Friday 15 August 2014

मोदी: एक राजनेता का समाज- सुधारक के रूप में भाषण


मोदी के भाषण में जनता से सीधे कनेक्ट की अद्भुत क्षमता


चूंकि भारत में द्वंदात्मक प्रजातंत्र है लिहाज़ा मीडिया का मूल काम सत्ता की गलतियों से, नेता की कमियों और सरकार की खामियों से जनता को बाबस्ता करना है. इस पैमाने पर मैं आम तौर पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का आलोचक रहा हूँ. लेकिन अद्भुत था लाल किले की प्राचीर से किसी प्रधानमंत्री का वह भाषण. किसी भी दृष्टिकोण से उस भाषण में कोई दोष निकालना मात्र हठधर्मिता होगी. वह किसी राजनेता का परंपरागत “हम बनाम वे” के भाव में दशकों को दिया जा रहा भाषण नहीं था. बल्कि लगता था कि एक ऐसा समाज- सुधारक भावना के संतुलित अतिरेक में बोल रहा है. यह कहना मुश्किल होगा कि प्राचीर पर मोदी स्टेट्समैन बड़े थे या समाजसुधारक बड़े.
वह मोदी का आत्मविश्वास हीं था प्रधानमंत्री के रूप में स्वतंत्रता दिवस भाषण को बगैर लिखे बोला. जिस तरह का देश में माहौल है उसमें बगैर किसी बुलेट-प्रूफ केबिन में बंद हुए धाराप्रवाह ४५ मिनट बोलना अपनी सुरक्षा बलों पर भरोसा दर्शाता है. मैंने नेहरु को भी सुना है. अटल बिहारी वाजपेयी को भी इसी प्राचीर से बोलते हुए सुना है. पर मोदी का भाषण ना केवल अलग था बल्कि पहली बार लगा कि कोई प्रधानमंत्री अभिभावक भी, तो समाजसुधारक भी. शासन का मुखिया भी है तो सेवक भाव भी रखता से. आध्यात्मिक गुरु भी है तो गरीबों का मसीहा भी.
अद्वैतवाद से अवमूल्यन तह लगभग हर पहलू पर एक सन्देश देकर मोदी ने ना केवल अपने को जनता से कनेक्ट किया बल्कि उसे सोचने पर मजबूर किया कि क्या वे यही भारत अपनी अगली पीढी के लिए छोड़ जायेंगे?
क्या पिछले ६६ सालों में आपने कभी किसी प्रधानमंत्री को यह कहते सुना कि माँ-बाप अगर अपने बेटे से पूछे कि तुम कहाँ जा रहे हो , किसलिए जा रहे हो, तो आज यह बलात्कार की घटनाएँ ना होंगी ? यह गहरी बात है. एक ऐसे समय में जब अभिभावकों का अपने बेटों पर नियंत्रण कम हो रहा है और नतीज़तन लम्पटता चरम पर हो (किशोरों द्वारा किये गए बलात्कार व अन्य अपराध इसके गवाह है) मोदी का उलाहना हर अभिभावक के लिए गहरी नसीहत है. मोदी के इस अपील में ना तो कोई वोट पाने की हवास थी ना हीं कोई अपने को उचित ठहराने की ज़द्दोजेहद. एक निर्दोष गुज़ारिश थी. परिवार को फिर से संगठित कर सोशल पुलिसिंग को या पारिवारिक नियंत्रण को फिर से बहाल करने की. युवा पौध में विकृति घर से शुरू होती है यह समाजशास्त्रीय सत्य है. इसी पौध को फिर से जंगल की झाड़ी ना बना कर बाग में तराशे फलदार पेड़ लगाने की ललक.
तीन बार इस इसरार के साथ कि “मेरी बात के राजनीतिक मायने ना निकले जाएँ” मोदी ने शासन में पनपे आपसी दुराव का ज़िक्र करते हुए कहा “सरकार के हीं दो विभाग एक दूसरे के खिलाफ अदलत में गए थे, एक विभाग और दूसरे विभाग में कोई ताल-मेल नहीं था”. ठीक इसके पहले प्रधानमंत्री ने विपक्ष को साथ लेकर चलने की प्रतिबद्धता जताई और हाल में ख़त्म हुए संसद सत्र के दौराम सभी पार्टियों के सकारात्मक भाव की जबरदस्त प्रशंसा की. कहीं “वो बनाम हम” का भाव नहीं था.
