Thursday 17 August 2017

हमने प्रजातंत्र माने "अपना" समझा, सबका नहीं !


१५ अगस्त, १९४७ के सुबह की बात है. देश आजादी का जश्न मना रहा था. हल्की बारिश हो रही थी. वाराणसी के पास एक छोटा रेलवे स्टेशन था ---कोढ़ रोड, जिसे आज ज्ञानपुर कहते हैं. उस स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर फुन्नन सिंह भी अति-उत्साह में टेबल पर बैठे थे. ट्रेन आने का टाइम हो गया था. लेकिन एक भी आदमी टिकट लेने नहीं आया. फुन्नन सिंह अचम्भे में कार्यालय से बाहर निकले तो देखा कि सैकड़ों लोग प्लेटफार्म पर खड़े हैं. उन्होने चिल्लाकर कहा,”अरे भाई टिकट ले लो ट्रेन आने वाली है”. भीड़ का जवाब था, “अरे, अब किस बात का टिकट. अब ये अंग्रेजों की ट्रेन थोड़े ना है. आज से ये हमारी ट्रेन है”.  

दरअसल ७० साल की आज़ादी और तज्जनित प्रजातंत्र में हमने “अपना ट्रेन तो समझा हीं, ट्रेन में लगे गद्दे की रेक्सीन भी काट कर अपने लिए झोले बनाना शुरू किया. सार्वजानिक सड़क के किनारे लगी ईंटों को घर में ला कर दीवार खडी की इस भाव से “सर्व” तो “स्व” का हीं विस्तार मात्र है. फिर “अपनी जाति” और “अपने”  समुदाय के लोगों को अपने पर शासन करने भेजा. चूंकि सबकुछ “अपना” था तो किसी लालू यादव ने उसी “जनभावना” को आगे बढाते हुए “अपने” लोगों को ठेका दिया. फिर उन “अपनों” ने उन्हें जमीन लिख डाली. और फिर शुरू हुआ अब्राहिम लिंकन के मशहूर सिद्धांत का अमल -- “अपनों” का, “अपनों” के लिए , “अपनों” द्वारा नाभि-नाल भ्रष्ट रिश्ता जिसने प्रजातंत्र की स्थापित अवधारणाओं की चूल हिला दी. प्रजातंत्र के भारतीयकरण के मूल में लिंकन के पीपुल (जनता) और भारत के “अपनों” का मूल अंतर यह रहा कि हम “अपनों” का क्रमशः विस्तार किया. हमारा “अपना” सबसे पहले स्वयं, फिर बेटा-बेटी-पत्नी फिर रिश्तेदार से शुरू होता हुआ जाति और फिर समुदाय तक पहुंचा. नेता के लिए “अपना” माने उसकी जाति (कई बार उप-जाति भी) के लोग जो वोट देते हों, था. फिर चूंकि “फर्स्ट-पास्ट-द –पोस्ट” (ऍफ़ पी टी पी) चुनाव पद्धति में जीत के लिए मात्र जाति के लोगों से कई बार चुनाव वैतरणी पार नहीं होती तो किसी और जाति, उप-जाति को साधा जैसे नीतीश कुमार ने बिहार में महादलित नाम से एक नया पहचान समूह पैदा किया जो भारत के संविधान में तसव्वुर नहीं किया गया था, फिर अगर उससे भी मामला नहीं बना तो रमजान के दौरान दो-पल्ली टोपी पहन कर इफ्तार पार्टी देना शुरू किया. “अपनों” का विस्तार एक बार फिर हुआ जब साम्प्रदायिकता को हमने धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनाया. लेकिन यह दुधारी तलवार थी, ७० साल में आधा समय बीतने के बाद जाति के विस्तार की परिणति रिवर्स साम्प्रदायिकता में हुई. बड़ा सम्प्रदाय जाति को लगभग समाहित करने लगा और तब उदय हुआ एक नए राजनीति का. पांसा पलटा. आज वही बड़ी साम्प्रदायिकता का भाव राष्ट्रवाद के साथ समेकित हो गया है. हालांकि उसे हमने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संज्ञा दी. इन सब के बीच हमने कभी यह नहीं देखा कि पिछले ७० साल में हमारा विकास रेंगता रहा जबकि छोटे-छोटे देश मानव विकास सूचकांक पर हमसे काफी आगे निकल गए. देश का बाल मृत्यु दर, कुपोषण, गरीब-अमीर खाई, बेरोजगारी, अशिक्षा हमें शाश्वत भाव से घेरे रहा जबकि सत्ता पर बैठे लोग घोटाले पर घोटाला याने लाख रुपये के १९५० के जीप स्कैंडल से हमारे  “अपने” का विस्तार आज दो लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गया.                  
प्रजातंत्र मानव संगठन को लेकर हुए सार्थक चिंतन का सबसे बेहतरीन उत्पाद है. लेकिन इसके सफल होने की कुछ शर्तें हैं. पहली और अपरिहार्य शर्त है : समाज के लिए कुछ व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि और वह भी इसलिए कि समाज के हित में हीं व्यक्तिगत हित निहित है. एक व्यक्ति रात के अँधेरे में अपने घर का कूड़ा सड़क पर फेंक कर आगे बढ़ जाएगा यह सोचता हुआ कि उसका घर साफ़ हो गया. उसे यह नहीं मालूम कि उसी सोच का दूसरा व्यक्ति उसके घर के आगे उसी अँधेरे में अपने घर का कूड़ा फेंक चुका है. धीरे –धीरे हम भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णु होते गए. और यह मानने लगे कि हम जाति के नेता को वोट दें तो सही पर दूसरा सम्प्रदाय के नाम पर दे तो गलत.

