Saturday 3 June 2017

भारतीय संस्कृति : कैसे ख़िलाफ़ हुई विश्व-अवधारणा



इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र भारतीय संस्कृति को पुनर्प्रतिष्ठित करने और उसमें काल- व स्थिति सापेक्ष सुधार करने के लिए एक नए  प्रयास का सूत्रपात किया है. पिछले दो सौ सालों के अंग्रेज़ी शासन काल के दौरान जिस तरह इस संस्कृति को दुनिया में असभ्य, बर्बर, आदिम और मृतप्राय बताने  का सफल कुचक्र चला और जिससे आज भी वाम चिन्तक प्रभावित है, उसे ठीक करने के  लिए शायद हाल के दौर में यह पहला सार्थक  प्रयास होगा. लेकिन यह जरूरत क्यों पडी कि  हम अपनी हीं संस्कृति को  अपने  हीं  लोगों के बीच “पुनर्प्रतिष्ठापित” कर रहे  हैं , इसे समझने की ज़रूरत है। 

ठीक दो सौ साल पहले इस वर्ष (१८१७) एक साजिश हुई ईस्ट  इंडिया कम्पनी और ब्रितानी शासन द्वारा. इस साजिश का उद्देश्य था ब्रितानी संसद को इस बात के  लिए प्रभावित करना कि कम्पनी भारत में अच्छा शासन दे रही  है और यह बताना कि दरअसल कंपनी को व्यापर से जो लाभ होता है उससे ज्यादा खर्च तो एक असभ्य, आदिम  और बर्बर भारतीय समाज को शासित करने में लग जाता है. इस योजना के तहत कुल छः खण्डों में एक किताब लिखी गयी (या लिखवाई गयी) जिसका नाम था “द हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया”. इसके लेखक जेम्स मिल कभी भारत नहीं आये, किसी भी भारतीय भाषा को नहीं पढ़ा, किसी भी उन अधिकारियों या तत्कालीन देशी या विदेशी विद्वानों से जो भारतीय समाज के बारे में अच्छी सोच रखते थे और लिखते थे, बात नहीं की. लेकिन इस किताब के जरिये बनाई गयी भारत विरोधी छवि ने अगले दो सौ सालों तक भारत के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया में हीं नहीं अपने देश के वाम बुद्धिजीवियों की सोच को भी आज तक प्रभावित रखा. जो कमी थी इस भारत  विरोधी बौद्धिक अभियान में उसे अगले लगभग सौ साल बाद अमरीकी लेखिका कैथेरिन मेयो ने “मदर इंडिया” लिख कर पूरी कर दी. यह किताब अमेरिका और यूरोप में इतनी लोकप्रिय हुई कि सन १९२७ में इसके छपने की एक साल के भीतर २१ संस्करण निकाले गए और कोई दस लाख से ज्यादा लोगों ने इसे पढ़ा.  

जेम्स मिल के बायोग्राफर ब्रूस माज्लिश के अनुसार जेम्स मिल को रोज़ी- रोटी के लिए १८०२ पादरी की नौकरी भी नहीं मिली तो वह इंग्लैंड पहुंचे. वहां पर स्थिति को समझते हुए इस पुस्तक पर काम शुरू किया और इस बीच अपने लेखों से ब्रिटिश संसद को भारत के बारे में नकारात्मक तथ्य देते रहे. इस पुस्तक के लिखने के पुरस्कार स्वरुप कंपनी में ऊँचे ओहदे और ऊँची पगार वाली नौकरी मिली. यह तन्खवाह अगले १७ सालों में ८०० पौंड से बढ़ कर २००० पौंड हो  गयी  और  जेम्स ने अपने बेटे और जाने-माने राजनीतिक दार्शनिक जॉन स्टुअर्ड मिल को भी कम्पनी में नौकरी लगवा ली. बाप-बेटे का काम  ब्रिटिश संसद औए  सत्ता की  सोच को प्रभावित करना था ताकि कंपनी भारत पर शासन करती रहे. जब पुस्तक में भारतीय संस्कृत की कटु आलोचना को लेकर जेम्स मिल से यह सवाल किया गया कि बिना भारत गए या बगैर कोई भारतीय भाषा जाने भारतीय संस्कृति पर इतने आक्षेप कैसे लगाये तो जेम्स ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में हीं अपनी इस कमी को कैसे नैतिकता का लबादा पहनाया, देखें.

“एक उपयुक्त रूप से शिक्षित व्यक्ति इंग्लैंड के अपने घर की आलमारी  की किताबों से भारत के बारे में मात्र एक साल में उतनी जानकारी हासिल कर सकता है जितनी कोई व्यक्ति भारत में अपनी आँख-कान खोल कर पूरी जिन्दगी लगाने  के बाद भी नहीं हासिल कर सकता. भारत न जाना और भारतीय भाषाएँ न जाना हीं हमारे पूर्वाग्रह न होने और हमारे वस्तुपरक होने की निशानी है”.

इस पुस्तक में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना भविष्य देखा और अगले ४० वर्षों तक (सन १८५८ में भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के पास आ गया) इसे "प्रशासनिक गीता" के रूप में मान्यता दी गयी. हर अँगरेज़ अफसर को जो भारत में भेजे जाने के लिए कंपनी नियुक्त करती थी तीन महीने तक इस छः खण्डों की पुस्तकमाला को पूरी तरह आत्मसात करना होता था. लिहाज़ा जो भी अफसर भारत की सरजमीं पर कदम  रखता था उसका भाव यही होता था कि एक जाहिल, बर्बर, जंगली और मृतप्राय समाज पर शासन करना है.

