प्रजातंत्र की अजब नियति है, कहने को तो यह
प्रजा का तंत्र होता है, लेकिन इसमें स्वत: ही एक सुविधाभोगी वर्ग विकसित होता है, जो
थोड़ा-थोड़ा भ्रष्ट होने का मौका मिले तो खांटी भ्रष्ट बन सकता है, और ना मिले तो
सरकारी गाड़ी में बजरंगबली के मंदिर जाकर नैतिक भी हो जाता है.यहां तक कि अन्ना
हजारे के भ्रष्टाचार के आंदोलन में भी खड़ा दिखाई देता है,लेकिन शाम को सत्ता के
नाम पर उगाहे हुए धन का बंटवारा भी कर
लेता है.
अभी हाल में अरविंद केजरीवाल और आप पार्टी की
इसने बुराई की. इसको एतराज है कि अरविंद सुरक्षा क्यों नहीं लेते. इसको यह भी
ऐतराज है कि अरविंद संविधान की शपथ लेने के बाद दफा 144 तोड़कर धरने पर क्यों
बैठते हैं. इसको इस बात का भी मलाल है कि आप पार्टी को मौका मिला तो दिल्ली में
शासन क्यों नहीं चलाया. और इसका मानना है कि आप पार्टी लोकसभा चुनाव के बाद
मृतप्राय हो जाएगी.
दरअसल, आप 65 साल के सड़े सिस्टम के खिलाफ उपजे
जनाक्रोश की पैदाइश है, यह कोई सामान्य राजनीतिक पार्टी नहीं है जिसका परंपरागत
तौर पर कैडर होता है, विचार होता है. यथास्थितिवादी सुविधाभोगी वर्ग का यह भी आरोप
है कि आप ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा,क्योंकि इसमें विचारधारा नहीं है. वास्तव में
आप की एक ही विचारधारा है और वह है इस सड़े सिस्टम को बदलना, और यह विचारधारा उसकी
अपनी नहीं है बल्कि देश में उपजी उस सामूहिक चेतना की है जो भारत में पहली बार
देखने को मिल रही है. जब तक आप के लोग इस सिस्टम से टकराते रहेंगे,कानून व्यवस्था
को चुनौती देते रहेंगे,और यथास्थितिवादियों के जनमानस को झकझोरते रहेंगे, तब तक जिंदा
रहेंगे.
उदाहरण के लिए संविधान में कहीं भी नहीं लिखा है
कि संसद में कानून बनाने के लिए केंद्र की इजाजत चाहिए,लेकिन तत्कालीन सत्ता ने
बड़ी ही चालाकी से एनसीटी कानून में इस बात का जिक्र किया है. अब यथास्थितिवादियों
के तर्क के अनुसार जबतक यह कानून है तबतक दिल्ली के मुख्यमंत्री को इस कानून का
अनुपालन करना होगा. यानि अरविंद केजरीवाल लोकपाल बिल लाने के लिए केंद्र का मुंह
तांके या अदालत की चौखट पर जाकर कानून को खारिज कराएं, हम सब हकीकत जानते हैं कि
केंद्र इजाजत नहीं देगा और अदालत से फैसला आने में कुछ साल लगेंगे.
एक और उदाहरण लें, मुख्यमंत्री ने चूंकि संविधान
की शपथ ली है, इसलिए दफा 144 का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. अगर तोड़ना है तो अदालत
में जाकर सिद्ध करना होगा कि रेल भवन में धरना देने के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा
लगायी गयी दफा 144 गलत है. संविधान के अनुच्छेद (१९(२) में राज्य को लोक-व्यवस्था
के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी बाधित करने के अधिकार तो दिए गए हैं लेकिन यह भी कहा
गया है कि वह “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिजनेबल रेसट्रिकशन”) हो. याने इसमें
प्रतिबन्ध लगने के पहले दिमाग का उपयोग किया जाये. इस मामले में दिल्ली व केंद्र
के शासन और प्रशासन ने दिमाग का प्रयोग
नहीं किया. केंद्र सरकार अगर चाहती तो रेल भवन के ट्रैफिक को इंडिया गेट की तरफ से
निकाल सकती थी, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री को इसके लिए अदालत जाना पड़ता और कुछ
महीने निकल जाते और यही कुछ यथास्थितिवादी चाहते थे.
