Friday 22 March 2013

संजू बाबा की सजा और क्षमा दान की वकालत



लगभग ५३ वर्षीय संजू बाबा (कन्फ्यूज ना होइएगा बाबा उपरी वर्ग में बच्चों को कहा जाता है और चूंकि बड़े आदमियों के बेटों को बूढ़े होने तक भी बचपन के नाम से बुलाया जाता है यह बताने के लिए कि संबोधन करने वाला कितना करीबी है लिहाजा फिल्म स्टार संजय दत्त अभी भी संजू बाबा हैं)  को २० साल बाद सजा हुई. देश का एक वर्ग, जिसमे संभ्रांत-व्रगीय चरित्र वाले लोग हैं, जार-जार रोये. फिल्म निर्माता महेश भट्ट और सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश से लेकर संजू बाबा को फिल्म में गांधीगीरी करते हुए प्रभावित होने वाला मध्यम वर्ग, इन सबने कहा कि “संजू बाबा अब बदल गए हैं और कोई तुक नहीं है कि एक बदले हुए व्यक्ति को फिर उसी गर्त में धकेला जाये”. क्षमा-दान की व्यवस्था का हवाला दिया गया.
अल्प-शिक्षा-जनित अतार्किकता वाले समाज में समुन्नत प्रजातंत्र के ढांचे थोपने का यही नतीजा होता है. हमरे अन्दर कब भावनाएं हिलोरे लेने लगे और हम कब “मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के नाम पर” ढांचा गिरा दें और कब राजीव गाँधी को बिन माँ का “बेटा” समझ या सोनिया गाँधी को “अबला” समझ कर दाता भाव से वोट दे दें इसका भरोसा नहीं. राष्ट्र-भक्ति से ओतप्रोत होकर हम “अभी जाओ और पाकिस्तानी सैनिकों का सर काट कर बता दो कि भारत महान है” का भाव ले लेते हैं. देश में हर मिनट पांच साल से कम आयु वाले तीन बच्चे दम तोड़ देते है या हर मिनट देश के उद्योगपतियों को ७० लाख रु की छूट दे देते हैं लेकिन इन बातों से हमें गुस्सा नहीं आता क्योंकि सिस्टम की खराबी समझने या शोषणवादी व्यवस्था को गहराई से जानने की हमारी सामूहिक सोच बनी हीं नहीं है. हमारी राष्ट्रभक्ति उस समय कुंद हो जाती है और हम किसी राजा या राजा भैया को अपने हीं हाथों से वोट दे कर संसद या विधान –सभा पहुंचा देते हैं. और हम खुश हो कर ताली बजाते हैं जब वह मंत्री बनने के पहले “भारतके संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा  की शपथ” लेता है. हमने अपने हाथों से वोट देकर वर्तमान लोक सभा में १६२ ऐसे सांसद भेजे हैं जिन पर गंभीर अपराध के मुकदमे विभिन्न स्तर पर चल रहे हैं.
तो संजू बाबा बदल गए. वह अपनी तीन बच्चों को पाल रहे हें, “वह समाज के प्रति सेवा का भाव रखते हैं और वह गांधीगिरी में विश्वास रखते है लिहाज़ा कोर्ट को उन्हें इस नए रूप को शाश्वत भाव में अंगीकार करने में संजू बाबा की मदद करनी चाहिए” आज प्रचलित तर्क (या कुतर्क) है. कुछ लोग इनसे भी ज्यादा लाल बुझक्कड़ है. “बीस साल तक यह कोर्ट कहाँ था. इतने दिनों में कितनी चीजें बदल गयो हैं और जब अपराधी भी बदल गया है तब कोर्ट जगती है” का सिस्टम पर प्रहार वाला भाव भी चल रहा  है. एक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ने तो महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील भी कर दी और यही नहीं महामहिम को संविधान का अनुच्छेद १६१ में क्षमा-दान के अधिकार भी बता दिए.