“जनता को वैसा हीं शासन (सरकार) मिलता है जिसकी वह पात्र होती है”. यह कथन दुनिया के जाने-माने  फ्रांसीसी राजनीति –शास्त्र के विद्वान टोक्विल के नाम पर उदृत किया जाता है.

क्या आज यह सोचने की जरूरत नहीं है कि अगर इतने बड़े परमाणु हादसे के बाद जापान उभर सकता है, अगर एक ज़माने में अफीम के नशे में धुत रहने वाला चीन अपने ६९ साल के कम्युनिस्ट शासन के बाद आज दुनिया की दूसरे नंबर की अर्थ-व्यवस्था बन सकता है, अगर मात्र ४५ साल पहले पैदा हुआ बांग्लादेश मानव-विकास के तमाम परा-मीटर्स पर आगे हो सकता है तो हमें एक बार अपने सिस्टम, संविधान, समाज और संस्थाओं पर गौर करना होगा.
  
अब आते हैं भारत में प्रजातन्त्र के उदय (और अवसान) पर. ब्रिटिश प्रजातंत्र की अवधारणा तभी फलीभूत हो सकती है जब प्रजा की समझ बेहद संवर्धित हो. यही कारण था कि तमाम तत्कालीन ब्रिटिश शासकों और राजनीतिशास्त्र के पंडितों ने हीं नहीं गाँधी ने भी इस वेस्टमिनस्टर सिस्टम शासन पद्धति का विरोध किया पर अंग्रेज़ीदां नेहरु को ग्राम पंचायतों की बुनियाद पर सर्वोच्च संसदीय बुर्ज तैयार करना दकियानूशी सोच लगी. उनका यह गलत फैसला आज पूरे भारत के लिए नासूर बन गया़।

लोहिया के नाम पर दुकान चलने वाले लालू, मुलायम का समाजवाद अंत में भ्रष्टाचार का पर्याय बनते हुए अंत में हार के बाद फिर “अपनों” पर आ जाता है. याने मुलायम सिंह के उत्तर प्रदेश चुनाव में पराजित और सत्ताच्युत बेटे अखिलेश यादव को समाजवाद की नयी परिभाषा गढ़ने के लिए नारा देना पड़ता है “ जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी” याने आबादी के अनुरूप आरक्षण लालू के बेटे ने भी सत्ता से हटाने के बाद कहा कि वह “अपनों “ के बीच जायेंगे.
आज ७० साल बाद जरूरत है कि हमारी सामूहिक चेतना में “अपनों” की परिभाषा बदले और वही समाज के हित में समाहित हो लेकिन यह सब तब तक नहीं होगा जब तक हम जाति, धर्म और अन्य संकुचित सोच से नहीं उबरते.

