Wednesday 26 November 2014

मोदी के छह माह: उम्मीद बरकरार है


“रही न ताकते-गुफ्तार (बात करने की शक्ति), और अगर हो भी तो,
किस उम्मीद से कहिये, कि आरज़ू क्या है” ---मिर्ज़ा ग़ालिब
आज से कुछ महीने पहले तक समाज इसी “कोई नृप हो हीं, हमें का हानि” के भाव में था. लेकिन एक नेता के आने से ताकते-गुफ्तार भी आ गयी, आरजू भी बन गयी और उम्मीद भी बंध गयी. लेकिन ये भाव हैं , शाश्वत नहीं रहते.
किसी भी व्यक्ति, काल-खंड, शासन या घटना के निरपेक्ष विश्लेषण के लिए तत्कालीन कारकों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी होता है. ऐसा न होने पर वह विश्लेषण “चुनिन्दा तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष” (सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन) के तर्क दोष का शिकार होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्य-काल का छह माह २६ नवम्बर को पूरा हुआ. कहा जा सकता है कि आंकलन के लिए यह समय कम है भारत जैसे ३२.८ लाख वर्ग किलोमीटर, १२५ करोड़ की आबादी और सैकड़ों परस्पर विरोधी पहचान समूहों वाले देश में. परन्तु इन १८० दिनों में अगर सफाई एक जन-अभियान बन सकता है तो शासन की दशा-दिशा भी दिखाई डी जानी चाहिए और उसका विश्लेषण भी  किया जाना चाहिए. यह और भी आसान होता है अगर पूर्ववर्ती शासन काल में क्षमताएं कम रहीं हों या विकास (मानव विकास के स्तर पर ना कि खोखले आर्थिक विकास के आंकड़ों के आधार पर) का पैमाना काफी गिर चुका हो.
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि पूरे देश में माहौल बदला है. राजनीतिक वर्ग को लेकर जो विश्वास का संकट बन गया था और लोग “कुछ भी नहीं होगा” के भाव में थे , वे आज कहने लगे हैं कि कुछ हो रहा है.
मोदी के छह माह के कार्यकाल में यह आशा कि “देश बदलेगा”  न केवल बरकरार रहा है बल्कि बढा भी है. साथ हीं समाज जडत्व की गर्त से निकल कर सोचने लगा है. अब जब दिल्ली की सडकों पर कार की खिड़की से तथाकथित पढ़ा-लिखा व्यक्ति कूड़ा सड़क पर फेंकता है तो देखने लगता है कि कोई उसे घूर कर देख रहा है. इस सोच की सबसे महत्व पूर्ण पहलू यह है यह ज्यामितीय विस्तार के साथ फैलता है. सामूहिक सोच के नियति होती है कि उसमें “खरबूजे को देख कर” बाकि खरबूजे भी रंग बदलने लगते है.
पर यहाँ विश्लेषण पाक्षिक हो जाएगा अगर हम किसी राजनीतक नेतृत्व के मूल कार्यों का आंकलन न करें. “आशा” , उम्मीद” “उत्साह” आदि मात्र भाव होते हैं. सफाई के प्रति सजग रहना समाज के उत्साह और नेतृत्व के प्रति विश्वास की उपज है. और इसी विश्वास से नरेन्द्र मोदी को (ना कि भारतीय जनता पार्टी को) वोट मिले थे. जनता के मन की बात और मोदी के मन की बात में एक तादात्म्य और सादृश्यता हुई और भाजपा का वोट प्रतिशत लम्बी छलांग लगा कर १८.८ प्रतिशत से ३१.१ प्रतिशत पहुंचा था. अब मोदी से “मन की बात” की जगह “काम की बात” अपेक्षित है. जब कूड़ा साफ़ करने के लिए जनता झाड़ू लगाती है तो यह भी जानना चाहती है कि इस कूड़े को कहाँ फेंका जाये. और यह कार्य सरकार का (याने राज्य अभिकरणों) का है. लब्बो-लुआब यह कि जनता ने उस परिवर्तन में अपनी भूमिका निभाना शुरू कर दिया है लेकिन यह भाव क्षणिक सकारात्मक उद्वेग न होकर शाश्वत भाव तभी बन पायेगा जब राज्य और उसके जंग लगे भ्रष्ट अभिकरण भी इस क्रांतिकारी परिवर्तन को अपने अन्दर लायें. और यह गुरुतर काम भी मोदी को हीं करना है. दो दिन कूड़ा सही जगह फेंकने के बाद अगर जनता यह पायेगी कि कूड़ा वहीं पड़ा है और कोई नगर पालिका की गाड़ी उसे उठाने नहीं आयी तो वह भी जल्द हीं यथा-स्थिति के भाव में फिर आ जाएगी.
