Saturday 1 April 2017

यू एन ओ की रिपोर्ट: क्यों नहीं हैं हम भारतीय खुश ?





संयुक्त राष्ट्र संघ (यू एन ओ) की ताज़ा और पांचवीं विश्व खुशहाली  रिपोर्ट (वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट) के अनुसार पाकिस्तान हमसे ज्यादा खुश मुल्क  है. वह चीन से मात्र एक अंक पीछे याने (८०) पर है और यहाँ तक कि उसने भूटान (९७ ), नेपाल (९९), बांग्लादेश (११०) और श्रीलंका (१२०) को भी काफी पीछे छोड़ दिया है. भारत इन सबसे पीछे १२२वें अ्ंक  पर है. दरअसल हैप्पीनेस का हिंदी तर्जुमा गलत हुआ है. खुशहाली  की जगह इसे “प्रसन्नता” कहना चाहिए जो कि व्यक्तिगत अनुभव है. जिन छः पैमानों पर इसे नापा जाता हैं वे हैं : प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू आय, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, स्वतंत्रता, उदारता , संकट के दौरान इष्ट-मित्रों से मदद का भरोसा और सरकार या व्यापार में भ्रष्टाचार की स्थिति से पैदा होने वाला विश्वास. प्रसन्नता नापने की प्रक्रिया सन २०१२ में इस विश्व संस्था ने  शुरू की थी. और हर साल इसमें कई देशों की स्थिति बदलती रहती है. भारत इस साल चार अंक पीछे हो गया है. लेकिन चिंता की बात नहीं है अमेरिका भी १६ अंक गिर कर एक साल में तीसरे स्थान से १९ वें स्थान पर आ गया है और चीन भी जहाँ २५ साल पहले था वही पहुँच गया है.  


लेकिन चिंता यह है कि आतंकवाद और जहालत का दंश झेलने वाले पाकिस्तान के लोग हमसे ज्यादा खुश कैसे हैं. हमारी जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद) भी पाकिस्तान से करीब नौ गुना ज्यादा है जबकि आबादी मात्र छः गुना. हम ७० साल से प्रजातंत्र की छाँव (?) में जीने का दावा कर रहे हैं जबकि वहां ७० साल में ३२ साल फ़ौजी शासन रहा है. इस सवाल को जानने के पहले कुछ और तथ्य जानना जरूरी है. रिपोर्ट इस बात पर जोर देता है कि प्रसन्नता मूल रूप से सामाजिक और व्यक्तिगत अहसास होता है. अपनी “एग्जीक्यूटिव समरी” (क्रियात्मक सारांश) में रिपोर्ट कहता है कि अधिकांशतः यह  अहसास देश के भीतर पैदा होने वाली विसंगतियों पर निर्भर करता  है. खासकर गरीब मुल्कों में गरीब-अमीर की खाई से यह प्रसन्नता ज्यादा कम होती है. धनी देशों में यह खाई इतनी अधिक नहीं है लिहाज़ा वहाँ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत सम्बन्ध इस  प्रसन्नता को कम या ज्यादा करने के बड़े कारक हैं. 


गौर कीजिये. एक अन्य ताज़ा विश्व सम्पदा सूचकांक के अनुसार भारत में सन २००० में संपन्न ऊपरी एक प्रतिशत के पास देश की ३७ प्रतिशत संपत्ति होती थी जो २००५ में बढ़ कर ४२ प्रतिशत, २०१० में ४८ प्रतिशत, २०१२ में ५२ प्रतिशत और २०१६ में ५८.५ प्रतिशत हो  गयी है. लिहाज़ा एक बड़ा वर्ग खुश नहीं है क्योंकि एक बहुत छोटा वर्ग संपत्ति पर लगातार कब्ज़ा करता जा रहा है. यह खामी इस नयी अर्थ-व्यवस्था के कारण  है. विकासशील देशों में बढ़ती बेरोजगारी (जो नयी टेक्नोलॉजी की अपरिहार्य उपज है) भी एक बड़ा कारण है लोगों के अप्रसन्न रहने का. 

एक और ताज़ा विरोधाभास पर ग़ौर करें। एक हीं दिन अख़बार एक हीं पृष्ठ पर दो ख़बरें छपती हैं। पहले में फ़ोर्ब्स मैगज़ीन के अनुसार भारत में "अति -धनी अरबपतियों का संख्या बढ़ कर १०१ हो गयी है। और इन धनवानों की संख्या में भारत दुनिया में चौथे नम्बर पर आ गया है। दूसरी ख़बर है कि देश के ६•३० करोड़ ग्रामीण आज भी स्वच्छ पानी से वंचित है। क्या इन दोनों ख़बरों को पढ़ने के बाद ग़रीबों में ख़ुशी की उम्मीद की जा सकती है?

