Sunday 22 November 2015

कानून, लोक-नैतिकता और जनता का “विजडम” – गलत कौन ?



नवम्बर २०, २०१५, प्रजातंत्र के साथ ६५ साल से कानून और लोक नैतिकता के बीच चल रहे द्वन्द का एक नया रूप था. कुछ ने इसे प्रजातंत्र का मज़ाक कहा तो कुछ ने इसका इस्तकबाल किया. कानूनी और लोक-नैतिकता की एक रस्साकशी में इस बार कानून जीता. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू यादव के अर्ध-शिक्षित दोनों बेटों ने बिहार के मंत्री के रूप में शपथ ली, शाम को उनमें से एक उप-मुख्मंत्री घोषित हुआ. लगभग १८ साल पहले इन बच्चों की अशिक्षित माँ को रसोई घर से सीधे लाकर राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गयी, कानून-लोक नैतिकता का द्वन्द  फिर देखने को मिला था. राबड़ी देवी को सदन में बहुमत हासिल करने में ११२ साल पुरानी राष्ट्रीय पार्टी –कांग्रेस—और एक क्षेत्रीय दल—झारखंड मुक्ति मोर्चा --की मदद मिली थी. कानून असहाय देखता रहा. जो कानून लालू यादव को चारा घोटाले में मुख्यमंत्री पद छोड़ने को मजबूर करता है वह कानून उसी दिन राबड़ी को मुख्यमंत्री बनाने से लालू को नहीं रोक सकता था.          

एक नेता, जो प्रजातंत्र और नीम सामजिक चेतना-जनित पहचान समूह की राजनीति का उत्पाद होता है (जिसे कुछ बुद्दिजीवी “सामाजिक न्याय की ताकतें” और “सबाल्टर्न पॉलिटिक्स” (दबे कुचलों की राजनीति कहते हैं) अपने मुख्यमंत्रित्व काल में शासकीय कार्य के दौरान किये गए भ्रष्टाचार का आरोपी बनता है. केन्द्रीय जांच ब्यूरो जब मामले में प्रारंभिक तौर पर सच्चाई देखते हुए राज्यपाल से इस मुख्यमंत्री के खिलाफ पूछताछ की अनुमति मांगता है और राजनीतिक दबाव बनता है तो वह नेता घर की रसोई से उठाकर अपनी अशिक्षित पत्नी को मुख्यमंत्री बना देता है. शासन चलता रहता है. इस बीच जांच अपनी मंथर गति से आगे बढ़ता है और वह नेता देश की राजनीति में आता है और रेल मंत्री बन जाता है. याने जिस कानून के तहत उसे मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ता है वह कानून इस मामले में लागू नहीं होता जबकि भ्रष्टाचार में देश की जांच के सर्वोच्च संस्था उसे दोषी पाती है.

तीन मूल प्रश्न हैं. क्या कुछ गलत हुआ है, और अगर हुआ है तो गलती कहाँ हुई है और किसने किया है? साथ हीं एक और प्रश्न है यह गलती (अगर है) कानूनी है या लोक नैतिकता के स्तर पर. और अगर इस सब का उत्तर मिल जाये तो यह प्रश्न –क्या कानून और लोक नैतिकता में अन्योन्याश्रितता का सम्बन्ध नहीं है याने क्या दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं हैं ? न्याय तो यही कहता है कि जो लोक नैतिकता है उसी के अनुरूप कानून बनता है फिर ६५ साल में यह विभेद क्यों? अगर लालू अदालत की नज़र में भ्रष्ट है और उन्हें कानूनन अगले छः साल तक चुनाव लड़ने याने लोक –जीवन से बाधित किया जाता है तो जनता उन्हें क्यों वोट देती है. क्या जनता के लोक-नैतिकता के पैमाने अलग है? और अगर जनता वोट देती है तो क्या यह माना जाये कि सन्देश यह है कि “भ्रष्टाचारी भी चलेगा किंग-मेकर के रूप में”? क्या यह भी सन्देश जनता का है कि लगभग तीन लाख करोड़ रुपये के बजेट वाले और ११ करोड़ आबादी वाले इस राज्य का नियंता और रहनुमा एक ऐसा लड़का (या लड़के) होगा जो “अपेक्षित” और “उपेक्षित” में अंतर नहीं जनता. आज विकास बेहद जटिल हो गया है. क्या “कुख्यात” आई ए एस अधिकारी उसे हर रोज़ भ्रमित नहीं करेंगे. और अगर यह कहा जाये कि मुख्यमंत्री नीतीश की देखरेख में सब कुछ रहेगा तो इन “रबर स्टैम्प”  की ज़रुरत क्यों है? मुख्यमंत्री के बाद के तीनों पद (वरीयता के अनुसार) क्रमशः लालू के पुत्र तेजश्वी, तेज प्रताप और और लालू की पार्टी के हीं अनुभवी अब्दुल बारी के पास होंगे. याने अगर नीतीश बिहार से बाहर हैं तो कोई तेजश्वी या कोई तेज प्रताप मंत्रिमंडल की बैठक की सदारत करेगा और बारी और राजीव रंजन सिंह (लल्लन सिंह) इन बच्चों के मातहत होंगे.  