अब जरा तस्वीर के दूसरे पहलू पर गौर करें. “संजू बाबा बदल गए” तो बहुतों को मालूम है, तस्दीक के लिए उन्होंने गांधीगिरी वाली फिल्म भे देखी है, बाबा को ड्रग एडिक्ट से हट कर मुन्ना भाई के रोल में देखा है और यह भी मालूम है कि पारिवारिक जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं. लेकिन उसी दौरान गरीबों की झुग्गी से भी एक युवक इसी दफा में बंद हुआ था और उसने भी अपने जीवन को पूरी तरह बदलने की कोशिश की लेकिन हर बार पुलिस पुराने रिकॉर्ड खंगाल कर किसी ना किसी दफा में अन्दर कर देती थी. अगर मान लीजिये अन्दर नहीं भी किया तो जिंदगी की जद्दो-जहद में वह जूझता हुआ बच्चों को पालता रहा (अमेरिका में त्रिशला के पालन-पोषण की तरह नहीं ---संजू बाबा की तीन पत्नियों में पहली पत्नी से पैदा त्रिशला). लेकिन चूंकि वह सुनील दत्त –नर्गिस का बेटा नहीं था और ना हीं उसे सबसे बड़ी अदालत से जमानत मिली थी (वहां तक जाने की हैसियत सब में नहीं होती) तो किसी ने भी उसकी गांधीगिरी नहीं देखी –ना तो महेश भट्ट साहेब ने ना हीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज साहेब ने और ना हीं उस माध्यम वर्ग ने जो रोटी जीत कर संजू बाबा से भावनात्मक नजदीकी दिखा कर यह बताना चाहता है कि सिस्टम ऊपर के वर्ग के लिए नहीं नीचे वालों के लिए है. “संजू तो बदल गए झुग्गी वालों को जेल में डालो वो कमबख्त ख़ाक बदलेंगे, मालूम नहीं बदलने के लिए फिल्म में काम करना पड़ता है , उसमे गांधीगिरी करनी पड़ती है और फिर नर्गिस के कोख से जन्म लेना पड़ता है?” ये भाव स्पष्ट नज़र आते हैं ऐसे भौंडे तर्कों में.
इस कुतर्क को आगे बढाएं. अगर अपराध करने के बाद अपराधी का बदलना या ना बदलना कोई मायने रखता हो तो कसाब को भी छोड़ कर देखा जाता, एक-आध अच्छी फ़िल्मों में लीड रोल दी जाती और अगर वे बॉक्स ऑफिस पर सफल होती तो कसाब आज दुनिया में होता—गांधीगिरी करता हुआ. याकूब मेमन को भी बदलने का मौका नहीं मिला. दाऊद को भी भारत निमंत्रण देकर बुलाया जाये और २० साल देखा जाये संत बना कर. और अगर आशाराम से ज्यादा भीड़ “संत” दाऊद की सभाओं में हो तो उसे दोषमुक्त कर दिया जाये या क्षमादान देने की वकालत की जाये.  
परन्तु ये तो बदल जायेंगे पर उन २५७ परिवारों का क्या होगा जो जिनके सदस्य पहले से बदले हुए थे और अकारण १९९३ के सीरियल ब्लास्ट में मारे गए. उनके पत्नी और बच्चों का क्या होगा जो अनाथ  हो कर न तो पढ़ सके ना हीं अच्छे नागरिक का सर्टिफिकेट देने वाले फ़िल्मी दुनिया में जा सके. अभाव अक्सर अपराध की दुनिया में धकेलता है. क्या इनमे से कुछ उस दुनिया में नहीं चले गए होंगे या गुमनाम जिंदगी की जद्दो-जेहद में लग गए होंगे?  
देश की जेलों में आज लगभग १५ लाख कैदी है जिनमे लगभग तीन लाख सजायाफ्ता हैं और करीब १२ लाख विचाराधीन हैं. इनमें से कितनों के बारे में यह जानने की कोशिश हुई कि अपराध करने के बाद या आरोप लगने के बाद कौन कितना सुधरा. फिर इस सुधार का पैमाना क्या होगा –फिल्म में गाँधीगिरी या कई शादियाँ या बच्चे को अमरीका में पढ़ाना या अमर सिंह के साथ चुनाव सभाओं में भाषण देना. और कितनों को यह मौका मिलेगा?
जरा अंतिम तथ्य पर गौर करें. इस देश की निचली अदालतों में अगर तीन मुकदमें फौजदारी (आपराधिक) के होते हैं तो महज एक दीवानी (धन-संपत्ति का) का. लेकिन जैसे हीं हम उपरी अदालतों की स्थिति देखते है तो यह अनुपात उल्टा हो जाता है. यानी जो अपराध का दोषी है उनमें से तीन में से दो निचली अदालतों से सजा पाने पर सामर्थ्य के अभाव में अपील भी नहीं कर पाते जबकि धनवानों में हर तीन में दो अपनी पूँजी-संपत्ति के लिए बड़े अदालत-दर-अदालत जाता है.
इस का मतलब मुन्ना भाई की तरह वह टाडा कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायलय नहीं आ पाता और जेल की सलाखों में बाकि जिंदगी काट लेता है बगैर अपने को गांधीगिरी पर हाथ आज़माने का एक भी मौका पाए. उसके लिए ना तो कोई महेश भट्ट टीवी चैनलों में आंसू बहते हैं ना हीं कोई पूर्व जज राज्यपाल को उनके क्षमादान के अधिकार की याद दिलाता है.           

