Saturday 12 December 2015

मीडिया को मुद्दों को लेकर अपनी समझ बदलनी होगी




पिछले हफ्ते जिस दिन देश का अनेक राष्ट्रीय चैनल इस बात पर स्टूडियो डिस्कशन करा रहे थे कि क्या पंजाब के एक मंदिर में पासपोर्ट ले कर जाने और “मन्नत” माँगने से “वीसा” लग जाता है या यह मात्र “भ्रान्ति” है, उसी दिन ब्रिटेन की एक संस्था ---इप्सोस मूरी ---ने अपने अध्ययन में पाया कि भारतीय जनता में सही मुद्दों की समझ काफी कम है और अधिकतर लोग इस बात से चिंतित नहीं कि देश में पिछले कई दशकों से गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ती जा रही है याने गरीब ज्यादा गरीब होता जा रहा है. एक साल पहले अमरीकी संस्था मेकेंजी ने भी इस बढ़ती खाई का जिक्र करते हुए कहा था कि भारत के चुनावों में भी “और गरीब होता गरीब एवं और अमीर होता अमीर” कोई मुद्दा हीं नहीं बन पाता. ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की ७० प्रतिशत संपत्ति है जो कि मात्र १५ साल पहले ३७ प्रतिशत थी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बैंक के अनुसार भारत के इन अरबपतियों की संपत्ति पिछले १५ सालों में १२ गुना बड़ी है. ऐसा नहीं है कि हमें अपने आर्थिक मॉडल पर एक बार फिर गौर करने की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की है कि इस बढ़ती गरीबी को रोकने के लिए सरकारें सामाजिक सुरक्षा में वर्तमान व्यय जो सकल घरेलू उत्पाद का मात्र १ प्रतिशत है (ऊंट के मुंह में जीरा है)     
को कम से कम दूना करें. कई देशों में यह २० प्रतिशत तक है.

सही मुद्दे उठाना, उन पर जन-चेतना विकसित करना और उन पर जनमत बना कर सरकारों और बृहत समाज पर नीति और व्यवहार बदलने के लिए दबाव डालना किसी भी प्रजातंत्र में दो संस्थाएं करती हैं--पहला प्रतिस्पर्धी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और दूसरा मीडिया. हालांकि इन दोनों संस्थाओं के पास असली मुद्दे न उठाने के अलग-अलग कारण है. राजनीतिक दलों को इस तरह के मुद्दे उठाने के लिए गांवों में जाना पडेगा, सोच बदलनी पड़ेगी और सडकों की धूल फांकनी पड़ेगी. लिहाज़ा सुविधाभोगी राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दे का कोई एक पक्ष पकड़ लेते हैं. अगर एक मंदिर बनवाता है तो दूसरा “हिम्मत हो तो मंदिर बनवा के दिखाओ” की बांग देता है. तीसरा “परिंदा भी पर नहीं मार सकता” अलापता है. फिर चूंकि राजनीतिक हिस्से का एक बड़ा भाग अभिजात्य वर्ग से आता है तो उसे इस तरह के “खतरनाक जनमत” के उभार से डर भी लगता है. नतीजा यह कि इस देश में पिछले ७० साल से “सेक्यूलरिज्म”  की परिभाषा पर संसद से सड़क तक और स्कूल से सुप्रीम कोर्ट तक बहस चल रही है.