निरपेक्ष विश्लेषण के लिए विश्लेषक को भाव –शून्य होना पड़ता है. विश्लेषक जनता की तरह नहीं सोचता. अगर यह सत्य भी हो तो भी  “मोदी अच्छे हैं” के भाव में निरपेक्ष और वस्तुपरक विश्लेषण नहीं हो सकता. एक आलोचनात्मक सोच ज़रूरी होता है. मोदी से अपेक्षाएं क्या है-- “सरकार भ्रष्टाचार ख़त्म करे, सरकारी अमले की क्षमता बड़े, आर्थिक विकास का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाया जाये और काले धन को न सिर्फ विदेश से लाये जाये बल्कि इसकी पैदाइश हीं न हो ऐसे उपक्रम किया जाये”.
देश में २.४० करोड़ लोग ट्रेन पर सफ़र करते है. इनमें लाखों लोग रिजर्वेशन के लिए घूस देते हैं. रेलवे रिजर्वेशन में घूस ख़त्म करना कोई पंचवर्षीय योजना से नहीं , बल्कि मात्र रेलमंत्री व रेलवे बोर्ड के कुछ अफसरों की हफ्ते भर की दृढ इच्छा-शक्ति से संभव हो सकता है और पूरे देश में प्रधानमंत्री को लेकर आशा विश्वास में बदल सकती है. क्या यह उचित नहीं कि यह काम पहले किया जाये और सडकों और योजनाओं का नाम बदलने का काम फिलहाल रोक दिया जाये. मैक्स मुलर रोड को अगर दीनदयाल उपाध्याय मार्ग बना दिया जाये तो गरीब के पेट में रोटी नहीं पहुंचेगी. “हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा” या “आर्य भारत के थे या बाहर से आये”, “संस्कृत पढ़ायें या जर्मन”, “नेहरु बड़े थे या पटेल” क्या कुछ दिनों के लिए रोक कर काला धन पूर्णतः रोकना क्या ज्यादा उपादेय नहीं होता?
छह महीने याने १८० दिन या २,५९,२०० मिनट. मोदी की अपील होती है कि हर देशवासी अगर एक कदम चले तो देश १२४ करोड़ कदम आगे बढ़ जाएगा. अगर इन २,५९,२०० मिनट में सरकार दस कदम भी प्रति मिनट चलती तो देश की अपेक्षाएं फलीभूत होने की दिशा में मोदी सरकार २५९२ किलोमीटर चल चुकी होती.
प्रतीक की राजनीति उत्प्रेरक का कार्य करती है. प्रारंभिक दौर में इसके ज़रुरत होती है ताकि समाज मुतासिर हो, झाड़ू हाथ में लेले. परन्तु सरकार बनाने के लिए जब जनता मत देती है तो वह समाजसुधारक को नहीं बल्कि एक ऐसे राजनेता को देते है जो राज्य और उसके अभिकरणों को जन-अपेक्षाओं  के अनुरूप कार्य करने को मजबूर करे. अब समय आ गया है कि सरकार के कार्य दृष्टिगोचर भो हों. नीतियां बने हीं नहीं , काले धन की पैदाइश पर भी आघात हो.
माहौल बदला है. वर्षों पुराने मिशन वाले प्रयास के तहत मंगल-ग्रह पर एक हीं कोशिश में पहुँचाना या गत जुलाई माह में आये  जी डी पी विकास दर वृद्धि को भी लोगों ने मोदी जी  का प्रयास माना क्योंकि उन पर हीं विश्वास था. लेकिन इसे जगाये रखने के लिए प्रतीक की राजनीति से हट कर काफी कुछ करना होगा.          