दुखती रगों को मात्र छूना हीं नहीं, उन पर हल्का से दबाव डाल कर मवाद निकलना मोदी की भाषण कला का अहम् अंग है. लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए एक बार फिर प्रधानमंत्री ने उन रगों को झकझोरा. “मीडिया लिखता है नयी सरकार के आने का बाद अफसर समय से आने लगे. यह खबर किसी भी प्रधानमंत्री को खुश कर सकती है पर मुझे दुःख हुआ कि सरकारी कर्मचारी का समय पर आना भी मीडिया की खबर है.” दरअसल पिछले ६६ सालों में हम अफसरों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के इतने आदी हो चुके हैं कि अब उनका समय से आना भी खबर बन जाता है.
अपने भाषण की शुरुआत हीं मोदी ने अपने को प्रधान सेवक” कह शुरू किया और यहीं से शुरू हुए जनता से उनका “कनेक्ट”. याद आता है स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण जिसमें संबोधन “ब्रदर्स एंड सिस्टर्स” कह कर संबोधन करते हीं पूरा अमरीका उनका मुरीद हो गया.
आजकल गुरुओं का जमाना है. कोई “लव गुरु” कहलाता है तो कोई “मैनेजमेंट गुरु”. मोदी को “कनेक्ट गुरु कहना गलत नहीं होगा. आज के भाषण के विशेष पहलू हैं : जनता को भोवोत्तेजित (इंस्पायर) कर के अपने अन्दर झांकने के उत्कंठा पैदा करना और यह विश्वास दिलाना कि तुम एक कदम बढ़ो हम दस कदम बढेंगे”. पिछले कुछ दशकों में राजनेताओं में यह क्षमता खो दी थी कि उनकी बातों पर जनता विश्वास करे.
जनता से कनेक्ट होने के कुछ और नमूने देखिये. “हल से हरियाली” , “कम. मेक इन इंडिया” (आओ और भारत में उत्पादन करो), “केमिकल से फार्मास्यूटिकल तक” , “संसद मॉडल ग्राम योजना”, “डिजिटल इंडिया”. “आदर्श ग्राम” “जीरो-डिफेक्ट , जीरो इफेक्ट” “प्रधानमंत्री से प्रधान सेवक” “प्रधानमंत्री जनधन योजना” “बेटियों पर इतने बंधन , बेटों पर कोई नहीं”. ये जुमले आम राजनीतिक जुमलों से हट कर थे. इनके ज़रिये मोदी ने जनता से सीधा संवाद बनाया लाल किले के भाषण से.
दंगों के वातावरण पर भी उसी गरिमा से मोदी ने प्रहार किया. कहीं कोई हिन्दू-मुसलमान टाइप परम्परागत या धर्मनिरपेक्षता की दुहाई नहीं. सीधा संवाद. “आओ , हम मरने –मारने की दुनिया को छोड़ कर जीवन देने वाला समाज बनायें”.
मोदी ने इन सब के अलावा जो सबसे क्रांतिकारी घोषणा की वह थी , “हर गरीब परिवार को एक लाख का बीमा”. आजाद भारत में शायद यह पहली बार सोचा गया कि सोशल सिक्यूरिटी का कवच दे कर गरीबों को भी “भविष्य की चिंता” के दंश से मुक्त किया जाये. देश में नए आंकड़े के अनुसार सात करोड़ के करीब गरीब परिवार हैं. परिवार के मुखिया के निधन पर परिवार के सदस्य यतीम हो जाते हैं , शिक्षा न मिलने से बच्चे लम्पटता या अपराध की ओर उन्मुख होते हैं और कमी के आभाव में ऐसे परिवार गरीबी की उस गर्त में चले जाते हैं जहाँ से निकलना असंभव होता है. मोदी की यह योजना दूरगामी और क्रांतिकारी दे ने परिणाम वाली है.
अपने को देश की सीमाओं से बाहर निकलते हुए मोदी ने पूरे सार्क देशों की गरीबी पर अघात किया और सन्देश था –हम सब मिलकर इससे लड़ें. यह चीन द्वारा पाकिस्तान या नेपाल को दी जाने वाली कुटिल मदद से काफी अलग थी, एक निर्दोष भरोसा दिलाने का प्रयास था.
कुल मिलकर लाल किले से हुए मोदी का भाषण विश्व की यूनिवर्सिटीज में “हाउ टू कनेक्ट विद द मासेज” (कैसे हो जनता से तादात्म्य) पढाये जाने लायक था.

