हिन्दी को रोटी से जोड़िये, स्वत स्वीकार्य होगी
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देश भर के प्रमुख अख़बारों के संपादकों ने शनिवार को दिल्ली में करीब चार घंटे इस बात पर चर्चा की कि मीडिया , खासकर हिंदी अख़बारों में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग कैसे रोका जाये. इस अभियान का नेतृत्व कोई और नहीं बल्कि भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कर रही हैं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जिम्मेदारी दी गयी थी कि एक महीने में देश के हिंदी के पांच प्रमुख अख़बारों में कब और कितनी बार अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग हुआ. तीन वरिष्ठ पत्रकारों के दल ने पाया कि औसतन हर हिंदी अखबर ने प्रतिदिन 100 के करीब अंग्रेज़ी के शब्द इस्तेमाल किये थे. दल ने प्रयुक्त अंग्रेज़ी शब्दों के छः वर्ग बना कर यह बताया कि कुछ अंग्रेज़ी शब्दों का कोई हिंदी शब्द है हीं नहीं जैसे पेन ड्राइव, चार्जर, इन्टरनेट, इंटरपोल या एक्स रे आदि. अतः इनका प्रयोग पूर्णतः उचित है. दूसरा वर्ग था उन शब्दों का जिनका प्रयोग उचित है क्योंकि उनके हिंदी समतुल्य क्लिष्ट हैं जैसे अंडरवर्ल्ड , अम्पायर , कनेक्टिविटी आदि. तीसरे वर्ग में वे अंग्रेज़ी के शब्द थे जिनको उचित माना जा सकता है हालांकि उनके हिंदी समतुल्य का भी प्रयोग किया जा सकता है जैसे एडवेंचर, गाइड या जूनियर. चौथा वर्ग था उन अंग्रेज़ी शब्दों का जिनका प्रयोग अनुचित है क्योंकि सार्थक हिंदी शब्द हैं जैसे एक्स्ट्रा , कंज्यूमर या कॉलेज. अंतिम याने छठा वर्ग था उन शब्दों का जिनका प्रयोग अत्यंत अनुचित था क्योंकि बेहतर हिंदी शब्द हैं जैसे अरेस्ट, आइडियल अवेयरनेस आदि.
बैठक में विचार व्यक्त करने को कहा गया. लगभग सभी संपादकों के हिंदी शब्दों के प्रयोग की जरूरत को स्वीकार किया अपनी –अपनी तरह से. केवल दो सम्पादकों ने कहा कि शब्दों की स्वीकार्यता पेट याने रोटी से जुडी है और अगर अंग्रेज़ी के शब्दों से युवाओं को नौकरी मिलती है या प्रमोशन होता है तो वे उन्हें सायास अंगीकार करेंगे।
अखबारों के छान-बीन करने वाली त्रि-सदस्यीय टीम शायद इस बात का संज्ञान नहीं ले सकी कि हिंदी जिस माँ ---संस्कृत --की कोख से जन्मी है वह दुनिया की सबसे समर्थ भाषा है. इसमें २००० धातुओं से शब्द बनाने के लिए ६५० से अधिक प्रत्यय है और इसके अलावा उपसर्ग और समासन की प्रक्रिया इसे बेहद समृद्ध बनाती है. प्रत्यय का इतना सामर्थ्य शायद दुनिया की किसी अन्य भाषा में नहीं है. लिहाज़ा यह कहना कि “हिंदी में उपयुक्त शब्द” नहीं हैं महज़ कामचोरी दर्शाता है. भाषा की शुद्धता और तज्जनित सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के साथ राष्ट भक्ति करने वालों को थोड़ी मेहनत करनी होगी. अपने उद्बोधन में विदेश मंत्री ने इस प्रथम वर्ग के अंग्रेज़ी शब्दों के प्रचलन का औचित्य ठहराने पर इस टीम से संतुष्ट नहीं थीं. वकालत करने वाले अधिकतर संपादकों को स्वयं यह नहीं मालूम होगा कि संज्ञा को विशेषण बनाने के लिए जब टक या इक प्रत्यय लगाया जाता है तो प्रथम शब्द का गुण हो जाता है. यही कारण है कि रसायन से रासायनिक और पृथ्वी से पार्थिव, समाज से सामाजिक बनता है. इसी प्रत्यय का कमाल है कि शैथिल्य भी बनता है और शिथिलता भी. क्या हिंदी भाषा के साथ यह कम बलात्कार है कि इसकी वकालत करने वाले संपादक मौलिक व्याकरण न जानें ?
