Monday 28 September 2015

संविधान : नेपाल में अशांति का स्रोत हीं नहीं भारत के साथ गहरा धोखा



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भगवान् राम द्वारा लोक-चर्चा के बाद निकाले जाने पर अगर गर्भवती माता सीता को वाल्मीकि आश्रम में शरण न मिली होती और वह अपने मायके जनकपुर (नेपाल) गयी होती तो नेपाल के नए संविधान के अनुसार पैदा हुए जुड़वाँ पुत्रों --लव व कुश—को नेपाली नागरिकता नहीं मिली होती. लेकिन वहीं अगर राम नेपाल के होते और सीता भारत की तो लव-कुश को यह दिक्कत ना तो भारत में आती ना हीं नेपाल में.  

नेपाल के नए संविधान के प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि इस देश में अशांति बनी रहे. उच्च जाति के मूल निवासी पहाड़ी लोग सत्ता के शीर्ष पर बने रहें और ५२ प्रतिशत मधेसी और आदिवासी (जो तराई क्षेत्र में रहते हैं) सदियों से चले आ रहे अभाव, अपमान और शोषण का शिकार बने रहें. इसमें कोई दो राय नहीं कि नए संविधान में भारत की चिंताओं को जानबूझकर नज़रंदाज़ किया गया है. इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि चीन की इच्छा को तरजीह दी गयी है बगैर यह सोचते हुए कि संविधान पड़ोसी देशों को साधने या नाराज़ करने का खेल नहीं बल्कि राष्ट्र के इतिहास की सर्वश्रेष्ठ और पवित्र प्रक्रिया है जिसकी विश्वसनीयता पर आंच आने का मतलब सालों साल चलने वाली अस्थिरता और अशांति. नेपाल में यह अशांति सितम्बर २०, २०१५ को इस नए संविधान के प्रभावी होने के साथ हीं शुरू हो गयी है. आज कई क्षेत्र कर्फ्यू की चपेट में हैं.

पांच ऐसे बिंदु हैं जिनको पुराने अंतरिम संविधान के प्रावधानों से हटा दिया गया है. उदहारण के तौर पर अंतरिम संविधान में चुनाव क्षेत्र बनाने का आधार जनसँख्या, भूगोल और अन्य विशेषता थी और मधेसी लोगों के मामले में मात्र जनसँख्या को आधार माना गया था. नतीज़तन मधेसी व आधिवासियों को जनसँख्या के आधार आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार संसद में ५८ प्रतिशत सीटें हासिल हो सकती थीं. नए संविधान के अनुच्छेद ८४ में इसे इस तरह संशोधित किया गया है कि अब केवल ४५ प्रतिशत सीटें हीं अधिक जनसँख्या वाले वर्ग के पास होंगी. इसी तरह अंतरिम संविधान के अनुच्छेद २१ (जो अब अनुच्छेद ४२ के रूप में हैं) में संशोधन कर के संवैधानिक पद पर बैठने वाले लोगों में वे लोग नहीं होंगे जो मूल नागरिक नहीं है और शादी या अन्य वजहों से गैर-मूल नागरिक हैं. चालाकी यहाँ तक की गयी है कि अब कोई नेपाली महिला नागरिक अगर भारतीय से शादी करती है तो इस विवाह से पैदा होने वाले बच्चे वह नागरिकता नहीं हासिल कर सकेंगे जो नेपाली पुरुष और भारतीय स्त्री के विवाह से पैदा होने वाले बच्चे कर सकेंगे. प्रयास यह है कि भारत नेपाल के सदियों पुराने सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक रिश्ते ख़त्म नहीं तो कम हो सकें और चीन से यह रिश्ते ज्यादा बढ़ सकें. यही कारण है कि अनुच्छेद ११(२) (ब) में “माता और पिता” से “और” हटा कर “या” शब्द लाया गया है.
      
नेपाल की संविधान सभा का दस साल के भीतर दो बार चुनाव हुआ. पहली संविधान सभा में माओवादियों को ३८.२ प्रतिशत सीटें मिली थी. नेपाली कांग्रेस और सी पी एम् (यू एम् एल) को क्रमशः १९.१ और १८.१ प्रतिशत. मधेशी जन संघर्ष मोर्चा को ८.८ प्रतिशत सीटें हासिल हुई. लेकिन अगले चार साल में माओवादियों के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ता गया और संविधान नहीं बन सका यहाँ तक इसका कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ाया भा गया. नतीज़तन २०१३ में फिर से नए संविधान सभा के लिए चुनाव हुआ और इस बार नेपाली कांग्रेस को बहुमत हासिल हुआ. कहना न होगा कि अगर संविधान सभा चुनने में हीं जनता चार साल में इतना बदल जायेगी तो उस संविधान की मजबूती कितनी होगी. संविधान कोई कानून बनाना नहीं है कि “अबकी नहीं बना तो अगले चुनाव में किसी और को सत्ता पर बैठा कर देखा जाएगा. यह पवित्र प्रक्रिया है जो उस राष्ट्र का भविष्य और शासन पध्यती से  

कानून की दुनिया में एक कहावत है “अगर आपको कानून और सौसेजेस (एक प्रकार का अंग्रेज़ी पकवान) पसंद है तो उन्हें कभी भी बनते हुए न देखें”. यहाँ तो पूरा संविधान हीं बनाया जा रहा है. लिहाज़ा विरोध स्वाभाविक है. जब भी संविधान बनता है तो तमाम पहचान समूह--- क्षेत्रीय, भाषाई, नस्लीय, जातिवादी, उप-जातिवादी, धार्मिक . सांस्कृतिक और भू-सांस्कृतिक आधारों पर दबाव बनना शुरू हो जाता है. इसमें संविधान निर्माताओं को तरह –तरह के समझौते करने पड़ते हैं और तरह –तरह की चालाकियों का सहारा लेना पड़ता है ताकि सर्वसम्मति न सही तो बहुमत बना रहे. संविधान बनने के बाद होने वाला उपद्रव कई बार इस बात पर निर्भर करता है कि निर्माताओं की नीयत में खोट कितना है, जन-चेतना कितनी तार्किक है, क्या ये तर्क वैज्ञानिक आधार पर हैं , क्या संविधान बनाने की ज़रुरत अन्य सभी भावनाओं पर भारी पड़ रही है?