jagran 


Sunday 10 August 2014

एक भ्रष्टाचारी जज और बौनी होती संस्थाएं




सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व जज और प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयान से उपजे विवाद से देश के सड़ते सिस्टम की गहरी जड़ों का पता चलता है. यह पता चलता है कि कैसे देश के तत्कालीन ६७ करोड़ मतदाताओं द्वारा सन २००४ में तथाकथित प्रजातान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार को इस बात का खतरा था कि मद्रास हाई कोर्ट में एक अदने से भ्रष्ट अतिरिक्त जज का प्रभाव इतना हो सकता है कि देश की सरकार गिर सकती है. इटली की सत्ता पर माफिया प्रभाव भी इस प्रभाव के सामने फीका नज़र आता है. यह भी समझ में आता है कि ६५ साल बाद भी हमारा प्रजातंत्र एक ढकोसला मात्र है.
सरकारें संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेती हैं फिर अपने गिरने के डर से किसी डी एम् के से समर्थन लेती हैं , फिर वह डी एम के उस सरकार में शामिल होता है और मजबूर करता है कि उसके द्वारा नामित मंत्री को स्पेक्ट्रम घोटाला कर के देश को १.७६ लाख करोड़ का चूना लगाने दे. यह सहयोगी दल मजबूर करता है केंद्र सरकार को कि वह भ्रष्ट जज को नियमित करे. सरकार का प्रधानमंत्री और कानून मंत्री देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था की कॉलेजियम को निष्क्रिय करता हुआ जज की नियुक्ति करवा लेता है. आखिर वह कौन सी मजबूरी थी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की या कॉलेजियम के अन्य चार में से दो जजों की जो ऐसा करने को मजबूर होते हैं? उनकी तो कोई सरकार नहीं थी जिसके गिरने का ख़तरा था? उन्हें तो संविधान निर्माताओं ने बेहद मजबूत पाये पर खड़ा किया था और अगर वे सरकार की बात नहीं मानते तो उनको कुछ भी आंच नहीं आती. संवैधानिक व्यवस्था हमारे निर्माताओं ने इतनी पुख्ता कर डी है कि अगर देश की पूरी संसद भी चाहती तो उन्हें नहीं हटा सकती थी. देश के सर्वोच्च या उच्च न्यायलय के जज को मात्र “सिद्ध दुराचार” के आधार पर हीं हटाया जा सकता है वह भी एक जटिल और अलग संसद में विशेष बहुमत की प्रक्रिया के ज़रिये.
इसी सर्वोच्च न्यायलय की नौ –सदस्यीय संविधान पीठ ने एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के १९९४ के फैसले में कॉलेजियम की व्यवस्था करके जजों की नियुक्ति का पूर्ण अधिकार अपने पास लिया था. फैसले का आधार यही था कि सरकारों को इन नियुक्तियों में प्राथमिकता देने से नियुक्तियों का राजनीतिकरण हो रहा है. और था भी ऐसा हीं. कोई मुख्यमंत्री अपने दो आदमी लाता था तो कोई केंद्र में बैठा कानून मंत्री अपने दो और इस बन्दर बाँट में न्यायपालिका भी अपने एक –आध आदमी रख लेता थी. जब यह फैसला आया तो पूरे देश में यह विश्वास बना कि अब देश की न्यायपालिका में अच्छे लोग योग्यता के आधार पर आएंगे. हम सब लोग जो उस समय न्यायपालिका की रिपोर्टिंग करते थे यह विश्वास करने लगे कि फैसले से न्यायपालिका में अमूल-चूल सुधार होगा.
