Saturday 9 December 2017

नेहरु से राहुल तक: आयातित सेकुलरिज्म से उदारवादी हिंदुत्व तक


नेहरु परिवार और कांग्रेस के नाभि-नाल बद्धता को समझने के लिए तुलसी के रामचरित मानस की चौपाई --- एक धरम परिमिति पहिचाने , नृपहिं दोष नहीं दीन्ही सयाने “ का जनता का भाव समझना होगा. जब दशरथ जी ने राम को बनवास जाने की आज्ञा दी तो प्रजा में कुछ लोग फैसले से आहात थे लेकिन सुधि जनों ने उन्हें समझाया कि धर्म की सीमा समझ कर राजा में दोष नहीं देखना चाहिए”. भारत में प्रजातंत्र तो आया पर “राजा के प्रति भाव “ आज भी वैसा हीं है. भारत का प्रजातंत्र एकल नेतृत्व में विश्वास करता है . नेहरु और उनका परिवार कांग्रेस से अलग हो तो जनता नहीं कांग्रेस बिखर जाती है. वोट कांग्रेस को नहीं नेहरु, इंदिरा , राजीव या सोनिया को मिलते हैं.  जनता के इस भाव का एक दूसरा पहलू देखिये. भारतीय जनता पार्टी तो वैचारिक तौर पर मजबूत मानी जाती है लेकिन एक नरेन्द्र मोदी के परिदृश्य में आने पर इस पार्टी का वोट २००९ के चुनाव में हासिल १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर सन २०१४ में ३२.७ प्रतिशत पर चला जाता है. लिहाज़ा  नेहरु और नेहरु परिवार को वंशवाद का दोषी मानने वालों को यह समझना होगा कि भारतीय जनता का मिजाज हीं एकल नेतृत्व का है , कम्युनिस्ट नहीं चल पाए क्योंकि उनके यहाँ विचार प्रधान था, व्यक्ति गौण. 
एक समाज जो शहाबुद्दीन सरीखे खतरनाक अपराधी को अपना “रोबिनहुड मान कर पांच बार लोक सभा में चुनता हो , एक समाज जहाँ भ्रष्टाचार के आरोप के बावजूद कोई लालू यादव देश की छाती पर सत्ता की चक्की से वर्षों तक मूंग दलता हो उसमें वंशवाद को पार्टियों के चरित्र से हटाना और प्रजातान्त्रिक तरीके से नेता चुनने की अपेक्षा रखना मूल सत्य से मुंह मोड़ना होगा. क्या भारतीय जनता पार्टी में अमित शाह किसी आतंरिक चुनाव से आये थे? क्या वेंकैया , ज ना कृष्णमूर्ति या कुशाभाऊ ठाकरे कार्यकर्ताओं के बैलट से पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे. अगर नेहरु परिवार वंशवाद का दोषी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मात् संगठन के रूप में वही करता है. 
मूल प्रश्न जनता की समझ को लेकर है कि वह कांग्रेस को नेहरु परिवार का पर्याय समझती है . विश्लेषण इस बात का होना चाहिए कि क्या जनता के इस “राजा के प्रति समर्पण” के प्राचीन भाव को नेहरु परिवार ने ७० साल में सत्ता पाने का साधन मात्र माना या अपने को जन सेवा में समर्पित किया और अगर किया तो कितना और कितनी सही दिशा में.    
