Saturday 23 January 2016

बढ़ती पूंजी, बढ़ती असमानता और बढ़ता सामाजिक तनाव



दुनिया के मात्र ६२ लोगों के पास दुनिया के आधे लोगों की कुल संपत्ति से ज्यादा है. प्रकारांतर से जितना ६२ लोगों के पास है उतना ३५० करोड लोगों की कुल संपत्ति भी नहीं है. कहा तो गया था कि यह आर्थिक सुधार है पर इन २० सालों में फायदा मिला अमीरों को. तीन जानी –मानी आर्थिक आंकलन संस्थाओं ने एक हीं निष्कर्ष निकाला. दुनिया की संपत्ति खिंच कर चंद हाथों में सिमटती जा रही है. और अगर सन २००० से आज तक के आंकड़े प्रतिबिम्ब हैं तो भारत में भी ऊपरी एक प्रतिशत की ओर लगातार यह “लक्ष्मी” भागती जा रही है और ९९ प्रतिशत गरीब होते जा रहे है. कोई ताज्जुब नहीं कि देश के इन ९९ प्रतिशत लोगों का अधो-वस्त्र (चड्ढी) भी इन एक प्रतिशत धन-पशुओं के पास पहुँच जाये और हम नंगे खड़े हों यह मानते हुए कि देश और दुनिया विकास कर रही है. ऑक्सफेम नामक संस्था की “एक अर्थव्यवस्था जो मात्र एक प्रतिशत के लिए है” शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार “इस अर्थव्यवस्था में आय और संपत्ति का रिसाव गरीबों की ओर होना था लेकिन इन २० सालों में यह खतरनाक रूप से उपर की ओर तूफ़ान की गति से खींचती जा है”. यही वजह है कि भारत में पूजी बढ़ती जा रही और साथ हीं असमानता भी. एक और ख़तरा. यह एक प्रतिशत अभिजात्य वर्ग इस बात से खुश न हो कि उसकी संपत्ति बढ़ती जा रही है. पांच साल पहले दुनिया की आधी से ज्यादा संपत्ति ३८८ लोगों के पास थी. आज मात्र ६२ लोगों के पास है.


भारत आये दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने इस स्थिति पर चिंता जताते हुए इसी हफ्ते एक व्याख्यान में कहा “प्रजातान्त्रिक व्यवस्था ने अगर इस असमानता पर रोक नहीं लगाया तो इसे हल करने के लिए समाज के गैर-प्रजातान्त्रिक रास्ते अपनाने का ख़तरा है”.



अगर गहराई से देखें तो भारत में यह स्थिति नज़र आ रही है. हर रोज़ देश किसी न किसी भावनात्मक मुद्दों से घिरता जा रहा है. ऐसा कोई दिन नहीं होता जब एन नया सामाजिक-भावनात्मक मुद्दा देश की प्रशांत सामूहिक चेतना को इस या उस दिशा में झकझोरता न हो. क्या कुछ दशकों पहले तक भारत में किसी ने इतना सामाजिक तनाव देखा था?



ये तथ्य किसी भी समाज को क्रांति के लिए प्रेरित करने के लिए पर्याप्त कारण देते हैं. यहाँ क्रांति का मतलब खूनी क्रांति से नहीं है बल्कि बल्कि व्यवस्था –परिवर्तन के लिए जन दबाव बनाने से है. लेकिन पूरे विश्व में कहीं धर्म के नाम पर खून बह रहा है तो कहीं अन्य भावनात्मक मुद्दे पर. हैदराबाद का मुद्दा दलित समाज के लिए अति-संवेदनशील हो जाता है. पश्चिम बंगाल में मालदा स्थित कालियाचक में डेढ़ लाख मुसलमान जुटते हैं पर इसलिए नहीं कि उन्हें बेहतर रोजगार , बेहतर शिक्षा मिले बल्कि इस लिए कि एक माह पहले किसी बद-दिमाग हिन्दू स्वयंभू नेता ने उनके धर्म के बारे में १४०० किलीमीटर दूर लखनऊ में कुछ कह दिया है. कभी किसी मुसलमान नेता या दलित नेता को उनकी शाश्वत गरीबी में रहने के खिलाफ लाखों की भीड़ जुटते किसी ने नहीं देखा ना हीं किसी गिरिराज सिंह ने बिहार के गरीबों को लेकर कहा कि भाव रहा तो हम शोषकों को “पाकिस्तान” भेज देंगे. कोई महंत मंदिर न बन पाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय को दोषी मान कर “हिन्दुस्थान में रहना है तो राम –नाम कहना होगा” का नारा देता है. न कोई महंत, न कोई साध्वी, न कोई आज़म न हीं कोई ओवैसी यह बीड़ा उठाता कि कैसे देश की सारी संपत्ति एक आर्थिक चक्रवात में फंस कर एक प्रतिशत के पास क्यों पहुँचती जा रही है. कोई आज़म खान देश का मामला यू एन ओ में उठाने की धमकी देता है तो कोई ओवैसी आतंकी की फांसी पर देश की सर्वोच्च न्यायलय पर सवाल उठा देता है.



