें बच्चे या भक्ति भाव से सराबोर बूढ़े और महिलाएं हो, प्रबंधन कोई सामान्य सा राज्य सेवा का अधिकारी अपने पुलिस के समकक्ष अधिकारी के साथ मिल कर बड़ी हीं आसानी से कर सकता है बशर्ते वह जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपना काम करे. रतनगढ़ की ताज़ा घटना में अधिकारियों के दो गुनाह स्पष्ट दे. वे ना तो जिम्मेदारी निबाह रहे थे ना हीं ईमानदार थे. श्रद्धालु पिछले तमाम दशकों से आ रहे थे. उनकी संख्या अचानक नहीं बढ़ गयी थी. उनका एक पुल से निकलना कोई असाधारण बात नही थी. कुछ भी अप्रत्याशित नहीं हा. केवल उस भीड़ को रेगुलेट करना था. कुम्भ में दुनिया का सबसे बड़ी दो करोड़ की भीड़ होती है और हर श्रद्धालु एक हीं समय में स्नान करना चाहता है लेकिन चुस्त प्रशासन उसे नियंत्रित और नियमित कर लेता है लेकिन उसी भीड़ का हजारवां हिस्सा जब इस वर्ष की उसी जगह से तीन किलोमीटर दूर ११ फ़रवरी   को रेलवे स्टेशन पहुंचता है तो भगदड़ में ३६ आदमी मर जाते हैं क्योंकि जिस पुलिस वालों को वहां लगाया गया है उससे “साहेब” लोग हर पल भीड़ का जायजा नहीं लेते, स्पॉट पर नहीं होते और होते भी हैं तो अपने को उस कार्य के लिए समर्पित नहीं करते याने “एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड” (दिमाग लगाना) नहीं होता.

रतनगढ़ मंदिर की घटना की स्थिति देखें. गाड़ियाँ पुल से निकालने में पुलिस वालों को अचानक अच्छी आमदनी दिखाई दी. पैदल भीड़ को रोक कर गाड़ियाँ पार करना शायद सबसे बड़ी भूल थी लेकिन पैसा बौद्धिक क्षमता को कुंद बना देता है. अधिकारी इस आमदनी के कारण स्थिति से आँख मोड़ लेता है यह सोच कर की शाम को तो हिसाब-किताब होगा ही. अक्सर इस तरह के भ्रष्टाचार के समय मौके  से हट जाना अफसरों की भाषा में “बुद्धिमत्ता” मानी जाती है. लिहाज़ा रिपोर्ट देखने से लगता है कि अधिकारी गायब थे या दूर थे , कर्मचारी पैसा कमाने में लगे थे और कहीं भी “एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड “ नहीं था. पैसा और एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड में वैसे भी ३६ का आंकड़ा होता है और कई बार यह एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड पैसा कमाने के लिए ज्यादा और भीड़ नियंत्रण के लिए कम होता है. जरूरत यह है कि घटनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को आपराधिक दफाओं में जेल भेजा जाये ताकि भविष्य में अधिकारी या कर्मचारी दिमाग का इस्तेमाल भीड़ नियंत्रण में हीं करें.  

इसके ठीक उल्टा ओडिसा के इस तूफ़ान में जिस तरह राष्ट्रीय आपदा एजेंसियों ने हीं नहीं राज्य सरकार के लोगों ने जिस तरह सक्षम भूमिका निभाई उसकी न केवल भारत में बल्कि विश्व में तारीफ की गयी है. आने वाले दिनों में यह प्रबंधन विश्व के लोक प्रशासन की संस्थाओं में चर्चा का विषय रहेगा और इससे दुनिया के देश शिक्षा लेंगे. कटरीना की विभीषिका को लेकर अमेरिका  असफल रहा था हालाँकि बाद के ऐसे हीं हादसों में इस सबक का लाभ उसे मिला और प्रबंधन बेहतर हुआ. ओड़िसा के तटीय भाग से लगभग २४ से ३६ घंटों के भीतर सैकड़ों मील में फैले सात लाख लोगों को विस्थापित कर नयी जगह ले जाना और सुनिश्चित करना कि इन लोगों के भोजन, बीमारी और अन्य सुविधाओं का आभाव ना रहे अपने आप में अविश्वसनीय है. एक शहर को नयी जगह बसने जैसा है. पर यह संभव कर दिखाया सरकारी एजेंसियों ने.    