jagran   

गठबंधन धर्म या ब्लैकमेलिंग





राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार गठबंधन धर्मं की तीन शर्तें होती हैं : पारस्परिक टकराव के कम से कम कारक; झगड़े निपटाने के लिए एक मैकेनिज्म और जन-मानस में गठबंधन के उद्देश्यों के प्रति  विश्वसनीयता. द्रविड़ मुनेत्र कजगम (डी एम् के) इन तीनों मानदंडों पर असफल रहा. और उसकी जगह यू पी ए -२ की केंद्र सरकार के सामने उसने एक ऐसी मांग रखी जो ना मुमकिन-उल-अम्ल (अव्यावहारिक ) है. अगर उसकी मांग के सामने घुटने टेकते हुए भारत सरकार अमरीकी प्रस्ताव में तरमीम करते हुए या अपना प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् (यू एन एच आर सी)  के सामने रखे तो ऐसा प्रस्ताव ना केवल गिर जाएगा बल्कि भारत की जग-हसाई होगी. गँवाई भाषा में डी एम् के की इस मांग को “ब्लैकमेलिंग” कहा जा सकता है.
भारत के संविधान में नागरिक के मौलिक अधिकारों की वर्जना में शामिल है कि अगर कोई व्यक्ति इस अभिव्यक्ति से किसी मित्र देश से सम्बन्ध खराब होने का सबब बनाता है तो उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित की जा सकती है. यहाँ तो पूरा का पूरा दल हीं भारत-श्रीलंका संबंधों पर कुल्हाड़ी चला रहा है.
यह बात सही है कि श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे सरकारी अत्याचार को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. समूचे तमिलनाडु के लिए यह शायद सबसे बड़ा मुद्दा है. तमिल उग्रवादी संगठनों ने भी श्रीलंका  की सरकार से लगातार मोर्चा ले रखा है. लेकिन क्या कोई अन्य देश इस मुद्दे को लेकर यू एन एच आर सी  में यही प्रस्ताव ला सकता है जिसके तहत श्रीलंका की सरकार पर सीधा आरोप हो कि वह तमिलों का नरसंहार (जेनोसाइड) कर रही है. फिर श्रीलंका से भारत से सम्बन्ध हेमेशा से बेहतर रहे हैं. यहाँ तक कि  इन्हीं संबंधों के तहत उस देश में शान्ति सेना (आई पी के ऍफ़) भेजने की परिणति राजीव गाँधी की ह्त्या में हुई.  
यही बात भी सच है यह मुद्दा उठा कर और केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले कर डी एम् के नेता करूणानिधि अपने राज्य में हीरो हो गए है. राज्य की मुख्यमंत्री और ए आई ए डी एम् के की मुखिया जयललिथा की चमक फीकी पड़ गयी है. भारत के वित्तमंत्री प चिदंबरम इस दौराम संकटमोचक की रूप में चेन्नई गए ज़रूर पर कोई खास सफलता हासिल नहीं कर पाए. करूणानिधि ने समर्थन वापस ले लिए और चेतावनी दी कि अगर समर्थन चाहिए तो प्रस्ताव में “नरसंहार”  शब्द डालो. साथ हीं विश्व संगठन के सामने एक अन्य प्रस्ताव भी लाओ जिसके तहत किसी विश्वसनीय अंतर्राष्ट्रीय जांच आयोग द्वारा तमिलों के खिलाफ श्रीलंका के सेना व प्रशासन द्वारा की जा रही ज्यादतियों की जांच हो सके. डी एम् के ने करीब ४८ घंटे का अल्टीमेटम केंद्र सरकार को दिया है. इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिथा केंद्र सरकार को समर्थन देंगी क्योंकि चिदंबरम और उनके बीच ३६ का आंकड़ा है और वह आजकल मोदी और भाजपा के कहीं ज्यादा करीब नज़र आती है. वैसे भी लोक सभा में उनके पास डी एम् के के मुकाबले आधे सांसद हीं है.
लेकिन एक शक यह भी होता है कि कहीं यह पूरे खेल “नूरा-कुश्ती” का तो नहीं है. “तुन मुद्दा हड़पो, हम से मांग करो कि “नरसंहार” शब्द भारत के प्रस्ताव में हो, हम इसे संसद में लायें, लाजमी है कि वहां बैठे लोग यह शब्द नहीं लाने देंगे और कोई मुलायम शब्द प्रयोग करेंगे. डी एम् के का मुद्दे पर कब्ज़ा हो जायेगा, संसद से पारित भी हो जायेगा (हल्के शब्द के साथ). कहने का मतलब कि सांप भी मर जाएगा और लाठी भी बची रहेगी. दरअसल ज़रूरी नहीं कि राजनीति में जो दिखता है वही सत्य होता हो. बल्कि कई बार आभासित सत्य और असली सत्य में दूर –दूर तक रिश्ता नहीं होता.