इस प्रयास के प्रणेता शायद एक और गलती कर रहे हैं. भाषा –शास्त्र का मौलिक सिद्धांत है कि कोई भाव किस भाषा में व्यक्त किये गए यह इस बात से सुनिश्चित होता है कि उसके बोलने या लिखने में क्रिया किस भाषा की है, बाकी तो मात्र शब्द हैं. किसी भी गत्यात्मक (डायनामिक ) समाज में अन्य भाषाओँ से शब्द लिए जाते हैं और अगर तथाकथित भाषाई “शुद्धता” पर जोर दिया गया तो वह भाषा मृतप्राय हो जाती है.
एक उदाहरण लें. मेरे पास भारतीय संविधान की एक पुस्तक है जिसे किताब के अपने दावे के अनुसार “प्रतिलिप्यकार परिषद्” के अध्यक्ष ने लिखा है. अंग्रेज़ी में प्रतिलिप्यकार परिषद् को “कॉपीराइट बोर्ड” कहते हैं. दोनों में कौन सुगम है –हिंदी के शब्द या अंग्रेज़ी के? आगे देखिये “युक्तियुक्त निर्बंध अनुज्ञात सीमाओं के बाहर नहीं जा सकता”. दरअसल लेखक यह कहना चाहता है कि “रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन” असीमित नहीं है. एक और उदाहरण देखें. “सर्वोच्च न्यायलय ने यह सम्प्रेषण किया था कि सारवान कृत्यों के प्रत्यायोजन के विरुद्ध मर्यादा संविधान के उपबंधों से विविक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं”. यहाँ सारवान माने सब्सटेंशियल होता है और प्रत्यायोजन से अभिप्राय “ शक्ति के डेलीगेशन” से है साथ हीं विविक्षा से तात्पर्य है “इम्प्लिकेशन”. अगर देश (और सम्पादकगण भी) सारवान समझ सकते हैं तो सब्स्टेंशियल भी और अगर इम्प्लिकेशन जानते हैं तो विविक्षा जानने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए. फिर यह बहस क्यों? समाज के कल्याण से भाषा को जोड़ दें फिर वह स्वतः स्वीकार्य हो जाएगा.
लेकिन एक संपादक वक़्ता ने अपनी राष्ट्र-भक्ति , स्मिता और आत्म -गौरव का निर्बाध परिचय देते हुए तो यहाँ तक कहा कि जो अंग्रेज़ी के शब्द प्रयुक्त करता है वह अपराध कर रहा है , वह अपनी संस्कृति की गरिमा गिरा रहा है और यह कृत्य अक्षम्य है और वह भाषाई बलात्कार है. यह भाव कुछ ऐसा हीं था जैसे यह कहना कि जो “भारत माता की जय” नहीं कहता वह देश-भक्त नहीं है. उस संपादक को शायद यह नहीं समझ में आया कि जिस दिन किसी बेरोजगार युवा को यह पता चलेगा कि हिंदी बोलने से रोजगार के बेहतर अवसर मिलेंगे वह जयशंकर प्रसाद वाली हिंदी अंगीकार कर लेगा पर यह स्थिति तो बनांये.