लेकिन भारतीय मीडिया क्यूं असली मुद्दे छोड़ कर इन मुद्दों के बारे में “जनमत” पैदा करता. क्या मुद्दों को लेकर उसकी समझ कम है? क्या उसे भी “पुडिया-टाइप” मुद्दे जैसे “पाकिस्तानियों के सिर के बदले सिर”, “क्या मंदिर बन सकता है?” , “क्या विधायक और सांसदों का वेतन बढना चाहिए?” या फिर “गांधी या पटेल किसके” इस लिए भाते हैं कि गरीबी, कल्याणकारी योजनाओं बनाने और उनका लाभ गरीबों तक पहुँचाने में राज्य की भूमिका विषय उसे समझ में नहीं आते? विधायकों और सांसदों के लिए भी शैक्षणिक योग्यता होनी चाहिए मीडिया की कई दिनों की खुराक बन जाती है पर गाँव में कंप्यूटर कैसे सुशासन और विकास में मदद कर सकेंगे या यूरिया कितनी मात्र में डाली जाये यह चेतना जगाना मीडिया अपना कर्तव्य नहीं समझता. और इस पर कोई अंग्रेज़ी चैनल का एंकर गला फाड़ कर सिस्टम की लानत –मलानत नहीं करता. देश में गेहूं, धान या गन्ने को लेकर कभी भी स्टूडियो डिस्कशन या ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं चलती, लेकिन सलमान खान फैसला सुन कर कितना रोये या किस मजार पर या मंदिर में मन्नत माँगी, कपडे क्या पहने थे इस पर एंकर से लेकर रिपोर्टरों की फौज हांफ-हांफ कर दिन भर बोलती है. सलमान की दयालुता के किस्से के मुकाबले ढाई लाख किसानों की पिछले २० सालों में  आत्महत्या ( हर ३५ मिनट में एक के दर से हो रही हैं) खबर नहीं बन पाती.       

समस्या शायद समझ की है. मीडिया में भी एक बड़ा वर्ग है जो समाज, उसकी बहबूदी का जल-कल्याण नीति से रिश्ता, आर्थिक नीतियों की मौलिक खामियां, या समाज में अभाव को लेकर संजीदगी कम रखता है. आसाराम बापू का अपराध उसे महीनों तक स्टूडियो डिस्कशन करने का औचित्य लगता है लेकिन पूरे उत्तर भारत में लगातार सूखे की स्थिति और तज्जनित किसानों के बदहाली उसे जनमत का मुद्दा नहीं लगते. भ्रष्टाचार पर उसकी समझ की सीमा मंत्री के खर्चे या उस मंत्री की बीवी द्वारा सरकारी  गाड़ी इस्तेमाल करने से ज्यादा नहीं बढ़ पाती.

साथ हीं एक और समस्या है देश में स्वतंत्र विश्लेषकों की, जिसमें मीडिया भी आता है, कमी है. अक्सर वे शाश्वत भाव से या तो “इस” पक्ष की सोच के हिमायती होते हैं या उस पक्ष की. ये विश्लेषक हर घटना पर चुनिन्दा तथ्य लेते हैं और उनकी बुनियाद पर तार्किक इमारत खडी करते हैं. और आपस में “तेरी कमीज़ से मेरी कमीज़ साफ़” के भाव में द्वन्द करते हैं. सत्य कहीं दूर खडा रहता है, समाधान की गुंजाइश हीं नहीं रहती. ऐसे में जब राष्ट्रपति असहिष्णुता की बात करते है तो एक पक्ष विजयी भाव से देखता है लेकिन वहीं जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश (सी जे आई) कहते हैं कि “असहिष्णुता” के पीछे राजनीति है तो दूसरा पक्ष इसे अपने पक्ष का सर्टिफिकेट मानने लगता है. दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में भूल जाते हैं कि हर बात की संदर्भिता और संभाषण का उद्देश्य होता है. राष्ट्रपति ने देश की सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की विरासत की बात भी कही थी और प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा था कि स्वतंत्र न्यायपालिका के रहते जन-हित को क्षति नहीं होगी.

 तब सोचना पड़ता है कि कहीं हम गलत तो नहीं हैं. कहीं हमने गलती से अखलाक की हत्या का मूल कारण “असहिष्णु सोच-जनित आपराधिक कृत्य ” मान लिया जब कि वह मूल रूप से आपराधिक कृत्य था जिसे हम “असहिष्णु सोच” की उपज मान बैठे. दरअसल अपराध को असहिष्णु सोच-जनित सामूहिक क्रिया (कलेक्टिव एक्शन) बनाना ज्यादा मुश्किल नहीं होता अगर समाज में ऐसी सोच के कुछ तत्व पहले से मौजूद हों. और ऐसे सोच एक विविधतापूर्ण समाज में हमेशा होते हैं. जरूरत सिर्फ यह होती है कि तर्क-शक्ति और सत्य के प्रति निरपेक्ष आग्रह का सहारा लेते हुए उन वैविध्य के प्रतीकों के खिलाफ कलेक्टिव एक्शन न बनने देने की. पहचान समूह में हमेशा एक वर्ग इन प्रतीकों को उभारना चाहता है लेकिन उसी समूह का एक बड़ा वर्ग इसके खिलाफ होता है या उदासीन होता है. इसी मकाम पर सशक्त मीडिया द्वारा पैदा किया गया जन-संवाद एक बड़ी भूमिका में आता है.  