भारत का संविधान इसका एक उदाहरण है. विश्व में सबसे ज्यादा वैभिन्य इस देश में आज भी है. कोई ३७४२ जातियां, ७२० बोलियाँ, २२ मान्यता प्राप्त भाषाएँ, १३ लिपियाँ, ५०० से ज्यादा रियासतें, चार वर्ण, आधा दर्ज़न से ज्यादा धर्म और दर्ज़नों सम्प्रदाय और सैकड़ों उप-सम्प्रदाय और पूजा-पद्ध्यती. लिहाजा हमारे संविधान निर्माताओं को कुछ ऐसे समझौते करने पड़े जिनके दुष्प्रभाव हम आज तक झेल रहे हैं. कश्मीर और समान नागरिक संहिता का न होना उनमें से कुछ हैं.          

अमेरिका का संविधान जो विश्व का सबसे पुराना संविधान है इससे ज्यादा प्रसव –पीड़ा से गुजर चुका है और दशकों तक उस दर्द की टीस देखी गयी. यहाँ तक कि जब १८६४ में गुलाम परम्परा का अंततः खत्म करने के लिए कानून बनाया गया तब भी एक ऐसा वक्त आया कि राज्यों ने और उनके सांसदों ने बगावत किया और अंत में राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन को खुले आम (लेकिन बंद हाल में) धमकी देनी पडी यह कहते हुए कि आप लोगों को अमरीकी राष्ट्रपति की ताकत का अंदाज़ा नहीं है”. यह अलग बात है कि अगर लिंकन की अगले चुनाव के पहले ह्त्या न हुई होती तो उनपर नयी सरकार इस धमकी के आरोप में मुकदमा चलाती.  

नेपाल में नया संविधान जो सातवीं प्रयास और जो एक नहीं दो-दो संविधान सभाओं द्वारा छः दशक की मशक्कत के बाद लोकतंत्रात्मक स्वरुप में बनाया गया है सामाजिक अंतर्विरोधों का पिटारा बन गया है. और कोई ताज्जुब नहीं कि यह कुछ समय बाद यह फिर बदला जाये. भारत की नाराज़गी को दरकिनार कर के इसे पिछले २० सितम्बर को राष्ट्र को समर्पित किया गया लेकिन हिमालय की गोद में बैठे और दो तरफ से दो बड़ी ताकतों –दक्षिण में भारत और उत्तर में चीन-- से घिरे (या अभिरक्षित?) भर में खुशी से ज्यादा गम का और गुस्से का इज़हार हुआ. क्या यह जन-इच्छा का प्रतिफल नहीं था ? क्या जनता कुछ और किस्म का संविधान चाहती है? क्या मात्र कुछ मुद्दों पर हीं विवाद है और अगर ऐसा है तो क्या इन्हें संशोधन कर कालांतर में सुलझाया नहीं जा सकता? ख़ुशी के मौके पर क्यों इतनी हिंसा का इज़हार?  

भारत को इस संविधान से ऐतराज है. एक तो वह यह चाहता था  कि नेपाल में इस संविधान के लागू होने की घोषणा बिहार चुनाव के बाद किया जाये और दूसरे राज्यों के गठन को लेकर भारतीय मूल के मधेसिया और स्थनीय थारू समुदाय के साथ भारत खड़ा है. संविधान निर्माताओं ने जिस तरह इस समस्या का हल निकाला है वह देखने में पक्षपात पूर्ण लगता है. राज्यों का गठन उत्तर से दक्षिण किया गया है जबकि यह दोनों वर्ग लम्बाई में पूर्व से पश्चिम में फैले हुए हैं. इसका नतीजा यह होगा कि इन राज्यों में भी पहाडी मूल का वर्चस्व रहेगा. लेकिन संविधान निर्मातों की तरफ हो कर अगर सोचा जाये तो अगर मधेशिया समुदाय को उनके बाहुल्य के आधार पर राज्य दे दिया जाये तो आने वाले दिनों में इस तरह के कई राज्य अपनी स्वतन्त्रता का मांग उठा सकते हैं और नेपाल टुकड़ों में बंट सकता है.  

दरअसल संविधान अगर किसी क्रांति की उपज हो तो इसे बनाने और मान्यता दिलाने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती. अमेरिका और भारत इसके उदाहरण हैं. दोनों के बीच जो एक सामान्य कारक है वह है ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी. लेकिन नेपाल में राजतन्त्र से आज़ादी के सुखद भाव पर कम्युनिस्ट पार्टियों का साया पडा और पूरा समाज छिटक कर परस्पर विरोधी पहचान समूहों में बंट गया. देखना है आने वाले दिनों में हमारा यह पडोसी कैसे एक आसन्न झंझावात से निपट पाता है.
lokmat