देश में हीं नहीं , विदेश में भी भारत के प्रति रवैया बदला है. यह हमारे विकास को चार चाँद लगा सकता है बशर्ते राज्य अभिकरण अपना चरित्र बदलें और समाज अपना. समाज तो अपना बदल रहा है और कुछ हद तक सरकार भी पर अभी नीतियों या क्षमता के स्तर पर यह बदलाव धरती पर नहीं दिखाई दे रहा है. फिर भी उम्मीद है कि मोदी देश को बदलेंगे.
आज़ादी के ६५ साल में भारतीय समाज ने अपेक्षाएं रखना भी छोड़ दिया था और नैराश्य शाश्वत भाव में आ गयी थी. सरकारों, सत्ताधारियों और राजनीतिक वर्ग के प्रति एक घोर अविश्वास का भाव घर कर गया था. किसी समाज में ऐसे भाव आना बेहद खतरनाक होता है. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिस तरह अचानक समाज जगा तो लगा कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है.  के बाद यह लगने लगा
फिर आज देश  लेकिन अगर घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था, ट्रेन चल रही थी, पैसे खा के भी  सड़क बन रही थी और मोबाइल गाँव तक पहुंचा था तो कहीं लगता था कि समाज में हीं कोई पांच प्रतिशत ऐसा वर्ग है जो आज भी काम करता जा रहा है. ऐसे में एक नेतृत्व आता है और इस पांच प्रतिशत को ५० प्रतिशत तक विस्तारित करता है कम से कम आशा के भाव में लाता है.    

मोदी हीं एक ऐसे नेता हैं जो सोचते हैं , विकास के प्रति एक ललक है और अद्भुत वाक्-, कार्य – व संकल्प-शक्ति है जो सहज में विश्वास पैदा करती है. इस आशा, उम्मीद और आरजू को फलीभूत करने में कुछ उपक्रम हुआ भी है पर इसकी रफ़्तार बढ़नी होगी.

lokmat 

गलती रामपाल या आश्रम की नहीं, समाज के अवैज्ञानिक सोच है


पिछले एक सप्ताह में तीन घटनाएँ हुई जो भारतीय समाज की पैथोलॉजी को प्रदर्शित करती हैं. एक तथाकथित “संत” रामपाल ने अपने भक्तों या भक्तनुमा हथियारनुमा गुंडों  के साथ पूरे संविधान, कानून और संप्रभुता को चुनौती दी   और सरकार को  नाकों चने चबवा दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में खाप पंचायत के मुखिया ने करीब ५० गाँव के लोगों के बीच आदेश दिया कि “अगर तुम्हारी बेटी किसी अन्य जाति या समान गोत्र के किसी व्यक्ति से शादी करने की बात करती है तो पहले उसे समझाओ और अगर ना माने तो उसे “गंगा दिखा दो” (मतलब उसे गगा में डूबा दो). इस फरमान को वहां बैठे सैकड़ों गाँव वालों ने न केवल सराहा बल्कि उसके अनुपालन का वायदा भी किया. उसी दिन एक माँ-बाप ने देश की राजधानी दिल्ली में अपनी बेटी को जो उनकी मर्जी के खिलाफ गैर जाति के एक युवा से शादी की, हत्या कर दी. तीसरी घटना में बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि अगर बिहार के विकास में केंद्र से मदद नहीं दिलाई तो राज्य के सात केन्द्रीय मंत्रियों को बिहार में घुसने नहीं दिया जाएगा.
