Thursday 25 June 2015

जनमत ही मीडिया का एकमात्र हथियार


मानव और पशु में एक मूल अंतर है. ईश्वर ने मानव में भावना-जनित करुणा और बुद्धि-जनित नैतिकता दी है जो पशु में नहीं होती. नतीजा यह होता है कि कोई करुणा के अतिरेक में चैतन्य महाप्रभु बनता है तो कोई गाँधी बन कर सत्य के प्रति आग्रह जीवन का साध्य मानता है. मानव में ये दोनों पक्ष जितना हीं कम होते जाते हैं वह उतना हीं पशुवत होता जाता है. और जब ये दोनों विशेषताएं शून्य हो जाये तो मानव और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता. प्रजातंत्र में समाज की संस्थाएं – वे राज्य अभिकारण के रूप में हों जैसे मंत्रिमंडल या गैर- शासकीय संस्थाएं हों जैसे मीडिया या फिर सामाजिक विछोभ के रूप में सामूहिक गुस्सा हो जैसे जनाक्रोश— किन स्थितियों में कैसे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है इससे यह पता चलता है कि हम पाशविकता से कितने नज़दीक है या दूर. 
भर्तृहरि ने नीति-शतक में कहा है “वारंगनेव नृपनीति: अनेक रूपा” ( एक दुश्चरिता की तरह राजा की नीति के अनेक रूप होते हैं). इंदौर में खनन माफियाओं ने एक पत्रकार के पूरे परिवार सहित मार दिया और सत्ता के अभिकरणों ने अपराधियों का साथ देते हुए उस पत्रकार पर हीं चारित्रिक दोष मढ़ दिए ताकि जन भावनाएं उसकी तरफ ने जाने पाए. उत्तर प्रदेश की सरकार भी कुछ इसी रास्ते पर चल रही है.
लेकिन प्रजातंत्र की एक खूबसूरती है कि जब राज्य की शक्तिमान संस्थाएं अमानवीय होती है तो कोई ना कोई गैर-राज्य संस्था या अदालतें तन के खडी हो जाती हैं. ऐसे में मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण हो जाती है. यही वह गैर-राज्य संस्था है जो जनमत का दबाव बनाती है और सत्ता में बैठे लोगों को उनकी पाशविक प्रवृति से खींच कर बाहर आने को मजबूर करती है. क्या आज भारतीय शीर्ष मीडिया यह कर रही है?   
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में एक पत्रकार जागेन्द्र को पुलिसवालों ने पेट्रोल डाल कर जिन्दा जला दिया. उसका मृत्यु –पूर्व बयान  मात्र किसी मानव -रुपी मजिस्ट्रेट ने नहीं लिया लिहाजा शक की कोई गुंजायश नहीं है. बल्कि कैमरे ने भी रिकॉर्ड किया. पूरे विश्व में अपराध-शास्त्र में सर्व-मान्य सिद्धांत है कि मरने के पहले आदमी झूठ नहीं बोलता क्योंकि वह अपने बनाने वाले से मिलते समय अपनी होठ पर झूठ लिए नहीं जाना चाहता. भारतीय साक्ष्य कानून, १८७२ की धारा ३२ (१) में इसी वज़ह से इसे एक उच्च स्तरीय साक्ष्य महत्ता का मकाम हासिल है.  इस पत्रकार ने यह बयान तब दिया जब ६० प्रतिशत जलने के बाद अस्पताल में था और मौत को कई दिन से नज़दीक आते देख चुका था. चिकित्सा शास्त्र के अनुसार ३० प्रतिशत से ज्यादा जलने पर किसी का बचना लगभग असंभव होता है. और जिले के पत्रकारों को यह बात मालूम है. जागेन्द्र को भी पता था कि मृत्यु आसन्न है.  उसने कहा कि उसे थानाध्यक्ष श्री प्रकाश राय ने उत्तर प्रदेश के एक राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा के इशारे पर पहले मारा फिर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दिया. शायद कोई हिंसक जानवर भी अन्य जानवर का शिकार इस तरह नहीं करता.
सत्ता में बैठे एक मंत्री ने जब पहली बार इस घटना पर प्रतिक्रया दी तो उसके चेहरे पर कोई विषाद या करूणा का भाव दूर-दूर तक नज़र नहीं आया. तिरस्कार का भाव ज़रूर दिखाई दिया.  जुमला वही पुराना था “जाँच की जायेगी”. कौन करेगा जांच? वही खाकी वर्दी वाला और उसी मंत्री के प्रभाव में. और फिर भी हम मानलें कि दूध-पानी अलग होगा. पाशविकता की जाँच शक्ति-सम्पन्नता से नहीं होती. फिर, क्या मृत्यु-पूर्व बयान क्या किसी मुख्यमंत्री या उसके रिश्तेदार मंत्री को उद्द्वेलित करने के लिए काफी नहीं था? क्या अपेक्षित नहीं था कि सबसे पहले इस मंत्री को पद से हटाया जाये और जांच की निष्पक्षता के लिए हर वे प्रयास किये जाये जिससे प्रदेश की जनता की सामूहिक चेतना पर कुछ मरहम लग सके? क्या एक जाति –विशेष के वोट के लिए एक पाशविक घटना को भी उसी “जाँच की जायेगी” के सत्ता-पोषक जुमले में समाहित करने से कर्तव्य की इतिश्री हो जायेगी?
