पिछले हफ्ते जिस दिन देश का
अनेक राष्ट्रीय चैनल इस बात पर स्टूडियो डिस्कशन करा रहे थे कि क्या पंजाब के एक
मंदिर में पासपोर्ट ले कर जाने और “मन्नत” माँगने से “वीसा” लग जाता है या यह
मात्र “भ्रान्ति” है, उसी दिन ब्रिटेन की एक संस्था ---इप्सोस मूरी ---ने अपने
अध्ययन में पाया कि भारतीय जनता में सही मुद्दों की समझ काफी कम है और अधिकतर लोग
इस बात से चिंतित नहीं कि देश में पिछले कई दशकों से गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ती
जा रही है याने गरीब ज्यादा गरीब होता जा रहा है. एक साल पहले अमरीकी संस्था
मेकेंजी ने भी इस बढ़ती खाई का जिक्र करते हुए कहा था कि भारत के चुनावों में भी
“और गरीब होता गरीब एवं और अमीर होता अमीर” कोई मुद्दा हीं नहीं बन पाता. ताज़ा
रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की ७० प्रतिशत
संपत्ति है जो कि मात्र १५ साल पहले ३७ प्रतिशत थी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बैंक के
अनुसार भारत के इन अरबपतियों की संपत्ति पिछले १५ सालों में १२ गुना बड़ी है. ऐसा
नहीं है कि हमें अपने आर्थिक मॉडल पर एक बार फिर गौर करने की ज़रुरत है. ज़रुरत इस
बात की है कि इस बढ़ती गरीबी को रोकने के लिए सरकारें सामाजिक सुरक्षा में वर्तमान
व्यय जो सकल घरेलू उत्पाद का मात्र १ प्रतिशत है (ऊंट के मुंह में जीरा है)
को कम से कम दूना करें. कई
देशों में यह २० प्रतिशत तक है.
सही मुद्दे उठाना, उन पर
जन-चेतना विकसित करना और उन पर जनमत बना कर सरकारों और बृहत समाज पर नीति और
व्यवहार बदलने के लिए दबाव डालना किसी भी प्रजातंत्र में दो संस्थाएं करती हैं--पहला
प्रतिस्पर्धी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और दूसरा मीडिया. हालांकि इन दोनों
संस्थाओं के पास असली मुद्दे न उठाने के अलग-अलग कारण है. राजनीतिक दलों को इस तरह
के मुद्दे उठाने के लिए गांवों में जाना पडेगा, सोच बदलनी पड़ेगी और सडकों की धूल
फांकनी पड़ेगी. लिहाज़ा सुविधाभोगी राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दे का कोई एक पक्ष पकड़
लेते हैं. अगर एक मंदिर बनवाता है तो दूसरा “हिम्मत हो तो मंदिर बनवा के दिखाओ” की
बांग देता है. तीसरा “परिंदा भी पर नहीं मार सकता” अलापता है. फिर चूंकि राजनीतिक
हिस्से का एक बड़ा भाग अभिजात्य वर्ग से आता है तो उसे इस तरह के “खतरनाक जनमत” के
उभार से डर भी लगता है. नतीजा यह कि इस देश में पिछले ७० साल से
“सेक्यूलरिज्म” की परिभाषा पर संसद से सड़क
तक और स्कूल से सुप्रीम कोर्ट तक बहस चल रही है.
लेकिन भारतीय मीडिया क्यूं असली
मुद्दे छोड़ कर इन मुद्दों के बारे में “जनमत” पैदा करता. क्या मुद्दों को लेकर उसकी
समझ कम है? क्या उसे भी “पुडिया-टाइप” मुद्दे जैसे “पाकिस्तानियों के सिर के बदले
सिर”, “क्या मंदिर बन सकता है?” , “क्या विधायक और सांसदों का वेतन बढना चाहिए?”
या फिर “गांधी या पटेल किसके” इस लिए भाते हैं कि गरीबी, कल्याणकारी योजनाओं बनाने
और उनका लाभ गरीबों तक पहुँचाने में राज्य की भूमिका विषय उसे समझ में नहीं आते?
विधायकों और सांसदों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता होनी चाहिए मीडिया की कई दिनों की
खुराक बन जाती है पर गाँव में कंप्यूटर कैसे सुशासन और विकास में मदद कर सकेंगे या
यूरिया कितनी मात्र में डाली जाये यह चेतना जगाना मीडिया अपना कर्तव्य नहीं समझता.
