Tuesday 22 July 2014

सही समय है कांग्रेस में आमूल-चूल परिवर्तन का


कांग्रेस की लुप्त होती आतंरिक प्रतिरोधी क्षमता  


यूनानी कहावत है “मछली सर से सड़ना शुरू होती है”. चिकित्सा विज्ञानं की सर्वसिद्ध मान्यता है कि सड़ांध की प्रक्रिया रोकने के लिए याने बैक्टीरिया (परजीवी विषाणु) के हमले को निष्प्रभ करने के लिए  ईश्वर ने एंटीबाडीज (प्रतिरोधी कणिकाएं) बनाई हैं. जितनी हीं ज्यादा “सक्रिय” ये कणिकाएं होंगी उतनी हीं सड़ांध के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता.
 संगठन, वे राजनीतिक हों या गैर-राजनीतिक, में भी जीव की तरह परजीवियों के हमले से बचने के लिए अन्दर से हीं एंटीबाडीज का अस्तित्व होता है. अधिक जिजीविषा (जीने की इच्छा) वाले दलों में इन एंटीबाडीज को मरने नहीं दिया जाता और ज़रुरत पर इन्हें अति-सक्रिय बना दिया जाता है. यह काम शीर्ष पर बैठे सही सोच वाले नेताओं के समूह द्वारा किया जाता है. कई बार इस सड़ांध का अहसास शीर्ष नेतृत्व की स्थिति देख कर लगाया जा सकता है.
उदाहरण के लिए देश के दो दलों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस को लें. इस चुनाव से पहले के तीन चुनावों में लगातार पार्टी के जन समर्थन गिरता रहा था. नेतृत्व में सुस्ती जनित –सड़ांध का ख़तरा साफ़ नज़र आने लग था. संघ के समझ में आ गया और उसने अपने सारे पूर्वाग्रह को दरकिनार करते हुए नरेन्द्र मोदी को विकसित करना शुरू किया. भाजपा के अन्दर भी परजीवियों के खिलाफ प्रतिरोधी कणिकाएं “सक्रिय” हुई. नतीजा सामने है.
अब कांग्रेस को लें. हाल के आम चुनावों में जबरदस्त हार हुई.  यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हार के बाद भी पार्टी में प्रतिरोधी कणिकाओं का निष्क्रिय रहना और परजीवियों का यथास्थिति बनाने में सफल होना. शीर्ष नेतृत्व में पार्टी को उबारने का आत्मग्लानी-जनित सार्थक गुस्सा तो छोडिये इस हार पर आत्मग्लानी का भी नितांत अभाव दिखाई दिया. नेतृत्व जब संसद में मंहगाई पर चल रही बहस में सो रहा हो तो प्रतिरोधी कणिकाएं कैसे “सक्रिय” हो सकती हैं? परजीवियों ने फिर सर उठाया और घटना पर पार्टी की प्रतिक्रया आयी—--- “कई बार गंभीर चिंतन में भी आँखे बंद हो जाती हैं”. नेतृत्व सोता रहे यह परजीवियों को रास आता है. जीवंत राजनीतिक दलों का भी एक अन्तर्निहित स्वाभिमान होता है जो इनकी गत्यात्मकता (डाईनेमिस्म) सुनिश्चित करता है. कांग्रेस यह गत्यात्मकता खो रही है. .
आत्मग्लानी का एक हल्का सा भाव दिखाते हुए ए के एंटोनी से कहा गया कि हार के कारणों की खोज करें. लगा कि पार्टी में जिजीविषा है. कारण खोजने के लिए राकेट साइंस का ज्ञान जरूरी नहीं था. सडक पर खड़ा पहला आदमी भी बता सकता था कि कारण क्या थे. ईमानदारी निरपेक्ष (अब्सोल्यूट) होती है.  स्वयं गलत न करना परन्तु गलत को देख कर मुंह फेर लेना भी बेईमानी के वर्ग में माना जाता है. लिहाज़ा एंटोनी व्यक्तिगत रूप से भले हीं ईमानदार माने जाते हों अगर अपनी रिपोर्ट में उन बातों को बचा गए जिन से शीर्ष नेतृत्व पर आंच आती हो तो वह नैतिक रूप से ईमानदार तो नहीं कहे जायेंगे. मनमोहन सिंह भी व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे लेकिन रीढ़ तन नहीं पाई जब १०, जनपथ प्रधानमंत्री की संस्था को दस साल तक बौना साबित करता रहा.
