“मोदी
-इफ़ेक्ट”
आज भी जन-भावनाओं
का नियंता
हमारे
पास पिछले ३४ दिन में तीन
अध्ययन रिपोर्ट आये.
तीनों अमरीका-स्थित
संस्थाएं. तीनों
विश्व में सम्मानित. एक
के अनुसार प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की जन स्वीकार्यता
हीं नहीं उनके शासन पर विश्वास
भी बढ़ा है और जबकि दूसरे ने
पिछले मोदी सरकार की आर्थिक
सुधार की नीतियों पर मोहर के
रूप में भारत को अपग्रेड करते
हुए “सकारात्मक” से “स्थिर”
वर्ग में डाला है. तीसरे
ने कुछ हीं दिनों पहले की अपनी
रिपोर्ट में पिछले तीन सालों
में भूखमरी की समस्या से जूझने
में दुनिया के अन्य गरीब देशों
से भारत को ४५ पायदान नीचे
दिखाया है. पहला
देश के २४६४ लोगों से
बातचीत/साक्षात्कार
के आधार पर हैं और तीसरा भारत
सरकार की हीं संस्थाओं द्वारा
व्यापक सर्वेक्षण के बाद दिए
गए आंकड़ों के आधार पर.
पहला पिउ रिसर्च
सेंटर का है जबकि दूसरा
अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी
मूडीज का है जिसने नीतियों
पर मोहर लगाई है. तीसरा
अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति
शोध संस्थान (इफ्प्री)
का
है जो केवल पिछले
आंकड़ों के आधार पर देशों का
वर्गीकरण कर्ता
है। हम न तो पिउ
के मेथोड़ोलोजी (अध्ययन
प्रक्रिया) को
गलत कह सकते हैं न हीं मूडीज
की नीतियों की सार्थकता माप
कर भावी दिशा को निर्धारित
करने की सलाहियत को और न हीं
सरकारी आंकड़ों पर आधारित
निष्कर्ष को. इन
तीनों की ईमानदारी पर शायद
हीं कोई सवाल उठा सकता है.
फिर
यह विरोधाभास क्यों? यह
विरोधाभास इसलिए है क्योंकि
पहला अध्ययन, उसकी
प्रश्नावली और उसका तरीका
लोगों की भावना को लेकर था
जबकि दूसरा आर्थिक नीतियों
के प्रति मोदी सरकार की
प्रतिबद्धता को लेकर.
और तीसरा शुद्ध
तर्क-आधारित
वैज्ञानिक आंकड़ों पर जो मात्र
तथ्य दिखाता
है।. शायद
अर्ध-शिक्षित
और अतार्किक समाज में भोगा
यथार्थ भावना निर्माण का आधार
नहीं बनता. इसका
दूसरा कारण यह भी हो सकता है
कि मोदी पर आज भी वह भरोसा कायम
है जो जनता ने दस साल के मनमोहन
शासन काल में खो दिया था.
“अगर मोदी हैं
तो वह सबकुछ होगा जो हम अपेक्षा
करते हैं” का भाव. यह
भाव “कोई नृप होहीं, हमें
का हानी” वाले नैराश्य-भाव
से अलग है. इसमें
“राजा” से अपेक्षा का अभाव
नहीं है पर “राजा” को तीन साल
बाद नज़रों से उतार देने और
पांच साल बाद बदल देने की
प्रजातान्त्रिक जिद भी नहीं
है. मोदी
इस लिहाज़ से सफल माने जायेंगे
कि एक ऐसे समाज में जिसमें
मीडिया की पैठ इतनी
गहरी हो कि देश के ९५ प्रतिशत
घरों में टी वी सेट हों या जहाँ
सरकार की हर गलती और सही कुछ
मिनटों में देश
, सुन या
पढ़ सकता हो, मोदी
का उसके मन-मस्तिष्क
में बने रहना किसी दुनिया के
राजनीति शास्त्र के विद्वानों
के लिए एक शोध का सबब हो सकता
है. फिर
जो बात मूडीज समझ जाता है ,
जो पिउ रिसर्च
को जनता बताती है वह इफ्प्री
के भूख सूचकांक से अलग क्यों
है और अगर है तो जनता इस भोगे
यथार्थ को संज्ञान मे
क्यो नही लेती?
पिउ
की प्रश्नावली का एक सवाल
देखे. क्या
आप एक ऐसे मजबूत नेता को चाहेंगे
जो फैसले बगैर किसी संसद या
न्यायपालिका के हस्तक्षेप
के ले? ५५
पातिशत लोगों के हाँ में जवाब
दिया और लगभग इतने हीं देश में
फौजी शासन की भी हिमायत की.
इसे
क्या समझा जाये? ७०
साल के प्रजातान्त्रिक शासन
में जनता का विश्वास देश की
सबसे बड़ी संस्था ---संसद--
या सबसे प्रभावी
संस्था — न्यायपालिका --
में कम हुआ है?