आज २२ साल जब यह पता लगा कि सत्य पर तन कर खड़े रहने की असली शक्ति ना तो न्यायपालिका में है , ना हीं किसी सत्ता दल या गठजोड़ में बल्कि यह शक्ति किसी भ्रष्ट अस्थाई अतिरिक्त जज की चेरी है. हमारा वो मतदान करना , वो संसद में वाद-विवाद , वो सी ए जी का २-जी स्पेक्ट्रम में हुए घोटाले का खुलासा और मीडिया में महीनों तक इस मुद्दे पर जनता को बताना किसी मतलब का नहीं था. वही पार्टी जिसने २००५ में इस जज की नियुक्ति अवैध तरीके से दबाव बना कर कराई उसी को हमने फिर वोट दे कर २००९ में जीता दिया. घोटालों के पर लग गए, कामनवेल्थ खेल घोटाला. कोयला घोटाला होता रहा. सी बी आई के निदेशक को बुलाकर कानून मंत्री अपने मुताबिक निर्देश देता रहा. देश का प्रजातंत्र चलता रहा. एक साल नहीं, दस साल नहीं, पूरे ६५ साल. और अब देखने से लगता है कि यह बढ़ता जा रहां है. अगर १९५१ में सर्राफा व्यापारियों के हित-साधन के लिए सांसद एच जी मुद्गल द्वारा पैसे लेकर संसद में सवाल पूछना पंडित नेहरु को इतना बड़ा अपराध लगा कि मुद्गल को संसद से अपमान करते हुए (उन्हें इस्तीफा नहीं देने दिया गया) हटाया गया तो इन ६५ सालों में हमने यही सिखा कि एक भ्रष्ट जज की नियुक्ति के लिए एक ऐसे पार्टी जो कई बार तमिलनाडु में सत्तानशीं रहीं है प्रधानमंत्री कार्यालय को ब्लैकमेल करती है और कार्यालय सत्ता न जाने देने के लिए झुक कर दोहरा हो जाता है. डी एम् की मात्र एक उदाहरण है. हमाम में जा कर देखना होगा.
अरुण सौरी ने अपनी एक किताब की शुरुआत में एक वैज्ञानिक प्रयोग का उल्लेख किया है. एक मेढक को गरम पानी वाले बर्तन में डालो. वह तुरंत कूद कर निकलना चाहेगा. परन्तु इसी मेढक को एक सामान्य तापमान वाले पानी के बर्तन में डालो. उस बर्तन को धीरे धीरे गरम करो. वह मेढक चुप-चाप तैरता रहेगा और यहाँ तक जब वह पानी उबलने लगेगा तो भी वह उसी में मर जाएगा पर भागने का कोई उपक्रम नहीं करेगा. इसका कारन यह माना गया कि पानी के धीरे –धीरे गरम होने से उसमें एक जड़ता आ जायेगी और वह उस संज्ञा –शून्य हो कर स्थिति से बचने का कोई प्रयास नहीं करेगा.
भारतीय समाज में भी वह जड़ता आ गयी है. यह मुद्दा भी संसद में कुछ दिन चर्चा का सबब बन कर दम तोड़ देगा जैसे तमाम भ्रष्टाचार के मामलों में हुआ. यही नहीं मेढक तो विवेकहीन होता है लिहाज़ा पानी के उबाल तक चुप-चाप पड़ा मर जाता है हमें ईश्वर ने दिमाग दिया है लिहाज़ा उसका इस्तेमाल कर अपने बच्चे की नौकरी लगवाने के लिए घूस देने लगते हैं, रेलवे में रिजर्वेशन के लिए दलाल तलाशते हैं और ठेका मिला तो १:३ की जगह १:१३ का मसला लगा कर लाभ को इंजिनियर के साथ बाँट लेते हैं , कुछ और बैंक बैलेंस बढा लेते हैं. यह नहीं सोचते को जिस बच्चे की नौकरी के लिए घूस दिया है वह एक सड़ते भारत में ताउम्र रहेगा और फिर अपने बच्चे की नौकरी लिए वह भी घूस हीं देगा. उसे यह अहसास भी नहीं हो पा रहा है कि अगर भ्रष्ट जज न होता , अगर २-जी स्पेक्ट्रम में १.७६ लाख करोड़ का घोटाला ना होता और अगर देश में ये भ्रष्टाचारी काले धन के सामानांतर हीं नहीं बल्कि अर्थ-तंत्र को खोखला करने वाला एक प्रभावी तंत्र विकसित नहीं कर चुके होते तो उसके बच्चे की नौकरी स्वतः हीं लगती और जीवन बेहद सहज होता. १.७६ लाख करोड़ रुपये से पूरे भारत को मुफ्त भोजन एक साल तक कराया जा सकता था.