क्या भारतीय मीडिया इस अतिरेक का दोषी है? क्या उसे समझ में नहीं आ रहा है कि जन कल्याण के सही मुद्दे जो सत्ता पक्ष को गरीब-अमीर की खाई पाटने को मजबूर करें पहचानने में भूल कर रही है. और अगर यह भूल जरी रही तो यही दर्शक (और पाठक भी) फिर से वापस मनोरंजन के कार्यक्रमों की ओर मुड़ जाएगा क्योंकि वहाँ कम से कम “भडैती” तो उत्तम कला के रूप में होती हीं है.
lokmat 

Thursday 10 December 2015

कांग्रेस: यह कैसी आत्मघाती व अलोकतांत्रिक “स्ट्रेटेजी” है !


अभी दो हफ्ते भी नहीं हुए जब भारतीय संविधान को कांग्रेस की देन बताते हुए पार्टी नेताओं ने इसकी संस्थाओं के प्रति सम्मान की सीख सत्ता पक्ष को दी थी. लेकिन ८ दिसंबर,२०१५ को संसद में पैदा किया गया गतिरोध कांग्रेस के ठीक विपरीत आचरण का प्रतीक बन गया.  लगभग १३० साल पुरानी कांग्रेस पार्टी कहीं बौद्धिक जड़ता की शिकार होती जा रही है. उसे मुद्दे और उनके प्रति समाज में अपेक्षित प्रतिक्रिया की समझ कम हो गयी है. यह समझ हीं किसी राजनीतिक पार्टी के प्रसार, उसके दीर्घायु होने और उसकी विश्वसनीयता की कसौटी होती है. जिन दलों में शीर्ष स्तर पर जन-जीवन से कटे लोग पार्टी के नीति-नियंता बन जाते हैं उन दलों की समझ क्षीण हो जाती है.     इस समझ से पैदा हुई राजनीतिक सूझ-बूझ, जिद की हद तक जन –नैतिकता के मानदंडों पर खड़े दिखने की ललक और दूरदर्शी रणनीतिकारों का आज कांग्रेस में नितांत अभाव है. प्रतिस्पर्धी राजनीति का, जो भारत में प्रैक्टिस की जाती है, पहला तकाजा है कि चूंकि राजनीति में जन-स्वीकार्यता जन-संदेशों का खेल है लिहाज़ा हर पार्टी दूसरी पार्टी की गलतियों का फायदा उठती है, अपने से कोई गलत सन्देश न देने की कोशिश करती है और और दूसरी पार्टी की छोटी गलती को ताड़ बना कर परोसती है. लेकिन इस जद्दो-जेहद के भी कुछ नियम होते हैं. इस लड़ाई में संवैधानिक मान्यताओं, प्रजातान्त्रिक परम्पराओं या तत्कालीन मानवीय मूल्यों की अवहेलना हुई तो उस पार्टी या उसके नेता से जनता मुंह मोड़ने लगती है.

एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (ए जे एल) – यंग इंडियन्स विवाद को कांग्रेस नेतृत्व जिस तरह “हैंडल” कर रहा है वह सिद्ध करता है कि इस पार्टी की समझ कुछ ऐसे नेताओं में जिनका जन जीवन ए सी कमरों से बाहर नहीं आया हो, के बीच महदूद रह गयी है. तभी तो हाई कोर्ट द्वारा अपील ख़ारिज होने के बाद पार्टी के शीर्ष लोग रात भर “स्ट्रेटेजी” बनाते रहे और निकला एक निहायत बेहूदा और पार्टी के लिए घातक कदम. पार्टी नेतृत्व इसे "प्रतिशोध की राजनीति" बता रहा है़।