“संत” रामपाल पर हत्या का मुकदमा था और अदालत ने उसे हाज़िर होने का आदेश दिया था. रामपाल ने आदेश मानने से इनकार किया और इस “संत” के गुर्गों ने तमाम राज्यों में फैले भक्तों को जिसमें औरतें और बच्चे भी थे , यह कह कर बुलाया था कि “संत” जी का प्रवचन है और उनका आशीर्वाद भक्तों पर समागम के दौरान बरसेगा. ये भक्त इस संत में भगवान् का अक्स   देखते थे. संत पहले जूनियर इंजिनियर था और उसे मालूम होगा कि संविधान और भारतीय दंड संहिता में “संत” के लिए कोई अलग से प्रावधान नहीं है. खाप पंचायत के मुखियाओं को भी मालूम है कि अपने गोत्र में या गैर-जाति के व्यक्ति से शादी की जिद करने वाली बेटी को गंगा में डुबाना ह्त्या है जो कानूनी रूप से जुर्म है. मुख्यमंत्री मांझी ने भी मुख्यमंत्री पद   की शपथ लेते वक्त संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा की शपथ ली थी. और संविधान या तज्जनित कानून में उनके राज्य का विकास ने करने के कारण केंद्र के किसी मंत्री को राज्य में न घुसने देने का कोई प्रावधान नहीं है.
इन तीनों घटनाओं के सूत्रधार वे चाहे रामपाल के “भोले” भक्त हो या खाप का मुखिया या मुख्यमंत्री चेतना का  एक समान स्तर देखने को मिलता है. क्यों कोई व्यक्ति किसी “बाबा” में ईश्वर देखने लगता है और फिर अपनी बेटी को बाबा के आश्रम में छोड़ देता है, पढ़ने के लिए? जिस देश  में गीता ऐसा ग्रन्थ हो वहां  क्योंकि चलती हैं बाबाओं की दूकाने? धर्म में आस्था तो समझ में आती  है पर किसी व्यक्ति में आस्था क्यों? एक बाबा अपने भक्तों को शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे काले कुत्ते को पीला चना खिलाने  को कहता है और फिर ईश्वरीय आश्वासन देता   है कि तुम्हारे बेटे की नौकरी लग जायेगी. पडोसी के नुक्सान के लिए नवरात्रि के दिनों में कटा नीबू अक्सर चौराहों पर देखा जा सकता है. क्या दो हज़ार साल बाद भी हम जंगल से बाहर नहीं निकल पाए हैं? आज भी क्यों झारखण्ड में हर सात दिन में मनोविकार से पीड़ित कोई औरत को जो भटकते हुए दूसरे दूर के गाँव में चली आती है, पत्थर से मार दिया जाता है यह मान कर कि डायन है , पूरे गाँव को खाने आयी है.
इसमें आर्थिक स्तर, शिक्षा या समृद्धि से कोई अंतर नहीं पड़ता. एक मंत्री अपने ज्योतिषी के कहने पर ३.३७ बजे हीं शपथ लेता है क्योंकि उसका मानना है कि ज्योतिष की बात मानाने से हीं वह यहाँ तक पहुंचा है. उस ज्योतिषी में उसकी अटूट आस्था है. कई  बड़े आई ए एस अधिकारियों को एक बाबा में आस्था है. नतीज़तन, पूरा अमला हर हफ्ते उस बाबा के आश्रम में हाँथ बांधे खड़ा रहता है क्योंकि वह अधिकारी भी बाबा के पैर पर गिर कर अगली पोस्टिंग के लिए  आशीर्वाद लेना चाहता है. हाल हीं में ऐसे हीं एक अधिकारी को एक बाबा ने एक देवी के   मंदिर में बली चढाने का आदेश दिया और अगली फ्लाइट से हीं वह पूरे परिवार के साथ वहां पहुँच गया. चम्बल के डाकू भी डाका डालने जाने के पहले काली मंदिर में पूजा करते रहे हैं. रामपाल के “भक्तों” ने जिस तरह संविधान की धज्जी उड़ाते हुए पुलिस पर पेट्रोल बम फेंके क्या इस अफसर से डर नहीं है कि छिप कर हीं सही यह भी अपनी “आस्था के प्रतीक “ बाबा के कहने पर “अमुक भक्त का प्रमोशन “ और अमुक भक्त के दुश्मन पड़ोसी के खिलाफ मुक़दमा” कर जेल ना भेजे. आखिर “श्रद्धा” भी तो कोई चीज होती है और फिर “बाबा” की आज्ञां भी तो ईश्वर की हीं आज्ञा है !!
