Friday 4 March 2016

भूलभुलैय्या में फंसी देश की सामूहिक सोच




आजादी का बाद से शायद पहली बार देश में जबरदस्त कंफ्यूजन है. तीन स्पष्ट खेमे में समाज बँटा है। कुछ व्यक्ति या तो इस खेमे में है या उस। सामूहिक सोच या तो राष्ट्रवाद की नयी परिभाषा के साथ खडी है या देश को “बहुमत के आतंक” से निजात दिलाने वालों के साथ. एक लकीर खींच दी गयी है यह कहते हुए कि रेखा के उस पार तुम्हरा और इस पार हमारा. तलवारें खींची हुई हैं.  इसके बीच एक बड़ा वर्ग जो न तो “इस” के साथ है ना “उसके”. वह दाल के बढे दाम और बढ़ती महंगाई, आसमान छूती शिक्षा और स्वास्थ्य व्यय से जूझ रहा है. वह ठगा सा यह पूछ रहा है कि ७० साल की आज़ादी की यह परिणति? क्या विकास इसी को कहते हैं? कभी उसे “यह” ठीक लगता है तो कभी “वह”. लेकिन इस “यह” और “वह” के बीच में उसकी मूल समस्या का निदान कहीं नज़र नहीं आ रहा. “लव जेहाद”, “भारत विरोधी नारे” , “अवार्ड वापसी” , “राष्ट्रवाद” या “देश द्रोह” की बीच किसान आज भी पेड़ से लटक कर आत्म हत्या कर रहा है और विधायक आज भी बहला-फुसला कर लाई गरीब किशोरी का बलात्कार कर रहा है. दूसरी ओर उसी राज्य बिहार में सत्ताधारी दल का एक विधायक जन सभा में धमकी देता है कि मेरे लोगों को “कुछ” किया तो गर्दन काट दिया जाएगा. “मैं तो अपराध करके के जेल गया तो नेता बन गया और चुनाव जीत गया. मेरा तो एक पैर जेल में हीं रहता है” इस विधायक की यह घोषणा थी. इसी विधायक के मत से विधान सभा में कानून बनते हैं.    




एक ओर दिल्ली से सटे नॉएडा में घर से खींच कर सैकड़ों गाँव के हीं लोगों द्वारा “गौ मांस पकाने के शक पर अख़लाक़ मार दिया जाता है तो दूसरी ओर आगरा में विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्त्ता को मांस का व्यापार करने वाले लोगों के गुर्गों द्वारा गोली मार कर हत्या कर दी जाती है. अख़लाक़ मरता है तो बुद्धिजीवियों का एक वर्ग वैचारिक क्रांति का आह्वान करता है और अवार्ड वापस करने लगता है. जबकि स्थानीय सांसद और देश का सांस्कृतिक कार्य मंत्री घटना स्थल से ऐलान करता है कि यह सामान्य आपराधिक घटना है. आगरा की घटना पर देश का एक अन्य मंत्री जो स्थानीय सांसद भी है आग उगलता है और उस मंच से “बदला” लेने की बात कही जाती है. पूरे देश में अचानक “गौ माता” के प्रति श्रद्धा उमड़ती है. संगठन बनते है  इस “माँ” को बचने के लिए. “गौ रक्षक दल” के स्थानीय लम्पट दिया लेकर रातों में ट्रक रोकते हैं माता की रक्षा के लिए. शक के आधार पर हिमाचल प्रदेश में एक ड्राईवर का नाम पूछा जाता है और फिर यह मान कर कि यह गौ-हन्ता है, उसे दुनिया से विदा कर दिया जाता है.

