चुनाव आयोग के एक सर्वे के
अनुसार बिहार के ८० प्रतिशत मतदाताओं का मानना है कि पैसे या गिफ्ट लेकर मतदान
करने में कोई बुराई नहीं है. कोई ४५०० से अधिक लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर
किये गए इस सर्वे का निष्कर्ष राज्य के चुनाव तंत्र के लिए एक चुनौती बन गया है. कोई
ताज्जुब नहीं कि बिहार ऐसे गरीब राज्य में चुनाव घोषणा के बाद से अभी तक १६ करोड़
रुपये, ८३०० लीटर शराब और ८.५० किलो सोना बरामद हो चुका है.
किसी समाज में भ्रष्टाचार को लेकर अगर सहिष्णुता का
यह भाव हो तो समझा जा सकता है कि चुनावी संवाद किस स्तर तक जा सकता है. और नेताओं
को तार्किक या नैतिक मानदंडों को ठेंगा दिखाना कितना सहज हो सकता है. उदाहरण के
तौर पर क्या किसी समाज में ६८ साल के प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के बाद भी कोई राजनीतिक नेता यह कह कर बच सकता है कि उसका बड़ा बेटा २५ साल का
है और छोटा २६ साल का क्योंकि मतदाता सूची में ऐसा हीं लिखा है ? क्या किसी सभ्य समाज की तार्किक और नैतिक सोच पर यह तमाचा नहीं है? भ्रष्टाचार के आरोप में
सजा पाए राष्ट्रीय जनता दल के
नेता लालू प्रसाद यादव ने कहा कि उनके दोनों पुत्रों ने जो उम्र लिखवाई है उसका आधार मतदाता सूची में दर्ज
उम्र है.
हकीकत यह है कि अगर मतदाता सूची या
किसी सरकारी दस्तावेज में कोई टंकण सम्बंधित या मानवीय गलती तथ्यों को लेकर दिखाई देती है तो उसे ठीक
कराना सम्बंधित नागरिक की जिम्मेदारी
होती है.
अगर लालू के तर्क को आधार बनाया जाये तो पुलिस के दस्तावेजों के हिसाब से या अदालत के फैसले के मुताबिक वह भ्रष्टाचार के दोषी हैं लेकिन उन्होने उसे गलत ठहराते
हुए उपर की अदालत में अपील की है.
यह सत्य है कि अशिक्षित अथवा अर्ध-शिक्षित समाज में तर्क पर भावनाएं भारी पड़ती हैं लिहाज़ा मायावती इस
आधार पर उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतती हैं कि उनका जन्म -दिन किसी राजतंत्र के काल
वाली साम्राज्ञी
की तरह मनाया जाता है या उनकी उम्र से १५ साल बड़ा कोई
ब्राह्मण या ठाकुर अफसर सार्वजनिक स्थलों पर
भी उनके पैर छूता है. उनके मतदाताओं को खासकर दलितों को जो हजारों साल से ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा दबाये जाते रहे हैं यह देख कर एक “सशक्तिकरण” की झूठी चेतना का अहसास होता है. अगर इस वर्ग के नेतोँ पर वहीं भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं जो किसी उच्च जाति के नेता जैसे जगन्नाथ मिश्र पर लगे तो उसे फिर सशक्तिकरण का
अहसास होता है. यही कारण है कि जब लालू यादव
पर लगे चारा घोटाले के आरोप के बाद के एक चुनाव में राघोपुर के एक यादव मतदाता से एक संवाददाता
द्वारा पूछा गया कि “तुम्हारे नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप है फिर भी तुम लालू यादव को वोट दोगे तो वह गुस्से से भड़क कर बोला, अच्छा, जब मिसिर बाबा करे तब आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं लेकिन हमारा नेता करे तो गलत है”. भावना तर्क पर भारी पड़ गयी थी.
चूंकि भावनात्मक आधार पर जनमत मोड़ना अर्ध-शिक्षित,
नीम-तार्किक समाज में तो चलता
है लेकिन जैसे-जैसे समाज में शिक्षा बढ़ती है, आर्थिक आय में इजाफा होता है और इन दोनों के कारण तर्क शक्ति भावना से हट कर बौद्धिक स्तर का सहारा लेने लगती है तो वह व्यक्ति
यह सोचने लगता है कि हमारा नेता भी उसी स्तर का भ्रष्ट हो गया जिस स्तर का उच्च वर्गीय नेता इतने दशकों तक था. उसे इससे भी शक्ति मिलती है कि अधिकतर एस पी और डी एम “अपनी” जाति से हैं और जहाँ तक सड़क का सवाल
है वह तो न तब बनी न आज बनी, ना हीं नौकरी तब लगी न आज लगी.
