Saturday 11 June 2016

कहीं चैनलों की बहस से दर्शक विमुख न हो जाये !





हम क्या देते हैं दर्शकों को हर शाम चार घंटों की बहस में. क्या हम सही मुद्दे जिनका जन-कल्याण से कोई सरोकार हो, चुनते हैं? अगर चुनते भी हैं तो ऐसे मुद्दे जिसमें होता है : “लात –जूता”, “तेरा नेता , मेरा नेता”, कुतर्क, अल्प ज्ञान से परोसे गए तर्क वाक्य, ऐसे संख्यात्मक तथ्य जो या तो विषय से दूर हैं या विषय के लिए काल-सापेक्ष नहीं हैं या फिर अर्ध-सत्य हैं. नतीजा यह होता है कि पूरी एक घंटे की बहस किसी कस्बे के नीम व्यस्त “चौराहे पर मदारी के करतब” दिखाने जैसा हो जाता है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के खबरिया चैनल जो एक समय प्राइम टाइम पर भी मनोरंजन, भूत-भभूत , सांप –बिच्छू दिखाया करते थे आज देश के तात्कालिक विषयों को लेते हैं और उन्हें बहस में उठा कर जनता को पक्ष-विपक्ष के तर्कों से हीं नहीं , परस्पर विरोधी तथ्यों से अवगत कराते हैं. जन संवाद के धरातल पर समाज के सामूहिक चिंतन को बेहतर बनाने का शायद इससे कारगर कदम कोई और नहीं हो सकता. इससे प्रजातंत्र की गुणवत्ता बढ़ती है. परन्तु क्या कभी हमने सोचा है कि विकास के मुद्दे , परियोजनाओं का जमीन पर आने पर हश्र और गरीबी की असली समस्या इन चर्चाओं का कितने प्रतिशत समय या स्थान ले पाते हैं ? क्यों जब सी ए जी की रिपोर्ट में बताया जाता है कि मनरेगा में दस साल पहले मरे आदमी के नाम पर काम दिखा कर अधिकारी पैसा हजम कर रहे हैं तो हम छोटी सी खबर देते हैं? क्या हम पहले हीं इस तथ्य को गाँव में जा कर दरयाफ्त नहीं कर सकते और क्या इस भ्रष्टाचार की वेदी पर दम तोड़ती  इस सार्थक योजना को लेकर जन-मत नहीं बना सकते?  

उदाहरण के तौर पर एक हीं दिन में हमारे पास कई खबरें होती हैं. एक: जिसमें कोई सामान्य समझ या कम सामाजिक प्रतिबद्धता वाला कोई तन्मय नाम का व्यक्ति किसी आइकॉन के बारे में एक फूहड़ टिपण्णी करता है. दूसरी और उतनी हीं बेहूदा टिपण्णी किसी साध्वी मंत्री द्वारा की जाती है जिसमें वह भारत को कांग्रेस –मुक्त के साथ मुसलमान-मुक्त करने का ऐलान करती है. पहला फूहड़पन की पराकाष्ठ है तो दूसरा अज्ञानता और घटिया धर्मान्धता की. लेकिन वहीं एक और खबर होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा प्रकल्प द्वारा संचालित स्कूल का छात्र सरफराज हुसैन पूरे असम में टॉप करता है. हम इसे स्थान नहीं देते। चौथी खबर होती है : देश में पिछले १५ सालों में एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में बाकि ९९ प्रतिशत लोगों के मुकाबले १०० गुना इजाफा हुआ है. सन २००० में यह इजाफा ५८ प्रतिशत था, २००५ में ७५ प्रतिशत, सन २०१० में ९४ प्रतिशत था. अगर इस स्थिति पर नियंत्रण नहीं किया गया तो गरीब की चड्ढी भी इन एक प्रतिशत के पास पहुँच जायेगी. क्या किसी देश में सक्षम मीडिया का यह दायित्व नहीं बनता कि व्यापक जन –चेतना बनाई जाये ताकि सत्ता पर बैठे लोग पर इस असंतुलित विकास को बदलने का दबाव पड़े? पांचवीं खबर: देश के हिंदी भाषी क्षेत्र के सात राज्यों आज भी मानव विकास के तमाम पैरामीटर पर वहीं के वहीं है जहाँ १० साल पहले थे. बिहार में आज भी तीन में से दो परिवार बिजली का इस्तेमाल नहीं करता. इन सात राज्यों के ६० प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं. ये वही लोग हैं जिन्हें गाय को लेकर या भारत माता की जय न कहने वाले पर इतना गुस्सा आता है कि इनकी सामूहिक चेतना परवान चढ़ जाती है. क्या जरूरी नहीं कि मीडिया की बहस इन्हें तार्किकता की ओर अभिमुख करने में हो.

