Saturday 17 January 2015

बंद करें संवेदना आहत होने का खेल, बदलें संविधान






हर बात में हमारी संवेदना आहत होने लगी है. किसी ने सोशल मीडिया पर कुछ लिख दिया तो हम आहत संवेदना लिए लाठी लेकर खड़े हो जाते हैं, कोई चित्र बना देता है तो हम अपनी फटी-कटी संवेदना के साथ दंगा करने के भाव में आ जाते हैं. वंदेमातरम् गान पर भी संवेदना आहत होती है. हमारी संवेदनाओं के आहत होने का सीमा धार्मिक-सांप्रदायिक मुद्दे तक हीं महदूद हैं. ये संवेदनाएं तब आहत नहीं होती जब गरीबी के कारण हम अपने बच्चे को स्कूल न भेज कर मात्र प्रारंभिक धार्मिक तालीम दे कर उसे साइकिल का पंचर जोडनेवाला बना देते हैं या उसका बचपन छीन कर टोकरी बुनने, अथवा चंद पैसों के लिए किसी सेठ -सेठानी के पाँव दबाने, ढाबे में बर्तन धोने में लगा देते हैं. सरकारी अस्पताल में डॉक्टर के न उपस्थित रहने या दवा न मिलने के कारण जब वही बच्चा मर जाता है तो भी हमारी संवेदनाएं आहत नहीं होती और तब हम गुस्से में लाठी लेकर या दंगे के भाव में भ्रष्ट सिस्टम को चुनौती नहीं देते. गाँव में स्कूल न होने, राशन विभाग में भ्रष्टाचार होने पर भी हमारी संवेदनाएं अक्षुण्ण रहती हैं. हमारी संवेदनाएं तभी २४ कैरट की रहती हैं जब हम सड़कों पर भीख माँगते, नशा करते या अपराधी बनते बच्चे को देखते हैं. जब एक बाबा आसाराम बलात्कार के आरोप में जेल चला जाता है तो हम दूसरे बाबा रामपाल के यहाँ खड़े हो जाते हैं. संवेदनाएं तब भी तर्क के साथ नहीं देती.        
क्यों पूरा समाज हमारी “संवेदना के आहत होने के” भाव का खामियाजा भुगते और युवा पौध के बड़े वर्ग को अज्ञानता के अन्धकार में रखते हुए मात्र साइकिल का पंचर जोड़ने वाला बना रहने दे? कोई अपने बच्चे को चुटिया रखवा कर वेदपाठी बना कर समझता है कि सनातन धर्म का भला कर रहा है तो कोई मात्र कुरआन शरीफ की कुछ आयतें रटा कर इस्लाम को मजबूत करने का दंभ भरता है. क्या आज ज़रूरी नहीं है कि धर्म के नाम पर चल रही  दूकाने बंद कराकर समाज को एक नयी आधुनिक सोच वाला बनाया जाये जहाँ गरीबी न हो, अशिक्षा जनित धर्मान्धता न हो और जहाँ आन्दोलन हो तो धर्म या जाति के आधार पर नहीं बल्कि भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ?
अब एक और पहलू देखें. पश्चिमी समाज से आयातित महिला विमुक्तिकरण (वीमेन लिबरेशन) की अवधारणा के तहत हम इस बात के लिए तो यह कहते हुए सडकों पर आ जाते हैं कि नारी कम कपडे पहने तो “परम्परावादी” वर्ग के पेट में दर्द क्यों, लेकिन वही नारी परिवारों में समान अधिकार के तहत स्कूल जाये और जन्म से पहले भ्रूण के रूप में हीं ना मारी जाये इसके लिए आधुनिकतावादी कोई  आन्दोलन नहीं करते.  
एक अन्य स्थिति देखिये. कोई पांच साल पहले बिहार के छपरा जिले के एक गाँव के दलितों ले अपने बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने से इनकार करते हुए स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों भगा दिया. उनकी मांग थी कि पहले बाज़ार जाने वाली सड़क बनवाओ. छपरा उन दिनों विश्व पोलियो अभियान की सुर्ख़ियों में था क्योंकि उस जिले में पोलियो देश में सर्वाधिक था –खासकर उस गाँव में. एक पोलियो की शिकार बच्ची का माँ ने इस लेखक के पूछने पर तर्क दिया.  “बच्चे के पैर ठीक भी हों तो वह चलेगा कहाँ. इससे तो अच्छा है कि पैर हो हीं नहीं?” क्या किसी माँ-बाप को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह अपने बच्चे को पोलियो की खुराक ने दे कर उसे जिन्दगी भर के लिए अपंग बनाये रखे अर्थात अपने वर्तमान के लिए बच्चे का भविष्य बिगाड़े? अभी तक राज्य के पास कोई कानून नहीं है जो इन अभिभावकों को इन बच्चों के भविष्य को अपंग न बनाने के लिए मजबूर कर सके.