हमें यह जानना होगा कि प्रति-व्यक्ति आय की गणना स्वयं में दोषपूर्ण है. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की अगुवाई में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ने १०० –अर्थ-शास्त्रियों  की टीम गठित की जिसका उद्देश्य यह जानना था कि क्या जी डी पी की गणना सही होती है और क्या इसका सीधा  सम्बन्ध समाज की खुशहाली से होता है? सेन टीम की रिपोर्ट में भारत का उदाहरण देते हुए बताया गया कि अगर दिल्ली के कनाट  प्लेस में ट्रैफिक जाम हो जाये या किसी चीनी मिल के धुंवे                    से कुछ सौ गाँव के लोगों में फेफ़ड़े की बीमारी हो जाये तो देश का जी डी पी बढ़ जाएगा. इसी दोषपूर्ण जी डी  पी के आधार पर हम प्रति-व्यक्ति आय तय करते हैं और गलती से उसे समाज का विकास मानते हैं. 


आज से २० साल पहले विख्यात समाजशास्त्री रोबर्ट पुटनम ने “सोशल कैपिटल” (सामाजिक पूंजी) का  सिद्धांत अमरीकी समाज में अपनी दस साल की मेहनत के बाद लिखी अपनी पुस्तक “बोलिंग अलोन” में प्रतिपादित किया था और अमेरिका को आगाह किया था कि उनकी सामाजिक पूंजी बुरी तरह स्खलित हो रही है। उन्होने आगाह किया कि कैसा भी आर्थिक विकास इससे बढ़ने वाले असंतोष को रोक नहीं पायेगा. “अमेरिका एक बड़े सामजिक संकट की ओर बढ़  रहा है” यह कहना था पुटनम का. अमेरिका में ट्रम्प का राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना इसी बात के संकेत हैं. 


भारत में यह संकट बिलकुल अलग किस्म का है. एक सामाजिक सर्वे के अनुसार आज से २० साल पहले तक एक भारतीय प्रतिदिन ३० मिनट सामाजिक रूप से सम्बद्ध रहता था याने किसी मित्र के घर विवाह में या बीमारी में जाता था या अन्य सामाजिक अवसरों पर जुड़ा रहता था. आज वह मात्र                                ८ मिनट जुड़ा रहने लगा है. (इन्टरनेट पर जुड़ा होना उस सामाजिकता का भान नहीं देता). पाश्चात्य मूल्यों और जीवन शैली ने विवाह ऐसी पवित्र संस्था को बेहद कमज़ोर किया है. बैंगलोर में विवाह विच्छेद के बढ़ते मामलों के लिए तीन नयी अदालतें बनाई गयी हैं. विवाह एक पवित्र बंधन न होकर संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) हो गया है. बल्कि उससे आगे बढ़ते हुए “लिव-इन” संबंधों  की बाढ़ आ गयी है. एक शादी करने वाला (या वाली) दकियानूस माना जाने लगा है. पाकिस्तान में आज भी पाश्चात्य संस्कृति उस तरह अपने विद्रूप-चेहरे का साथ नहीं आयी है कठमुल्लेपन की वजह से.


कार्ल मार्क्स ने सभी सामाजिक सबंधों व सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति उत्पादन के तरीके और संसाधनों पर अधिकार के आधार पर होना बताया था. लेकिन बाद में पाया गया कि यह आंशिक रूप से हीं सही है. आज जरूरत है कि पाश्चात्य टेक्नोलॉजी तो अंगीकार की जाये पर उनसे पैदा होने वाले नकारात्मक सामाजिक प्रभाव को रोकने की जबरदस्त कोशिश भी जारी रहे. पति-पत्नी कमायें पर बेटे का भविष्य क्रेश के पालने में नहीं बल्कि बूढ़े-माँ-बाप की ममतामयी छाया में मिले। इससे न तो बूढ़े माँ-बाप वृद्धाश्रम  में या दवा के आभाव में गुमनामी में दम तोड़ेगे, न हीं बच्चे मूल्यविहीन होंगे. प्रसन्नता मात्र आर्थिक विकास से नहीं आती. मनुष्य को अन्य बहुत अपेक्षाएं होती हैं.  आज एक संतुलन की जरूरत है ताकि पाकिस्तान ऐसे कट्टरपंथ से बचें लेकिन साथ हीं अमेरिका सरीखे मूल्य-शून्यता से भी।


