Monday 28 January 2013

मैं हीं बदल गया हूँ कि दुनिया बदल गयी”?


                        नंदी के बयान से निकले कुछ प्रश्न 


अजीब है इस देश की तर्क-शक्ति. किसी भी मुद्दे पर भड़क सकती है और किसी भी बड़े से बड़े सामाजिक सरोकार की बात पर खामोशी अख्तियार कर सकती है. बड़े-बड़े नेताओं की बात जनता नहीं समझ पाती और बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों की बात जनता तो छोडिये स्वयं बुद्धिजीवी भी नहीं समझ पाते. राजनीति-शास्त्र के ज्ञाताओं का मानना है कि जिस समाज में तर्क-शक्ति कुंठित तथा बाधित हो और जो अनिर्लिप्त भाव से तथ्यों को ना देखता हो, जिसमे “सेंस ऑफ टाइम” (याने कब क्या बोलना चाहिए की समझ) ना हो, जो व्यंग्य और सपाट बयानी में फर्क ना कर पाता हो वह समाज प्रजातंत्र ऐसी उत्कृष्ट अवधारणा को पूर्णतः अंगीकार नहीं कर सकता और नहीं उसका पूरा लाभ उठा सकता है. 
जाने –माने समाजशास्त्री आशीष नंदी ने जयपुर साहित्य समारोह में भारी-भारी चश्मा लगाये बुद्धिजीवियों की गोष्ठी में कुछ ऐसा कहा जिसको लेकर ना केवल मंचासीन पैनल के सदस्य बल्कि पूरा दलित अवं पिछडा वर्ग गुस्से में आ गया और पुलिस को उनके खिलाफ केस रजिस्टर करना पड़ा.
अगर यही वाक्य या भाव गलती से किसी राजनीतिक व्यक्ति, मीडिया या अफसरशाही के किसी नुमाइंदे ने व्यक्त किया होता तो यही मंच पर बैठे बुद्धिजीवी अखबारों के पन्ने रंग देते या चैनलों के डिस्कशन में इन वर्गों की जेहनियत पर जार-जार रोते, गुस्सा करते और डेमोक्रेसी की लानत-मलानत करते. लेकिन चूँकि उन्हीं के एक स्थापित हस्ताक्षर ने, उन्हीं के सामने और उसी वर्ग को जिस को न्याय दिलाने के नाम पर अपने को महिमा मंडित करते रहे हैं, कहा कि दलित, आदिवासी और पिछड़े लोगों भ्रष्टाचार कि लिस्ट में अधिसंख्यकों में है, सभी बुद्धिजीवी आज उन्हें बचाने में लगे हैं.
बेहद संजीदा पत्रिका सेमिनार के सलाहकार संपादक हर्ष सेठी से लेकर सामाजिक न्याय के बौद्धिक अगुवा योगेन्द्र यादव तक इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि नंदी को गलत समझा गया. यानि वह वो नहीं कह रहे थे जो लोगों ने समझा.
ज़रा गोष्ठी में होने वाले कुतर्क को देखिये. एक पैनलिस्ट का कहना था “हमें ग़रीबों और हाशिये पर रहे वर्गों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार को हमारे दमनकारी कानून और नियमों के खिलाफ एक रणनीति के रूप में देखना चाहिए.” उनका मानना था कि गरीबों और हाशिये पर रहे लोगों का भ्रष्टाचार दरअसल संभ्रांत और उच्च जाति द्वारा किये गए अन्याय की भरपाई के रूप में है यानि “एवजी न्याय सिद्धांत” (कोम्पेंसेटरी थ्योरी) का प्रतिफल है. उनके हिसाब से इन वर्गों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार न्ययोचित व प्रजातंत्र को मज़बूत करने वाला है.
इस तर्क-वाक्य को विस्तार दिया जाये तो इसका मतलब हुआ मायावती, लालू, मुलायम, किये गए भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे मुकदमे गलत शोषणवादी कानून की वजह से हैं जबकि ये भ्रष्टाचार वास्तव में प्रजातंत्र को इतना मजबूत कर रहे हैं कि इसके कर्ताओं को पद्मा –श्री, और भारत रत्न दिया जाना चाहिए. कुतर्क का इतना भोंडा प्रदर्शन भारतीय औपचारिक तर्क-शास्त्र के लग्बह्ग दो हज़ार साल के इतिहास में पहले देखने को नहीं मिला है.
