Friday 12 December 2014

धर्म –स्वातंत्र्य: दबाव में बने अनुच्छेद का प्रावधान बदलें


धर्म-परिवर्तन को लेकर संसद में उठे आगरा के मुद्दे पर कुछ मूल सवाल खड़े होते हैं जो इसकी जड़ में जाने को मजबूर करते है. संविधान सभा में भारतीय संविधान के “धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार” है. इससे सम्बंधित अनुच्छेद २५ (१) में मौलिक अधिकार के रूप में दी गयी “प्रचार करने की स्वतन्त्रता” धर्म परिवर्तन और तज्जनित ६५ साल पुराने विवाद की जड़ है. सभा में हुई बहस को अगर समग्रता में देखा जाये तो यह कहा जा सकता है कि “प्रचार” शब्द दबाव में लाया गया जिसका मकसद अल्पसंख्यको को खुश करने के अलावा कुछ नहीं था. यह भी समझ में आता है कि “खूंटा यहीं गड़ेगा” के भाव में इसके विरोध में आये सभी स्वरों को तिरस्कृत किया गया. 
दिसम्बर ६, १९४८ की बात है (वैसे दिसम्बर ६ अन्य तरह से भी चर्चित रहा है). संविधान सभा में इस अनुच्छेद (उस समय यह अनुच्छेद १९ था) के ड्राफ्ट विषय-वस्तु पर बहस चल रही थी. पीठासीन थे सभा के उपाध्यक्ष और बंगाल के ईसाई नेता डा. हरेन्द्र कुमार मुखर्जी. बहस का पटाक्षेप करते हुए के एम मुंशी  ने कहा “ साफ़-साफ़ कहूँ तो चाहे परिणाम कुछ भी हो हमें एक समझौता करना पडेगा”. अल्पसंख्यक समिति ने पिछले साल (तत्संबंधी) रिपोर्ट के सभी प्रावधानों पर सर्वसम्मति से मोहर लगा दी. इस सर्वसम्मति के कारण बहुसंख्यक समुदाय में भी सौहार्द्र और विश्वास का वातावरण बना लिहाज़ा इस अनुच्छेद में “प्रचार” शब्द बनाये रखना चाहिए ताकि अल्पसंख्यक समिति द्वारा समझौते के रूप में हासिल उपलब्धि को डिस्टर्ब न किया जाये”. 
जैसे हीं सभा के ओडिसा (तब उड़ीसा) से से चुने गए एक सदस्य लोकनाथ मिश्र प्रचार शब्द हटाने के सन्दर्भ में अपनी दलील में तथाकथित “सेकुलरिज्म” के खिलाफ लिखित कागजों से कुछ पढने लगे पंडित जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें रोकते हुए उपाध्यक्ष से पूछा “महोदय, क्या सभा में हस्तलिपि पढ़ने की अनुमति दी जा सकती है?” मुखर्जी ने कहा “मैं आम तौर पर नहीं अनुमति देता लेकिन चूंकि सदस्य का एक खास नज़रिया इस मुद्दे पर है और अगर इससे उन्हें सहजता होती है तो मैं इसकी अनुमति देता हूँ”. इस पर नेहरु ने फिर टोकते हुए पूछा “लेकिन मुद्दा क्या है”? शायद नेहरु का इशारा अनुच्छेद के विषय –वस्तु की जगह सेकुलरिज्म पर बोलने की ओर था. 
इसके कुछ महीने पहले की एक अन्य घटना लें जो यह दर्शाती है कि अल्पसंख्यकों को खुश करने की कवायद में सभी स्वरों को किस कदर नज़रंदाज़ किया गया. अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर बनी उप-समिति ने अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए विधायिकाओं में सीट आरक्षित करने के समान मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी आरक्षण की अनुशंसा की. उप-समिति की अनुशंसा सलाहकार समिति ने मानते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष के पास भेज दी थी. यह लगभग पारित होने हीं जा रही थी लेकिन चूंकि अंग्रेजों ने पाकिस्तान बनाने की पहल स्वीकार कर ली लिहाज़ा इस प्रयास से मुसलमानों को खुश रखने की कवायद स्वतः हीं ख़त्म हो गयी. फिर भी सेकुलरिज्म के नाम पर यह प्रक्रिया जारी रही. 
एक मकाम पर आ कर जून १, १९४९ को संविधान सभा में बोलते हुए संविधान के रचयिता और समिति के अध्यक्ष डा. अम्बेदकर को भी यह कहना पड़ा कि समिति के पास कोई विकल्प नहीं था. वह तो सिद्धांतों में बंधी थी. बाद में भी उन्होंने अपने भाषणों में कहा कि “आप पाएंगे कि समिति ने उन निर्देशों का निष्ठापूर्वक पालन किया जो उन्हें दिए गए थे”. प्रश्न यह है कि किसने उनको निर्देश दिए और क्यों उनका अनुपालन उनकी मजबूरी थी? 