अब ज़रा भारतीय संविधान पर गौर करें. इसमें अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए व शिक्षा और संस्कृति बनाये रखने के लिए सामूहिक अधिकार के रूप में और साथ हीं अल्पसंख्यक समूहों के अधिकार के रूप में तीन अनुच्छेद दिए गए हैं. अनुच्छेद २८ (१) के अनुसार पूर्णतः सरकारी फण्ड से संचालित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं जायेगी. लेकिन वहीं २८(२) कहता है कि ऊपर का अनुच्छेद २८(१) नहीं लागू होगा अगर वह संस्था किसी ऐसे ट्रस्ट या एंडोवमेंट के तहत जो धार्मिक शिक्षा देने की मंशा से है, स्थापित की गयी है, भले हीं वह संस्था राज्य द्वारा प्रशासित हो. यहीं आगे २८(३) बताता है कि ऐसी  किसी भी शिक्षण संस्था के , जो राज्य द्वारा मान्यता-प्राप्त हो या जो राज्य के फण्ड से चल रही हो, किसी धार्मिक निर्देश (इंस्ट्रक्शन) में शामिल होना या किसी भी धार्मिक पूजा में उपस्थित होने की अनिवार्यता किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं है जो उस संस्था में उपस्थित होता है. लेकिन साथ हीं यह भी कहा गया है कि अगर वह व्यक्ति अवयस्क है तो उसके अभिभावक की अनुमति ज़रूरी होगी. याने अभिभावक चाहे तो वह धार्मिक शिक्षा ले. मतलब यह कि बच्चा आधुनिक शिक्षा ले कि मदरसा में धार्मिक शिक्षा ले अपने व्यक्तित्व की इतिश्री मान ले यह अभिभावक पर निर्भर है. अगर वह अभिभावक बच्चे पैदा करने की बाद उसे बचपने में हीं साइकिल का पंचर लगने के लिए छोड़ दे , उसे सडकों पर भीख माँगने के लिए छोड़ दे और उसे भविष्य का अपराधी बनाने के लिए स्थितियां पैदा करे तो समाज या संविधान कुछ भी नहीं कर सकता. अगर कोई कानून बनाया जाता है तो उसे धार्मिक भावनाओं से छेड़ –छाड़ मान कर बवेला मचाया जा सकता है.
तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान ने ऐलान किया कि लड़कियां घर से बहार निकल कर स्कूल नहीं जायेंगी. दूसरा फरमान था पुरुष डॉक्टर महिलाओं के शरीर को नहीं छू सकता. अब चूंकि लड़कियां पढ़ेंगी नहीं, पुरुष डॉक्टर महिला शरीर को हाथ नहीं लगाएगा लिहाज़ा पूरे फाटा क्षेत्र व उत्तरी और पश्चिमी वजीरिस्तान में महिलाएं आधुनिक इलाज और सर्जरी के अभाव में मर रहीं है. यह सब तालिबान धर्म के अलमबरदार के रूप में कर रहा है.
उधर पश्चिमी उदारवाद से प्रभावित हो कर पिछले साल भारत में एक कानून पास किया गया जिसके तहत कोई बच्चा अपने माँ-बाप के खिलाफ मुकदमा कर सकता है कि वह प्रताड़ित किया जा रहा है. याने अगर माँ –बाप बच्चे को पढ़ने के लिए एक चांटा मर देते है तो उन्हें जेल हो सकती है. विरोधाभास देखिये. एक अभिभावक पोलियो ड्राप न पिला कर बच्चे की जिन्दगी पंगु कर सकता है और एक अन्य उसको मात्र तथाकथित धार्मिक शिक्षा दे कर आधुनिक , रोजगार परक एवं तार्किक वैज्ञानिक शिक्षा से वंचित कर सकता है वहीं दूसरा अपने बच्चे को डांट भी नहीं सकता.
राष्ट्र के चरित्र में एक अजीब दोगलापन दिखाई देता है. एक तरफ धार्मिक भावनाओं को संरक्षित करने के नाम पर एक समाज को सोच के स्तर पर कुंठित करने के लिए संविधान निर्माताओं ने अलग शिक्षा का प्रावधान किया है और अगर लडकी को बच्चे पैदा करने की मशीन मात्र बनाये रखने को उस समुदाय की धार्मिक मर्यादाओं को सरक्षित करने का तथाकथित संवैधानिक अधिकार दिया है और दूसरी तरफ योग साधना और वन्दे मातरम को किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला बता कर बाधित करता है. 
ताजिया  किधर से निकले या राम -लीला कहाँ हो इस बात पर दंगा, धर्म कैसे बदला इस बात पर दंगा, टोपी वाले ने तिलक वाले को क्या कहा इस बात पर दंगा लेकिन एक भी आन्दोलन इस बात पर नहीं कि गरीब बस्तियों में पानी क्यों नहीं, उनके बच्चों को भी वही शिक्षा क्यों नहीं, टीकाकरण से लेकर इलाज़ के लिए अस्पताल अल्पसंख्यक इलाकों में कम क्यों. क्यों अल्पसंख्यक और दलित हीं आज भी गरीब हैं और क्यूं कानून लाकर उनके बच्चों को स्कूल भेजना अनिवार्य नहीं किया जा रहा है?     

jagran