Tuesday 2 September 2014

भाजपा में आडवाणी युग के अंत के मायने



आरम्भ और अंत एक शाश्वत प्रक्रिया है—“गीता के वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” की तरह. यह व्यक्तियों के लिए भी होता है, समाज के लिए भी और संस्थाओं के लिए भी. भारतीय जनता पार्टी में आये बदलाव को शीर्ष पर मात्र एक व्यक्ति के आने और एक व्यक्ति के जाने के रूप में नहीं लिया जा सकता. प्रश्न यह है कि यह प्रसव पीड़ा इतनी तकलीफदेह क्यों है? अगर आडवाणी इस नए जन्म के अपरिहार्य शर्त  के रूप में किसी की अपरिहार्य मौत का अहसास एक साल पहले कर लेते और धीरे से अपने को दूर कर लेते तो ना तो यह प्रसव पीड़ा इतनी दुखदायी होती ना हीं मौत इतनी अगरिमामय और गुमनाम.  

भाजपा के संविधान के अनुच्छेद २५ में पार्टी के संसदीय बोर्ड को निर्बाध शक्तियां दी गयी हैं. यह १२-सदस्यीय संस्था वर्तमान हीं नहीं भविष्य की नीति और नीति-परिवर्तन कर सकती है. इस अनुच्छेद के अनुसार “बोर्ड को पार्टी द्वारा भविष्य में अपनायी जाने वाली नीतियों और नीति परिवर्तन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार होगा”, याने बोर्ड के पास असीमित शक्तियां हैं. साथ हीं इसी अनुच्छेद में दो बार बोर्ड को मार्गदर्शक बताया गया है.

अब प्रश्न यह है कि अगर आडवाणी की मार्गदर्शक के रूप में उपादेयता है तो फिर वह इस बोर्ड में क्यों नहीं? बोर्ड से बड़ा मार्गदर्शक मंडल कौन हो सकता है? फिर बोर्ड को पार्टी के संविधान से शक्तियां मिली हैं जो कि नए पांच –सदस्यीय मार्गदर्शक मंडल को नहीं है. इसलिए भाजपा के लोगों का यह कहना कि “आडवाणी जी हमारे पिता के रूप में , परिवार के मुखिया की रूप में और दिशा देने वाले ध्रुव तारे के रूप में बने रहेंगे” आम लोगों की समझ को कम आंकना होगा. सभी समझ रहे हैं कि आडवाणी के दिन गए. मार्गदर्शक मंडल दरअसल बाँझ संस्था रहेगी. फिर भाजपा कितने मार्गदर्शक रखेगी? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मातृ –संगठन के रूप में मार्ग दिखाती है , बोर्ड पार्टी के संविधान के अनुसार मार्गदर्शक है और एक पिटे-लुटे लोगों को ठिकाने लगाने की मानिंद पांच-सदस्यीय मार्गदर्शक मंडल बनाया गया है जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी , आडवाणी . मुरली मनोहर जोशी हैं और साथ हीं प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह भी.

लिहाज़ा यह बात स्वयं सिद्ध है कि मोदी को अभी भी मीडिया और जन आलोचना की कहीं ना कहीं चिंता रहती है. वह आडवाणी को दूध की मक्खी की तरह ना निकल कर धीरे से अशक्त करना चाहते हैं. यह एक अच्छी नीति है , और कुछ हद तक शालीन भी. स्वयं अपने को और साथ हीं राजनाथ सिंह को उस मंडल में डालना भी इसी बात के संकेत हैं कि मीडिया इसे पुराना समान रखने वाला घर का कोना न समझे इसलिए कुछ नए सामान भी साथ में रख दो.

अब प्रश्न है कि इतना हो –हंगामा क्यों. क्या मीडिया मोदी के प्रति दुराग्रह के भाव से यह सब कुछ कर रहा है? यह सच है कि इस देश की जनता ने मोदी को नेता स्वीकार किया है और उनसे उनके वादे के मुताबिक तमाम अपेक्षाएं रखी हैं. मोदी पर यह नैतिक दबाव है कि वह “परफॉर्म “ करें. जाहिर है कि मोदी अपने रास्ते में कोई अवरोध नहीं चाहेंगे. पार्टी भी ठीक रहे इसलिए एक अमित शाह की ज़रुरत है, जो आँख के इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हो, सरकार ठीक रहे इसलिए मंत्रियों पर लगाम की ज़रुरत है और सब कुछ ठीक रहे इसलिए संघ का वरदहस्त की ज़रुरत है.