या यह कि मोदी
के प्रति भरोसे के भावनात्मक
तूफ़ान में ये संस्थाएं डूब
रहीं हैं? क्या
यह मोदी के व्यक्तित्व का कमाल
है या जनता की डरावनी नासमझी
जो प्रजातंत्र की जगह सैन्य
शासन को बेहतर मानती ?
क्या भारत का
समाज सोच के स्तर पर जडवत होता
जा रहा है या उसका ७० साल की
कुंठा -जनित
क्रोध उभर आया है? ध्यान
देने की बात यह है कि पिउ ने
दुनिया के जिन ३८ देशों में
यह सर्वे किया उनमें से सिर्फ
चार हीं ऐसे थे जिनकी जनता में
से हर दूसरे व्यक्ति ने फौजी
शासन को बेहतर विकल्प बताया.
अब
ज़रा इन भावनाओं में विरोधाभास
देखें. दस
में से आठ लोगों ने कहा कि पिछले
५० सालों में जीवन बेहतर हुआ
है और उनका यह भी मानना है कि
उनके बच्चो का भविष्य बेहतर
होगा. फिर
संसद और न्यायपालिका को किनारे
कर एक “मजबूत” नेता को सर्वशक्तिमान
बनाने की चाहत क्यों?
शायद “मोदी
इफ़ेक्ट” !
१३
मुद्दों को लेकर बहुसंख्यक
लोगों ने खराब गुणवत्ता वाले
स्कूल, स्वास्थ्य
और गरीब-अमीर
की बढ़ती खाई को कम अहमियत दी
है हालांकि आतंकवाद,
अफसरों में
भ्रष्टाचार और महंगाई पर इनकी
चिंता सर्वोच्च है.
अगर
दुनिया की मकबूल १४ संस्थाओं
द्वारा आर्थिक-, सामजिक,
स्वास्थ्य और
मानव विकास को लेकर किये गए
अध्ययन में १६ में से १० पैरामीटर
पर भारत पिछले तीन सालों में
पहले के मुकाबले पिछड़ा है
लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता
बढी हीं है , कम
नहीं हुई, तो
इसका स्पष्ट मतलब हैं कि आंकड़े
और जन-संतोष
का सीधा और समानुपातिक रिश्ता
नहीं होता. आंकड़े
भी अंतरराष्ट्रीय संगठनों
के है और लोकप्रियता का मीजान
भी उतनी हीं विश्वसनीय संस्था
का. यहाँ
इस विभेद से प्रश्न यह उठता
है क्या भोगा हुए यथार्थ या
उस भोग-जनित
संतुष्टि या नाराजगी जरूरी
नहीं कि भावना में परिवर्तित
हो ? पिउ
के अध्ययन के अनुसार भारत
सरकार को लेकर लगभग पांच में
से चार व्यक्ति यह मानते हैं
कि सरकार तमाम मुद्दों पर
अच्छा काम कर रही है और सत्ताधारी
पार्टी—भारतीय जनता पार्टी
– भी कांग्रेस के मुकाबले
पिछले एक साल में बेहतर समर्थन
हासिल कर सकी है. उधर
दुनिया के १४ अन्य संगठनों
की रिपोर्ट को अगर एक साथ रखा
जाये तो इन १६ पैरामीटर्स में
से तीन पर भारत का प्रदर्शन
बेहतर रहा है और अन्य तीन पर
लगभग पूर्ववत. जिनमें
पिछड़ा है उनमें भूख पर काबू
पाने में अन्य देशों के मुकाबले
असफलता, मानव
संसाधन, खुशी
का पैमाना और बौद्धिक संपदा
प्रमुख हैं.
इसमें
कोई दो राय नहीं भारतीय समाज
की सामूहिक सोच में भावना का
अंश आदिकाल से हीं यथार्थ पर
भारी रहा है. यही
वजह है कि हम एक तार्किक समाज
नहीं बन पाए क्यों पश्चिमी
समाज जहाँ “निविदा-आधारित”
रहा है (कॉन्ट्रैक्ट-बेस्ड”),
वहीं भारतीय
समाज की बुनियाद “संबंधों की
प्रगाढ़ता” पर बनी है.
यही वजह है
नेहरु दशकों तक “डार्लिंग ऑफ़
द इंडियन मासेज” (जनता
के दुलारे) रहे
और लोगों ने कभी उनके शासन की
गुणवता पर उनके जीवन काल में
प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया.
भावना प्रबल
थी.
जब
राजा दशरथ ने राम को वनवास का
आदेश दिया तो जनता में कुछ
लोगों ने निंदा की लेकिन वहीं
अन्य ने कहा “ एक धर्म परमिति
पहचाने, नृपहिं
दोष नहीं दीन्ही सयाने” याने
तुलसी के अनुसार ज्ञानी लोग
धर्म की सीमा समझते हुए राजा
में दोष नहीं देखते. आज
की जनता शायद ज्ञानी हो चुकी
है.
lokmat