Wednesday 6 July 2016

मोदी और उनकी सरकार का दुराग्रहपूर्ण विश्लेषण



ताज़ा मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर एक अंग्रेज़ी अखबार लिखता है “ स्मृति ईरानी को हटा कर प्रकाश जावडेकर को उनकी जगह पर बैठा कर संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने अपनी बाँहों की ताकत एक बार फिर दिखाई”. मुझे याद आता है कि जब स्मृति ने मानव संसधान मंत्री के रूप में शपथ लिया था  तो इसी अख़बार ने घोषित किया कि चूंकि स्मृति संघ के नजदीक हैं इसीलिये मोदी को उनको इस पद पर लेना पड़ा. पिछले दो साल से भारत के ये “लाल बुझक्कड़” विश्लेषक (जिसमें कई बार मैं भी शामिल होता हूँ) जनता को बताते रहे कि किस तरह स्मृति ईरानी के ज़रिए संघ अपना एजेंडा लागू करवाने के लिए विभाग के तमाम पदों पर संघ के लोगों को बैठा रहा है. याने स्मृति मंत्री बनी तो भी संघ के कारण और हटीं भी तो संघ के बाजू की ताकत और इस बीच यह आरोप भी कि मंत्री संघ के इशारे पर शिक्षा के जरिए हिन्दुत्त्व ला रहीं है.

यहाँ हम उन विश्लेषकों की बात नहीं कर रहे हैं जिनका भारतीय जनता पार्टी, हिन्दुत्त्व, संघ और तत्संबंधी सभी अन्य विचारों, अवधारणाओं और संस्थाओं के खिलाफ लिखना या बोलना एक शाश्वत भाव है बल्कि उनकी, जो निरपेक्ष भाव से विश्लेषण करने का दावा करते हैं. क्या हम दुराग्रही नहीं होते जब इस विस्तार के सकारात्मक मूल भाव को छोड़ कर इसमें भी संघ, पॉलिटिक्स और आक्रामक हिन्दुत्त्व देखने लगते हैं? उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड और पंजाब में चुनाव हैं लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश में फिलहाल नहीं. इस विस्तार में राजस्थान से चार मंत्री और मध्य प्रदेश से तीन मंत्री लिए गए हैं जब कि उत्तर प्रदेश से भी तीन , उत्तराँचल से एक और पंजाब से एक भी नहीं. लेकिन हम “लाल बुझक्कड़ विश्लेषक” टी वी चैनेलों के डिस्कशन में और लेखों में यह कह रहे हैं कि यह विस्तार आगामी चुनाव के मद्देनज़र, धर्म और जाति को साधने के लिए किया गया है. हम तर्कशास्त्रीय दोष के शिकार हैं या बीमार मानसिकता के यह समझ में नहीं आता जब इसमें भी राजनीति देखते हैं कि मोदी ने यू पी में ब्राह्मण वोट को साधने के लिए महेंद्र पाण्डेय को, दलित में पासी वोट के लिए कृष्णराज को और पटेल (कुर्मी) वोट के लिए अनुप्रिया पटेल को मंत्रिपरिषद में जगह दी. अगर यह तर्क है तो पंजाब को क्यों छोड़ दिया. इस पर हम विश्लेषक उसी हठधर्मिता से कहते हैं “हालांकि अहलुवालिया पश्चिम बंगाल से राज्य सभा में हैं लेकिन हैं तो सिख हीं न”. शायद उन्हें नहीं मालूम कि अहलुवालिया हमेशा बिहार में रहे हैं और पंजाब में उन्हें शायद हीं कोई जनता हो? २०१४ के चुनाव में जब पार्टी को उत्तर प्रदेश में ४२ प्रतिशत मत मिले और ७२ सीटें तब भाजपा सरकार में भी नहीं थी फिर कैसे २०१२ के १५ प्रतिशत के मुकाबले ४२ प्रतिशत वोट मिले?

इस विस्तार का सीधा सन्देश है कि “मोदी सरकार विवाद नहीं विकास चाहती है लिहाज़ा परफॉरमेंस हीं एक मात्र आधार रहेगा. प्रकाश जावडेकर सर झुका कर बगैर किसी विवाद में पड़े बेहद रफ़्तार से पर्यावरण को लेकर देश में हीं नहीं विदेश में काम करते रहे. मनोज सिन्हा जो स्वयं इंजीनियर रहे है चुपचाप रेलवे में अपना योगदान देते रहे। मोदी में  क्षमता पहचानने की सलाहियत है। स्मृति आक्रामक व्यक्तित्व की वजह से विवाद में रहीं. प्रधानमंत्री विवाद नहीं चाहते लिहाज़ा उनकी जगह प्रकाश जावडेकर को लाया गया. एक विख्यात सर्जन, एक पर्यावरणविद , एक सर्वोच्च न्यायलय का वकील , कई पूर्व अफसर और सभी पढ़े-लिखे सांसद इस विस्तार में जगह पाए. इसकी वजह यह थी कि विकास अब काफी टेक्निकल हो गया है और नेता चाहे कितना भी लोकप्रिय हो आज का विकास समझने की सलाहियत के लिए आधुनिक शिक्षा और समझ की ज़रुरत होती है.