उन्हें भी सभी अन्य पार्टी चाटुकारों की तरह राहुल गाँधी में वे सारे गुण नज़र आते रहे जो “भारत के भविष्य को सुधारने” के लिए ज़रूरी थे. सभी परजीवियों के स्वर में स्वर मिलते हुए उन्होंने भी राहुल को पार्टी की हीं नहीं देश की कमान संभालने के लिए “सबसे उपयुक्त” मन. प्रश्न यह नहीं है कि इन परजीवियों ने किस तरह जनवरी के तीसरे सप्ताह में हुए कांग्रेस अधिवेशन में “राहुल को प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित करो” का नारा लगाया”. प्रश्न यह भी नहीं है कांग्रेस हार गयी. प्रशन यह है कि परजीवी अभी भी भारी पड़ रहे हैं जब पार्टी में अंग शिथिल पड़ रहे हैं और मवाद दिखाई दे रहां है.
कभी पार्टी के उन लोगों से बात करें जो अपने जीवन का तीन दशक इसमें खपा चुके हैं और आगे तीन दशक का काल बाकी है. उनके व्यक्तिगत अनौपचारिक कथन में एक अजीब नैराश्य , बेचारगी और “राजनीतिक तौर पर जीने की अभिलाषा का लोप” दिखाई देता है. रसायन -शास्त्र में उत्प्रेरक के बारे में कहा जाता है कि यह रासायनिक क्रिया में भाग तो नहीं लेता परन्तु इसकी मौजूदगी से क्रिया की रफ़्तार बढ़ जाती है.
एंटोनी अगर अपनी रिपोर्ट में राहुल गाँधी को बचने की जगह साफ़गोई से कहते कि गलती ना तो हारने में थी ना हीं संसद में मंहगाई पर बहस के दौरान सोने में बल्कि परजीवी विषाणुओं द्वारा यह बताने में कि “कई बार गहन चिंतन से भी आँखें बंद हो जाती हैं”. एंटोनी परजीवी बैक्टेरिया नहीं हैं लिहाज़ा उन्हें तो अपनी रिपोर्ट में बताना चाहिए था कि कांग्रेस अधिवेसन में “राहुल लाओ” का नारा लगने वाले हीं पार्टी के परजीवी विषाणु है जो पहले अंग को शिथिल करते है फिर उस अंग के शिथिल होते हीं उसे खाने में जुट जाते हैं.
 पार्टी को मजबूत बनाने के लिए एंटीबाडी का सृजन करने वाले एंटीजन (प्रतिजन) हैं. सिर्फ ज़रुरत है उन्हें पहचानने की और उपयुक्त वातावरण देने की. मध्य प्रदेश से किसी एक गुफरान का खड़ा होना इस बात की तस्दीक है. लेकिन दिल्ली के स्तर पर कुछ गुफरान-रुपी प्रतिरोधी कणिकाओं को पैदा करना ज़रूरी है अगर इसे सडन से बचाना है. वरना राहुल –सोनिया प्रशस्ति करते हुए हुए ये परजीवी कभी महंगाई पर अपनी विपक्षी की भूमिका की जगह वैदिक-हाफिज मिलन को हीं देश के लिए घातक बता कर पार्टी को असली प्रतिरोधी क्षमता को कम करते जायेंगे.
किसी भी प्रजातंत्र, में खासकर उन प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं ,में जो द्वंदात्मक सिद्धांत पर आधारित हो जैसे भारत, मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया की जबरदस्त भूमिका होती है. कांग्रेस के लोक सभा में मात्र ४४ सदस्य हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि वे सत्ता पक्ष को जनोपदेय नीति से हटने पर कितना जनसमर्थन हासिल कर पाते हैं और सरकार को सही रस्ते पर चलने पर मज़बूत कर सकते हैं. कांग्रेस में आज ज़रूरी हो गया है कि नयी कोशिकाओं को पैदा करे , परजीवियों को ख़त्म करे और प्रजातंत्र के हित में अपने को बदले.