भारत के पहले प्रधानमंत्री और देश के मकबूल रहनुमा पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भारत के गणतंत्र बनने के एक साल में हीं सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और राष्ट्रपति के वहां प्राणप्रतिष्ठ समारोह में जाने का पुरजोर विरोध करते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताया. यह वह काल था जब उनके सेकुलरिज्म के यूरोपीय स्वरुप के प्रति आस्था पर अंकुश लगाने के लिए न तो महत्मा गाँधी जिंदा थे न हीं सरदार पटेल. उसके २६ साल बाद उनकी पुत्री और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने आपातकाल के शासन के दौरान इस सेकुलरिज्म को संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के जरिये जोड़ कर कंफ्यूजन को और बढ़ा दिया या सत्य को स्वीकार न करने का स्वांग करने लगी. सत्य अगर ज्यादा दिन नज़रंदाज़ हो तो इतिहास करवट लेने लगता है. अगले आठ वर्षों में हीं याने १९८४ में राम मंदिर को लेकर हिंदू समाज उद्वेलित करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् खडा हो गया. इतिहास ने करवट ली. आन्दोलन जोर पकड़ता गया. अगले पांच साल बाद उनके नाती (इंदिरागांधी के पुत्र) राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में अहसास होने लगा इतिहास की गलतियों को नज़रंदाज़ करने का. १९८९ में अयोध्या में युवा राजीव ने आम चुनाव के पहले राम मंदिर के शिलान्यास का फैसला किया और अपने भाषण में पांच बार राम का नाम लिया. पर चूंकि पुरखों का भाव ठीक उल्टा था इसलिए इस टोकेनिस्म ने हिन्दुओं को तो प्रभावित किया हीं नहीं, मुसलमान भी बिदक गए. यूं पी , बिहार सहित देश के अन्य भागों में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह के फैसले ने समाज में एक नए जाति आधारित दबाव समूह को जन्म दिया. अयोध्या में राजीव के मंदिर के शिलान्यास के रवैये से नाराज़ मुसलमान इन तथाकथित “सामाजिक न्याय की ताकतों” के साथ हो चले. कांग्रेस की हालत  “न खुदा हीं मिला , न विशाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे” वाली हो गयी. कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी और रही भी तो गठजोड़ करके. वोट प्रतिशत गिरता गया. लेकिन फिर भी चूंकि तासीरन भारतीय समाज अहसान फरामोश नहीं था इसलिए फिर से कांग्रेस को शासन में आई और यह दौर विदेशी मूल की लेकिन राजीव की पत्नी सोनिया का था भले हीं शासन मनमोहन सिंह का. 
इस बीच इतिहास एक बार फिर करवट लेता है. हिंदू एकता धीरे -धीरे परवान चढ़ती है क्योंकि किसी लालू , किसी मुलायम या किसी मायावती से भी वही टोकेनिस्म मिला. अशिक्षित या दबे समाज में सामूहिक चेतना का स्तर अतार्किकता की भेंट चढ़ जाता है. मायावती , मुलायम या लालू भ्रष्टाचार के पर्याय बनाने लगे लेकिन लालू के वोटर (यादव) इस बात पर हीं क्रुद्ध थे “कि जगन्नाथ बाबू (तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र) भ्रष्टाचार करें तो ठीक लेकिन मेरा नेता करे तो गलत ?”  शुरू में दलित इस बात से हीं खुश था कि उनकी नेता मयावती भी उच्च जाति के नेताओं की तरह साम्राज्ञी की तरह लाखों रुपये का हार पहनती हैं.  मायावती का भ्रष्टाचार दलितों के लिए सशक्तिकरण का पर्याय बन गया.  कांग्रेस हाशिये पर आने लगी .  
इस उहापोह में कांग्रेस में फूट पडी . नेहरु परिवार का वर्चस्व एक बार फिर दरकने लगा. कोई अर्जुन सिंह , कोई कमलापति या कोई नारायण दत्त तिवारी राजीव गाँधी के नेतृत्व का विरोध करने लगे और कुछ तो अलग पार्टी बनाने का उपक्रम भी करने लगे. कोई प्रधानमंत्री नरसिंह राव सोनिया को चुनौती देने लगा . लेकिन सदियों तक गुलाम रही जनता एकल नेतृत्व की हिमायती है लिहाज़ा सोनिया फिर कांग्रेस का नेतृत्व संभालने लगीं, मनमोहन सिंह मात्र प्रधानमंत्री थे शासन सोनिया के इर्दगिर्द हीं रहा . इस बीच कांग्रेस सत्ता में तो आयी पर कैडर संरचना के अभाव में और नेता -कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता से मनमोहन सरकार के अच्छे कार्यक्रम भी जनता के बीच नहीं जा सके . साझा सरकार में समझौते होते हैं लिहाज़ा मनमोहन सिंह की ईमानदारी बाँझ साबित हुई और भ्रष्टाचार का बोलबाला जनता को निराश करने लगा. 
