Saturday 28 May 2016

यू पी चुनाव: फिर वही पुराने हथकंडे, विकास कहीं दूर खड़ा

@n_k_singh

दो साल पहले जब देश की बागडोर जनता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ में दी तो हमारे जैसे राजनीति-शास्त्र के विद्यार्थियों के मन में एक विश्वास पैदा हुआ कि प्रजातंत्र की गुणवत्ता बदलेगी और सामाजिक चेतना अतार्किक और पारस्परिक वैमनष्यतापूर्ण पहचान-समूहों से हट कर विकास की तार्किक समझ के आधार पर अपने फैसले लेगी. यह भी भरोसा बना कि दुनिया के वे सभी चिन्तक और राजनीतिक धुरंधर जिन्होंने आजाद भारत में ब्रितानी वेस्टमिन्स्टर मॉडल की शासन –पध्यति के अनुकरण करने के खिलाफ १८७० से १९४७ तक लगातार चेतावनी दी थी गलत साबित होंगे. पर वे सही निकले. पहले बिहार और अब उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले साफ़ दिखाई दे रहा है कि जातिवाद, साम्प्रदायिकता और छद्म सेक्यूलरवाद का बोलबाला हीं नहीं रहेगा बल्कि इसका नग्न तांडव भी हो सकता है.  

इस हफ्ते चार दिन के भीतर हीं सोशल मीडिया में दो खबरें आयीं जिन्हें जाहिर है चैनलों और अखबारों ने भी समय और जगह दी. पहली अयोध्या से थी और दूसरी देश की राजधानी दिल्ली से सटे नॉएडा से. ध्यान रहे कि ये विजुअल्स मीडिया के अपने प्रयासों से नहीं मिलते थे बल्कि आयोजकों के जानबूझ कर इन्हें लीक किया था. अयोध्या --जहाँ संघ परिवार राम मंदिर बनवाना चाहता है और जहां आज से २३ साल पहले बाबरी मस्जिद नामक विवादस्पद ढांचा गिराया गया था. बजरंग दल जो कि संघ परिवार का अनुषांगिक संगठन है इस शांत क़स्बे में हिन्दू युवाओं को शस्त्र प्रशिक्षण दे रहा है जिसमें लाठी और तलवार चलना हीं नहीं बन्दूक चलाना भी शामिल है. उद्देश्य है हिन्दुओं को आत्म-रक्षा के लिए और आतंकवाद के खिलाफ शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करना. एक विजुअल में आतंकवादी हमले को नाकाम करने का माक -ड्रिल (छद्म अभ्यास) है. यहाँ तक तो ठीक है. अगर तलवार का लाइसेंस है (कुछ राज्यों में यह अनिवार्य है), बन्दूक उन्हीं के हाथ में है जो उसको रखने के कानूनी रूप से हकदार हैं और यह अभ्यास सार्वजनिक स्थल पर नहीं बल्कि निजी चाहरदीवारी के अन्दर किया जा रहा है तो यह कहीं से गैर-कानूनी नहीं है. लेकिन इस विजुअल में प्रदर्शित छद्म अभ्यास के आखिर में जिस "आतंकी" को मार गिराया गया है वह सर पर दोपल्ली टोपी और दाढ़ी (एक समुदाय विशेष का पहनावा) रखे दिखाया गया है. इस अभ्यास करने वाले बजरंग दल के नेता ने कैमरे पर कहा “जी हाँ, हम आतंकियों के खिलाफ हिन्दुओं को तैयार कर रहे हैं और जो कुछ मदरसों में हो रहा है वह नहीं चलने देंगे.

भारतीय दंड संहिता में १९७२ में एक संशोधन किया गया जिसके तहत सेक्शन १५३ अ (ग) लाया गया. उसके अनुसार ऐसा कोई भी अभ्यास, ड्रिल , आन्दोलन या ऐसी कोई अन्य गतिविधि जिसका आशय किसी अन्य समुदाय, नस्ल, भाषा या क्षेत्र के लोगों के खिलाफ हिंसा के लिए होने की आशंका हो, गैर-कानूनी है.  

उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने तत्परता दिखाई और अयोध्या के बजरंग दल के नेता को गिरफ्तार कर लिया. अगले तीन दिन मे नॉएडा में भी यही “अभ्यास” उसी बजरंग दल द्वारा किया गया. अगले दिन जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष से एक प्रेस वार्ता में पूछा गया कि यह क्या हो रहा है तो उनका कहना था “अगर ये अभ्यास गैर-कानूनी हैं तो उत्तर प्रदेश की सरकार कार्रवाई करे. उनका भाव चुनौती वाला था. यही वह पेंच है जो पूरे प्रजातंत्र के लिए मवाद भरे घाव का रूप ले रहा है. ६६ साल के प्रजातंत्र में हम यही तक पहुंचे हैं. किसी नितीश ने आतंकी इशरत जहाँ को बिहार की बेटी बताया तो किसी मुलायम ने गोरखपुर बम ब्लास्ट के आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने के उपक्रम किये और किसी लालू ने जेल में बंद अपराधी शहाबुद्दीन को अपनी पार्टी की कार्यकारिणी में मनोनित किया. मुलायम और लालू जब अपने समूचे परिवार को राजनीतिक पदों और लोकसभा और राज्यसभा में आसीन करवाते हैं तो वह लोहिया के सपनों को साकार करना बताया जाता है. प्रजातंत्र की विद्रूप चेहरा साफ़ दीखने लगता है. जाहिर है इस राजनीति का जिसमें शहाबुद्दीन की भूमिका हो या छोड़े जाने वाले आतंकी की भूमिका हो या चुनाव के समय मुख्यमंत्री मुसलमानों को आरक्षण दे डाली जो डंके की चोट पर संविधान का उल्लंघन है का प्रतिकार दूसरी विपक्षी पार्टी कैसे करेगी. लिहाज़ा भाजपा को अगर जिन्दा रहना है तो वह भी जहर को जहर से हीं काटेगी. लिहाज़ा बजरंग दल हिन्दुओं को “बचाएगा” , आतंकियों को ख़त्म करेगा और यह भी बताएगा कि आतंकी कौन से सम्प्रदाय से है. और जब यह सब कम लगेगा तो विजुअल्स मीडिया को लीक कर देगा और उसका नेता बताएगा कि मदरसों में क्या हो रहा है. सरकार को चुनौति दी जायेगी कि दम हो तो गिरफ़्तार करो। अखिलेश कर भी लेंगे क्योंकि उनके भी १८.५ प्रतिशत वोट पक्के। भाजपा भी हिन्दू ध्रुवीकरण के कारण ७९ प्रतिशत में चोंच मार सकेगी। घाटे में होंगी बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस जो इस खेल में अभी तक सेक्युलर -सेक्युलर हीं खेल पाये हैं । 

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय संविधान ने कब से आतंकवादियों से हिन्दुओं को बचाने का ठेका किसी बजरंग दल को दे दिया है. क्या राज्य के अभिकरण, देश की लगभग १६ लाख केंद्र और राज्यों की पुलिस, १३.५ लाख सेना कम पड़ रहीं हैं और अगर ये कम हैं तो क्या मुट्ठी भर लाठी-भांजते लोग इसे रोक पाएंगे. क्या आशय सच में हिन्दुओं को बचाना है और है तो क्यों नहीं राज्य के अभिकरण के खिलाफ प्रजातान्त्रिक लड़ाई लड़ी जाती कि उत्तर प्रदेश की दो लाख पुलिस क्यों आतंकवादी पैदा होना बंद नहीं कर पा रही है.