इस सोच के मूल में अजीब कुंठा नज़र आती है. इस वर्ग को शायद यह भी नहीं मालूम कि आज २५ सालों से भारत की अर्थ-व्यवस्था वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में समेकित की जा चुकी है (जो विकास के क्रम में अपरिहार्य था) और आज भारत के सकल घरेलू उत्पाद का १५.६ प्रतिशत विदेश व्यापर से आता है जहाँ अंतर-राष्ट्रीय भाषा से हीं काम हो सकता है. उद्यमियों को अगर स्वीडेन में माल बेंचना है तो संस्कृति संजोने की इस नयी परिभाषा से काम नहीं चलेगा. युवाओं को अगर अंग्रेज़ी बोलने से काल सेंटर में रोजी मिलती है तो जयशंकर प्रसाद की “परिरंभ कुम्भ की मदिरा , निश्वास मलय के झोंके “ पढ़ने या बोलने से राष्ट्र का नुकसान हीं होगा. लिहाज़ा राष्ट्र भक्त वह है जो अंगेजी बोलकर विदेश में माल बेंच सके, राष्ट्र भक्ति वह है जिससे युवा बेरोजगारी ख़त्म करने के लिए जो भाषा मदद करे उसमें बोले या लिखे. संस्कृति तो तब भी ख़राब होती है जब २० करोड़ भारतीय जो कभी अंग्रेज़ी नहीं बोले, रात में भूखे पेट सो जाते हैं. संस्कृति तभी संवर्धित नहीं होती जब पिछले २५ वर्षों से हर ३७ मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर लेता है और इन्हीं २५ वर्षों में हर रोज़ २०५२ किसान खेती छोड़ कर दिल्ली में आ कर पेट पालता है वह भी जीवन यापन से नीचे के स्तर पर. ये सब अपनी जिन्दगी में कभी अंग्रेज़ी का एक शब्द भी नहीं बोले थे. लेकिन संस्कृति के अलंबरदारों के यहाँ आ कर सिक्यूरिटी गार्ड बन कर ६००० रुपये में सलामी ठोकते रहे हैं.
क्या संस्कृति को चार चाँद लग जाते हैं जब विश्व भूख सूचकांक में भारत एक दम निचले पायदान पर कराहता है या ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में नीचे से सातवें नंबर पर होता है? एक कराहते भारत में पहले अगर राष्ट्र निर्माण और संस्कृति को पुख्ता करना है तो भूख और भ्रष्टाचार से “राष्ट्रवादियों” को लड़ना होगा.
जिस दिन देश भर के संपादक हिन्दी अख़बारों में अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग पर जार-जार रो रहे थे उसी दिन देश के टी वी चैनल सारे दिन एक सीरियल में काम करने वाली युवती की आत्महत्या की ख़बर ऐसे नान-स्टाप दिखाते रहे मानो देश ज्वालामुखी के मुँहाने पर खड़ा हो गया है। चर्चा इस सामूहिक मानसिक दिवालियेपन पर होती तो राष्ट्र ज़्यादा मज़बूत होता।
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देश भर के प्रमुख अख़बारों के संपादकों ने शनिवार को दिल्ली में करीब चार घंटे इस बात पर चर्चा की कि मीडिया , खासकर हिंदी अख़बारों में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग कैसे रोका जाये. इस अभियान का नेतृत्व कोई और नहीं बल्कि भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कर रही हैं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जिम्मेदारी दी गयी थी कि एक महीने में देश के हिंदी के पांच प्रमुख अख़बारों में कब और कितनी बार अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग हुआ. तीन वरिष्ठ पत्रकारों के दल ने पाया कि औसतन हर हिंदी अखबर ने प्रतिदिन 100 के करीब अंग्रेज़ी के शब्द इस्तेमाल किये थे. दल ने प्रयुक्त अंग्रेज़ी शब्दों के छः वर्ग बना कर यह बताया कि कुछ अंग्रेज़ी शब्दों का कोई हिंदी शब्द है हीं नहीं जैसे पेन ड्राइव, चार्जर, इन्टरनेट, इंटरपोल या एक्स रे आदि. अतः इनका प्रयोग पूर्णतः उचित है. दूसरा वर्ग था उन शब्दों का जिनका प्रयोग उचित है क्योंकि उनके हिंदी समतुल्य क्लिष्ट हैं जैसे अंडरवर्ल्ड , अम्पायर , कनेक्टिविटी आदि. तीसरे वर्ग में वे अंग्रेज़ी के शब्द थे जिनको उचित माना जा सकता है हालांकि उनके हिंदी समतुल्य का भी प्रयोग किया जा सकता है जैसे एडवेंचर, गाइड या जूनियर. चौथा वर्ग था उन अंग्रेज़ी शब्दों का जिनका प्रयोग अनुचित है क्योंकि सार्थक हिंदी शब्द हैं जैसे एक्स्ट्रा , कंज्यूमर या कॉलेज. अंतिम याने छठा वर्ग था उन शब्दों का जिनका प्रयोग अत्यंत अनुचित था क्योंकि बेहतर हिंदी शब्द हैं जैसे अरेस्ट, आइडियल अवेयरनेस आदि.