पूरी दुनिया में एक स्थापित लोक- सिद्धांत है कि अगर आप पर कोई आरोप लगे तो पहले उसे तर्कों के आधार पर गलत सिद्ध करते हैं और फिर अगर ज़रुरत पड़े तो कुछ समय बाद उस गलत आरोपों के सूत्रधारों के नाम बताते हैं, उनकी संलिप्तता और उस संलिप्तता का आशय बताते हैं. परन्तु कांग्रेस के “महान” रणनीतिकारों ने रात भर जग कर इसके उलट पहले सरकार की मंशा को कोसा, फिर न्यायपालिका पर परोक्ष रूप से आरोप चस्पा किया (क्योंकि न्यायपालिका के आदेश को अगर सरकार से जोड़ा जाएगा तो नागरिक शास्त्र के कक्षा १० का बच्चा भी समझ सकता है कि यही सन्देश जाता है) और फिर संसद का काम-काज टप किया. मुकदमें को लेकर तैयारी का यह आलम है कि हाई कोर्ट से अपील ख़ारिज होने के बाद “मरता क्या न करता” के भाव में निचली अदालत में सोनिया गाँधी के पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा था. जब मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने हाई कोर्ट के आर्डर की प्रतिलिप चाही तो वह प्रतिलिपि बचावपक्ष के पास नहीं थी. उसे भी उपलब्ध कराया तो आरोपकर्ता सुब्रह्मनियम स्वामी ने.  

ज़रा गौर करें. यह विवाद न्यायपालिका के जेरे बहस है. ट्रायल कोर्ट ने कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष क्रमशः सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी और तीन अन्य कांग्रेस नेताओं को इस आधार पर अदालत में उपस्थित होने का सम्मन भेजा है कि वे यंग इंडियन्स में प्रमुख शेयरहोल्डर्स हैं. उन पर आरोप है कि उन्होंने ए जे लिमिटेड के  १००० से ज्यादा शेयरधारकों से पूछे बिना सारे शेयर सोनिया –राहुल (दोनों के कुल ७६ प्रतिशत शेयर) वाली कंपनी –यंग इंडियंस –को दे दिए और ए जे लिमिटेड की अचल संपत्ति---खासकर दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थिति हेराल्ड हाउस और लखनऊ के कैसरबाग स्थिति नेहरु भवन और बगल की जमीन ---का सही आंकलन नहीं किया गया.  ऊपरी अदालत में अपील करना हर व्यक्ति या संस्था का अधिकार है. इन नेताओं ने दिल्ली हाई कोर्ट में उपस्थिति के आदेश के खिलाफ अपील की लेकिन वह ख़ारिज हो गयी. बल्कि हाई कोर्ट ने केस की मेरिट में न जाते हुए भी अपील ख़ारिज करने का कारण बताते हुए मामले में आपराधिक तत्व होने की बात कही.

नाराज कांग्रेस ने पूरे दिन देश की संसद नहीं चलने दी. लोक सभा में पांच बार और राज्य सभा में तीन बार व्यवधान रहा नतीजतन पूरा काम काज बाधित रहा. लेकिन बगैर यह बताये हुए कि नाराजगी किस बात पर है कांग्रेस ने व्यवधान जारी रखा. क्या कांग्रेस इस आधारभूत बात को नहीं समझ पा रही है कि अदालत की कारवाई को लेकर संसद को कैसे बाधित किया जा सकता है या सरकार पर “प्रतिशोधात्मक राजनीति” का आरोप कैसे लगाया जा सकता है? फिर ट्रायल कोर्ट तो छोडिये , दिल्ली हाई कोर्ट ने भी व्यक्तिगत उपस्थिति से राहत की अपील न केवल ख़ारिज की बल्कि मामले में “आपराधिक अंश” की बात भी कही. क्या इतनी पुरानी पार्टी से, जो गणतंत्र बनाने के ६५ साल में तीन –चौथाई से ज्यादा काल तक शासन में रही हो यह उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका ऐसी संस्था को राजनीतिक तवे पर सेंके और वह भी बगैर किसी आधार के?