दरअसल आतंकवादियों से लड़ने के लिए राज्य अभिकरण हीं होते हैं समाज के लोग भी अगर उसी भाव में आ गए तो हम आतंकवादियों के खिलाफ आतंकवादी पैदा करेंगे और तब समस्या का समाधान होने की जगह भारत सीरिया, बोस्निया और चेचेन्या बन जाएगा.

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रेस वार्ता में इस मुद्दे पर दो  अच्छी सलाहें दीं. पहला , अगर बजरंग दल की गतिविधि गलत है तो उन पर कार्रवाई करे राज्य सरकार और दूसरा कि आप किसी संस्था ने क्या किया है पर ध्यान देने की जगह यह देखो कि सरकार (याने मोदी सरकार) क्या कह रही है और क्या कर रही है. पर अगर उनकी बात पर ध्यान दिया जाये तो मोदी सरकार के मंत्री हीं हर दूसरे दिन भारत माता की जय न बोलने वालों को “पापी” कहते हैं, हर तीसरे दिन ऐसे लोगों को पाकिस्तान भेजने की धमकी देते है” और हर चौथे दिन “न बोला तो कानून बनायेंगे “ का ऐलान करते हैं. क्या उनकी बात सुनीं जाये?

क्या अच्छा न होता कि मोदी की पार्टी कार्यकारिणी में की गयी अपील पर ध्यान देते हुए हर भाजपा , बजरंग दल , विश्व हिन्दू परिषद् और संघ परिवार का हर सदस्य नयी फसल बीमा योजना के लाभ, किसानों से जरूरत से अधिक यूरिया न इस्तेमाल करने की सलाह, और केंद्र के जन-कल्याण के अनेक कार्यक्रमों को जन-जन तक ले जाते ? इससे विश्व में भी संघ की साख बढ़ती और देश में समरसता भी. 

Monday 23 May 2016

मीडिया को नहीं तो कम से कम न्यायपालिका को तो बख्श दो सरकार !!



फ़्रांस के समाजशास्त्री अलेक्सिस टाक्विल (१८३५) और ब्रिटेन के राजनीतिक दार्शनिक जॉन स्टीवर्ट मिल (१८६०) ने २५ साल के अंतराल में प्रजातंत्र के दो नये खतरों के प्रति आगाह किया था. पहले का मानना था कि “बहुमत के आतंक” के शिकार व्यक्ति के पास कोई बचने का चारा नहीं होता. दूसरे ने इस भय की ओर इंगित किया था कि “प्रजातंत्र मात्र एक शासन पद्धति न होकर असंगठित भीड़ की पसंद और नापसंद को देशवासियों पर बलात थोपने की प्रक्रिया है”.    

जब मोदी सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री ६० दिन में दो बार (एक बार प्रेस नोट जारी करके) जन-मंचों से अपने प्रधानमंत्री को “भारत के लिए ईश्वर का उपहार” बताता है और उसे फटकार नहीं पड़ती या पद से इस सामंती चाटुकारिता के लिए हटाया नहीं जाता तो डर लगता है कहीं पूरे देशवासियों को शासन अपनी दंड –शक्ति से इस नए “दैवीय उपहार” की वंदना करने को मजबूर तो नहीं करेगा. तार्किक समाज में तो “संविधान” को देश की सामूहिक सोच का उपहार माना जाता है। उसी समाज से वोट लेकर मंत्री मंत्री बनता है और प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री और उसी संविधान की शपथ के बाद मंत्रिमंडल शासन करता है. अगर इसके अतिरिक्त कोई “उपहार” है तो वह व्यक्तिगत सोच हो सकती है जो जन-धरातल पर व्यक्त नहीं की जानी चाहिए बल्कि कमरे के अन्दर “अर्चना” की जानी चाहिए. इसी भाव में जब एक अन्य मंत्री “भारत माता” की जय न बोलने वालों को “पापी” बताता है और ऐसे लोगों को कानून बना कर मजबूर करने की धमकी देता है तो भी डर लगता है. यह डर तब और बढ़ जाता है जब एक अन्य सबसे प्रभावी मंत्री न्यायपालिका पर जनता के बीच जा कर सतत हमला करता है.