ये घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि किस मानसिकता में और तज्जनित दबाव में संविधान सभा में “प्रचार” शब्द को इस अनुच्छेद में जगह दी  गयी. इस अनुच्छेद को लाने में दो चालाकियां साफ़ दिखाई देती हैं जिसमें कुतर्क का सहारा लिया गया है और जिसे  सर्वोच्च न्यायलय ने स्टेंस्लास बनाम मध्य प्रदेश सरकार में भी गलत ठहराया है. इस अनुच्छेद में प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतन्त्रता और अपने धर्म (या पंथ) को मानने , आचरण करने और साथ हीं प्रचार करने की स्वतन्त्रता का प्रावधान मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया. प्रचार के अधिकार के खिलाफ बोलने वालों को यह कह कर चुप करा दिया गया कि चूंकि अनुच्छेद १९(१) में अभिव्यकी स्वतन्त्रता का अधिकार पहले से हीं सुनिश्चित है लिहाज़ा यह शब्द नहीं होगा तब भी अपने धर्म की अभिव्यक्ति की जा सकती है. लिहाज़ा यह विरोध बेमानी है. 
यह तर्क गलत था. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नागरिकों को है जब कि इस प्रावधान में प्रत्येक व्यक्ति को यानी ईसाई मिशनरियों को भी. दूसरा अभिव्यक्त करना एक बात है और प्रचार करना एक अलग. अभिव्यक्ति में मानने का आग्रह या दबाव नहीं होता जो प्रचार में होता है. धर्म प्रचार की उद्देश्य हीं धर्मान्तरण के लिए प्रेरित करना होता है. संविधान सभा में प्रचार शब्द के पक्ष में बोलने वाले जो ज्यादातर कांग्रेस के लोग थे , यह कहने लगे कि प्रचार का मौलिक अधिकार केवल ईसाईयों या मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि हिन्दुओं के लिए भी है. 
लेकिन यह सब जानते हैं कि हर धर्मानुयाइयों की आर्थिक और सामजिक स्थिति समान नहीं होती. लिहाज़ा यह प्रावधान “लेवल प्लेइंग फील्ड” नहीं देता. यह भी सब जानते हैं कि किस तरह विदेशी पैसे का इस्तेमाल कर ईसाई मिशनरियों ने प्रलोभन दिया और उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों में , आन्ध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में पिछले ७० सालों में गरीब, आदिवासियों का धर्म-परिवर्तन कराया. इसके ठीक उल्टा हिन्दु संगठन में वह आर्थिक ताकत नहीं थी और हिन्दू समुदाय में सुधारवादी आन्दोलन उस तर्ज़ पर नहीं हो पाए थे जिससे गरीबी हिन्दू नौकरी, सम्मान, चिकित्सा और शिक्षा पा सके. प्रचार के माध्यम से वह सब कुछ किया गया जिससे हिन्दू समाज में बिखराव लाया जा सके और तब उन्हें अपना धर्मं बदलने को मजबूर किया जा सके. अगर कमज़ोर तबके का हिन्दू मुसलमान बना तो वह सैकड़ों साल के मुग़ल सत्ता के दबाव में और अगर आदिवासी ईसाई बना तो वह पहले अंग्रेज़ी हुकूमत के दबाव में और आज़ादी के बाद विविध प्रलोभन के वशीभूत होकर. इसके खिलाफ कानून न लाकर देश के शासनकर्ता कई दशाब्दियों तक इसे “धर्म-निरपेक्षता” मानते रहे. 
नतीजा यह हुआ कि मध्य प्रदेश और उड़ीसा में जब धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून लाया गया तो इसके प्रावधानों को ईसाई मिशनरी स्टेंस्लास ने चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायलय में कहा कि प्रचार के अन्दर धर्म-परिवर्तन निहित है. सन १९७७ के फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने स्टेंस्लास के तर्कों को ख़ारिज करते हुए कहा कि प्रचार में धर्म-परिवर्तन निहित नहीं है. इसके बाद अरुणाचल प्रदेश में ने भी धर्म-परिवर्तन के खिलाफ ऐसा कानून बनाया. लेकिन अन्य किसी राज्य ने इस तरह की हिम्मत नहीं दिखाई क्योंकि सत्ता में बैठी हर पार्टी को मुसलमान वोट से वंचित होने का ख़तरा था. यहाँ तक कि देश के स्तर पर भी इमरजेंसी के तत्काल बाद जनता पार्टी से चुने गए लोक सभा सदस्य ओम प्रकास त्यागी ने “धर्म की स्वतन्त्रता” एक प्राइवेट मेम्बर विधेयक नो १७८ , दिसम्बर २, १९७८ में सदन के पटल पर रखा जिसमें दबाव, प्रलोभन, या धोखे से धर्म परिवर्तन को निषिद्ध किया गया था. लेकिन संसद भंग हो गयी और विधेयक स्वतः ख़त्म हो गया. 
आज देश के सामने ना पाकिस्तान बनाने का दबाव है ना हीं किसी वर्ग विशेष को खुश करने की जिद्दोंजेहद. एक सम्यक भाव लेते हुए इस मुद्दे पर सोचना होगा. वरना वोट की राजनीति में और सरकारी दबाव में राजनीतिक दल के चपेट में गरीब वह मुसलमान हो या हिन्दू पिसते रहेंगे. 

jagran