बैठक में विचार व्यक्त करने को कहा गया. लगभग सभी संपादकों के हिंदी शब्दों के प्रयोग की जरूरत को स्वीकार किया अपनी –अपनी तरह से. केवल दो सम्पादकों ने कहा कि शब्दों की स्वीकार्यता पेट याने रोटी से जुडी है और अगर अंग्रेज़ी के शब्दों से युवाओं को नौकरी मिलती है या प्रमोशन होता है तो वे उन्हें सायास अंगीकार करेंगे।
अखबारों के छान-बीन करने वाली त्रि-सदस्यीय टीम शायद इस बात का संज्ञान नहीं ले सकी कि हिंदी जिस माँ ---संस्कृत --की कोख से जन्मी है वह दुनिया की सबसे समर्थ भाषा है. इसमें २००० धातुओं से शब्द बनाने के लिए ६५० से अधिक प्रत्यय है और इसके अलावा उपसर्ग और समासन की प्रक्रिया इसे बेहद समृद्ध बनाती है. प्रत्यय का इतना सामर्थ्य शायद दुनिया की किसी अन्य भाषा में नहीं है. लिहाज़ा यह कहना कि “हिंदी में उपयुक्त शब्द” नहीं हैं महज़ कामचोरी दर्शाता है. भाषा की शुद्धता और तज्जनित सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के साथ राष्ट भक्ति करने वालों को थोड़ी मेहनत करनी होगी. अपने उद्बोधन में विदेश मंत्री ने इस प्रथम वर्ग के अंग्रेज़ी शब्दों के प्रचलन का औचित्य ठहराने पर इस टीम से संतुष्ट नहीं थीं. वकालत करने वाले अधिकतर संपादकों को स्वयं यह नहीं मालूम होगा कि संज्ञा को विशेषण बनाने के लिए जब टक या इक प्रत्यय लगाया जाता है तो प्रथम शब्द का गुण हो जाता है. यही कारण है कि रसायन से रासायनिक और पृथ्वी से पार्थिव, समाज से सामाजिक बनता है. इसी प्रत्यय का कमाल है कि शैथिल्य भी बनता है और शिथिलता भी. क्या हिंदी भाषा के साथ यह कम बलात्कार है कि इसकी वकालत करने वाले संपादक मौलिक व्याकरण न जानें ?
इस प्रयास के प्रणेता शायद एक और गलती कर रहे हैं. भाषा –शास्त्र का मौलिक सिद्धांत है कि कोई भाव किस भाषा में व्यक्त किये गए यह इस बात से सुनिश्चित होता है कि उसके बोलने या लिखने में क्रिया किस भाषा की है, बाकी तो मात्र शब्द हैं. किसी भी गत्यात्मक (डायनामिक ) समाज में अन्य भाषाओँ से शब्द लिए जाते हैं और अगर तथाकथित भाषाई “शुद्धता” पर जोर दिया गया तो वह भाषा मृतप्राय हो जाती है.
एक उदाहरण लें. मेरे पास भारतीय संविधान की एक पुस्तक है जिसे किताब के अपने दावे के अनुसार “प्रतिलिप्यकार परिषद्” के अध्यक्ष ने लिखा है. अंग्रेज़ी में प्रतिलिप्यकार परिषद् को “कॉपीराइट बोर्ड” कहते हैं. दोनों में कौन सुगम है –हिंदी के शब्द या अंग्रेज़ी के? आगे देखिये “युक्तियुक्त निर्बंध अनुज्ञात सीमाओं के बाहर नहीं जा सकता”. दरअसल लेखक यह कहना चाहता है कि “रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन” असीमित नहीं है. एक और उदाहरण देखें. “सर्वोच्च न्यायलय ने यह सम्प्रेषण किया था कि सारवान कृत्यों के प्रत्यायोजन के विरुद्ध मर्यादा संविधान के उपबंधों से विविक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं”. यहाँ सारवान माने सब्सटेंशियल होता है और प्रत्यायोजन से अभिप्राय “ शक्ति के डेलीगेशन” से है साथ हीं विविक्षा से तात्पर्य है “इम्प्लिकेशन”. अगर देश (और सम्पादकगण भी) सारवान समझ सकते हैं तो सब्स्टेंशियल भी और अगर इम्प्लिकेशन जानते हैं तो विविक्षा जानने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए. फिर यह बहस क्यों? समाज के कल्याण से भाषा को जोड़ दें फिर वह स्वतः स्वीकार्य हो जाएगा.