इस व्यवस्था में यह साफ़ है नीतीश कुमार लालू यादव के सामने अपने घुटनों के बल रहे. लालू के हीं आदेश पर नीतीश के निकट रहे और सक्षम श्याम रजक को मंत्रिमंडल से आदेश पर बाहर किया गया. अगर घुटनों के बल हीं बैठना था तो भारतीय जनता पार्टी से सम्बन्ध –विच्छेद को नैतिक आधार का जामा क्यों पहनाया? भाजपा तो दस साल साथ रहने पर ऐसा नहीं की थी?

कहने को नीतीश सत्ता के लिए साष्टांग दंडवत में लालू के कदमों में आकर भी  समाजवादी, लालू यादव भ्रष्टाचार के आरोप में अदालत द्वारा जन-जीवन से हटाये जाने के बाद भी समाजवादी, मुलायम अपने बेटे को मुख्यमंत्री पद दिलवाकर और तमाम अपराधियों को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में बनाये रखने के बाद और नीतीश –लालू गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए भी समाजवादी. क्या लोहिया ने इसी समाजवाद का तसव्वुर किया था.

फिर इन सब से हट कर एक और प्रश्न खड़ा होता है --- इस तरह की लोक-नैतिकता का प्रश्न उठाने वाले हम स्वतंत्र विश्लेषक कहीं अभिजात्यवर्गीय पूर्वाग्रह के शिकार तो नहीं? क्यों नहीं जब तक अंतिम अदालत से “दूध का दूध” नहीं हो जाता हम लालू यादव को युधिष्ठिर मानते और देश पर राज करने देते? जगन्नाथ मिश्र करें तो कोई “ब्रांडिंग” नहीं और लालू करें तो लोक-नैतिकता का सवाल? कांग्रेस या भाजपा जयललिता (भ्रष्टाचार में निचली अदालत से सजा पाने के बाद) का साथ लें तो नैतिकता का सवाल नहीं, लेकिन नीतीश ३६० डिग्री पलटी मारें तो “अनैतिक” और “सत्ता के लिए कुछ भी करने को तत्पर” की संज्ञा? अगर उस समय आय से अधिक संपत्ति मामले में सी बी आई के राडार पर रहे समाजवादी नेता मुलायम सिंह सभी “सेक्युलर” ताकतों को झटका दे कर अविश्वास मत के दिन केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस का साथ दें तो कांग्रेस पर कोई आरोप नहीं क्योंकि २००९ में जनता उसे फिर चुनती है.    

इन सब से भी एक बड़ा अन्य प्रश्न है. अगर जनता लालू के शासन -काल को “जंगल राज” नहीं मानती और लगातार २० प्रतिशत से ऊपर (इस बार ४२ प्रतिशत) वोट देती है तो हम विश्लेषक को क्या अधिकार है गलत बयानी का. आखिर जनता की अदलात हीं तो किसी भी प्रजातंत्र की “भव्य” इमारत की नीव होती है. कांग्रेस के के. कामराज भी अशिक्षित थे पर लोक बुद्दिमता में कई तत्कालीन नेता उनसे सीखते थे. संभव है तेजश्वी और तेज प्रताप को कल शासन चलाना आ जाये और अगर नहीं भी आये तो बिहार के समाज के १५ प्रतिशत यादव का गलत या सहीं सशक्तिकरण तो कर हीं सकते हैं –यही तो लालू की ताकत है और यही नीतीश का डर भी रहेगा. अंत में हम विश्लेषकों की भी एक कमजोरी है (जो राजनीतिज्ञों में भी है) हम जनता के “विजडम” को कभी गलत नहीं कहते और यह कह कर कन्नी काट लेते है कि “वह सब जानती है”. 

lokmat/patrika