nai duniya

Monday 21 July 2014

वैदिक प्रकरण: पत्रकारों के लिए एक नसीहत



ओटो वान बिस्मार्क ने कहा था “अ जर्नलिस्ट इस वन  हू हैज फॉरगॉटन हिज कालिंग” (पत्रकार वह है जो अपना पेशा भूल गया है).  
डॉक्टर वेद प्रताप “वैदिक” हम सभी पत्रकारों की तरह सामान्य से व्यक्ति हैं. उन्हें ना तो महिमामंडित करके देखने की ज़रुरत है ना हीं उन्हें “रावण” बनाने की. मानवोचित गुण-दोष के पैरामीटर पर देखने से स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो सकती है. उनका टीवी चैनलों में यह कहना कि “नरसिंह राव के ज़माने में उन्हें “डेप्यूटी प्राइम मिनिस्टर” कहा जाता था” उनकी मनोदशा बताता है. उनका साथ हीं यह कहना कि देश के हीं नहीं विदेश के भी कई प्रधानमंत्रियों से उनकी दोस्ती है उसी मनोदशा का इजहार है. एक पत्रकार अगर गलती से भी सत्ता के औपचारिक पदों पर अनौपचारिक रूप से अपनी भूमिका देखने लगता है या इसके गलत या सही जन-आभास का प्रतिकार नहीं करता या तत्काल उस छवि से बचना नहीं चाहता तो वह इस मनोदशा का शाश्वत शिकार हो जाता है. सत्ता के बेहद नजदीक जाने पर अधिकतर मामलों में पत्रकारों में यह मनोदशा विकसित होती है.
यह मनोदशा दिल्ली या राजधानियों के तमाम पत्रकारों में अलग-अलग अंश में देखी जा सकती है. एक टीवी चैनल का सत्ता पक्ष कवर करने वाला दिल्ली का सीनियर रिपोर्टर जब यह कहता है कि “आरोपों से घिरे अमुक मुख्य मंत्री मेरे पीछे पड़े है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से कह कर मुझे बचा लो” तो यह इस मनोदशा के शुरुआती संकेत हैं. जब वह अपनी शादी या अन्य छोटे-मोटे पारिवारिक कार्यक्रमों में सत्ताधारी मंत्रियों या राजनेताओं को बुलाने में ज्यादा दिलचस्पी रखने लगे तो भी यह संकेत मिलने लगते हैं. बड़े सत्तानशीन नेताओं को घर पर खाने पर बुलाना भी इसी श्रेणी में आता है. छोटे नेताओं और अधिकारियों को “विजिट प्रोटोकॉल” के जरिये पता चलता है और उस पत्रकार की छवि बदलने लगती है. वह अपने मूल कर्तव्य से उसे दूर करती जाती है.
चूंकि हमारे देश में हमने द्वंदात्मक प्रजातंत्र का फॉर्मेट अंगीकार किया है लिहाज़ा विपक्ष की तरह मीडिया की भूमिका मुख्यतौर पर सत्ता पक्ष के खिलाफ होती है. ऐसे में सत्ता पक्ष के बेहद नज़दीक होना या लम्बे समय तक नज़दीक होना मूलरूप से गलत है. जीराल्ड प्रेस्टलैंड का एक मशहूर कथन है “पत्रकार अक्सर गटर में पाया जाता है क्योंकि इसी जगह सत्ताधारी वर्ग अपने कुकृत्य फेंकता है”. पत्रकार का सही मकाम नरसिंहराव के शासनकाल में उपप्रधानमंत्री कहलाने में नहीं बल्कि सत्ताधारियों कोप भजन होने में है. बेचारे वैदिक इस बार विपक्ष के हीं नहीं सत्ता पक्ष के भी कोप भजन बन गए हैं.    
इस मनोदशा की पैदाइश का मूल कारण है वह ग़लतफ़हमी कि सत्ता में बैठा व्यक्ति और वह समकक्ष हैं क्योंकि सत्ताधारी उससे घुलमिल कर बात करता है. वह यह भूल जाता है कि इस घुलने-मिलाने की अगर एक लक्ष्मण रेखा स्वयं नहीं बनाई गयी तो उसके यहाँ सिफारिशी लोग का जमवाड़ा तो लग जाएगा पर वह पत्रकारिता के मूल-कर्तव्य से दूर होता जाएगा क्योंकि उसकी निष्पक्षता पर आंच आनी शुरू हो जायेगी.
इसका एक और संकट यह है इस मनोदशा में पत्रकार यह भूल जाता है कि वह कब निष्पक्ष पत्रकार है और कब दोस्त. जनता को भी यह समझ में नहीं आता कि उस पत्रकार की खबर किस भाव में लिखी या दी गयी गयी है.