हाल की कुछ घटनाओं के विश्लेषण से समझा जा सकता है कि ७० साल की आज़ादी और ६७ साल के गणतंत्र में हम कहाँ तक पहुंचे हैं, या फिसले हैं. गुजरात कांग्रेस के ४४ विधायकों को एक स्पेशल जहाज से पार्टी-शासित कर्णाटक में ले जा कर एक रिसोर्ट में छिपाया गया जैसे हिंसक जानवर से मेमनों को बचाने के लिए बाड़े की चौकीदारी की जाती है. डर था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उन विधायकों को  करोड़ों रुपये का लालच दे कर या डरा-धमका कर अपने पक्ष में वोट करवायेगी. कांग्रेस ने सार्वजनिकरूप से यह आरोप लगाया भी. याने औसत लगभग तीन लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक की नैतिकता इतनी कमजोर है कि कुछ करोड या किसी इनकम टैक्स अफसर की या थानेदार की धमकी से टूट सकती है. तो फिर प्रश्न यह खडा होता है कि ये विधायक जनता को किसी अतिवादी शासन से या असामाजिक तत्वों के खिलाफ कैसे खड़े रहेंगे? फिर कोई अम्बानी या अडानी इनसे कोई भी कानून बनवा सकता है और उनके द्वारा दिया गया पैसा तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. कांग्रेस गाँधी-नेहरु-पटेल-मौलाना-राजेंद्र की पार्टी रही है और देश को आजादी दिला चुकी है. दूसरी ओर अगर यह आरोप सही है तो अगला सवाल उठता है कि मोदी के “नोटबंदी” के कसीदे काढ़ने वाली पार्टी के पास नंबर दो के पैसे आये कहाँ से? अगर यह कांग्रेस का मात्र आरोप है तो क्या राजनीति में आरोपों का स्तर इतना गिर गया है? क्या ज़रूरी नहीं था कि बजाय आरोप लगाने के या डर के मारे अपने “ढोर” बचाने के लिए ६०० किलोमीटर दूर छिपाने की जगह कांग्रेस “स्टिंग ऑपरेशन” करती या विधायक पैसे ऑफर करने वाले के खिलाफ जन-आन्दोलन करते और तब भाजपा को कहीं मुंह छिपाने की जगह न मिलती? क्या विधायकों की नैतिकता “गरीब की लुगाई, पूरे गाँव की भौजाई” टाइप की थी जो कभी भी पतित हो सकती थी.            

दूसरी घटना थी हरियाणा की, जिसमें राज्य भाजपा के अध्यक्ष का बेटा तथाकथित नशे की हालत में किसी अधिकारी की लडकी का पीछा कर रहा था और अगवा करना चाहता था. राज्य के एक मंत्री ने अपनी तर्क शक्ति का परिचय देते हुए काउंटर-क्वेश्चन (प्रति-प्रश्न) किया , “ वह लडकी रात में सड़क पर कर क्या रही थी?” लालुओं और मुलायमों की तरह भाजपा प्रवक्ता ने कहा, “इससे नेता का कुछ लेना-देना नहीं है और कानून अपना काम करेगा”. अब यह जुमला इतना पुराना हो चुका है कि जनता फोरम समझ जाती है कि “अब तो कम से कम कानून काम नहीं हीं करेगा. वैसे प्रवक्ता और मंत्री ने शीर्ष नेतृत्व में अपने नंबर जरूर बढा लिए होंगे अगर नेतृत्व “शुतुर्मुर्गी भाव” रखता होगा.

क्यों बनाते है हम इतने कमजर्फ और अनैतिक लोगों को अपना रहनुमा। क्या महज़ इसलिये कि वह हमारा ग़लत या सही काम कराता है, इसलिये कि वह हमारी जाति का है या फिर इसलिये कि वह इतना बड़ा अपराधी है कि हमें कोई छोटा गुंडा या मुहल्ले की पुलिस हमें परेशान नहीं करेगी? तब फिर हम अपने लिये अच्छी सड़क या बेटे के लिये अच्छे स्कूल की अपेक्षा क्यों करते हैं क्योंकि टेकेदार और भ्रष्ट स्कूल प्रबंधनन भी तो उसी अपराधी-नेता की ढ्योढी पर मत्था टेकता है और वह भी मोटी थैली के साथ। 

jagran/ lokmat