घटना के पहले जागेन्द्र ने क्या लिखा था इस मंत्री व दरोगा राय के खिलाफ बलात्कार के आरोप को लेकर और मृत्यु –पूर्व बयान में उसने कैसे बताया था कि मंत्री की तरफ से धमकियाँ मिल रही थी और कैसे यह मंत्री अवैध खनन का रैकेट चलता था ये सारे तथ्य (जो जागेन्द्र के लेखन का हिस्सा होकर पारिस्थितिक साक्ष्य) के रूप में मौजूद हैं. और जिससे अपराध-शास्त्र के सिद्धांत “मेंस रिया”  (आपराधिक मंतव्य) की स्पष्ट पुष्टि होती है. पर शायद सत्ता में बैठे लोग में करुणा या नैतिकता खोजना बालू से तेल निकालने जैसा है. सत्ता पाशविक है यह प्रदेश सरकार की “जांच की जायेगी” प्रतिक्रिया से जाहिर हो जाती है.
पूरी दुनिया में आपराधिक रूप से भ्रष्ट तंत्र का एक खास चरित्र होता है. वह तीन काम करता है. पहले  वह अपने विरोधियों पर अलग-अलग हमला करता है. उस व्यक्तिगत हमले में अपने शिकार को  ना केवल आहत करता है या समाप्त करता है बल्कि यह कर के अन्य लोगों को डराता है और जन-भावना को विमुख करने के लिए वह कभी इसे ब्लैकमेलर बताता है तो कभी एक प्रेम-पत्र रख कर उसके चरित्र के प्रति शंका पैदा करता है. इस मामले में भी सत्ता के दलाल अभिकरण कुछ ऐसे हीं प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं. आरोपी इंस्पेक्टर राय ने अपने बयान में कहा कि जागेन्द्र पर “गंभीर अपराध” के मामले थे और वह और उनका दल उसी की तफ्तीश के लिए गया था. सत्ता का जब यह भाव रहेगा तो हत्या-आरोपी दरोगा पत्रकार जागेन्द्र को आसानी से अपराधी बता सकेगा और मुख्य गवाह आंगनवाडी कार्यकर्ता जो मजिस्ट्रेट के सामने हीं नहीं मीडिया के सामने भी लगातार कह रही थी कि पेट्रोल छिड़क कर पुलिसवालों ने मारा अचानक पलट कर कहने लगी “जागेन्द्र ने स्वयं को जलाया”. यह वही महिला है जिसने मंत्री और इस पुलिस अधिकारी के खिलाफ अपने पर सामूहिक बलात्कार का मुकदमा किया है. जागेन्द्र इस बात को पुर-जोर तरीके से सोशल मीडिया में उठा रहे थे. गवाह का बयान  बदलवाना शक्तिशाली और साम-दाम, दंड-भेद में पारंगत सत्ता के पाशविक अभिकरणों के लिए बेहद आसान होता है. जागेन्द्र के पुत्र ने इस पर प्रतिक्रिया में कहा “मंत्री का इस इलाके में दहशत है और मुख्य गवाह का अपनी पूर्व बात से अचानक बदल जाना इसी दहशत को दर्शाता है”. 
जागेन्द्र एक छोटा पत्रकार था. छोटा याने बड़े अखबार का बड़े शहर में रहने वाला . मोटो तनख्वाह पाने वाला पत्रकार नहीं था. शायद इस बिरदारी का दोष है कि जिले या  कस्बे के पत्रकार जो आपराधिक सत्ता वर्ग के निचले स्तर से ज्यादा खतरे में रहते हैं उसे ऊपर का पत्रकार वर्ग हिकारत से देखता है और उसके खतरों को कम हीं संज्ञान में लेता है,
अगर देश का “नेशनल मीडिया”  भारत के  किस मंत्री ने सात समन्दर पर ब्रिटेन के किस महकमें को कब क्या लिखा है पता कर सकता है तो वह अपने रिपोर्टर भेज कर इस विवाद में घिरे खनन माफिया मंत्री का पिछले इतिहास भी पता कर सकता था. यह भी पता कर सकता था कि कब और करों मंत्री और पुलिस इंस्पेक्टर राय किस किस्म के आपराधिक नाभि-नालबद्धता से काम करते रहे हैं?

आज ज़रुरत है कि बगैर यह सोचे हुए कि कौन किस स्तर का पत्रकार है देश की सारी मीडिया एकजुट हो कर उत्तर प्रदेश की आपराधिक रूप से मदांध सत्ता को बताये कि जनमत को सही दिशा देना किसी दरोगा राय या किसी मंत्री वर्मा के बूते का नहीं रहे गया है. ना हीं “जांच कराई जायेगी” का जूमला फेंक कर कोई मुख्यमंत्री जनाक्रोश से बच पायेगा.      

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