वैदिक एक डेलीगेशन के साथ पाकिस्तान गए यह उपक्रम घोषित पत्रकारिता के पैरामीटर से बाहर का कृत्य है. समाज-सुधार, दो देशों की बीच अच्छे सम्बन्ध का प्रयास, आतंक हाफिज सईद का ह्रदय-परिवर्तन आदि पत्रकारिता के स्थापित मानदंडों के बाहर के कार्य हैं. ये सारे कार्य प्रत्रकारिता की सीमा में में रहकर भी अपनी लेखनी या टीवी रिपोर्ट से किये जा सकते हैं. विदेशों में पत्रकारिता करने जाने की एक अलग व्यवस्था है. उसमे अपने देश में पहले से यह बताया जाता है कि “मैं  पत्रकारिता के उद्देश्य से या इंटरव्यू (अगर ज़रुरत हो तो बगैर नाम बताये) लेने के लिए जा रहा हूँ”. इंटरव्यू के लिए कुछ उपादान होते हैं. मसलन प्रिंट है तो टेप-रिकॉर्डर, कलम . प्रश्नावली अगर टीवी है तो कैमरा, कैमरामैन आदि-आदि.
अगर इंटरव्यू की जगह अनौपचारिक बातचीत है तो भी पत्रकार को मनाही नहीं है लेकिन फिर वह ना तो वह पत्रकारिता कही जा सकती है ना हीं उस मुलाकात की विषय-वस्तु का जिससे मुलाकात हुई है उसके नाम से औपचारिक रूप से जिक्र किया जा सकता है. रिपोर्टिंग में एक सर्व-मान्य संस्था है “विश्वस्त सूत्र”. यह तब प्रयोग किया जाता है जब कोई हाफिज सईद या कोई प्रधानमंत्री या मंत्री या अधिकारी पत्रकार से अनौपचारिक बात तो करता है और यह भी चाहता है कि उसकी बात बगैर उसे उद्धृत किये हुए जन-धरातल पर डाल दी जाये.
इस पैरामीटर पर वैदिक एक डेलीगेशन के सदस्य के रूप में जाना और फिर अचानक हाफिज सईद से मिलना पत्रकार का इंटरव्यू नहीं था. लेकिन हाफिज का भारत के बारे में भाव, तमाम मुद्दों के बारे में कथन वैदिक अगर भारत में आ कर जन –धरातल पर डालते हैं तो कहीं कोई गलती नहीं है. शर्त महज यह है कि हाफिज उसका खंडन न करे (क्योंकि वैदिक के पास कोई प्रूफ नहीं है).
एक अन्य खतरा भी है हाफिज-वैदिक बातचीत को तरजीह देने में. वैदिक की वरिष्ठता, समझ, आचरण या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता परन्तु मान लीजिये इसी फॉर्मेट पर मुलाकर करके एक कम समझ वाला पत्रकार जिसे उर्दू का ज्ञान कम है भारत आ कर कहता है कि “हाफिज ने कहा है भारत पर लश्कर एक बड़े हमले की तैयारी कर रहा है और पाकिस्तान के हुक्मरान और सेना भी इस अभियान के लिए हामी भर चुके है”. क्या इससे भारतीय सेना में सनसनी नहीं फैलेगी ? क्या इससे भारत-पाक संबंधों पर असर नहीं पडेगा? कश्मीर पर वैदिक का कथन किसी एक सामान्य व्यक्ति के कथन के रूप में पाकिस्तान को भी लेना होगा क्योंकि जो उन्होंने कहा है वह ना तो भारत का न हीं संविधान का, ना हीं संसद का और ना हीं देश का मंतव्य है.
लिहाज़ा वैदिक की मुलाकात को नज़रंदाज़ करना होगा. बैक-चैनल डिप्लोमेसी की दूकान बंद करनी होगी. क्योंकि कोई नहीं जानता कौन सा स्वयंभू डेलीगेशन भारत को पाकिस्तान के नाम लिख आये या कौन सा आई एस आई या रॉ किस यात्रा को किस तथाकथित स्वयंसेवी संस्था से फण्ड करवा रहा हो. वैदिक के खिलाफ बन रहा वातावरण उतना हीं गलत है जितना वैदिक का औपचारिक और अनौपचारिक भूमिका में झूलना. वैदिक प्रकरण से देश के सभी पत्रकारों को एक नसीहत भी मिलती है कि सत्ता के प्रति नजदीकी की एक सीमा है दीर्घकालीन विश्वसनीय पत्रकारिता के लिए. शिव सेना या अन्य दलों का वैदिक पर राष्र्ट-द्रोह का आरोप लगाना या संसद में हंगामा करना भी राजनीतिक वर्ग के उसी मानसिक दिवालियेपन का मुजाहरा है.

lokmat