jagran

ट्रेन ब्लास्ट: भारत में आतंक का नया आयाम


खुफिया तंत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन जरूरी 

ताज़ा आतंकी घटना (भोपाल –उज्जैन ट्रेन ब्लास्ट) के बाद के रहस्योद्घाटन से स्पष्ट हो गया है कि भारत में आतंकवाद ने एक नया आयाम ले लिया है. यह स्वस्फूर्त है और वैचारिक प्रतिबद्धता  के लिए वह आई एस आई एस की वेव साइटों का सहांरा लेता है. अगर कोई मेंटर या हैंडलर हैं भी तो वह सामने नहीं आता बल्कि वेव के जरिया या एन्क्रिप्टेड सन्देश के प्लेटफार्म के जरिये बात करता है. लिहाज़ा भारत की केन्द्रीय हीं नहीं राज्य की खुफिया संस्थाओं को भी अपनी तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन करना होगा. तेलंगाना के एंटी –टेररिस्ट स्क्वाड  (ए टी एस जिसमें खुफिया तंत्र भी समाहित है) की तर्ज़ पर. दरअसल इस ब्लास्ट के खुलासे और धरपकड़ का श्रेय भी मात्र इसी संस्था को जाता है. लेकिन इस संस्था का  प्रोफेशनलिज्म देखिये कि ये अपनी सफलता कहीं भी नहीं बता रहे हैं जब कि भारत की तमाम एजेंसियां श्रेय लेने की होड़ में रोज मीडिया को अधकचरी जानकारी  दे रही हैं.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          
भारत का दूसरा संकट यह है कि यह उदार प्रजातंत्र है जहाँ नागरिक स्वातंत्र्य काफी संवेदनशील माना जाता है. ऐसे में अगर भारत में शांति का माहौल बरकरार रखना है तो पहली शर्त होगी इस लड़ाई को वैचारिक धरातल पर लड़ना और  दूसरा सख्त न्यायिक प्रतिकार व्यवस्था जिसमें आतंकियों को दहशत रहे अपने शत-प्रतिशत पकडे जाने का. खुफिया को अपनी कार्य-पद्यति तेलेंगना के ए  टी एस  के पैटर्न पर विकसित करनी होगी, राज्य खुफिया अभिकरणों की मजबूती के बिना यह संभव नहीं और साथ हीं केन्द्रीय संस्था – नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी – को राज्य की समतुल्य संस्थाओं पर कार्यकारी नियंत्रण रखने के कानून बनाने होंगे ताकि वे राजनीतिक दबाव में न आयें. कुछ राज्य इस प्रयास को संघीय ढाँचे के खिलाफ बताते हुए  विरोध करेंगे पर यह समय की मांग है अन्यथा  भारत भी  एक अशांत देश बनने  के कगार पर खड़ा है.        
भोपाल –उज्जैन ट्रेन-ब्लास्ट में शामिल आरोपियों में से एक –आरिफ – ने बताया कि उसने कानपुर में अपनी छोटी जायदाद बेंच कर दो पिस्तोलें एक हथियार बेंचने वाले से खरीदी और उनकी क्षमता टेस्ट करने के लिए एक बजुर्ग रिटायर्ड प्रिंसिपल को मार दिया. कानपुर पुलिस के रिकॉर्ड में यह हत्या इस खुलासे से पहले “अज्ञात” व्यक्ति के खिलाफ लिखी गयी. यह ट्रेन ब्लास्ट भी बमों की क्षमता टेस्ट करने के लिए किया था. और मध्य प्रदेश की पुलिस भी इसे दबाना चाहती थी एक सामान्य आपराधिक घटना बताकर. लेकिन धन्यवाद है तेलंगाना ए टी एस की उस टीम का जो साये की तरह कई महीने से इस आतंकी गुट के साथ लगी थी. ग़लती से आतंकियों ने ब्लास्ट करने की तत्काल बाद टेलीग्राम (नेट पर एन्क्रिप्टेड सन्देश भेजने का प्लेटफार्म) पर जब अपने “आका” को अपनी सफलता के बारे में बताया जो हैदराबाद ए टी एस का मुख्यालय कई महीनों से ट्रैक कर रहा था. मुख्यालय ने जब अपनी टीम को जो इन आतंकियों के पीछे साये की तरह लगी थी इस  ब्लास्ट की बात बतायी तो उन्हें अपनी चूक का  अहसास हुआ. बहरहाल मध्य प्रदेश के पुलिस प्रमुख को इन आतंकियों की लोकेशन बताई गयी. दरअसल तेलंगाना की टीम ब्लास्ट के पहले भी इनको गिरफ्तार कर सकती थी पर उनके  नज़दीक रहते हुए वह हैंडलर पर हाथ डालना चाहती थी. साये की तरह महीनों पीछे लगे रहने के बावजूद और साथ हीं  ब्लास्ट के समय भी ट्रेन  में एक कोच छोड़ कर बैठने के साथ हीं ए टी एस टीम  के सदस्य समझ नहीं पाए कि तीनों आतंकियों की पीठ पर लादे  पिट्ठुओं में से एक का वजन ट्रेन से उतरने के बाद कम हो  गया है.      