बहरहाल अगर मान भी लिया जाये कि डी एम् के अपनी बात पर कायम रहेगा तो क्या सरकार गिरेगी क्योंकि कोई दिमागीरूप से दिवालिया राष्ट्र हीं इन मांगों को मान सकता है? शायद नहीं, क्योंकि लोक सभा में कुल २७२ सांसदों का समर्थन चाहिए. फिलवक्त यू पी ए -२ को २३६ सांसदों की समर्थन प्राप्त है. भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों --समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी – के क्रमशः २२ और २१ सांसद समर्थन देने को तैयार हैं –अपने –अपने कारणों से. लिहाज़ा सरकार के ऊपर कोई खतरा आसन्न नहीं है.  साथ हीं कोई भी संसद व्यक्तिगत रूप से और बहुजन समाज पार्टी दल के रूप में नहीं चाहते कि निश्चित अवधि से साल भर पहले चुनाव हो. छोटी पार्टियाँ व उनके नेता भी सरकार चलते रहने में हीं अपना भला देखते है. कहना ना होगा कि कुल करीब ५९ ऐसे संसद सदस्य है जो आज भी मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. हालांकि जल्द चुनाव होना समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के हित में होगा क्योंकि हाल हीं में उनकी पार्टी में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की है और अभी भी उनके बेटे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रशासनिक अक्षमता की कलई पूरी तरह नहीं खुल सकी है. लिहाज़ा जितनी जल्द चुनाव हो जाये उतना हीं अच्छा होगा.
बहरहाल किन्हीं अज्ञात कारणों से मुलायम तब तक केंद्र सरकार के समर्थन में रहेंगे जबतक उनको यह सुनिश्चित न हो जाए कि सरकार गिरना तय है. चूंकि बसपा सुप्रीमो मायावती की दिलचस्पी सरकार के चलते रहने में है लिहाज़ा दोनों पार्टियाँ इस सरकार को समर्थन देती रहेंगी.  
जहाँ तक कांग्रेस की बात है वह किसी भी स्थिति में इस समय, जब कि उसका स्टॉक भ्रष्टाचार के तमाम मुद्दों को लेकर गिरा हो, चुनाव नहीं चाहेगी. कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि उनकी दो भावी योजनाए ----लाभार्थियों के खाते में सीधा धन और बेहद सस्ते में ६७ प्रतिशत लोगों को अनाज (खाद्य सुरक्षा विधेयक) --- खेल बदलने वाला साबित होंगी. कुछ हद तक यह आशावादिता सही भी है क्योंकि सरकार के गोदामों में अनाज भरा पड़ा है , सड़ रहा है , केवल डिलीवरी उपयुक्त करना है. जहाँ तक खर्च का सवाल है मात्र रु २४,००० करोड़ का हीं अतिरिक्त व्यय आयेगा.
लेकिन इन सब सथियों से अलग जो मूल प्रशन है वह यह कि क्या गटबंधन का जीवन ब्लैकमेल के आधार पर चलेगा? अगर ऐसे सन्देश जनता में जाते हैं तो क्या इसका सीधा मतलब यह नहीं होगा कि शासक वर्ग से जनता का मोह भंग होगा जो एक खतरनाक स्थिति को जन्म दे सकता है.
पहले से भी यह माना जा रहा है कि मुलायम सिंह व मायावती के खिलाफ सी बी आई जांच समर्थन का एक बड़ा कारण हो सकते है. जिस तरह मुलायम के मामले में सी बी आई ने सर्वोच्च न्यायालय में बार –बार अपना स्टैंड बदला रहा है वह कहीं यह आभास तो देता हीं है कि आभाषित सत्य और यथार्थ में जबरदस्त विरोधाभास है.
राजनीति के इस खेल में अविश्वास का बाज़ार गर्म है. दुष्यंत ने इन्हीं स्थितियों को देखर कहा था :
“बहुत ऊँची यहाँ नीचाइयां हैं अभी कुछ और अपना सर तराशो”