सोच और तर्क के इस भाव में आने की एक शर्त है. किसी समाज या पहचान समूह में नीचे जितनी चेतना –शून्यता होगी उतनी हीं इस तरह की
राजनीति के जिन्दा रहने की मियाद होगी. लिहाज़ा कोई
मायावती इस “सशक्तिकरण की झूठी चेतना” वाली राजनीति को २५-३० साल चला सकती हैं तो कोई मुलायम या लालू १० से १५ साल. लेकिन कोई मायावती, लालू या मुलायम इसे मियाद से ज्यादा खींचेगे तो उनका आधार कम
होने लगेगा. “भैंस की पीठ पर बैठना, चुनाव के दौरान उड़नखटोले (हेलीकाप्टर), पर किसी सुदूर गाँव में उतरना और गांववासियों को बताना कि सड़क और पुल बना देंगे तो अफीम की अवैध खेती
नहीं कर पाओगे क्योंकि अफसर तब “धडाक-धडाक”
छापा मारेगा” का तर्क दे कर मत हासिल करना पांच-दस साल तो चलता है पर
इससे अधिक नहीं. कुछ साल पहले राघोपुर के एक
गाँव में लालू “उड़नखटोला” से उतरे और तीन वाक्यों का चुनावी भाषण दिया. “अब जब तुम नदी में जाल डालते हो मछली पकड़ने के लिए तो कोई सरकारी अमला (कर्मचारी) तो मना नहीं करता ?” . भीड़ ने जवाब दिया “ना साहेब” . नेता का दूसरा सवाल था “जब ताड़ी के पेड़ पर चढ़ कर
ताड़ी उतारते हो तो कोई टैक्स तो नहीं
लेने आता ?” भीड़ ने उसी उत्साह से
जवाब दिया “ना साहेब” . नेता का तीसरा और अंतिम चुनावी वाक्य था “बस मौज करो, मछली मारो और ताड़ी पीयो”. उस समय वहाँ से चुनाव में
जबरदस्त सफलता मिली थी.
लेकिन उसी नेता की पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री उसी विधानसभा क्षेत्र से २०१० में चुनाव हार जाती हैं क्योंकि अब उसे केवल अवैध मछली और
ताड़ी नहीं, उसके बच्चे को नौकरी चाहिए, अस्पताल चाहिए , सड़क चाहिए. चेतना ,
तर्क शक्ति और अपेक्षाएं झूठे सशक्तिकरण के अहसास से काफी ऊपर चली गयी हैं.
एक और आयाम देखें. भारतीय जनता पार्टी के
सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि लालू के प्रत्याशी पुत्र-द्वय में से एक की सम्पति के रूप में एक १७ लाख की मोटर-साइकिल है और एक बी एम डब्लू कार. प्रश्न यह नहीं है कि १७ लाख रुपये की मोटरसाइकिल कैसे? प्रश्न यह है कि ऐसी
मोटरसाइकिल अपने लिए रख कर उन लाखों यादव युवाओं को अब यह नहीं कह सकते कि तुम भैंस की पीठ पर बैठ कर शक्ति का अहसास करो और हम बी एम् डब्लू कार पर. कम से कम एक यमहा या होंडा बाइक उसे भी चाहिए. यही कारण है कि यादव् मतदाता विकल्प की तलाश पिछले दस साल से कर रहा है. लेकिन लालू अभी भी पहचान नहीं पा रहे है. उन्हें यह नहीं समझ में आ रहा है कि पहचान समूह की चेतना परिवर्तित
होती रहती है लिहाज़ा राजनीतिक सन्देश की विषय वस्तु (कन्टेन्ट) और सम्प्रेषण का तरीका भी
बदलना पड़ता है. साम्यवादियों ने यही नहीं समझा वर्ना भारत से ज्यादा बेहतर देश साम्यवाद के पनपने के लिए दुनिया में दूसरा नहीं था.
गौ-मांस पर उनका बोलना उसी विकृत तर्क का नमूना है जिसके तहत कानून को ठेंगे पर रखना ऐसे नेता शाश्वत भाव समझते हैं. “शैतान” ने उन्हें “भुलवा” दिया कि वह यादवों (गौ-पालकों) के नेता हैं ना कि मात्र १७ प्रतिशत मुसलामानों के. दोनों मिलते हैं तब ३०-३१ प्रतिशत बनता है वह भी अगर पूरा मिला तब. २०१४ के चुनाव में नहीं मिला तो
लालू की पार्टी मात्र २० प्रतिशत पर रह गयी।
अगर लालू का छोटा बेटा २६ साल का है और बड़ा २५ साल का और वे राज्य की विधान सभा के चुनाव में जीतते हैं और 10.5 करोड़ बिहारियों लिए कानून बनाते हैं तो शायद दुनिया के प्रजातंत्र के लिए इससे बड़ा मज़ाक कोई और नहीं हो सकता. वैसे भी यह जिम्मेदारी प्रत्याशी की होती है कि उसे ठीक करवाए अन्यथा अगर किसी
तरह से असली जन्म प्रमाण तय करने वाले दस्तावेज चुनाव आयोग के हाथ लग गए तो
नामांकन या चुनाव रद भी हो सकता है.
lokmat