Wednesday, 26 November 2014

गलती रामपाल या आश्रम की नहीं, समाज के अवैज्ञानिक सोच है


पिछले एक सप्ताह में तीन घटनाएँ हुई जो भारतीय समाज की पैथोलॉजी को प्रदर्शित करती हैं. एक तथाकथित “संत” रामपाल ने अपने भक्तों या भक्तनुमा हथियारनुमा गुंडों  के साथ पूरे संविधान, कानून और संप्रभुता को चुनौती दी   और सरकार को  नाकों चने चबवा दिया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में खाप पंचायत के मुखिया ने करीब ५० गाँव के लोगों के बीच आदेश दिया कि “अगर तुम्हारी बेटी किसी अन्य जाति या समान गोत्र के किसी व्यक्ति से शादी करने की बात करती है तो पहले उसे समझाओ और अगर ना माने तो उसे “गंगा दिखा दो” (मतलब उसे गगा में डूबा दो). इस फरमान को वहां बैठे सैकड़ों गाँव वालों ने न केवल सराहा बल्कि उसके अनुपालन का वायदा भी किया. उसी दिन एक माँ-बाप ने देश की राजधानी दिल्ली में अपनी बेटी को जो उनकी मर्जी के खिलाफ गैर जाति के एक युवा से शादी की, हत्या कर दी. तीसरी घटना में बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा कि अगर बिहार के विकास में केंद्र से मदद नहीं दिलाई तो राज्य के सात केन्द्रीय मंत्रियों को बिहार में घुसने नहीं दिया जाएगा.
“संत” रामपाल पर हत्या का मुकदमा था और अदालत ने उसे हाज़िर होने का आदेश दिया था. रामपाल ने आदेश मानने से इनकार किया और इस “संत” के गुर्गों ने तमाम राज्यों में फैले भक्तों को जिसमें औरतें और बच्चे भी थे , यह कह कर बुलाया था कि “संत” जी का प्रवचन है और उनका आशीर्वाद भक्तों पर समागम के दौरान बरसेगा. ये भक्त इस संत में भगवान् का अक्स   देखते थे. संत पहले जूनियर इंजिनियर था और उसे मालूम होगा कि संविधान और भारतीय दंड संहिता में “संत” के लिए कोई अलग से प्रावधान नहीं है. खाप पंचायत के मुखियाओं को भी मालूम है कि अपने गोत्र में या गैर-जाति के व्यक्ति से शादी की जिद करने वाली बेटी को गंगा में डुबाना ह्त्या है जो कानूनी रूप से जुर्म है. मुख्यमंत्री मांझी ने भी मुख्यमंत्री पद   की शपथ लेते वक्त संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा की शपथ ली थी. और संविधान या तज्जनित कानून में उनके राज्य का विकास ने करने के कारण केंद्र के किसी मंत्री को राज्य में न घुसने देने का कोई प्रावधान नहीं है.
इन तीनों घटनाओं के सूत्रधार वे चाहे रामपाल के “भोले” भक्त हो या खाप का मुखिया या मुख्यमंत्री चेतना का  एक समान स्तर देखने को मिलता है. क्यों कोई व्यक्ति किसी “बाबा” में ईश्वर देखने लगता है और फिर अपनी बेटी को बाबा के आश्रम में छोड़ देता है, पढ़ने के लिए? जिस देश  में गीता ऐसा ग्रन्थ हो वहां  क्योंकि चलती हैं बाबाओं की दूकाने? धर्म में आस्था तो समझ में आती  है पर किसी व्यक्ति में आस्था क्यों? एक बाबा अपने भक्तों को शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे काले कुत्ते को पीला चना खिलाने  को कहता है और फिर ईश्वरीय आश्वासन देता   है कि तुम्हारे बेटे की नौकरी लग जायेगी. पडोसी के नुक्सान के लिए नवरात्रि के दिनों में कटा नीबू अक्सर चौराहों पर देखा जा सकता है. क्या दो हज़ार साल बाद भी हम जंगल से बाहर नहीं निकल पाए हैं? आज भी क्यों झारखण्ड में हर सात दिन में मनोविकार से पीड़ित कोई औरत को जो भटकते हुए दूसरे दूर के गाँव में चली आती है, पत्थर से मार दिया जाता है यह मान कर कि डायन है , पूरे गाँव को खाने आयी है.