जब जेम्स मिल को पुरस्कार-स्वरुप कंपनी में ऊँचे पड़ वाली नौकरी दी गयी तो उसी साल कम्पनी एक अन्य व्यक्ति – थॉमस मुनरो – को मद्रास का गवर्नर बनाती है. इस अधिकारी को आज भी भारत में रैयतवारी सिस्टम का जनक माना जाता है. कई दशको भारत में रह कर अपने अनुभव के बाद मुनरो का क्या कहना था यह एक अन्य अधिकारी और मशहूर भारतविद मेजर-जनरल स्लीमन की पुस्तक “रम्बल्स एंड रिकलेक्शन्स” में मिलता है:

“सर थॉमस मुनरो  ने सही कहा था – मैं नहीं  जानता कि भारत के लोगों का सभ्यीकरण (सिविलाइज़िंग द पीपल ऑफ़ इंडिया) के क्या मायने  होते हैं. हो सकता है ये (भारतीय) सुशासन के सिद्धांत और व्यवहार में उतने  परिपक्व न हों लेकिन अगर एक अच्छे कृषि सिस्टम की बात हो, अगर बेहतरीन विनिर्माण की बात हो, अगर पढ़ने -लिखने के लिए स्कूलों की बात हो, अगर आम व्यवहार और आतिथ्य  की बात हो और सबसे अधिक अगर महिलाओं के प्रति ईमानदार सम्मान की बात हो और अगर  इन सब गुणों को सभ्य समाज के अपरिहार्य कारक माने जाते हों तो मैं यह कह सकता हूँ कि हिन्दू यूरोप के लोगों के मुक़ाबले सभ्यता के स्तर पर  कहीं भी पीछे नहीं हैं”.

स्लीमन को  भारत के अँगरेज़ अधिकारियों में सबसे सफल और जमीन  पर काम करने  वाला माना गया. पूरे भारत से  ठगी. जरायम और  अन्य अपराधों को ख़त्म करने का श्रेय स्लीमन  को जाता  है. स्लीमन ने अपनी इस किताब के पहले  अध्याय में हीं एक किस्सा  लिखा है. सन १८२४  में बंगाल के बैरकपुर में भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अधिकारियों द्वारा किये जा रहे उत्पीडन के खिलाफ सिपाही बिंदी तिवारी के नेतृत्व में बगावत की. लेकिन साथ हीं  यह  भी प्रतिज्ञा ली कि किसी भी अँगरेज़ बच्चे या महिला के साथ  कोई  दुर्व्यवहार  नहीं होगा. स्लीमन  लिखते  हैं: बगावत  के माहौल में भी अँगरेज़ अफसर अपनी पत्नियों और  बच्चों को भारतीय  सिपाहियों की देखरेख में छोड़ कर जंगलों  में शिकार के  लिए  निकल जाया करते थे क्योंकि उन्हें भरोसा  था  कि भारतीय  सैनिक महिलाओं और बच्चों की हफाज़त के लिए अपनी जान भी दे देंगे”.

जहाँ विश्व विख्यात चिन्तक हीगेल ने अपने जीवन के अंतिम  काल में गीता की महानता को समझा और मुहर लगायी वहीं जेम्स इसे पाश्चात्य मूल्यों की नक़ल बताकर हाल की हिन्दुवादी धूर्तता की उपज बताता है।                                                                                                                                                              
ज्ञानमीमांसा में एक तर्क-दोष का जिक्र है जिसे कहते हैं --- संवाद की पृष्ठभूमि से हट कर कुछ चुनिन्दा तथ्यों से अपने पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष पर पहुँचाना (सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स). इन दोनों लेखकों ने अपनी पुस्तकों में  इसका पूरा इस्तेमाल किया और भारत को एक ऐसा समाज बताया जहाँ सामान्य सभ्यता से काफी पीछे हैं और जिन्हें शासित करना अंग्रेजों के लिए बेहद मुश्किल है. यह कहते  हुए दोनों लेखकों का प्रयास यह बताने का रहा कि अहसान है अंग्रेज़ी हुकूमत का इस भारतीय  जाहिलों  को जीना सिखा रही है. इस पुस्तक माला के द्वितीय खंड में हिन्दू संस्कृति की चर्चा है और  इसे  कई जगहों पर इसे घटिया बताया गया. जेम्स का मानना है महाभारत ऐसे कई ग्रन्थ अंग्रेजों के ज्ञान, जीवन मूल्य, आदर्शों को लेकर मात्र ३०० सौ साल पहले लिखे गए.

गौर करने की बात है कि आर्यभट्ट ने खगोल शास्त्र और सौर मंडल की ग्रहों के चालन की पूरी अकाट्य गणना पांचवीं सदी में की थी  जिसे ईरानी  विद्वान् अलबेरुनी ने ५०० वर्ष बाद भूरि –भूरि प्रशंसा  करते हुए अपने  देश के विद्वानों को बताया लेकिन जेम्स इसको  भी नकारता है. यह अलग बात है कि लगभग १००० साल बाद भी आर्यभट्ट को सही ठहराते हुए जब गैलिलीयो और कापरनिकस सूर्य को स्थिर और प्रृथ्वी के घूमने की बात कहते है तो यूरोप के शासक उन्हें सज़ा देते है क्योंकि यह बात ईसाइयों के धार्मिक अवधारणा का चूलें हिला देता है। फिर जंगली और बर्बर कौन हुआ? 

आज  समय आ गया है जब भारत के विद्वान् फिर से भारतीय (तथाकथित हिन्दू ) संस्कृति और ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठापित करें और पश्चिमी वितंडावाद से प्रभावित भारत के वामपंथी बुद्धिजीवियों को हक़ीक़त से रूबरू करायें।इन्दिरागाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र का यह प्रयास एक बेहद सार्थक और चिर-प्रतीक्षित प्रयास कहा जा  सकता है.  

lokmat