यह भारत में क्यों हो रहा है? हमने इस बढ़ती असमानता को प्रजातान्त्रिक तरीके से ख़त्म करने के सार्थक प्रयास नहीं किये. नतीजतन, अपने गुस्से को छोटे-छोटे अतार्किक लेकिन भावनात्मक मुद्दे के जरिये समाज निकल रहा है. आमतौर पर मान्यता रही है कि समाज समय के साथ बेहतर होता है, समता-मूलक समाज बनता है, शोषण ख़त्म होता है, मानव-मानव के बीच विभेद का अंत होता है और प्रताड़ना के स्थूल तरीके बंद होते हैं याने गोदान की झुनिया-सिलिया -गोबर-होरी और मालती—मेहता-मातादीन के बीच खाई कम होती जाता है और कोई मातादीन पैसे के बल पर सिलिया के यौवन पर कामुक नज़र नहीं डालता.        



हमने विश्व में नयी आर्थिक नीति शुरू की. आर्थिक उदारवाद, नव –आर्थिकवाद, अर्थ-व्यवस्था का वैश्वीकरण और न जाने क्या-क्या नाम दे कर. भारत में ने भी इसे सन १९९१ में अंगीकार किया. हमें बताया जाता रहा कि भारत जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद) में स्तर पर इस दौरान तीसवें पायदान से कूद कर नवें स्थान पर आ गया है. कुल जी डी पी २.०८ ट्रिलियन डालर हो गई है. जी डी पी विकास दर को देश की नियति का पैमाना बताया जा रहा है. किसी ने यह नहीं बताया कि सन २००० में जहाँ देश एक प्रतिशत संपन्न लोगों के पास देश की ३७ प्रतिशत संपत्ति थी, सन २००५ में वह बढ़ कर ४२ प्रतिशत, सन २०१० में ४८ प्रतिशत, सन २०१२ में ४८ प्रतिशत और अब सन २०१४-१५ में ५२ प्रतिशत हो गयी है. एक अन्य आंकडे के मुताबिक देश के एक प्रतिशत के पास आज ७० प्रतिशत संपत्ति है.



कृषि-आधारित समाज, सामंतवादी समाज में राजशाही में शोषण के स्थूल तरीके रहे. गरीब किसानों से सामंती लोग चाबुक मार कर शोषण करते रहे और उनकी बहू-बेटियों पर कामुक नज़र डालते रहे. पर अगर ७० साल के “लोकतंत्र” और स्व-शासन में भी एक प्रतिशत बनाम ९९ प्रतिशत के बीच चाकू-खरबूजे का रिश्ता बना रहा तो बदला क्या ? हाँ, एक खास बात यह हुई है इस दौरान कि अब हमें अपना शोषण भी पता नहीं चलता. बाजारों ताकतों ने हमारे मन-मस्तिष्क पर एक घाना कोहरा डाल दिया है और हम सोच भी नहीं पा रहे हैं कि पिछले २० वर्षों से हर ३६ मिनट पर एक किसान क्यों मर रहा है , और इन २० सालों में हीं हर रोज़ २०५२ किसान क्यों खेती छोड़ कर मजदूरी करने लगा है. हैरानी की बात यह है कि इतना अभाव होने की बाद भी समाज में दृष्टिगोचर और असली मुद्दे को लेकर कोई गुस्सा नहीं है , ना हीं व्यवस्था बदलने की तड़प. वह इस बात से खुश है कि वह भी अपने इन्टरनेट-समर्थ मोबाइल में फ़िल्में, कई बार ब्लू फ़िल्में देख सकता है. देश में जितने लोग शौच के लिए खेत में या सड़क के किनारे जाते हैं उन सभी के हाथों लोटे के साथ नेट-समर्थ मोबाइल है.



पुराना सिद्धांत है किसी समाज की सोचने की ताकत छीननी हो तो उसे नशे में डाल दो. आज मुसलमान समाज इस बात से नाराज़ नहीं है कि उसके समान हीं दलित समाज के लोगों को रोज़गार मिला कि नहीं. उसकी चिंता है किसने उसके घर्म के खिलाफ कुछ कहा. दलित समाज का अभिजात्य वर्ग आरक्षण नहीं छोड़ना चाहता ताकि वह भी “उच्च जाति के लोगों की तरह” लम्बी गाड़ी और पांच सितारा होटलों में शाम गुजरे.              



व्यवस्था से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि किस तरह “आर्थिक नीति” को जनोन्मुख किया जाये अन्यथा भावनात्मक मुद्दे समाज के क्रोध का सबब बनेंगे जिन्हें हल करना राज्य अभिकरणों की सामर्थ्य से बाहर है.

lokmat