इसमें आर्थिक स्तर, शिक्षा या समृद्धि से कोई अंतर नहीं पड़ता. एक मंत्री अपने ज्योतिषी के कहने पर ३.३७ बजे हीं शपथ लेता है क्योंकि उसका मानना है कि ज्योतिष की बात मानाने से हीं वह यहाँ तक पहुंचा है. उस ज्योतिषी में उसकी अटूट आस्था है. कई  बड़े आई ए एस अधिकारियों को एक बाबा में आस्था है. नतीज़तन, पूरा अमला हर हफ्ते उस बाबा के आश्रम में हाँथ बांधे खड़ा रहता है क्योंकि वह अधिकारी भी बाबा के पैर पर गिर कर अगली पोस्टिंग के लिए  आशीर्वाद लेना चाहता है. हाल हीं में ऐसे हीं एक अधिकारी को एक बाबा ने एक देवी के   मंदिर में बली चढाने का आदेश दिया और अगली फ्लाइट से हीं वह पूरे परिवार के साथ वहां पहुँच गया. चम्बल के डाकू भी डाका डालने जाने के पहले काली मंदिर में पूजा करते रहे हैं. रामपाल के “भक्तों” ने जिस तरह संविधान की धज्जी उड़ाते हुए पुलिस पर पेट्रोल बम फेंके क्या इस अफसर से डर नहीं है कि छिप कर हीं सही यह भी अपनी “आस्था के प्रतीक “ बाबा के कहने पर “अमुक भक्त का प्रमोशन “ और अमुक भक्त के दुश्मन पड़ोसी के खिलाफ मुक़दमा” कर जेल ना भेजे. आखिर “श्रद्धा” भी तो कोई चीज होती है और फिर “बाबा” की आज्ञां भी तो ईश्वर की हीं आज्ञा है !!
कभी बजरंग बली के या विन्ध्याचल मंदिर में जाएँ तो पाएंगे कि तमाम अधिकारी अपनी नीली बत्ती गाड़ी के साथ पूजा अर्चना करने आते हैं. बाकी भक्तों को रोक दिया जाता है. जैसे नीली बत्ती और देवी में कोई अलग रिश्ता है.
आखिर क्या हो गया है इस हिन्दू समाज को? कौन रोकेगा इन धर्मे के ठेकेदारों को जिनमें अक्सर बलात्कारी मिलते हैं. आसाराम के केस लें. उस पर बलात्कार के आरोप कई बार लगे. मीडिया ने साक्ष्य न होने के कारण आवाज में वह बुलंदी नहीं दिखाई. लेकिन आखिरी बार जब ऐसा ही आरोप लगा तो मध्य प्रदेश व राजस्थान में चुनाव था. एक पार्टी के नेता ने इस बाबा को सचरित्र होने का सर्टिफिकेट दिया क्योंकि उस प्रदेश में बाबा के भक्त बड़ी संख्या में थे. फिर राजस्थान की कांग्रेस सरकार क्यों पीछे रहती. वहाँ भी चुनाव था और बाबा के भक्त भी. वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा बाबा को गिरफ्तार करने का सवाल हीं नहीं उठता. चार दिन यह नाटक चलता रहा क्योंकि बाबा के वोट इन दलों को चाहिए थे. तब मीडिया को अपनी आवाज तेज करनी पडी और बाबा आज महीनों से दूसरों का भाग्य तो छोडिये अपना भाग्य भी नहीं संवार पा रहा है.
समस्या रामपाल या आसाराम की नहीं है. ये तो उस कुत्सित सोच की पैदाइश है जिसमें हम इनके पास बेटे की नौकरी के लिए जाते हैं, या प्रमोशन के लिए पैर पड़ते हैं. समस्या उस गैर-वज्ञानिक सोच की है जिसमें हम सरकारी गाड़ी से मंगलवार को बजरंग बलि के दर्शन करते हैं. क्या शनिवार के दिन काले कुत्ते को पीला चना खिलने पर काम बनाने का ईश्वरीय आदेश देने वाले बाबा की गलती है या उसकी जो वहां इस आशय से गया है. अगर समाज बेवकूफ है तो इसे लूटने वाले , इसकी बेटियों से बलात्कार करने वाले बाबा को गलत कह कर क्या  बचा जा सकता है?      
हमें अपनी वैज्ञानिक सोच बनाने वाली संस्थाओं को तेज़ी से विकसित करना होगा. पाकिस्तान यह नहीं कर सका नतीजतन गरीबी की मार झेल्र रहे माँ-बाप अपने बच्चे को कुछ पैसे लेकर धर्म से ओतप्रोत आतंकी संगठनों को दे देते हैं ताकि वह “अल्लाह” के काम आ सके. ये बच्चे कुछ दिनों की ट्रेनिंग ले कर आत्मघाती दस्ते में शामिल हो जाते हैं और मरते दम तक वे बच्चे या उनके माँ-बाप यही मानते कि अल्लाह के काम के लिए मरना  सबसे बड़ी इबादत है 

देश के जनमानस में वैज्ञानिक सोच विकसित किये बगैर सारा आर्थिक विकास बेमानी हो सकता है 

lokmat

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