एक ताज़ा खबर है कि मुसलमानों में काम न करने वालों की प्रतिशत अन्य समुदायों के मुकाबले सबसे ज्यादा है. दूसरे स्थान पर जैन धर्म के लोगों का हैं. इन दोनों के अलग –अलग कारण हैं. संपन्न लोगों का वर्ग भी इस श्रेणी में आता है. जबकि आर्थिक विपन्नता वाले दलित, आदिवासी या पिछड़ी जाति के लोग “काम न करने वाले “ वर्ग में कम रहते हैं. लेकिन मुसलमान इस वर्ग में सबसे ज्यादा इसलिए है क्योंकि यह अपने घर की महिलाओं को काम के लिए बाहर नहीं भेजता, “पर्दानशीनी” की प्रथा के चलते. अगर हम “तीन तलाक “ की कुप्रथा पर मुस्लिम महिलाओं के लिए टीवी स्टूडियो में जार-जार आंसू गिराते हैं और कोई मुल्ला इस कुप्रथा को उचित बताता है तो यह भी मीडिया का दायित्व है कि वह मुसलमानों में यह चेतना विकसित करे कि वे अपनी औरतों को आर्थिक संबल देने के लिए पढ़ायें और काम पर भेजें. इसके बाद “तीन तलाक” की कुप्रथा स्वतः हीं दम तोड़ देगी.

मोदी सरकार ने नयी फसल बीमा योजना में पुरानी कमियों को ख़त्म कर दिया है और यह कृषि क्षेत्र में एक बड़े बदलाव का सबब बन सकता है. यह गलत है या सही, गलत है तो क्यों और सही है तो क्यों किसान इसे अंगीकार करे , दर्शक ये मुद्दे कभी बहस में नहीं पाए होंगे. एजुकेशन सिस्टम का निजीकरण गरीबों को शिक्षा से दूर ले जाएगा या एकल परिवार (न्यूक्लियर परिवार) और विदेश में नौकरियों के साथ बढ़ती जीवन प्रत्याशा (६५.४ साल) के कारण बूढ़े लोगों की तादात में बेहद वृद्धि हुई है और वह बूढा व्यक्ति इलाज़ और सुश्रुषा के अभाव में तिल-तिल मर रहा है. समय आ गया है कि राज्य अभिकरणों पर जन-मत का दबाव बनाने का ताकि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को मजबूत बनाया जाये. क्या इस पर कभी बहस हो सकी है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो यह भी नहीं बताया कि वर्तमान सरकार इस दिशा में कुछ प्रयत्न कर भी रही है. वह कितना सार्थक है और कितना और करने की ज़रुरत है, यह शायद आज की मीडिया का विषय नहीं है. वह यह बता कर कि अमरीकी कांग्रेस में सांसदों नौ बार खड़े हो कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण पर तालियाँ बजाई, हीं खुश है. आज से तीन दिन पहले तक कोई पत्रकार यह नहीं जानता था कि “मिसाइल टेक्नोलॉजी कण्ट्रोल रेजीम” (एम् टी सी आर) क्या है लेकिन जब भारत इसका सदस्य बना और वाशिंगटन में विदेश विभाग के अधिकारियों ने इसकी ब्रीफिंग की तो हर चैनल इस पर घंटों हांफ-हांफ कर कसीदे काढ़ने लगा, बहस कराने लगा.      

दरअसल न्यूज़-रूम को इन मुद्दों के प्रति अपनी जानकारी बढानी होगी और साथ हीं संवेदना भी. कुल २५ करोड भारतीय परिवारों में से १९ करोड परिवारों के पास टीवी सेट्स हैं और “टैम”  मीटर्स की संख्या अब ८००० से बढ़ कर ३५,००० हो चुकी है और इनमें अधिकांश कस्बों में भी लग चुके हैं. इन कस्बों के लोगों में एक बड़ा वर्ग अभी गाँव से हीं आया है और खेती से जुड़ा है.

अगर बाजारू ताकतें मात्र कुछ वर्षों में उच्च से लेकर निम्न माध्यम वर्ग तक १० रुपये किलो का आलू “अंकल चिप्स” के नाम पर ४०० रुपये किलो बेंच सकती हैं (जिसे हर माँ अपने बच्चों के लिए होली में बनाया करती थी और जो कई महीने तक चाय के साथ चाव से खाया जाता था) तो क्या भारत की मीडिया गलत खेती के तरीकों, नयी सरकारी योजनाओं के प्रति जनता को सुग्राही नहीं बना सकता और क्या सरकार पर बढ़ती गरीब-अमीर की खाई पाटने का दबाव नहीं डाला जा सकता?    

बहस का मुद्दा बदलेगा तो राजनीतिक दलों का रुझान भी और समझ भी. “तेरे नेता-मेरा नेता की गला-फाड़“ झांव-झांव से हट कर ये दल भी पढ़े लिखे प्रवक्ताओं को भेजना शुरू करेंगे, एंकर-संपादक भी विषय पर अध्ययन करके आयेंगे और निष्पक्ष विश्लेषण की मान्यता बढेगी. वर्ना वह दिन दूर नहीं जब दर्शक बहस से यह कह कर मुंह मोड़ लेगा कि जब “मदारी का खेल हीं देखना है तो कपिल का शो क्या बुरा है”. और तब शायद हम अपनी पत्रकारिता की गरिमा से वंचित हो जायेंगें.            

lokmat