“रही न ताकते-गुफ्तार (बात करने की शक्ति), और
अगर हो भी तो,
किस उम्मीद से कहिये, कि आरज़ू क्या है” ---मिर्ज़ा
ग़ालिब
आज से कुछ महीने पहले तक समाज इसी “कोई नृप हो
हीं, हमें का हानि” के भाव में था. लेकिन एक नेता के आने से ताकते-गुफ्तार भी आ
गयी, आरजू भी बन गयी और उम्मीद भी बंध गयी. लेकिन ये भाव हैं , शाश्वत नहीं रहते.
किसी भी व्यक्ति, काल-खंड, शासन या घटना के
निरपेक्ष विश्लेषण के लिए तत्कालीन कारकों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी होता है. ऐसा न
होने पर वह विश्लेषण “चुनिन्दा तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष” (सेलेक्टिव
अप्प्रोप्रिएशन) के तर्क दोष का शिकार होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
कार्य-काल का छह माह २६ नवम्बर को पूरा हुआ. कहा जा सकता है कि आंकलन के लिए यह
समय कम है भारत जैसे ३२.८ लाख वर्ग किलोमीटर, १२५ करोड़ की आबादी और सैकड़ों परस्पर
विरोधी पहचान समूहों वाले देश में. परन्तु इन १८० दिनों में अगर सफाई एक जन-अभियान
बन सकता है तो शासन की दशा-दिशा भी दिखाई डी जानी चाहिए और उसका विश्लेषण भी किया जाना चाहिए. यह और भी आसान होता है अगर
पूर्ववर्ती शासन काल में क्षमताएं कम रहीं हों या विकास (मानव विकास के स्तर पर ना
कि खोखले आर्थिक विकास के आंकड़ों के आधार पर) का पैमाना काफी गिर चुका हो.
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि पूरे देश
में माहौल बदला है. राजनीतिक वर्ग को लेकर जो विश्वास का संकट बन गया था और लोग
“कुछ भी नहीं होगा” के भाव में थे , वे आज कहने लगे हैं कि कुछ हो रहा है.
मोदी के छह माह के कार्यकाल में यह आशा कि “देश
बदलेगा” न केवल बरकरार रहा है बल्कि बढा
भी है. साथ हीं समाज जडत्व की गर्त से निकल कर सोचने लगा है. अब जब दिल्ली की
सडकों पर कार की खिड़की से तथाकथित पढ़ा-लिखा व्यक्ति कूड़ा सड़क पर फेंकता है तो
देखने लगता है कि कोई उसे घूर कर देख रहा है. इस सोच की सबसे महत्व पूर्ण पहलू यह
है यह ज्यामितीय विस्तार के साथ फैलता है. सामूहिक सोच के नियति होती है कि उसमें
“खरबूजे को देख कर” बाकि खरबूजे भी रंग बदलने लगते है.
पर यहाँ विश्लेषण पाक्षिक हो जाएगा अगर हम किसी
राजनीतक नेतृत्व के मूल कार्यों का आंकलन न करें. “आशा” , उम्मीद” “उत्साह” आदि
मात्र भाव होते हैं. सफाई के प्रति सजग रहना समाज के उत्साह और नेतृत्व के प्रति
विश्वास की उपज है. और इसी विश्वास से नरेन्द्र मोदी को (ना कि भारतीय जनता पार्टी
को) वोट मिले थे. जनता के मन की बात और मोदी के मन की बात में एक तादात्म्य और
सादृश्यता हुई और भाजपा का वोट प्रतिशत लम्बी छलांग लगा कर १८.८ प्रतिशत से ३१.१
प्रतिशत पहुंचा था. अब मोदी से “मन की बात” की जगह “काम की बात” अपेक्षित है. जब
कूड़ा साफ़ करने के लिए जनता झाड़ू लगाती है तो यह भी जानना चाहती है कि इस कूड़े को
कहाँ फेंका जाये. और यह कार्य सरकार का (याने राज्य अभिकरणों) का है. लब्बो-लुआब
यह कि जनता ने उस परिवर्तन में अपनी भूमिका निभाना शुरू कर दिया है लेकिन यह भाव
क्षणिक सकारात्मक उद्वेग न होकर शाश्वत भाव तभी बन पायेगा जब राज्य और उसके जंग
लगे भ्रष्ट अभिकरण भी इस क्रांतिकारी परिवर्तन को अपने अन्दर लायें. और यह गुरुतर
काम भी मोदी को हीं करना है. दो दिन कूड़ा सही जगह फेंकने के बाद अगर जनता यह
पायेगी कि कूड़ा वहीं पड़ा है और कोई नगर पालिका की गाड़ी उसे उठाने नहीं आयी तो वह
भी जल्द हीं यथा-स्थिति के भाव में फिर आ जाएगी.
निरपेक्ष विश्लेषण के लिए विश्लेषक को भाव –शून्य
होना पड़ता है. विश्लेषक जनता की तरह नहीं सोचता. अगर यह सत्य भी हो तो भी “मोदी अच्छे हैं” के भाव में निरपेक्ष और
वस्तुपरक विश्लेषण नहीं हो सकता. एक आलोचनात्मक सोच ज़रूरी होता है. मोदी से
अपेक्षाएं क्या है-- “सरकार भ्रष्टाचार ख़त्म करे, सरकारी अमले की क्षमता बड़े,
आर्थिक विकास का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाया जाये और काले धन को न सिर्फ विदेश
से लाये जाये बल्कि इसकी पैदाइश हीं न हो ऐसे उपक्रम किया जाये”.