और इस पर कोई अंग्रेज़ी चैनल का एंकर गला फाड़ कर सिस्टम की लानत –मलानत नहीं करता. देश
में गेहूं, धान या गन्ने को लेकर कभी भी स्टूडियो डिस्कशन या ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं
चलती, लेकिन सलमान खान फैसला सुन कर कितना रोये या किस मजार पर या मंदिर में मन्नत
माँगी, कपडे क्या पहने थे इस पर एंकर से लेकर रिपोर्टरों की फौज हांफ-हांफ कर दिन
भर बोलती है. सलमान की दयालुता के किस्से के मुकाबले ढाई लाख किसानों की पिछले २०
सालों में आत्महत्या ( हर ३५ मिनट में एक
के दर से हो रही हैं) खबर नहीं बन पाती.
समस्या शायद समझ की है. मीडिया
में भी एक बड़ा वर्ग है जो समाज, उसकी बहबूदी का जल-कल्याण नीति से रिश्ता, आर्थिक
नीतियों की मौलिक खामियां, या समाज में अभाव को लेकर संजीदगी कम रखता है. आसाराम
बापू का अपराध उसे महीनों तक स्टूडियो डिस्कशन करने का औचित्य लगता है लेकिन पूरे
उत्तर भारत में लगातार सूखे की स्थिति और तज्जनित किसानों के बदहाली उसे जनमत का
मुद्दा नहीं लगते. भ्रष्टाचार पर उसकी समझ की सीमा मंत्री के खर्चे या उस मंत्री
की बीवी द्वारा सरकारी गाड़ी इस्तेमाल करने
से ज्यादा नहीं बढ़ पाती.
साथ हीं एक और समस्या है देश
में स्वतंत्र विश्लेषकों की, जिसमें मीडिया भी आता है, कमी है. अक्सर वे
शाश्वत भाव से या तो “इस” पक्ष की सोच के हिमायती होते हैं या उस पक्ष की. ये
विश्लेषक हर घटना पर चुनिन्दा तथ्य लेते हैं और उनकी बुनियाद पर तार्किक इमारत खडी
करते हैं. और आपस में “तेरी कमीज़ से मेरी कमीज़ साफ़” के भाव में द्वन्द करते हैं.
सत्य कहीं दूर खडा रहता है, समाधान की गुंजाइश हीं नहीं रहती. ऐसे में जब
राष्ट्रपति असहिष्णुता की बात करते है तो एक पक्ष विजयी भाव से देखता है लेकिन
वहीं जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश (सी जे आई) कहते हैं कि “असहिष्णुता”
के पीछे राजनीति है तो दूसरा पक्ष इसे अपने पक्ष का सर्टिफिकेट मानने लगता है.
दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में भूल जाते हैं कि हर बात की संदर्भिता और
संभाषण का उद्देश्य होता है. राष्ट्रपति ने देश की सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की
विरासत की बात भी कही थी और प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा था कि स्वतंत्र
न्यायपालिका के रहते जन-हित को क्षति नहीं होगी.
तब सोचना पड़ता है कि कहीं हम गलत तो नहीं हैं.
कहीं हमने गलती से अखलाक की हत्या का मूल कारण “असहिष्णु सोच-जनित आपराधिक कृत्य ”
मान लिया जब कि वह मूल रूप से आपराधिक कृत्य था जिसे हम “असहिष्णु सोच” की उपज मान
बैठे. दरअसल अपराध को असहिष्णु सोच-जनित सामूहिक क्रिया (कलेक्टिव एक्शन) बनाना
ज्यादा मुश्किल नहीं होता अगर समाज में ऐसी सोच के कुछ तत्व पहले से मौजूद हों. और
ऐसे सोच एक विविधतापूर्ण समाज में हमेशा होते हैं. जरूरत सिर्फ यह होती है कि
तर्क-शक्ति और सत्य के प्रति निरपेक्ष आग्रह का सहारा लेते हुए उन वैविध्य के
प्रतीकों के खिलाफ कलेक्टिव एक्शन न बनने देने की. पहचान समूह में हमेशा एक वर्ग
इन प्रतीकों को उभारना चाहता है लेकिन उसी समूह का एक बड़ा वर्ग इसके खिलाफ होता है
या उदासीन होता है. इसी मकाम पर सशक्त मीडिया द्वारा पैदा किया गया जन-संवाद एक
बड़ी भूमिका में आता है.
क्या भारतीय मीडिया इस
अतिरेक का दोषी है? क्या उसे समझ में नहीं आ रहा है कि जन कल्याण के सही मुद्दे जो
सत्ता पक्ष को गरीब-अमीर की खाई पाटने को मजबूर करें पहचानने में भूल कर रही है.
और अगर यह भूल जरी रही तो यही दर्शक (और पाठक भी) फिर से वापस मनोरंजन के
कार्यक्रमों की ओर मुड़ जाएगा क्योंकि वहाँ कम से कम “भडैती” तो उत्तम कला के रूप
में होती हीं है.
lokmat