लेकिन एक संपादक वक़्ता ने अपनी राष्ट्र-भक्ति , स्मिता और आत्म -गौरव का निर्बाध परिचय देते हुए तो यहाँ तक कहा कि जो अंग्रेज़ी के शब्द प्रयुक्त करता है वह अपराध कर रहा है , वह अपनी संस्कृति की गरिमा गिरा रहा है और यह कृत्य अक्षम्य है और वह भाषाई बलात्कार है. यह भाव कुछ ऐसा हीं था जैसे यह कहना कि जो “भारत माता की जय” नहीं कहता वह देश-भक्त नहीं है. उस संपादक को शायद यह नहीं समझ में आया कि जिस दिन किसी बेरोजगार युवा को यह पता चलेगा कि हिंदी बोलने से रोजगार के बेहतर अवसर मिलेंगे वह जयशंकर प्रसाद वाली हिंदी अंगीकार कर लेगा पर यह स्थिति तो बनांये.
इस सोच के मूल में अजीब कुंठा नज़र आती है. इस वर्ग को शायद यह भी नहीं मालूम कि आज २५ सालों से भारत की अर्थ-व्यवस्था वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में समेकित की जा चुकी है (जो विकास के क्रम में अपरिहार्य था) और आज भारत के सकल घरेलू उत्पाद का १५.६ प्रतिशत विदेश व्यापर से आता है जहाँ अंतर-राष्ट्रीय भाषा से हीं काम हो सकता है. उद्यमियों को अगर स्वीडेन में माल बेंचना है तो संस्कृति संजोने की इस नयी परिभाषा से काम नहीं चलेगा. युवाओं को अगर अंग्रेज़ी बोलने से काल सेंटर में रोजी मिलती है तो जयशंकर प्रसाद की “परिरंभ कुम्भ की मदिरा , निश्वास मलय के झोंके “ पढ़ने या बोलने से राष्ट्र का नुकसान हीं होगा. लिहाज़ा राष्ट्र भक्त वह है जो अंगेजी बोलकर विदेश में माल बेंच सके, राष्ट्र भक्ति वह है जिससे युवा बेरोजगारी ख़त्म करने के लिए जो भाषा मदद करे उसमें बोले या लिखे. संस्कृति तो तब भी ख़राब होती है जब २० करोड़ भारतीय जो कभी अंग्रेज़ी नहीं बोले, रात में भूखे पेट सो जाते हैं. संस्कृति तभी संवर्धित नहीं होती जब पिछले २५ वर्षों से हर ३७ मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर लेता है और इन्हीं २५ वर्षों में हर रोज़ २०५२ किसान खेती छोड़ कर दिल्ली में आ कर पेट पालता है वह भी जीवन यापन से नीचे के स्तर पर. ये सब अपनी जिन्दगी में कभी अंग्रेज़ी का एक शब्द भी नहीं बोले थे. लेकिन संस्कृति के अलंबरदारों के यहाँ आ कर सिक्यूरिटी गार्ड बन कर ६००० रुपये में सलामी ठोकते रहे हैं.
क्या संस्कृति को चार चाँद लग जाते हैं जब विश्व भूख सूचकांक में भारत एक दम निचले पायदान पर कराहता है या ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में नीचे से सातवें नंबर पर होता है? एक कराहते भारत में पहले अगर राष्ट्र निर्माण और संस्कृति को पुख्ता करना है तो भूख और भ्रष्टाचार से “राष्ट्रवादियों” को लड़ना होगा.
जिस दिन देश भर के संपादक हिन्दी अख़बारों में अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग पर जार-जार रो रहे थे उसी दिन देश के टी वी चैनल सारे दिन एक सीरियल में काम करने वाली युवती की आत्महत्या की ख़बर ऐसे नान-स्टाप दिखाते रहे मानो देश ज्वालामुखी के मुँहाने पर खड़ा हो गया है। चर्चा इस सामूहिक मानसिक दिवालियेपन पर होती तो राष्ट्र ज़्यादा मज़बूत होता।
nai duniya