इससे किसी को ऐतराज़ नहीं कि तीन हज़ार साल के ज्ञात और लिखित इतिहास में इन वर्गों पर हुए अत्याचार के लिए वह सब कुछ किया जाना चाहिए जिससे उन्हें समानता पर लाया जा सके लेकिन क्या इसके लिए संविधानेतर रास्ता भी चुना जा सकता है? क्या हम कह सकते हैं कि दलित दरोगा अगर उच्च जाति की लड़की से बलात्कार करे तो उसे सामाजिक न्याय माना जाना चाहिए? क्या आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में माया, मुलायम के लिए जज का नजरिया दूसरा होना चाहिए? और अगर यह सही है तो फिर सारंडा के जंगलों में लोगों का या पुलिस का सर काटने वाले नक्सालियों ने क्या गलती की है ? वो भी तो शोषणवादी व्यवस्था के खिलाफ ट्राइबल लोगों को न्याय दिलाने के लिए कानून को परे रख कर हिंसा कर रहे हैं.       
“एक ने कही दूजे ने मानी, नानक दोनों ब्रह्म-ज्ञानी”. जयपुर साहित्य समारोह में तथाकथित बुद्धिजीवियों की गोष्ठी में एक पैनलिस्ट की बात दूसरे ने आगे बढ़ाई. ये थे प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी जी. हालाँकि उन्होंने बगैर किसी लाग-लपेट के कहा कि भ्रष्ट की लिस्ट में दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों का बाहुल्य है. लेकिन उनके समर्थन में आये बुद्धिजीवी जैसे योगेन्द्र यादव और हर्ष सेठी सरीखे लोगों का कहना है कि समझाने वाले हीं गलत है.
नंदी का तर्क सुनिए “ इसी क़िस्म का (यानि जो हाशिये पर परा वर्ग कर रहा है) भ्रष्टाचार भारत में गणतंत्र को और प्रजातंत्र को बचा रहा है और भारत के संभ्रांत वर्ग के स्वरुप को बहुलता दे रहा है.
यह बात सही है कि किसी भी तर्क-वाक्य को कसौटी पर डालते समय दो बातों का ध्यान में रखा जाना ज़रूरी है –पहला संदर्भिता और दूसरा विषय-वस्तु. हम अगर मान भी लें कि पूरी जिंदगी (जैसा कि योगेन्द्र यादव कह रहे हैं) नंदी हाशिये पर पड़े लोगों के बारे में सोचते –समझते और लिखते रहे लिहाज़ा वह दलितों, आदिवासियों या पिछड़ों के खिलाफ यह बात कह हीं नहीं सकते. लिहाज़ा उनका मानना है कि लोग इस व्यग्यात्मक शैली में कही गयो बात को समझ हीं नहीं सके.
लेकिन नंदी और दूसरे पैनलिस्ट द्वारा इस वर्ग द्वारा किये गए भ्रष्टाचार को उचित और प्रजातंत्र को मजबूती प्रदान करने वाला बताने के तर्क के बारे में योगेन्द्र यादव खामोश है. इन दोनों का यह कहना कि चूँकि हाशुये पर पड़े वर्ग को वह गुण हासिल नहीं हो सका है जिससे वह भ्रष्टाचार कर के बाख सके इसलिए मायावती, मुलायम, बंगारू पकडे जाते है जबकि उच्च जाति का नेता बाख निकलता है. अपराध-न्याय शास्त्र का एक सिद्धांत है “प्रश्न का ज़वाब प्रश्न नहीं होता” यानि अगर उच्च जाति भ्रष्टाचार करके बच जाति है तो इसका मतलब यह नहीं होता कि निम्न जाति को भी यह करने की छूट मिलनी चाहिए.
साथ हीं अगर योगेंरा यादव या सेठी साहबान के समर्थक तर्क-वाक्यों को लिया जाये (कि लोग व्यंग्यात्मक शैली जो नंदी के व्यक्तित्व से निसर्ग होता है याने आदत है) तो भी क्या इतने गंभीर मुद्दे पर और ऐसी औपचारिक गोष्ठियों में भी इस शैली का प्रयोग उचित है? फिर यह कौन सी शैली है जिसके व्यंग को मंच पर हीं बैठे अन्य बुद्धिजीवी भी समझने में असफल रहे , पूरा भारत नाराज़ हो गया और दलित व पिछड़े नेताओं को इनकी गिरफ्तारी की मांग करनी पड़ी. क्या नंदी व उनके पैरोकार तथा बाकि भारत के बीच में इतनी बडी बौद्धिक खाई है और अगर है तो गलती किसकी?
इस घटना के बाद कम से कम यह उम्मीद तो की हीं जानी चाहिए कि सीरियस मुद्दों पर खिलवाड़ ना किया जाये.