क्या सरकार यह केस लड़ रही है? क्या सुब्रह्मनियम स्वामी को यह अधिकार नहीं है कि व्यक्ति और वकील के रूप में इस मामले को न्यायपालिका के पास ले जाएँ? और अगर भारतीय जनता पार्टी के नेता  के रूप में भी यह मामला अदालत में उठा रहे है या फिर (तर्क के लिए) अगर भारतीय जनता पार्टी भी ऐसा कर रही है क्या यह गैर-कनोनी है? अगर ऐसा हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि अदालत का फैसला “राजनीतिक प्रतिशोध” का प्रतिफल है? सोनिया के सलाहकारों ने तीन गलतियाँ की. न्यायपालिका की गरिमा गिराने की कोशिश की, संसद में व्यवधान का औचित्य न सिद्ध करके जनता की नज़रों में गिरी (कल जब जी एस टी पर भी विरोध करेगी तो जनता इसे अब औचित्यपूर्ण नहीं मानेगी) और तीसरा: अगर निचली अदालत के खिलाफ अपील करने और हार जाने के बाद संसद में व्यवधान की जगह चुपचाप निचली अदालत के सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अदालत पहुँचते तो जन-समर्थन इन कांग्रेस नेताओं के पक्ष में होता. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि “वह डरेंगी नहीं , वह इंदिरा गाँधी की बहू हैं”. उन्हें याद करना चाहिए कि इंदिरा गाँधी ने अदालत का सम्मान करते हुए अपने को उपस्थित किया और उससे उपजा जन समर्थन उन्हें फिर वापस सत्ता में लाया.          

फिर सन १९७७ और आज में अंतर है. मीडिया पलपल की खबर दिखा कर जन चेतना और समाज की तर्क शक्ति में व्यापक बदलाव कर चुकी है. अब आम जनता को पता है कि भ्रष्टाचार के मामले में अगर देश की निचली अदालत मात्र व्यक्तिगत उपस्थिति का सम्मन जारी करे और हाई कोर्ट उसके खिलाफ “आरोपी” के अपील को सख्त लफ़्ज़ों में ख़ारिज करते हुए कहे कि मामले में आपराधिक तत्व दिखाई देते हैं तो उसे राजनीतिक प्रतिशोध कह कर बचाव करना न्यायपालिका की अवमानना है.

संसद व्यवधान के बाद अपने पक्ष में कांग्रेस का तर्क प्रभाव डाल सकता था अगर यह अदालत के फैसले के बाद मीडिया के जरिये जनता तक अपनी बात तार्किक रूप से पहुंचाई गयी होती. कांग्रेस के तीन तर्क हैं. पहला: यंग इंडियन्स एक नॉन-प्रॉफिट संस्था है जो सेक्शन २५, कम्पनीज एक्ट, १९५६ के तहत गठित हुई है जिसकी सम्पत्ति या लाभ कोई सदस्य नहीं ले सकता; दूसरा, यंग इंडिया ने कोई ट्रांजेक्शन नहीं किया है. तीसरा, जो रियल स्टेट अर्जित हुई है वह भी कांग्रेस की हीं समय समय पर की गयी आर्थिक मदद का हीं नतीजा है. नेहरु परिवार और कांग्रेस आज तक भी अलग करके के जनता तो छोडिये कांग्रेस के लोग भी नहीं देख पा रहे हैं. लिहाज़ा सोनिया जब ए जे लिमिटेड था तो भी मालिक थी और यंग इंडियन के हाथ में आ गया तो भी मालिक वही हैं.

बहरहाल इस गलत “स्ट्रेटेजी” के चलते अब कांग्रेस पर नैतिक दबाव और साथ हीं जन मत का दबाव होगा कि जी एस टी बिल पास करे नहीं तो सन्देश यह जाएगा कि अपने नेताओं को संकट से उबरने के लिए यह कांग्रेस जन-कल्याण की अनदेखी कर सरकार पर अनैतिक दबाव बना रही है.

jagran

Sunday 6 December 2015

दिल्ली, बिहार, ग्रामीण गुजरात, सब एक हीं सन्देश दे रहे हैं

    
   

पहले दिल्ली, फिर बिहार और अब गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र. इनके चुनाव परिणाम एक सन्देश दे रहे हैं. अगर यह सन्देश सत्ता पक्ष या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं पढ़ते तो “....विपरीत बुद्धि” चरितार्थ कर रहे हैं. आज १९ महीने के मोदी शासन के बाद अगर किसी कक्षा ७ के बच्चे से भी सन २०१४ के आम चुनाव के परिणाम, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता के पीछे जनता की अपेक्षाएं और तज्जनित जबरदस्त मतदान (२००९ के १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर ३१.३ प्रतिशत) से हासिल पूर्ण बहुमत की पूरी स्थिति बताते हुए यह पूछा जाये कि देश की सरकार और खासकर प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए तो वह अनायास हीं कह उठेगा उन अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए.