क्या हो गया है भारतीय जनता पार्टी के विवेक को? “पापी” या “दैवीय उपहार” यह सभ्य और तार्किक समाज के शब्द नहीं हैं. और भारत के संविधान में तो हर नागरिक से “वैज्ञानिक सोच” विकसित करने की अपेक्षा (अनुच्छेद ५१ ज) में की गयी है तथा उद्देशिका में भी “उपासना की स्वतन्त्रता” दी है.

देश का प्रजातंत्र एक खतरनाक मोड़ पर है. भारतीय समाज अनगनित पहचान समूहों में बंटा है और सत्ता में जगह पाने की जबरदस्त लड़ाई चल रही है. राजनीति –शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार प्रजातंत्र में जन-धरातल पर तो यह लड़ाई अनवरत रूप से चलती रहती है लेकिन सत्ता में आया दल निर्विकार भाव से कुछ पूर्व-स्थापित मूल्यों, संविधान और तज्ज़नित विधियों के अनुरूप शासन करता है. यहाँ एक लक्ष्मण रेखा होती है. जब पहचान समूह या समूहों के बल पर सत्ता में आया दल या दलों का गठबंधन दूसरे पहचान समूह या समूहों को एक सीमा से ज्यादा नज़रअंदाज या प्रताड़ित करने की कोशिश करता है तो मीडिया या न्यायपालिका तन कर खडी हो जाती है. यह प्रजातंत्र की खूबसूरती है कि जब कोई एक संस्था पाक्षिक, अनैतिक या अकर्मक होने लगती हो तो दूसरी संस्था उसे सही रास्ते पर लाने के लिए अपनी भूमिका में थोडा विस्तार करती है याने मीडिया का कवरेज बढ़ जाता है , भाषा तल्ख़ हो जाती है और न्यायपालिका का रुख सख्त.  

मोदी सरकार का एक मंत्री मीडिया को “प्रेस्टीच्यूट” (प्रेस और प्रोस्टीच्यूट --पैसे के लिए शरीर बेचने वाली/वाला-- का शाब्दिक वर्ण -संकर) कहता है. एक अन्य मंत्री “जो भारत माता की जय नहीं बोलेगा वह पापी है का “श्राप” देता है",  दूसरे दिन उन्हें पाकिस्तान भेजने का ऐलान करता है और तीसरे दिन उनको इस पाप से बचाने के लिए कानून बना कर मजबूर करने की धमकी देता है. जाहिर है यह धमकी केवल अल्पसंख्यकों के लिए नहीं बल्कि उन सभी देशवासियों के लिए है जो सताधारी दल के इस भाव से सहमति नहीं रखते. क्यों “भारत माता की जय” ? क्यों भारत पिता की जय नहीं ? क्यों मादर-ए-वतन जिंदाबाद नहीं? क्यों भारत के प्रति अमूर्त सम्मान नहीं जो “अद्वैतवाद” का मूल है ? क्यों जय भी बोलें तो एक खास भाव में? याने सत्ताधारी दल शब्द भी अपने चुनेगा, उसका मूर्त रूप कैसा हो यह भी तय करेगा और निष्ठां व्यक्त करने का तरीका भी वही बताएगा ! और अगर यह सब नहीं किया गया तो कानून भी बना देगा क्योंकि वह संसद में बहुमत में है. और जब कभी न्यायपालिका इस कुप्रयास को संविधान के मूल दांचे के विपरीत बताएगा तो न्यायपालिका पर अपनी सीमा लांघने का आरोप लगेगा !    