इस बीच हिंदू साम्प्रदायिकता परवान चढने लगी. नरेन्द्र मोदी विकास और हिंदू अस्मिता के पर्याय के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर छाने लगे. 
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी बीमार रहने लगीं. राहुल ने जयपुर कांग्रेस अधिवेशान के दौरान एक भावनात्मक भाषण दिया जिसे देशवासियों ने भी टेलीविज़न के जरिये सुना. उसका सार यह था कि राहुल राजनीति को अन्यमनस्क भाव से लेते हैं. अगले कुछ सालों में देश में जब भी कोई बड़ी घटना हुई और देश ने एक मजबूत विपक्ष या नेता की जरूरत महसूस की राहुल गायब पाए गए. लेकिन गुजरात चुनाव में अचानक जिस शिद्दत  से राहुल ने चुनाव प्रचार किया एक बार फिर लगाने लगा कि देश को एक युवा और मकबूल नेतृत्व मिल सकता है. इस दौरान  राहुल गाँधी उसी मंदिर में गुजरात चुनाव प्रचार किया जिस मंदिर के शिलान्यास का उनके परनाना ने विरोश किया था. एक बार फिर लगने लगा कि नेहरू परिवार की पांचवीं पीढी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए तैयार है. राहुल को पार्टी का औपचारिक अध्यक्ष चुना जाना मात्र औपचारिकता है. 
लेकिन राहुल ने अपने पिता राजीव गाँधी से सीख लेते हुए कुछ नए ढंग से कांग्रेस की नीति में अमूल चूल परिवर्तन का फैसला किया है. नेहरु की धर्मनिरपेक्षता से ठीक उलट राहुल मंदिर-मंदिर जा रहे हैं (और मस्जिद नहीं). शायद कांग्रेस के रणनीतिकार समझ गए हैं कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश में जो उग्र हिंदुत्व देखने को मिला है वह भारत के आम हिंदू पसंद नहीं करते और कालांतर में वे इसे ख़ारिज करेंगे क्योंकि तासीरन हिन्दू उदारवादी संस्कृति का है और धर्म में भी वह उग्रता को ख़ारिज करता है. चूंकि उदार हिंदुत्व का स्लॉट खाली है लिहाज़ा कांग्रेस अगर उसे भर पाई तो पिछड़ा वर्ग और दलित एक बार फिर उसके साथ हो सकता है. राहुल की रणनीति सही है लेकिन जनता को अभी भी पूरी तरह यह भरोसा नहीं है कि राहुल गाँधी में राजनीति को लेकर एक निरंतरता रहेगी. अगर वह रही और जनता को विश्वास हो सका तो भारत को एक मजबूत विपक्ष और उदारवादी नेता मिल सकता है. यह प्रजातंत्र के लिए अच्छा होगा.     

lokmat

Monday 4 December 2017

आखिर हम बीमार क्यों रहते हैं ?


देश के जाने माने हॉस्पिटल चेन मैक्स के दिल्ली स्थिति एक नामी अस्पताल इकाई में एक महिल के जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए ---एक बेटा और दूसरी बेटी. डॉक्टरों ने बताया कि एक बच्चा मारा पैदा हुआ और दूसरा कुछ हीं क्षण बाद मर गया. जब दुखी माँ-बाप अपने सगे सम्बन्धियों के साथ इन “शवों” को अंतिम क्रिया के लिए ले जा रहे थे तो आधे रास्ते में पिता ने देखा कि एक “शव” में कुछ हरकत हो रही है. फ़ौरन उसे कफ़न से निकाल कर पास के अस्पताल में ले जाया गया. घंटों पॉलिथीन में ऑक्सीजन के अभाव में बंद बच्चे की स्थिति गंभीर हो गयी थी. बहरहाल उसका इलाज़ चल रहा है. मीडिया में खबर के बाद देश के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले का संज्ञान लिया. एक अन्य नामी गिरामी हॉस्पिटल चेन--- फोर्टिस--- के गुडगाँव इकाई ने सात साल की एक बच्ची के १५ दिन चले असफल इलाज़ (बच्ची मर गयी) में पिता को १६ लाख रुपाए का बिल पकड़ा दिया गया. सोशल मीडिया और बाद में औपचारिक मीडिया में उछले इस खबर के बाद फिर मंत्री ने संज्ञान लिया. तीसरे मामले में नॉएडा के हीं एक इसे मशहूर अस्पताल में एक व्यक्ति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी तीन दिन पहले मर चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने वेंटीलेटर पर रख कर तीन दिनों में हजारों रुपये का बिल बनाया. लेकिन चूंकि मीडिया ने इस मामले को उस पुरजोर तरीके से नहीं उठाया लिहाज़ा मंत्री जी ने संज्ञान भी नहीं लिया.