और ये मूल अपेक्षाएं क्या थीं? देश में उद्योग लगे ताकि युवाओं को रोज़गार मिले, किसान आर्थिक तंगी झेलने में असफल हो कर पास वाले आम के पेड़ से न लटके याने कृषि का विकास, भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश , देश में शांति का माहौल और राज्य की शक्तियों और अभिकरणों के सामर्थ्य का आतंकवाद पर दहशत. और इन्हें पूरा करने के सभी कारक मौजूद भी थे. उदाहरण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के पास लोक सभा में अपने २८२ सदस्य (बहुमत से दस ज्यादा) लिहाज़ा “गठबंधन धर्म का  अनैतिक दबाव भी नहीं, चूंकि पार्टी और मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह जानती है कि वोट मोदी को मिले हैं इसलिए यह भी दबाव नहीं कि “हमारी फैयाज़ दिली की वजह से तुम वहां हो और जब हम चाहें तुम्हे “पुनर्मूसको भव” की स्थिति में पहुंचा देंगे”. फिर क्यों ये महंत, ये साध्वी, ये उग्र हिंदूवादी क्यों विकास की दिशा बदल रहे हैं? क्यों नहीं इन्हें चुप कराया जाता. जो प्रधानमंत्री इतना शक्स्तिशाली हो कि रातों-रात अपनी पसंद का पार्टी अध्यक्ष ला सकता हो, जो प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों में उस भय का संचार कर सकता हो कि वे डर के मारे किसी पी एम ओ के अदना अधिकारी का मुंह ताकते हों निर्देश के लिए, जो प्रधानमंत्री पार्टी के आडवानी , जोशी जैसे दिग्गजों को रेलवे की “एबंडोंड” (परित्यक्त) पटरी की तरह छोड़ रखा हो वह इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है कि एक महंत या साध्वी उसके एजेंडा की ऐसी- तैसी महीने-दर-महीने करते रहे और देश का माहौल बिगड़ता रहे?

क्या इसके लिए “राकेट साइंस” जानने की जरूरत है कि देश का माहौल बिगड़ा है. क्या यह कह कर कि जो लोग पुरष्कार लौटा रहे हैं वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों के पिट्ठू हैं या यह सब कुछ “कृत्रिम विप्लव” (मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट) है मोदी और उनकी सरकार और उनकी पार्टी “डिनायल मोड़” में नहीं है?

फिर आखिर मोदी इसे रोकते क्यों नहीं? प्रश्न यह नहीं है कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठन यह सब कुछ कर रहे हैं. संघ का राष्ट्र निर्माण की बुनियाद और भाव अलग है जो कई बार संविधान से टकराता है. विश्व हिन्दू परिषद् अगर राम मंदिर की मांग करता है तो इसमें कुछ भी नया नहीं. सरसंघचालक मोहन भागवत अगर मंदिर जीवन काल में बनाने की बात करते है तो इसमें चौंकाने की कोई बात नहीं. परन्तु सत्ता में रह कर जब कोई मंत्री डा. महेश शर्मा या कोई मंत्री जनरल वी के सिंह या कोई साध्वी निरंजन ज्योति संविधान की भावनाओं के अनुरूप बात नहीं करते तब यह माना जाता है कि या तो प्रधानमंत्री कमज़ोर हैं (जो कि वह नहीं हैं) या उनकी मौन सहमति है. अख़लाक़ के मरने पर जब दो सप्ताह प्रतिक्रिया देने में देश के प्रधानमंत्री को लगे तो सोचना यह पड़ता है कि २०१४ में जिस व्यक्ति से अपेक्षाएं की गयी थी वह निर्णय या तो गलत था या व्यक्ति बदल गया.