जब बहुसंख्यक पहचान समूह और सत्ता में काबिज लोग यकसां हो जाते हैं, जब उनके मंत्री घूम –घूम कर अल्प-संख्यक पहचान समूह को पाकिस्तान भेजने का ऐलान करते हैं और जब सत्ता में बैठा सबसे प्रखर मंत्री देश की बची-खुची और सबसे सम्मानित संस्था को पानी पी –पी कर जन मंचों से कोसने लगता है तो लगता है प्रजातन्त्र का टिकना मुश्किल होगा. इस खतरे के अंदेशे को तब और बल मिलता है जब ऐसे मंत्री पर कोई लगाम नहीं लगाया जाता. साफ़ दीखता है कि बहुसंख्यक का यह भाव राज्य की परोक्ष नीति बन गयी है.

जब यू पी ए के काल में २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देश की हर संस्था ने सरकार के रवैये को गलत बताना शुरू किया, जब सी ए जी की रिपोर्ट के प्रकाश में मीडिया भ्रष्टाचार पर जबरदस्त कवरेज करते हुए सामूहिक चेतना में गुणात्मक परिवर्तन का सबब बना, जब सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता में बैठे लोगों पर भरोसा न करते हुए भ्रष्टाचार के बड़े मामले में जाँच अपनी देखरेख में कराना शुरू किया और जब इस अदालत ने देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी को “पिंजड़े में बंद तोता” कहा तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इन मंत्रियों को मीडिया, न्यायपालिका गलत नहीं लगी थी और उसी को आगे बढ़ाते हुए जनमत के आधार पर आना बुरा नहीं लगा था. नैतिकता तो तब होती जब घोषणा पत्र में मोदी को देशवाशियों के लिए “दैवीय उपहार” बताते और भारत माता की जय न कहने वालों को पापी प्रमुख बिन्दु होता? 

क्यों न्यायपालिका मजबूर होती है इस संस्थाओं को दिशा-निर्देश देने के लिए. देश के माहौल में जब सांप्रदायिक आवेश पैदा करना मंत्री का शगल हो जाएगा तो अखलाक मारा जाता है. मंत्री पूछता है “क्या सरकार ने मारा , क्या भाजपा ने मारा ?”. नहीं लेकिन मंत्री जब माहौल बनाता है तो एक वर्ग में उन्माद बढ़ता है और वह वर्ग मंत्री या पार्टी को खुश करने के लिए अखलाक के यहाँ कौन सा गोश्त पका है ढूढने निकल पड़ता है.

१९ वीं सदी के पूर्वार्ध में अमरीका में जैकसोनियन प्रजातंत्र की पूरे यूरोप में धूम थी. फ़्रांस के राजनीतिक चिन्तक अलेक्सिस टाकविल्ल उत्सुकतावश इसका अध्ययन करने उस सदी के तीसरे दशक में अमरीका पहुंचे. लौट कर सन १८३५ में उन्होंने “अमरीका में प्रजातंत्र” शीर्षक एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने “बहुमत के आतंकवाद” से आगाह किया. उनका कहना था “प्रजातंत्र  की कमियों को लेकर अब तक की यूरोपीय अवधारणा से हट कर जो सबसे बड़ा ख़तरा है वह बहुमत के आतंक का है. अगर कोई व्यक्ति इस आतंक से प्रताणित होता है तो वह किसके पास जाये ? जनमत के पास जो कि उसी बहुमत वाले के पास है ; विधायिका के पास जिसमें उसी बहुमत के लोग चुने गए है ; कार्यपालिका के पास जो उसी बहुमत की सरकार द्वारा नियुक्त की गयी है ; न्यायपालिका के पास जो इसी बहुमत के लोगों द्वारा चुने जाती हैं?” . भारत के संविधान में एक गनीमत है कि यूरोप या अमरीका से से हट कर न्यायपालिका स्वतंत्र है और यही एक सहारा है. लेकिन उसे भी लक्ष्मण रेखा दिखाई जा रही है.

lokmat/ hindustan