ये तीनों घटनाएँ पिछले १५ दिन के भीतर घटीं हैं. इनसे तीन निष्कर्ष निकलते हैं. आप या आपका बच्चा बीमार पड़े तो प्राइवेट बड़े अस्पताल में जाने के बाद तीन बातों का ध्यान रखें. अस्पताल में जरूरी नहीं कि इलाज हो और अगर हो तो मरीज़ बच हीं जाये. फिर कब मरे और कब मरना बताया जाये यह भी अस्पताल और डॉक्टर के “प्रोफेशनल बुद्धिमत्ता” पर निर्भर करेगा . अगर मरना बता भी दिया गया तो ज़रूरी नहीं कि यह सच हो इसलिए गम करते हुए उसे शमशान ले जाने के पहले एक बार किसी और डॉक्टर से दिखा लें. और आखिर में अगर मरीज़ मर भी गया हो तो आप उस बिल के सदमें से न मरें. इससे दो सीख और भी हैं. अगर आप अस्पताल और उसके बिल से मरने से बच भी गए तो कम से कम सोशल मीडिया में ट्विट जरूर करें. औपचारिक मीडिया तभी मामले का न्यूज महत्त्व समझता है जब वह सोशल मीडिया में वाइरल हो जाता है वरना उसे बाबा राम रहीम और हनी प्रीत और उनके बेडरूम से फुर्सत नहीं होती. जब सोशल मीडिया में वायरल होगा तो शाम को एक कम पढ़ा लिखा लेकिन बुलंद आवाज वाला एंकर -एडिटर चीख-चीख कर बताएगा और उतनी हीं चीख के साथ सत्ताधारी दल का उतने हीं अज्ञानी प्रवक्ता अपने विपक्षी प्रतिद्वन्दी के साथ “तेरा-नेता , मेरा नेता “ करते हुए टी आर पी बढ़ने में चैनल का सहयोग करेगा. आख़िरी बात : मंत्री जी को जगाने के लिए आवाज बुलंद हीं नहीं हो , मीडिया में हो.
क्या हो गया हैं इस देश की नैतिकता , समझ और कर्तव्यबोध को. क्या हत्या का अपराध सिर्फ चौराहे पर गोली मारने को कहा जाना चाहिए. कम से कम दस साल पढ़ाई और हाउसजॉब के बाद किसी डॉक्टर से यह अपेक्षा की जा सकती है वह हमारी - आपकी की टैक्स के रूप में वसूली गयी रकम के लाखों रुपये खर्च करने के बाद इतना ज्ञानी (या जिम्मेदार) तो हो हीं कि जिन्दा और मरे में अंतर कर सके? मोदी सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने ओड़िसा एम्स में डॉक्टरों को संबोधित करते हुए सन २०१४ की २० जुलाई को बताया था कि एक डॉक्टर बनाने में सरकार जनता के टैक्स का आठ से दस करोड़ रुपया खर्च करती है. तो फिर इनमें से कुछ डॉक्टर (सभी नहीं क्योंकि नैतिक प्रैक्टिस के भी तमाम उदाहरण हैं) इतना अनैतिक (आपराधिक) क्यों होते हैं कि अस्पताल का और अपना बिल बढाने के लिए मरे व्यक्ति को कई दिन तक वेंटीलेटर पर रख कर “धंधा” करे? क्या यह संगठित अपराध की परिभाषा में नहीं अना चाहिए ? जेब काटने वाले गरीब को तो हर कोई पकडे जाने पर दो हाथ लगा देता है और कानून भी मुश्तैद हो जाता है पर जब हम इन “तथाकथित रूप से पढ़े लिखे लोगों वाले और संस्थागत अस्पताल के नाम पर चल रहे “ क्राइम सिंडिकेट” से खुद शोषण के लिए जाते हैं तो उनका दोष तभी होता है जब मंत्री जी को मीडिया के जरिये बताया जाये. एम आर पी पर दवा भी अस्पताल हीं देगा क्योंकि निर्माता कंपनी से समझौता है कि दूकान से न बेंचों. पेटेंट की जगह जेनेरिक दावा लिखवाने के सारे सरकारी प्रयास विफल रहे और डॉक्टर महंगी दावा लिख कर कंपनियों से मोटी रकम कमीशन के रूप में वसूलते रहे या विदेश परिवार के साथ घूमने या अकेले रंगरेलियां मानते जाते रहे . कभी भी इनकम टैक्स विभाग ने इनके खर्च के स्रोत का पता नहीं किया. मेडिकल सेमिनार के नाम पर पांच तारा होटलों में दारू पार्टियाँ (जिसका बिल ये दवा कंपनियां भरती हैं) कैसे नए चिकित्सा-ज्ञान बढाने का सबब बनती हैं कभी किसी सरकार ने नहीं पूछा .