कभी बजरंग बली के या विन्ध्याचल मंदिर में जाएँ तो पाएंगे कि तमाम अधिकारी अपनी नीली बत्ती गाड़ी के साथ पूजा अर्चना करने आते हैं. बाकी भक्तों को रोक दिया जाता है. जैसे नीली बत्ती और देवी में कोई अलग रिश्ता है.
आखिर क्या हो गया है इस हिन्दू समाज को? कौन रोकेगा इन धर्मे के ठेकेदारों को जिनमें अक्सर बलात्कारी मिलते हैं. आसाराम के केस लें. उस पर बलात्कार के आरोप कई बार लगे. मीडिया ने साक्ष्य न होने के कारण आवाज में वह बुलंदी नहीं दिखाई. लेकिन आखिरी बार जब ऐसा ही आरोप लगा तो मध्य प्रदेश व राजस्थान में चुनाव था. एक पार्टी के नेता ने इस बाबा को सचरित्र होने का सर्टिफिकेट दिया क्योंकि उस प्रदेश में बाबा के भक्त बड़ी संख्या में थे. फिर राजस्थान की कांग्रेस सरकार क्यों पीछे रहती. वहाँ भी चुनाव था और बाबा के भक्त भी. वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा बाबा को गिरफ्तार करने का सवाल हीं नहीं उठता. चार दिन यह नाटक चलता रहा क्योंकि बाबा के वोट इन दलों को चाहिए थे. तब मीडिया को अपनी आवाज तेज करनी पडी और बाबा आज महीनों से दूसरों का भाग्य तो छोडिये अपना भाग्य भी नहीं संवार पा रहा है.
समस्या रामपाल या आसाराम की नहीं है. ये तो उस कुत्सित सोच की पैदाइश है जिसमें हम इनके पास बेटे की नौकरी के लिए जाते हैं, या प्रमोशन के लिए पैर पड़ते हैं. समस्या उस गैर-वज्ञानिक सोच की है जिसमें हम सरकारी गाड़ी से मंगलवार को बजरंग बलि के दर्शन करते हैं. क्या शनिवार के दिन काले कुत्ते को पीला चना खिलने पर काम बनाने का ईश्वरीय आदेश देने वाले बाबा की गलती है या उसकी जो वहां इस आशय से गया है. अगर समाज बेवकूफ है तो इसे लूटने वाले , इसकी बेटियों से बलात्कार करने वाले बाबा को गलत कह कर क्या  बचा जा सकता है?      
हमें अपनी वैज्ञानिक सोच बनाने वाली संस्थाओं को तेज़ी से विकसित करना होगा. पाकिस्तान यह नहीं कर सका नतीजतन गरीबी की मार झेल्र रहे माँ-बाप अपने बच्चे को कुछ पैसे लेकर धर्म से ओतप्रोत आतंकी संगठनों को दे देते हैं ताकि वह “अल्लाह” के काम आ सके. ये बच्चे कुछ दिनों की ट्रेनिंग ले कर आत्मघाती दस्ते में शामिल हो जाते हैं और मरते दम तक वे बच्चे या उनके माँ-बाप यही मानते कि अल्लाह के काम के लिए मरना  सबसे बड़ी इबादत है 

देश के जनमानस में वैज्ञानिक सोच विकसित किये बगैर सारा आर्थिक विकास बेमानी हो सकता है 

lokmat

झारखण्ड: आखिर विकास न होने के पीछे कौन ?


           
झारखण्ड के किसी पत्रकार मित्र ने मुझे सन २०१२ की राज्य सरकार की डायरी दी. इस डायरी के अंत में राज्य का नक्शा दिया गया है जो उलटा है. राज्य का क्षेत्रफल ७९ हज़ार किलोमीटर दिया है (जो पढ़ने में ७९.७२३ किलो मीटर लगता है और वर्ग शब्द गायब है). राज्य के हीं जिले पलामू का क्षेत्रफल इस डायरी में ८४ हज़ार किलोमीटर. याने राज्य से ज्यादा जीजे का क्षेत्रफल.  इसमें भी वर्ग शब्द नदारत है. यह डायरी अन्य राज्यों की डायरी से ज्यादा महंगी दिखाई देती है. यह उदाहरण महज इस बात का परिचायक है कि राज्य अभिकरण अपने काम के प्रति कितना गैर-ज़िम्मेंदाराना रवैया रखते हैं.