क्या मोदी से जन अपेक्षाएं चुनाव जीतने के बाद बदल गयी. क्या हैं ये आक्रामक हिन्दुत्त्व के नए मुद्दे और क्या इन्हें विकास के मुद्दे से जनता ज्यादा तरजीह देने लगी है? वह २०१४ के चुनाव के बाद क्या चाहती है? राम मंदिर बनवाना? गौ हत्या के खिलाफ आन्दोलन? मुसलमान लड़कों का हिन्दू लड़कियों से शादी का कुचक्र बता कर “लव जेहाद” के नाम पर एक नया “घृणा प्रतीक” खड़ा करना, जो राम—जादों को वोट न दे उसे हराम.... बताना, हर तीसरे दिन मुसलामानों को पाकिस्तान भेजना? अख़लाक़ को मारने वाली भावनाओं का उभार, देश की प्रमुख संवैधानिक, कानूनी और अर्ध-कानूनी संस्थाओं पर चुन-चुन के “अन्य” विचारधाराओं वाले लोगों के हटा कर एक ख़ास विचारधारा वाले लोगों को लाना?

आजादी के ६८ साल में तीसरी बार देश ने नरेन्द्र मोदी के रूप में किसी नेता पर अपना सब कुछ न्योछावर करने की हद तक जन-स्वीकार्यता दी. पहली जन-स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी.  जो जन –स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी वह आजादी के  जश्न के नशे में झूमती भारतीय जनता के दुलारे (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) के रूप में थी उनसे कोई अपेक्षा नहीं थी. नेहरु वह अपेक्षा आज़ादी दिलाकर पूरी कर चुके थे. दूसरी इंदिरा गाँधी को मिली लेकिन वह दिक्-काल सापेक्ष थी और नेहरु को मिली जन-स्वीकार्यता से अलग थी. याने १९७१ में मिली फिर १९८० में. कभी दक्षिण में मिली तो उत्तर में नहीं. और कांग्रेस पार्टी को जो वोट (औसतन लगभग ३८ प्रतिशत) मिला वह आजादी के उपहार स्वरुप दो दशक तक चलता रहा. गरीबी रहे न रहे, ये वोट कांग्रेस को मिलते रहे क्योंकि जनता को उस पर भरोसा था. अशिक्षा और गरीबी के कारण देश की सामूहिक चेतना भी उस स्तर की नहीं थी कि जनता अपने कल्याण को समझे और उसे गवर्नेंस (शासन) से सीधे जोड़ सके. लेकिन नरेन्द्र मोदी की यह जन- स्वीकार्यता अलग थी. यह सशर्त थी. और मोदी ने भी उन्हें पूरा करने के वायदे पर अपनी राष्ट्रीय छवि बनाई. मोदी के व्यक्तित्व में चार तत्व भारत की जनता ने देखा ---- सुयोग्य प्रशासक, सफल विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी और छप्पन इंच छाती की वजह से आतंकवाद का विनाशक.   

क्या बेहतर न होता कि किसी एक महंत या साध्वी को माहौल खराब करने वाले बयां देने के कारण पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता या मंत्रिमंडल से हटाया जाता यह कहते हुए कि अगर यह सब कुछ करना है तो सरकार से बाहर जाना होगा. क्या बेहतर नहीं होता कि अख़लाक़ के घर मोदी जाते और सख्त सन्देश सब को मिलता. क्या यह कह कर भाजपा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है कि “अख़लाक़ का मरना कानून-व्यवस्था का प्रश्न है जो राज्य सरकार के दायरे में आता है?

सत्य को झुठलाकर टी वी चैनेलों के स्टूडियोज में तो भाजपा के अहंकारी प्रवक्ता गाल बजा सकते हैं और मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी वाकपटुता से इम्प्रेस कर सकते हैं लेकिन ताज़ा गुजरात के चुनावों में ग्रामीण क्षेत्रों में हार ने ने १९ महीने में तीसरी बार संकेत दिए हैं. अनसुना कर सकते हैं सत्ता में बैठे लोग, पर जनता बेहद निराश होगी और शायद दोबारा किसी नेता पर इस तरह का भरोसा नहीं करेगी. 
 
lokmat