तस्वीर का दूसरा पहलू
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अगर आप बिहार में पैदा हुए हैं तो वहां की सरकार आपके स्वास्थ्य पर मात्र ३३८ रुपये खर्च करेगी जबकि हिमाचल, उत्तराखंड या केरल में पैदा हुए हैं तो क्रमशः इसके छः गुना, पांच गुना और चार गुना खर्च करेगी. इसका दूसरा मतलब यह कि उपयुक्त सरकारी सुविधा के अभाव में आप बिहार , उत्तर प्रदेश या झारखण्ड में गरीब होते हुए भी आप अपनी जेब से इस खर्च का पांच गुना खर्च करेंगे भले हीं इसके लिए आपको घर या जमीन बेंचना पड़े. गुजरात और महाराष्ट्र में प्रति-व्यक्ति स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च क्रमशः १०४० और ७६३ रुपये है. उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेरिया पर काबू पाने में बुरी तरह असफल रहा और आज ७० साल बाद भी केवल आठ प्रतिशत मलेरिया के मामले हीं सर्विलांस के जरिये संज्ञान में आते हैं . इस मामले में भारत नाइजीरिया के समकक्ष खड़ा है. बाल मृत्यु दर और मात्र मृत्यु दर, जन्म के समय बच्चे के वजन या कुपोषण ऐसे पैरामीटर्स पर भारत आज भी बेहद पीछे है. इसका कारण यह है कि जहाँ हम देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का मात्र एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य मद में खर्च करते हैं वहीं चीन और तमाम छोटे -छोटे देश चार प्रतिशत तक खर्च करते हैं. हालांकि मोदी सरकार के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री जी पी नड्डा ने संसद के सदन में नयी स्वास्थ्य नीति रखते हुए इसे जी डी पी का २.५ प्रतिशत तक लाने का संकल्प बताया था लेकिन जब बजट आया तो वह कहीं भी परिलक्षित नहीं हुआ.

तो गरीब क्या करे? सरकारी अस्पताल में दवा नहीं, डॉक्टर नहीं , इलाज के उपकरण नहीं और मंशा भी नहीं. प्राइवेट में अस्पतालों में संगठित गैंग के रूप में डॉक्टर और नर्सिंग होम के मालिक का गिरोह किसको मरा बता दे , किसकों मरने के बाद भी वेंटीलेटर पर रख कर बिल बढ़ा दे और किसे गलत मर्ज बता कर ज्यादा दिन अस्पताल में रखे यह उसके विवेक (धंधे की जरूरत ) पर है. क्या कानून बनाकर जीवन से अनैतिक व्यापर करने वालों पर अंकुश लगना सरकार की जिम्मेदारी नहीं? ऐसे में गरीब जाये तो जाये कहाँ लिहाज़ा बीमार होने पर घर या जमीन बेंच कर जिन्दा रहने की कोशिश (अगर रह पाया) हीं उसकी नियति हो चली है

lokmat