  यह प्रश्न किया जा रहा है कि जस्टिस काटजू को यह इल्हाम आज क्यों आया. यह एक अजीब तर्क है. हम गुनगुनाते पानी के मेढक हो गए हैं और भ्रष्ट जज की नियुक्ति में दिखाई दे रही सिस्टम की सडांध हमें तकलीफ नहीं देती और हम जस्टिस काटजू में खामी खोजने लगते हैं. ताकि भविष्य में भी कोई व्यक्ति हिम्मत ना करे ऐसे मुद्दे उठाने की कि हमें पानी की गर्मी के अहसास से कूदने की मेहनत  करनी पड़े. धीरी-धीरे गरम होते पानी में मरना हमारी नियति हो चुकी है.  
 
rajsthan patrika

मोदी कहां फंसेंगे ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गहराई से समझना पडेगा कि क्यों पार्टी में कोई संगीत सोम (उत्तर प्रदेश का विधायक) पैदा होता है. क्यों उसकी हैसियत इतनी बढ़ जाती है कि सहारनपुर दंगों में उसे गाज़ियाबाद –स्थित घर में हीं नज़रबंद रखा जाता है जबकि कानून में प्रिवेंटिव डिटेंशन का प्रावधान है और पार्टी में ऐसे लोगों को बाहर करने का. क्यों अचानक भारतीय जनता पार्टी का उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष एक पुलिस कप्तान को चुनौती देता है कि “तुम नज़रों पर चढ़ गए हो, आने दो प्रदेश में हमारी सरकार”. क्यों अचानक देश के सबसे बड़े राज्य में दंगे बढ़ जाते हैं. हम यह तो समझ सकते हैं कि क्यों सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में आज़म खान पैदा होते हैं. क्यों राज ठाकरे, अबू आज़मी या अकबरुद्दीन ओवैसी  बदस्तूर देश की राजनीतिक छाती पर मूंग दलते हुए अपनी शक्ति बढ़ाते हैं और उसका मुज़ाहरा करते हैं. क्यों कोई युवा मुख्यमंत्री नीम-अवचेतना में चला जाता है और क्यों पार्टी के मुखिया और तथाकथित समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को गलतियाँ सरकार में नहीं मीडिया में दिखाई देती हैं. पर क्या भारतीय जनता पार्टी या मोदी इसी स्तर पर संगीत सोम सरीखे लोगों को लाकर या दंगों में “हम बनाम वो” (अस वर्सेज देम) का भाव रख कर समस्या का निदान तलाशेंगे?
आइंस्टीन ने कहा था “उन महत्वपूर्ण समस्याओं का, जिनका हमें सामना करना पड़ता है, तब तक समाधान नहीं निकल सकता, जब तक हमारी सोच का स्तर वही रहता है जिस सोच के स्तर पर हमने वे समस्याएं पैदा की थी”. इस “अस-वर्सेज-देम” के भाव से ना तो फिलस्तीन समस्या, न इराक या लखनऊ की शिया-सुन्नी समस्या , ना हीं कश्मीर समस्या का हल आज तक हो पाया है. फिर क्या संगीत सोम, आज़म खान, अबू आज़मी और ओबैसी से इतनी बड़ी समस्या दोनों समुदाय या राजनीतिक वर्ग दूर करवाना चाहता है?
जो मोदी को थोडा-बहुत जानते हैं वह यह भी जानते हैं कि यह उन कुछ थोड़े से नेताओं में हैं  जो  बेहतर परफॉर्म करने की बारे में सोचते हैं. वे यह भी मानते हैं कि इनकी सिंगल-पॉइंट दिली कोशिश होगी कि अल्पसंख्यक उनसे भय खाना तो दूर उन पर भरोसा रखे. किसी भी नेता के लिए यह उपलब्धि का सबसे अच्छा मकाम होता है जब आपसी वैमनस्य रखने वाला हर वर्ग उस पर पूरा भरोसा रखे. लेकिन इस तरह के मकाम तक पहुँचने के दो तरीके हैं. पहला : नेता अपने प्रति विश्वास का सहारा लेता हुआ वैमनस्य रखने वाले दोनों वर्गों का ध्यान इस मुद्दे से हटाने के लिए उन्हें अच्छे और समृद्ध जीवन की ओर प्रेरित करे. टमाटर और प्याज का भाव दोनों को अखरता है. रोज़गार दोनों को चाहिए.
खतरा यह है कि अल्पसंख्यक वर्ग में लम्पटतावाद फिर धरातल पर आ जाता है जब  मुलायम या लालू शासन में आते हैं और ठीक उसी तरह कई सोम खड़े हो जाते हैं जब शासन उनके मन माफिक हो जाता है. पर कालांतर में समझ में आता है यह लम्पटतावाद पूरे शासन पध्यती (सिस्टम ऑफ़ गवर्नेंस) के लिए चुनौती बन जाता  है.  