bhaskar

विशेष राज्य की मांग के पीछे की राजनीति



“प्राकृतिक आपदा” पैरामीटर में जोड़ने की मांग ज्यादा कारगर होती

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छः करोड़ गुजरातियों के सम्मान की बात की तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साढ़े दस करोड़ बिहारियों के सम्मान की. दोनों सम्मान –सम्मान खेल रहे है. नीतीश को दर्द है कि जिन आधारों पर मोदी को भावी प्रधामंत्री के रूप में पेश किया जा रहा है उन्हीं आधारों पर हमें क्यों नहीं. लिहाज़ा “अधिकार रैली” में भीड़ जुटा कर बिहार को विशेष राज्य का दर्ज़ा दिलाने के नाम पर दिल्ली men  नीतीश ने अपने भाषण में कोशिश की कि उन्हें भी कम से कम से कुछ पिछड़े राज्यों की रहनुमाई का तमगा मिल जाये तो भविष्य में रायसीना हिल्स पर उनका भी दावा बने. पूरे भाषण में चार बार दिल्ली का नाम लेकर और यह बता कर कि वह यह लड़ाई सभी गरीब राज्यों के लिए लड़ रहे हैं, नीतीश ने दिल की बात जुबान पर लाई.

लेकिन बिहार को विशेष राज्य दिलानेकी मांग पर ना तो नीतीश गंभीर थे ना हीं वह तथ्यों को सही पेश कर पाए.
अर्थशास्त्र का प्रारंभिक कक्षा का छात्र भी बता सकता है कि यह मांग जिस स्वरुप में मांगी जा रही है केंद्र को कभी भी स्वीकार्य नहीं होगी. नीतीश ने अपने भाषण में अपनी तारीफ के कसीदे काढ़ने के बजाय बेसाख्ता बिहार के पिछड़ेपन के आंकडे और कमियां गिनाईं. सबसे कम प्रति-व्यक्ति आय जो राष्ट्रीय आय का महज एक-तिहाई से कुछ ज्यादा है, प्रति एक लाख आबादी पर कम सड़कें, कम रेल लाइनें, राष्ट्रीय औसत के मुकाबले छठवां हिस्सा प्रति व्यक्ति बिजली खपत, राष्ट्रीय औसत के आधा प्रति व्यक्ति विकास खर्च, पर्वतीय क्षेत्र ना होने का बावजूद हिमालय से निकली नदियों का बिहार में तबाही मचाना और आबादी का घनत्व. उनके कहने का मतलब था कि केंद्र अगर पैसे देता तो बिहार की यह हालत ना होती.

अपने भाषण में नीतीश ने बड़ी खूबसूरती से उन कार्यों का आंकड़ा नहीं दिया जिसमें राज्य सरकार की पूर्ण जिम्मेंदारी थी और उनमें राज्य लगातार पिछड़ता रहा. मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया कि शिक्षा की स्थिति क्यों गिरी है, स्वास्थ्य के पैरामीटर्स क्यों ज़मीन पर हैं, क्यों केन्द्र द्वारा भेजे गए सस्ते अनाज का महज ४५ प्रतिशत हीं राज्य सरकार उठा पाई जबकि आंध्र जैसा संपन्न राज्य अपने कोटे का ९३ प्रतिशत उठता है. यह भी चर्चा नहीं की कि क्यों राज्य के पॉवर प्लांट ३० प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर से कम पर चलते है. क्यों मनरेगा का पैसा बिचौलिए ले जाते हैं और क्यों अपराध के आंकडे बताते हैं कि अपहरण, लूट और चोरी की घटनाओं में आठ साल में बेहद इजाफा हुआ है. क्या चोरी और अपहरण रोकने का काम भी केंद्र के पैसे से होना है? जिस राज्य में केंद्र का भेजा पैसा (गरीबों के स्वास्थ्य बीमा के रूप) पुरुषों की बच्चेदानी (?) निकाल कर हड़प लिया जाता हो उस राज्य में नीतीश की सरकार कितनी सक्षम है यह साफ़ दिखाई देता है.