देश में २.४० करोड़ लोग ट्रेन पर सफ़र करते है.
इनमें लाखों लोग रिजर्वेशन के लिए घूस देते हैं. रेलवे रिजर्वेशन में घूस ख़त्म
करना कोई पंचवर्षीय योजना से नहीं , बल्कि मात्र रेलमंत्री व रेलवे बोर्ड के कुछ
अफसरों की हफ्ते भर की दृढ इच्छा-शक्ति से संभव हो सकता है और पूरे देश में
प्रधानमंत्री को लेकर आशा विश्वास में बदल सकती है. क्या यह उचित नहीं कि यह काम
पहले किया जाये और सडकों और योजनाओं का नाम बदलने का काम फिलहाल रोक दिया जाये. मैक्स
मुलर रोड को अगर दीनदयाल उपाध्याय मार्ग बना दिया जाये तो गरीब के पेट में रोटी
नहीं पहुंचेगी. “हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा” या “आर्य भारत के थे या बाहर से आये”,
“संस्कृत पढ़ायें या जर्मन”, “नेहरु बड़े थे या पटेल” क्या कुछ दिनों के लिए रोक कर
काला धन पूर्णतः रोकना क्या ज्यादा उपादेय नहीं होता?
छह महीने याने १८० दिन या २,५९,२०० मिनट. मोदी
की अपील होती है कि हर देशवासी अगर एक कदम चले तो देश १२४ करोड़ कदम आगे बढ़ जाएगा.
अगर इन २,५९,२०० मिनट में सरकार दस कदम भी प्रति मिनट चलती तो देश की अपेक्षाएं
फलीभूत होने की दिशा में मोदी सरकार २५९२ किलोमीटर चल चुकी होती.
प्रतीक की राजनीति उत्प्रेरक का कार्य करती है.
प्रारंभिक दौर में इसके ज़रुरत होती है ताकि समाज मुतासिर हो, झाड़ू हाथ में लेले.
परन्तु सरकार बनाने के लिए जब जनता मत देती है तो वह समाजसुधारक को नहीं बल्कि एक
ऐसे राजनेता को देते है जो राज्य और उसके अभिकरणों को जन-अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य करने को मजबूर करे. अब समय आ
गया है कि सरकार के कार्य दृष्टिगोचर भो हों. नीतियां बने हीं नहीं , काले धन की
पैदाइश पर भी आघात हो.
माहौल बदला है. वर्षों पुराने मिशन वाले प्रयास
के तहत मंगल-ग्रह पर एक हीं कोशिश में पहुँचाना या गत जुलाई माह में आये जी डी पी विकास दर वृद्धि को भी लोगों ने मोदी
जी का प्रयास माना क्योंकि उन पर हीं
विश्वास था. लेकिन इसे जगाये रखने के लिए प्रतीक की राजनीति से हट कर काफी कुछ
करना होगा.
देश में हीं नहीं , विदेश में भी भारत के प्रति
रवैया बदला है. यह हमारे विकास को चार चाँद लगा सकता है बशर्ते राज्य अभिकरण अपना
चरित्र बदलें और समाज अपना. समाज तो अपना बदल रहा है और कुछ हद तक सरकार भी पर अभी
नीतियों या क्षमता के स्तर पर यह बदलाव धरती पर नहीं दिखाई दे रहा है. फिर भी
उम्मीद है कि मोदी देश को बदलेंगे.
आज़ादी के ६५ साल में भारतीय समाज ने अपेक्षाएं
रखना भी छोड़ दिया था और नैराश्य शाश्वत भाव में आ गयी थी. सरकारों, सत्ताधारियों
और राजनीतिक वर्ग के प्रति एक घोर अविश्वास का भाव घर कर गया था. किसी समाज में
ऐसे भाव आना बेहद खतरनाक होता है. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक गांधीवादी अन्ना
हजारे के नेतृत्व में जिस तरह अचानक समाज जगा तो लगा कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ
है. के बाद यह लगने लगा
फिर आज देश
लेकिन अगर घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था, ट्रेन चल रही थी, पैसे खा के भी सड़क बन रही थी और मोबाइल गाँव तक पहुंचा था तो
कहीं लगता था कि समाज में हीं कोई पांच प्रतिशत ऐसा वर्ग है जो आज भी काम करता जा
रहा है. ऐसे में एक नेतृत्व आता है और इस पांच प्रतिशत को ५० प्रतिशत तक विस्तारित
करता है कम से कम आशा के भाव में लाता है.
मोदी हीं एक ऐसे नेता हैं जो सोचते हैं , विकास
के प्रति एक ललक है और अद्भुत वाक्-, कार्य – व संकल्प-शक्ति है जो सहज में
विश्वास पैदा करती है. इस आशा, उम्मीद और आरजू को फलीभूत करने में कुछ उपक्रम हुआ
भी है पर इसकी रफ़्तार बढ़नी होगी.
lokmat