यूरोपीय समाज के संविदा-आधारित व्यवस्था से हट कर हम भारतीय सम्बन्ध-आधारित समाज हैं. हम प्यार उंडेलते हैं. निष्ठा परोसते हैं, अपने रहनुमा पर देर से अविश्वास होता है. इसीलिए हमारे विश्लेषण में निरपेक्ष भाव से देखने की क्षमता भी देर से आती है. लिहाजा हमारा समाज अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अगले एक साल तक सकारात्मक नज़रों से देखेगा.  
हमने नेहरु को भारतीय जन-मानस का “चहेता” (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) दशकों तक माना. इंदिरा गाँधी को आपातकाल के बाद फिर वापस लाये. उनकी हत्या के बाद रिकॉर्ड समर्थन से राजीव को लाये. बोफोर्स घोटाले के बाद राजीव गाँधी  को नज़रों से उतारा लेकिन फिर अगले २५ सालों तक कोई ऐसा नेता या पार्टी नज़र नहीं आयी कि हम तन-मन-धन से वही प्यार उंडेल सकें. मोदी में हमें वही `चहेता’ दिखाई दिया.
इन २५ साल्लों में समाज बदला. सूचना की विस्तार हुआ. सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिये नागरिकों की जनमत बनाने –बिगाड़ने में भूमिका बड़ी. तर्क-शक्ति बड़ी. सामूहिक सोच में गुणात्मक परिवर्तन आया. लिहाज़ा अब “चहेते” को ज्यादा समय नहीं मिलेगा. मोदी के लिए साल भर से ज्यादा समय नहीं है इस जन समर्थन को रोके रखने का. साल भर में अगर नहीं दिखा कि एक सार्थक प्रयास हो रहा है उन वायदों को वफ़ा करने का जो जनता से मार्च-अप्रैल में किये गए थे तो जनता को विमुख होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी.
मोदी को चुनौती जितनी बाहर से है उससे ज्यादा भीतर से है. एक तरफ मुलायम –लालू और अब नितीश की राजनीति है जो वैमनस्यता पर हीं राजनीतिक जुगाली करती हुई ज़िंदा रहती है. दूसरी ओर पार्टी और संघ का एक निचला वर्ग है जो यह समझ रहा है कि यह शासन हमारा है और अब हम हमेशा के लिए इस समस्या समाधान करके रहेंगे. वे इस यह प्रचंड मत को एक लाइसेंस के रूप में ले रहे हैं.
अगर मोदी को सफल बनाना है तो संघ को भी चुनाव के बाद निचले स्तर पर पैदा हुए “उत्साह” के भाव को रोकना होगा. ज़ाहिर ही कि संघ कभी नहीं चाहेगा कि मोदी असफल हों.फिर मोदी को भी मुख्य लड़ाई भ्रष्टाचार से लडनी है, महंगाई से लड़नी है , रोज़गार की कमी से लडनी है ना कि दो गुटों के वैमनस्य से.
फिर अल्पसंख्यकों में भी दानिश्वर (बुद्धिमान) समाज का विश्वास जीतना होगा कि इस वर्ग की बहबूदी के लिए सरकार कृतसंकल्प है ताकि वे इस समुदाय के लम्पट गुटों पर लगाम लगा सकें. आज अवसर है कि प्रधानमंत्री मोदी भारत की जनता से अपील करें कि कुछ समय के लिए यह वैमनस्य दर-किनार करें. संघ भी इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है. और जब यह दोनों पहल करेंगे तो सभी मुलायम या लालू या नितीश मजबूर हो जायेंगे इसी रस्ते पर चलने पर. यही मज़बूरी देश के लिए एक नया रास्ता बना सकेगी. सत्ता में बैठे लोगों की निष्पक्षता के प्रति हीं नहीं उनकी कार्यशीलता के प्रति भी पूरे भारत में एक नया विश्वास जगाना होगा जो चुनाव की राजनीति से हट कर होगा. जब तक राजनेता चुनाव की राजनीति से ऊपर नहीं उठेंगे या उन्हें मजबूर नहीं किया जायेगा “अस वर्सेज देम” का भाव बना रहेगा और नतीजा होगा मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) पर भारत का १३५ वें नंबर पिछले २५ साल से बना रहना.   .

lokmat