किसी राजनीतिक –सामाजिक विश्लेषक के लिए झारखण्ड की वर्तमान स्थिति एक अबूझ पहेली है. जन-चेतना के स्तर पर देखा जाये या सामूहिक क्रियाशीलता के स्तर पर परखा जाये तो शायद इस क्षेत्र के आदिवासी किसी भी पड़े –लिखे और तज्जनित अधिकार के प्रति सजग अन्य भारतीय समाज से ज्यादा आगे दिखाई देंगे. अंग्रेजों के खिलाफ और गैर-जनजाति लोगों द्वारा शोषण के खिलाफ बिरसा मुंडा के आन्दोलन से लेकर सिबू सोरेन के पृथक राज्य के आन्दोलन तक इस आदिवासी समाज में अद्भुत चेतना का मुजाहरा होता है. लेकिन फिर कहाँ फंस गया इस क्षेत्र की विकास ? 
झारखण्ड को पृथक राज्य बने आज १४ साल हो गए. इसे पृथक राज्य बनाने के पीछे एक लम्बा इतिहास है. या यूं कहें कि अगर भारत में कोई एक क्षेत्र अपनी अस्मिता (जिसमें पृथक राज्य बनाने की मांग भी शामिल है) के लिए सबसे लम्बी लड़ाई लड़ा और सबसे ज्यादा कुर्बानी दी तो वह झारखण्ड था. सम्माजिक-सामूहिक चेतना के स्तर पर १४ साल पहले आज के दिन हीं जिन दो अन्य क्षेत्रों को राज्य का दर्ज़ा मिला वे थे छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड. छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में काफी समानता है. दोनों आदिवासी क्षेत्र है दोनों में नक्सलवाद अपनी चरम सीमा पर है. पर दोनों के विकास में जबरदस्त असमानता है. झारखण्ड में औसतन हर दो साल पर मुख्यमंत्री बदल जाता है और एक जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है, जबकि जबकि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर रही है. मानव विकास सूचकांक में भी दोनों राज्यों में जमीन- आसमान का अंतर है. इस राज्य में १४ साल में १२ बार सरकारें बदली, तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा और तीन-तीन बार शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा ने अपनी पारी खेली और बाकी समय बाबू लाल मरांडी, मधु कोड़ा और हेमंत सोरेन के बीच राज्य अस्थिरता में झूलता रहा. याने कोई भी एक शासन औसतन साल भर हीं रह पाया. मधु कोड़ा और सिबू सोरेन पर भ्रष्टाचार और अन्य आपराधिक मामले भी रहे हैं. नए राज्य की रूप में जन्म से आज तक इस राज्य में केवल आदिवासी हीं मुख्यमंत्री बने हैं या फिर अस्थिरता की वजह से राष्ट्रपति शासन रहा है.  
राजनीति-शास्त्र की सामान्य अवधारणा है कि किसी अशिक्षित और मुख्यधारा से कटे समाज के तीव्र विकास के लिए बेहतर होता है उन्हें स्व-शासन देना. भारत की आज़ादी के पीछे भी मूल तर्क यही था. जंगल या आदिवासी समाज को स्व-शासी बनाने के पीछे भी यही तर्क रहता है यह मानते हुआ कि अन्य वर्ग से आया शासक उसका शोषण करता है. आदिवासी शासक उनकी मूल-समस्या से वाकिफ होता है और तब शोषण की संभावना क्षीण हो जाती है.