परिवार नियोजन के कार्य-क्रमों में बिहार सरकार पिछले आठ सालों में बुरी तरह असफल रही है और आबादी पर कोई नियंत्रण नहीं हो पाया है. राष्ट्रीय औसत के मुकाबले डेढ़ गुना आबादी दर क्या केंद्र की अक्षमता है? केरल में प्रति-व्यक्ति आय बहुत ज्यादा ना होते हुए भी मानव विकास में राज्य सरकार द्वारा व्यय करने से जीवन स्तर देश में सबसे अच्छा है.  

नीतीश ने अपने कुछ चुनिन्दा कार्यों की बड़ाई करते हुआ बताया कि लड़कियों को साइकिल देना की वज़ह से लड़कियाँ स्कूल जानी लगीं लेकिन यह नहीं बताया कि केंद्र की “मिड-डे –मील” (बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन) योजना कैसे भष्टाचार की भेंट चढ़ गयी और कैसे (प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संस्था असर की तजा रिपोर्ट के अनुसार) कक्षा पांच के ७२ प्रतिशत छात्र कक्षा दो का ज्ञान नहीं रखते. क्या इसके लिए भी पैसे की ज़रुरत है?       

 विशेष राज्य देने का पैमाना पांच कारकों पर आधारित है. वे हैं (अ) पहाड़ी और दुर्गम भू क्षेत्र (बी) निम्न जन-संख्या घनत्व (स) पडोसी देशों से सीमाओं पर सामरिक स्थिति (द) आर्थिक एवं अधि-संरचनात्मक पिछड़ापन और (य) राजकीय वित्त-व्यवस्था की अक्षम प्रकृति. बिहार इनमें से मात्र अंतिम दो में आता है. जबकि हकीकत यह है कि बिहार का भारत के राज्यों में सर्वाधिक धनत्व वाला होना इसको विशेष राज्य का दर्ज़ा ना दिए जाने का बड़ा कारण हो सकता है क्यों ज्यादा आबादी घनत्व हो तो डिलीवरी आसान होती है. उसी वस्तु या सेवा को कम आबादी वाले क्षेत्र में पहुँचाने में राज्य के अभिकरणों को ज्यादा श्रम व पैसे लगने होता है. अगर बिहार विशेष दर्जे में शामिल होने की बात करता है तो ओड़िसा, यू पी या मध्य प्रदेश क्यों नहीं.  

दरअसल मांग यह होनी चाहिए थी कि चूंकि बिहार एक ऐसा प्रदेश है जहाँ नेपाल के हिमालय से निकालने वाली नदियों की विभीषिका एक श्राप के रूप में हर साल आती है और बाकी का बिहार सूखे में कराहता है लिहाज़ा प्लानिंग कमीशन अपने पैरामीटर में “लगातार आने वाली प्राकृतिक आपदा “ भी जोड़ दे.
     
केंद्र अपनी आय का ३२ प्रतिशत राज्यों को अभी दे रहा है. मांग यह होनी चाहिए कि केंद्र अपनी आय का बड़ा भाग पिछड़े राज्यों को दे और यह धन  परफोर्मेंस पर आधारित होना चाहिए. 

एक और कुतर्क देखें. भाषण में नीतीश ने कहा “भाडा –समानीकरण की नीति के कारण बिहार को नुकसान हुआ.” उनका कहने का मतलब था कि देश के अन्य भागों में बिहार के लौहे को लेजा कर उद्योग लगाये गए और केंद्र ने उन्हें भाड़े में झूट दी. यह भौंडा तर्क है. इस आधार गुजरात का कपास या यू पी एवं मध्य प्रदेश के सिंगरौली की बिजली बिहार भी नहीं जाएगी. अगर नीतीश की सरकार में क्षमता होती तो इस ब्लैकमेल के बजाय समान शर्तों पर इस्पात उद्योग लगने के लिए बाहर के उद्योगपतियों को बुला सकते थे लेकिन उद्योग तो लगे “अपहरण के” .   