यही वजह है कि तीन दिन पहले एक प्रमुख हिंदी अखबार के सम्पादक ने जब मोदी जी से इंटरव्यू में पूछा कि इन ढाई सालों के शासन के दौरान में कोई मलाल , तो उनका जवाब था कि मीडिया के एक वर्ग को जो २०१४ में हमारे हारने का दावा करता रहा, उसे हम ढाई साल में विकास को लेकर अपनी सदाशयता के बारे में “कन्विंस” नहीं कर पाए.

शायद मोदी सही थे और हम दुराग्रही. यह अलग बात है इसी में विश्लेषकों का एक वह वर्ग भी है जो निरपेक्ष विश्लेषण और वह भी केवल तथ्यों की आधार पर करता है और उसके विश्लेषण को सरकार को गंभीरता से लेना होगा.  
      
दुराग्रहपूर्ण विश्लेषण का एक और पहलू है। मीडिया में एक वर्ग “सेक्युलर विश्लेषकों” का है.  “भारत माता की जय” कहने पर इसरार करने वालों के खिलाफ इस “सेक्युलर बुद्धिजीवियों “ ने हजारों लेख लिख मारे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) के लानत –मलानत की. लेकिन इनमें से किसी एक ने भी यह नहीं लिखा कि संघ के शिक्षा प्रकल्प द्वारा संचालित असम के एक स्कूल के एक मुसलमान छात्र सरफ़राज़ ने पूरी असम बोर्ड की परीक्षा में टॉप किया है. आज संघ के स्कूलों में ३०,००० से ज्यादा मुसलमान छात्र पढ़ रहे हैं. क्या कभी किसी बुद्धिजीवी ने सुना कि इन संघ-संचालित आधुनिक शिक्षा पद्धति में मुसलमानों से साइंस छोड़ कर हिन्दू धर्म अंगीकार करने का दबाव डाला गया? सरफराज के अगर पूरे असम में टॉप किया है तो वह गीता के श्लोकों और वैदिक ऋचाओं को पढ़ कर नहीं? लेकिन इन सेक्युलर बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया इस खबर के बाद. किसी ने एक शब्द भी नहीं लिखा संघ के प्रयासों को लेकर. कम से सरकार की नहीं तो सामाजिक संगठनों के प्रति तो हम नैतिक ईमानदारी दिखा हीं सकते हैं.

“कोई धर्म आतंकवादी नहीं होता और आतंकवादियों का कोई धर्मं नहीं होता” यह कायरतापूर्ण जुमला अक्सर इस वर्ग के द्वारा हर आतंकी घटना के बाद फेंका जाता है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि आतंकवादी का तो धर्म होता है. और वे  उसी धर्म में अपने  “अस्तित्व का कारण” ढूढते है और उसी के तले वे फलते-फूलते हैं. लिहाज़ा यह कहना की आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता सत्य को न पहचानने की कायरता है , “बाँझ” सोच है. कबूल करें कि आज इस्लामिक आतंकवाद दुनिया के लिए एक बड़ा ख़तरा है. इसे कम करने के दो हीं उपाय हैं. पहला कि इस धर्म के सच्चे अनुयायी इस आतंकवाद के प्रति “जीरो टोलेरेन्स” रखें. मस्जिदें और मदरसे इनके पनाहगार न बनें, ना  हीं इन्हें किसी किस्म का प्रश्रय पूरे समाज से मिले. लेकिन मुश्किल है कि ओसामा बिन लादेन को भी मुस्लिम समाज ने महिमामंडित होने पर ऐतराज नहीं जताया ना हीं ऐसे कदम उठाये जिससे आतंकवादी तत्वों में अपने समाज से एक सख्त सन्देश जाये कि अगर शरीया कानून  के तहत बलात्कारी संगसार किया जा सकता है तो आतंकवादी भी. उसे कहीं न कहीं यह सन्देश मिलता रहा कि यह हथियार इस्लाम को दबाने वालों के खिलाफ उठाया जा रहा है लिहाज़ा यह अल्लाह का काम है.  

अगर एक समुदाय के गुमराह युवा धर्म से अपने औचित्य का सर्टिफिकेट ले कर दुनिया की शांति के लिए भारत के सुख-चैन में बाधक बन रहे हों तो इसे रोकना हर नागरिक का चाहे वह किसी भी धर्म का हो पहला कर्तव्य है. दूसरा : अगर लड़ाई धर्म के नाम पर है और गरीबी या भौतिक-अभाव को लेकर नहीं, तो राज्य से ज्यादा भूमिका उस धर्म के अनुयाइयों की बनती है और बुद्धिजीवियों की भी. केवल मोदी –विरोध के शाश्वत भाव से शायद हम कुछ दिन में असली बौद्धिक जगत में अपनी स्वीकार्यता हीं नहीं उपादेयता भी खो देंगे. लिहाज़ा विश्लेषण हो लेकिन दुराग्रही भाव से नहीं.        

lokmat