जब ठीक दो साल पहले मार्च, २०१५ में ग्रैमी वुड ने अटलांटिक टाइम्स में “आई एस आई एस दरअसल चाहता क्या है” (व्हाट आई एस आई एस रियली वांट्स” शीर्षक एक बड़ा लेख लिखा तो उसके बाद पूरी दुनिया में इस लेख के चर्चा रही. वुड ने बताया कि इस संगठन को परम्परागत आतंकवादी संगठन समझना और तदनुसार इसे परम्परागत तरीके से निष्प्रभ करने की कोशिश मूर्खतापूर्ण प्रयत्न हीं नहीं विश्व के लिए विनाशकारी भी हो सकता है. लेखक ने अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा के कथन “यह संगठन अल कायदा का जॉइंट वेंचर (संयुक्त उपक्रम) है” को बचकाना और नासमझी भरा करार दिया। -उज्जैन ट्रेन धमाके की घटना और पकडे गए आतंकियों के रहस्योद्घाटन की गंभीरता को भी शायद देश की प्रमुख एजेंसियां नए तरीके से समझना होगा.  राज्य पुलिस और खुफिया तंत्रों (एक राज्य के ए टी सी को छोड़ कर) को भी बेहद प्रोफेशनल बनाना होगा, तेलंगाना ए टी एस की तर्ज़ पर. इस घटना के आरोपी भी तेलंगाना ए टी एस के महीनों के जबरदस्त प्रयास से हीं गिरफ्तार हुए या मारे जा सके. यह अलग बात है कि अब कुछ केन्द्रीय एजेंसियां और साथ हीं कई राज्यों की के खुफिया विभाग के लोग मीडिया में हांफ –हांफ के रोज अपनी उपलब्धि  बता रहे हैं. यह समय दरअसल श्रेय लेने से ज्यादा अपनी गलतियों को सुधारने और इंटेलिजेंस के पुराने पैटर्न को बदलने का है.     गौर कीजिये. यह घटना किसी दूसरे देश से मिले हथियार या पैसे से नहीं हुआ था. न हीं इन गुमराह युवाओं को कट्टरता के लिए या हथियार के चलने या बम बनाने की ट्रेनिंग कराची, नेपाल या बांग्लादेश में हुई थी. इनमें स ए एक ने अपनी जायदाद बेंच  कर ९ एमएम के दो पिस्तौल खरीदे थे और वह  भी किसी सामान्य गैर-कानूनी हथियार बेंचने वाले गैंग से. बम बनाना इन्होने इन्टरनेट पर उपलब्ध “ज्ञान” से सीखा था. पूछ-ताछ में मालूम हुआ कि ये स्वयं हीं आई एस आई एस से प्रभावित थे  और उनकी वेव साइट्स देखते थे. इसी प्रभाव के तहत दस युवाओं ने कानपुर  में आरिफ के फ्लैट पर इस आतंकी संगठन के मंसूबे ---इस्लामी खलीफा शासन—को मुकम्मल करने के लिए कसम खाई थी. इस कांड में चार आतंकी शामिल थे. इनमें एक –सैफुल्लाह मारा गया और तीन—सैयद मेरे हुसैन, दानिश और आरिफ -- घटना स्थल के कई किलोमीटर दूर पिपरिया (होशंगाबाद) से पकडे गए. गॉस मुहम्मद इनका बौधिक  मेंटर था.        
वैचारिक रूप से एक नए युद्ध की ज़रुरत है इस्लामिक आतंकवाद के खात्मे के लिए. और यह युद्ध इस्लाम के अनुयायियों जो अमन  पसंद हैं द्वारा हीं  लड़ा जा सकता है. राज्य अभिकरणों की भी बेहद  चुस्त –दुरुस्त करने की ज़रूअर्ट है और सबसे बड़ी ज़रुरत न्याय-व्यवस्था को बदलने की है जिसमें मानवता के अपराधियों के प्रति कोई भी उदारता न दिखाई जाये अन्यथा देर हो  जायेगी और तब भारत में शांति बहाल करना मुख्किल होगा. अटलांटिक टाइम्स के लेखक वुड का लेख इसी खतरे के प्रति  विश्व को आगाह करता है.      
lokmat