इस पैरामीटर पर मोदी बिलकुल ठीक हैं. आडवाणी ने पार्टी को बुरी स्थिति में ला दिया था. सन १९९८ के आम चुनाव में अधिकतम (इस साल के परिणाम को छोड़ कर) २५.६ प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन आडवानी की सरपरस्ती में २००४ और २००९ के चुनावों में यह प्रतिशत लगातार घटता हुआ पार्टी को जहाँ मात्र १८.८ प्रतिशत पर ला आया वहीं मोदी के आने से यह प्रतिशत ३१.३ तक पहुँच गया और पार्टी पूर्ण बहुमत हासिल कर इतिहास बनाने लगी. तो यह साफ़ है आडवाणी की बदलते समाज में उपादेयता ख़त्म होने लगी. सर्वस्वीकार्य वाक्य हो गया “मोदी हीं बचा सकते हैं गिरती भाजपा को, ख़त्म होते देश को”. लिहाज़ा अगर मोदी अपने मन की टीम लाते है तो कोई गलत बात नहीं है.

आडवाणी उस समय भी गरिमामाय नहीं दिखे जब मोदी के केन्द्रीय चुनाव समिति में आने के बाद उन्होंने पत्र लिखा , मीडिया को दिया और पूछा कि “ कहाँ गयी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल की पार्टी”. दरअसल यह सवाल तो उनसे पूछा जाना चाहिए था. पार्टी की जन-स्वीकार्यता उनके काल में घटी थी ना कि मोदी की वज़ह से. उनका आरोप कि मोदी के आने से मुखर्जी और पंडित दीनदयाल की पार्टी बदल गयी , गले के नीचे नहीं उतरता. अगर उनका ऐसा मानना था तो एक हीं दिन में इस्तीफ़ा वापस क्यों? क्या उनके घर जा कर किया गए मान-मनव्वल से पार्टी फिर पटरी पर आ गयी? यहीं पर आडवाणी अपने गरिमा से नीचे आते दिखाई देते हैं.

मोदी के आलोचकों का , जिनमें मैं भी हूँ, यह मानना है कि मोदी विरोध के स्वर के प्रति सहनशील नहीं हैं और यही वजह है आडवाणी के सीन से गायब होने की. लेकिन शायद आलोचक यह नहीं समझ पते हैं कि अगर शीर्ष पर बैठा नेता पूरी तरह से जनोपदेय है, सही दिशा में सोच रहा है और जनता उस सोच को मौन समर्थन दे रही है तो फिर विरोध के स्वर हैं हीं क्यों? हम विरोध के मूल कारणों में जाएँ तो पता चलेगा कि वह विरोध स्वयं स्वार्थ-सिद्धि के लिए था हालाँकि नाम पार्टी में भटकाव का दिया गया. हर विरोधी यही तर्क देता है. इंदिरा गाँधी ने भी आपातकाल लगाया तो यही तर्क दिया था.

लेकिन मोदी के फॉर्मेट की एक समस्या है. जब तक वह उपादेय हैं, जब तक जनता को वह “परफॉर्म” करते हुए लगते हैं तब तक “एकल व्यक्ति” प्रभाव के औचित्य को कोई चुनौती नहीं है लेकिन जैसे हीं कुछ गलतियाँ होने लगती हैं और मोह –भंग की स्थिति आती है तब एकल नेतृत्व का सिद्धांत ढहने लगता है और इस गिराव को रोकना मुश्किल हो जाता है. यही वजह है कि एक विश्वसनीय सपोर्ट-सिस्टम समानांतररूप से रखना ज़रूरी होता है. मोदी के पास वह मज़बूत सिस्टम संघ के समर्थन के रूप में मौजूद है.

आडवाणी के संसदीय बोर्ड में ना लेने पर मीडिया का मुद्दा बनाना गलत इसलिए नहीं है कि भारत के एक उभरते जन-अवलंबन के प्रतीक मोदी के हर पहलू का विश्लेषण करना मीडिया का काम है ताकि सफलता नेतृत्व को बेलगाम न कर दे. इसे मीडिया के दुराग्रह के रूप में नहीं देखना चाहिए.
patrika/lokmat