लेकिन शायद आदिवासी चेतना की गुणवत्ता को समझने में भूल हुई. १५० साल पहले का १५ साल लंबा बिरसा मुंडा का आन्दोलन जो सन १९०० तक चला वह “बिरसा भगवान्” के प्रति आदिवासियों की निष्ठां का आक्रामक प्रगटीकरण था. अभी हाल तक कुछ इलाकों में शीबू सोरेन में भी ईश्वरीय अंश वहां के आदिवासियों के एक वर्ग देखता है. “शीबू भगवान की माया है कभी गाँव में दिखाई देते है तो कभी उसी समय दिल्ली में”, इस तरह के किस्से आम हैं अपने नेता के बारे में. राजा में ईश्वरीय गुण प्रतिष्ठापित करना प्रजा के सिस्टेमेटिक शोषण का पहला सोपान होता है. लिहाज़ा कोई सोरेन या कोई कोड़ा अगर सभी समाज के पैरामीटर से भ्रष्टाचार का दोषी मन जाता है तो गलती ना तो किसी सिबू या कोड़ा की है ना हीं अपने लीडर में भगवान् का अंश देखने वाले आदिवासी की. समस्या है उस उस राजनीतिक वर्ग की जो आज तक उस आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ नही पाया या जोड़ना नहीं चाहता और उनके वोटों से जीते किसी मुंडा, किसी सोरेन या किसी कोड़ा को अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए इस्तेमाल करता रहा है. कोई भ्रष्ट कोड़ा उसके लिया फायदे का सौदा है क्योंकि वह कमज़ोर होगा कोई अपेक्षाकृत  ईमानदार बाबू  लाल मरांडी उसके सिस्टम को रास नहीं आता.
यही कारण है कि पूरे जंगल में रहने वाले आदिवासियों की तमाम पहचान समूहों में बाँट दिया गया है और फिर कोशिश यह की गयी है कि कोई बिरसा मुंडा जैसी सर्व-स्वीकार्यता न हासिल कर पाए. लिहाज़ा मुंडा आदिवासियों का अलग पहचान समूह बन गया तो उराओं पहले हीं से अलग कर दिए गए. अब मांग यह उठ रही है कि अगर राज्य में मात्र २९ प्रतिशत हीं आदिवासी है तो फिर आदिवासी हीं मुख्यमंत्री क्यों? शेष ७२ प्रतिशत (उसमें बाहरी वर्ग के तर्क के हिसाब से १२ प्रतिशत और १३.५ प्रतिशत मुसलमान भी शामिल है) तो गैर-आदिवासी है. भारतीय जनता पार्टी के यशवंत सिन्हा आदि इसे तर्क पर अपने मुख्यमंत्री पद के दावे को हवा दे रहा हैं. 
कहना ना होगा कि जिस आधार पर यह राज्य बना था और जिन लोगों की कुर्बानियों से बना था उसके आसपास भी यह बाहरी वर्ग नहीं था बल्कि दरअसल इन्हीं के शोषण के खिलाफ समूचा आदिवासी आन्दोलन था. लिहाज़ा ज़रुरत यह नहीं है कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बने बल्कि आदिवासियों में हीं नए युवा और अच्छी छवि के नेता उभारे जाएँ. वे ऐसे नेता हों जो विकास और ‘भ्रष्टाचार –जनित व्यक्तिगत “विकास” में अंतर समझ सकें और भ्रष्टाचार को कानूनी हीं नहीं नैतिक अपराध भी समझें, दल –बदलने के लिए पैसा ना लें. याने अभी भी आदिवासी समाज में और उनके नेतृत्व में चेतना की गुणवत्ता बढानी   होगी ताकि वे समझ सकें कि पैसे ले कर पार्टी नहीं बदली जाती या राज्य सभा के प्रत्याशी को वोट नहीं दिया जाता (हालांकि कि इसमें आदिवासी विधायकों से ज्यादा गैर-आदिवासी विधायक शामिल हैं). नक्सलवाद जो इस चेतना को जगाना तो दूर शोषण का एक नया पर्याय बन गया है , से  निपटने के लिए राज्य-अभिकरणों का नेतृत्व करने वाले लोगों में, जो मुख्यरूप से आदिवासी समाज से हों एक नयी इच्छा –शक्ति और नयी समझ की ज़रुरत है. नेतृत्व की इच्छा –शक्ति, राज्य-शक्ति का साथ और आदिवासियों का विश्वास हीं नक्सली दंश को ख़त्म कर सकेगा. समझ इसलिए कि अफसरशाही डायरी को भी अन्यमनस्क ढंग से ना छपे और सरकारी पैसे की क़द्र समझे.  


 lokmat