लोक प्रशासन में भीड़ या आसन्न संकट का इन्तेजाम एक विशिष्ठ विधा मानी जाती है और इसके प्रबंधन के लिए तमाम सिद्धांत और व्यावहारिक प्रक्रियाएं प्रशासनिक अधिकारियों को पढ़ायी –सिखायी जाती हैं. अधिकारियों को यह भी बताया जाता है कि अप्रत्याशित घटनाओं में किन राज्य अभिकरणों की –स्थानीय या केन्द्रीय – क्या भूमिका और कब-कब होती है.

जैसे जैसे प्रजातंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं जनमत का दबाव बढ़ता हीं नहीं है बल्कि निष्क्रिय सरकारों को भी काम करने पर मजबूर करता है. यह जनमत का दबाव बनाने में अनौपचारिक संस्थाओं जैसे मीडिया, पब्लिक रैली आदि की बड़ी भूमिका होती है. यही वजह थी कि जैसे हीं अमरीकी एजेंसियों से खबर आयी कि ओड़िसा का समुद्री तूफ़ान भीषण तबाही मचा सकता है मीडिया ने सब काम छोड़ कर इसे इतना प्रसारित किया कि सरकारों को वे केंद्र की हों या राज्य की कमर कसना पडा.   

जहाँ केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा अप्रत्याशित थी. विकसित देशों में ऐसे उपकरण हैं जिनसे हमें बादल फटने या भारी बारिश –जनित “फ़्लैश फ्लड” (अचानक आयी बाढ़) के बारे में जानकारी मिल जाती है. भारत में भी यह उपकरण है लेकिन राज्य के अभिकरण उन्हें अभी तक आदतन उपयोग में नहीं लाती थे या अगर रिपोर्ट भेजी भी तो उसका भाव इतना हल्का होता था कि राज्य की सरकारें उन्हें गंभीरता से नहीं लेती थीं. यही कारण था कि केदारनाथ में तीर्थयात्रियों का आना रोका नहीं गया और घटना के बाद भी प्रदेश के  मुख्यमंत्री दिल्ली दरबार में हाज़री बजाने पहुंचे थे. पहले तीन दिनों तक राज्य के अधिकारी और मुख्यमंत्री हादसे का अंदाज़ा भी नहीं कर पाए, राहत पहुँचना तो दूर. मीडिया की फिर बड़ी भूमिका थी. जबरदस्त २४ घंटे बगैर रुके कवरेज का नतीजा था आपराधिकरूप से निष्क्रिय उत्तराखंड सरकार चौथे दिन नीद से जगी पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.       

हाल के कुछ वर्षों में हुई इस तरह की घटनाओं को देखा जाये तो अधिकांश में सरकारी लापरवाही साफ़ नज़र आती है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में ४ मार्च , २०१० में कृपालू महाराज के आश्रम में हुई भगदड़ एक सामान्य थानेदार या तहसीलदार मैनेज कर सकता था बशर्ते अपने दायित्व के प्रति संजीदा होता. शबरमाला में २०११ के मकरसंक्रांति  के दिन १०२ श्रद्धलुओं का मरना प्रबंधन के आभाव की वजह से था ना किसी हिंसा पर उतारू भीड़ की वजह से. राजगीर में २ सितम्बर, २०१२, इसी साल “छठ पूजा”  में पटना में भगदड़ में १७ लोगों का मरना, या उत्तर प्रदेश के मथुरा में राधा रानी मंदिर में और इसी माह फिर बिहार के देवघर के आश्रम में भगदड़ में दो और नौ लोगों का मरना यही बताता है कि श्रद्धुलों की भीड़ जिसे नियन्त्रित करना सबसे आसन होता है भी सरकारी आपराधिक उदासीनता की भेंट चढ़ते रहेंगे. बिहार में एक साल में तीन इस तरह की घटनाएँ वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  के तथाकथित “सुशासन” पर और दतिया की ताज़ा घटना मध्य प्रदेश की “सक्षम” प्रशासन पर बड़ा सवालिया निशान लगते हैं. 

rajsthan patrika