बिहार के तथाकथित विकास की इमारत अब दरकने लगी है। अध्ययन का विषय यह हो गया है कि कैसे संचार तंत्र पर आंशिक नियंत्रण करके और दूसरी ओर सीधी डिलीवरी के माध्यम कुछ साइकिलें बांटकर और कुछ मुख्य सड़कें बनवाकर जनसोच को पूरी तरह बदला जा सकता है और वोट हासिल किए जा सकते हैं।

हम हाल में हुए  तीन रहस्योद्घाटन लेते हैं जो कि काफी विश्वसनीय संस्थाओं ने उजागर किया है जो कि बिहार के तथाकथित विकास की एक घृणित तस्वीर पेश करते हैं। नियंत्रक-महालेखापरीक्षक का कहना है कि  वर्ष 2009-10 में 2399.68 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यानि बिहार के हर व्यक्ति से साल भर में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से 240 रुपए छीने गए हैं। ये उस बिहार की हालत है जहां पर 77 प्रतिशत आदमी महज 17 रुपए रोज पर गुज़ारा करता है। ये उस बिहार की हालत है जहां हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है और ये उस बिहार की हालत है जहां विकास के नाम पर होने वाला खर्च राष्ट्रीय औसत का लगभग आधा है।
 राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य और विश्वविख्यात अर्थशास्त्री एवं समाज सुधारक जीन ड्रेज़ के नेतृत्व में अभी हाल में कुछ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम ने, जिसमें भारत की बड़ी संस्थाओं के प्रोफेसर्स आदि शामिल थे, ने एक सर्वेक्षण कराया। सर्वे ने चौकाने वाले नतीजे दिए। इस नतीजे के अनुसार बिहार में जन वितरण प्रणाली पूरी तरह ठप है। जहां कुछ गरीब राज्यों में प्रति सुपात्र (बी.पी.एल) परिवार 37 किलो तक अनाज हर महीने उठाता है वहीं बिहार जैसे सबसे गरीब राज्य में महज 11 किलो प्रतिमाह। इसको हम यूं भी कह सकते हैं कि जहां आन्ध्रप्रदेश जैसा सम्पन्न राज्य अपने कोटे का 99 प्रतिशत खपत कर लेता है, उड़ीसा 97 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ 95 प्रतिशत, हिमांचल 93 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 77 प्रतिशत, झारखण्ड 71 प्रतिशत वहीं बिहार अपने कोटे का केवल 45 प्रतिशत खपत कर पाता है।
   सरकार का यह कृत्य अपराध की श्रेंणी में आता है जिसमें मिलने वाला खाद्य का कोटा जिसमें कुछ खाद्यान्न केंद्र मुफ्त में देता है, भी नीतीश सरकार उठाकर गरीबों का पेट नहीं भर रही है। इस सर्वे ने इस बात का भी आंकलन करने की कोशिश की कि कितने गरीब लोग सस्ते दरों पर खाद्यान्न चाहते हैं और कितने कैश। चूंकि बिहार में जन वितरण प्रणाली का अस्तित्व ही नहीं है इसलिए यह अकेला राज्य है जहां के 80 प्रतिशत गरीब सस्ते खाद्यान्न के बजाय पैसा चाहते हैं। अन्य सभी राज्यों के 80 प्रतिशत गरीबों ने कहा कि हमें पैसा नहीं अनाज चाहिए। ध्यान रहे कि प्रधानमंत्री व प्रणब मुखर्जी की कोशिश है कि सीधी डिलीवरी के सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए सस्ते खाद्यान्न की जगह उस खाद्यान्न पर मिलने वाली सब्सिडी का पैसा ही सीधे गरीबों के खाते में जाला जाए।
   विकास के खोखलेपन की यह हालत है कि आज भी राज्य में 94.5 प्रतिशत लोग रोशनी के लिए मिट्टी के तेल पर आश्रित हैं और एक से पांचवी तक की कक्षा के छात्र-छात्राओं में आधे से ज्यादा स्कूल छोंड़ देते हैं। 86.09 प्रतिशत घरों में आज भी शौचालय नहीं है। देश में औसत प्रतिव्यक्ति बिजली की खपत 716 यूनिट है जबकि बिहार में मात्र 100 यूनिट है।


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