      
पिछले एक साल से हर मुद्दा “वह” और “यह” के आधार पर तय हो रहा है. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र संघ का अध्यक्ष कन्हैया कुमार “वह” है क्योंकि भारत विरोधी नारे लगने वालों के साथ मंच पर रहा. जो विधायक “वह” वर्ग के कार्यकर्ता को जमीन में गिरा कर मारता है सैकड़ों कैमरे के सामने वह यह भी कहता है “मेरे पास बन्दूक नहीं था वरना इन देशद्रोहियों को गोली मार देता”. एक वकील दिन-दहाड़े कोर्ट-रूम में घुस कर कन्हैया, मीडिया और “वह” के लोगों को मारता हीं नहीं है बल्कि जेल में घुस कर कन्हैया को जान से मारने का टीवी चैनलों के सामने ऐलान करता है वह “यह” वर्ग का है और उसे उम्मीद है कि “राष्ट्रभक्तों” का “यह” समुदाय उसे बचा लेगा और अगले दिन हीं उसे “यह” वर्ग सच में महिमा मंडित करता है. विधायक को भी उम्मीद होगी कि उसकी “राष्ट्रभक्ति” देखा कर उसे “यह वर्ग” लोक सभा का टिकट दिला देगा.  

इन सब के बीच एक मूल प्रश्न उभरता है कि क्या “वह” वर्ग का “देश द्रोह” मात्र पिछले दो साल में उभरा है और क्या “राष्ट्रप्रेम” की भावना आज क्यों अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने के भाव में “दो-दो हाथ “ करने पर उतारू है? यह सब पिछले ७० साल में कहाँ था? शायद जबाव साफ़ है. तब “यह” सत्ता में नहीं था. याने “यह” वर्ग की राष्ट्रभक्ति भी तब परवान चढ़ती है जब बगल में पुलिस खडी हो या विधायक या सांसद भी “यह वर्ग” का हो. “लव जेहाद” भी इन्हें ख़तरा तब लगता है जब स्थानीय पुलिस पार्कों से लड़के –लड़कियों को भगाती है. गाय देश में ७० साल से कचरे से प्लास्टिक खा कर मर रही हैं पर “गौ माता” तब याद आती है जब एक पार्टी राज्य या केंद्र में शासन करने लगती है.

ऐसे में डर यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का “स्वच्छ भारत” कहीं “हम के मोहल्ले में तो हो लेकिन “वह” के मोहल्ले उसे गन्दा करने पर आमादा हों. स्वच्छ भारत पाक्षिक नहीं हो सकता. यह समाज के चिंतन को बदलने का काम है. ३० प्रतिशत हम सफाई करे (हालाँकि वह भी अन्य कार्यों में व्यस्त है), ५० प्रतिशत उदासीन रहे और २० प्रतिशत इसलिए गन्दगी फैलता रहे कि यह तो “यह” का अभियान है तो मोदी समझ सकते हैं कि देश कैसे साफ़ होगा. स्किल इंडिया , स्टार्ट अप इंडिया , स्किल इंडिया अपने आप मे  बेहद अच्छे प्रयास हैं लेकिन क्या ३० प्रतिशत के भरोसे ये सफल हो पाएंगे?

उधर “वह” वर्ग अख़लाक़ के मरने पर देश में वैचारिक क्रांति का बिगुल फूंकने के लिए अवार्ड वापस करने लगता है लेकिन इनमें से एक भी भारत विरोधी नारे को गलत नहीं बताता न हीं आगरा की घटना पर वहां जा कर वी एच पी के मारे  गए कार्यकर्ता के परिवार से सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए दिल्ली में कैंडल मार्च करता है.  
  
इसी दौरान समाज के मानसिक भ्रमद्वन्द के बीच एक नया मामला आता है. इशरत जहाँ आतंकवादी थी या नहीं, उसका एनकाउंटर फर्जी था या नहीं अब यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितना कि यह कि क्या सत्ता का खेल इतना घिनौना होता है? और अगर ऐसा है तो किस पर विश्वास किया जाये? क्या भारत में संविधान के अनुरूप काम हो रहा है ? क्या देश में कानून का शासन है? क्या ७० साल के प्रजातंत्र के बाद भी हम उसी राजशाही में हैं जिसमें “राजमहलों के षड्यंत्र” से एक राजा को मार कर दूसरा बैठा करता था फिर उसको मार कर तीसरा और प्रजा केवल एक मूकदर्शक हुआ करती थी.  


lokmat/patrika