तीसरा उदहारण लें. जब मीडिया आप पार्टी और
अरविन्द केजरीवाल को हाथों –हाथ लेती थी तब वह किसी मोदी या मिकेश अम्बानी के हाथ
में नहीं खेलती थी लेकिन जैसे ही मीडिया अरविन्द और आप के सत्तानशीं होने के बाद
नकारात्मक विश्लेषण के भाव में आई (जो मीडिया का मूल धर्म है) अरविन्द के लोगों ने
पानी पी कर इसे मोदी और मुकेश के पैसे पर बिका बताने लगी. लेकिन फिर भी अरविन्द की
पार्टी के लिए यह जिंदा रहने की पहली शर्त है कि वह हर संस्था को ज़मींदोज़ करे.
लालू , कांसीराम या तथाकथित सामाजिक न्याय की ९० दशक में उभरी सभी जातिवादी पार्टियों
ने भी यही किया था. लेकिन आप को अगर इस जनाक्रोश को बनाये रखना है अपने पक्ष में
तो संस्थाओं को गिराने के साथ सार्थक संस्थाएं भी लाना होगा. वरना लालू का हश्र
सामने है.
शोले में गब्बर सिंह ने कहा था “बसंती जब तक तुम्हारे पैर
चलेंगे तब तक इसकी (वीरू) की सांसे चलेंगी, ” अरविंद या “आप” की राजनीति के जिंदा रहने की भी यही शर्त है कि हर पल इस सड़ी व्यवस्था को
चुनौती देते रहें,जब तक यह चुनौती जनाक्रोश के अनुरूप रहेगी तब तक आप पार्टी जिंदा
रहेगी,अन्यथा यह भी किसी बसपा या सपा की तरह सीमित होकर रह जायेगी .
जाने माने विद्वान गिब्बन ने कहा था “भ्रष्टाचार संवैधानिक
स्वछंदता (लिबर्टी) का अपरिहार्य रोग है” कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इस लिबर्टी का फायदा व्यक्तियों को
देने के चक्कर में पूरे समाज को भ्रष्टाचार के रोग का शिकार बना रहे हैं. बाद के
विद्वानों ने गिब्बन की इस अवधारणा को संशोधित करते हुए बताया कि दोष इस संवैधानिक
स्वछंदता का नहीं बल्कि प्रजातंत्र में खड़ी की गई संस्थाओं, उनके प्रतिनिधियों व
जनता की भ्रष्टाचार को लेकर बनी सहिष्णुता का है। अगर समाज में नैतिकता को लेकर
उदासीनता बनी रहेगी तो कानून और संस्थाएं कुछ भी नहीं कर पाएंगी. आज जरूरत इस बात
की है कि समाज में व्यक्ति के नैतिक आचरण को लेकर गुणात्मक परिवर्तन किया जाये
ताकि शीर्ष पर वही लोग बैठे जिनकी ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न लग ही ना सके. फिर
ना तो किसी अन्ना की जरूरत होगी ना ही कोई राजा पैदा होगा.सीएजी एक संवैधानिक संस्था
है और उस की रिपोर्ट सरकार में बैठे लोग भी उसी सम्मान से लेंगे जो सम्मान
अपेक्षित है और फिर गलतियों को दूर करने की कोशिश करेंगे.
आज प्रश्न यह नहीं है कि मोदी सत्ता पाते है या
अरविन्द केजरीवाल या राहुल. जनता को यह सोचना होगा कि उसका भ्रष्टाचार के प्रति
उपजा ६५ साल से सुलग रहा गुस्सा जो इस सड़े सिस्टम के खिलाफ “जीरो टोलरेंस” बन कर
उभरा है वह वोट दे कर किसी इस या उस नेता को या पार्टी को लाने के बाद शांत तो
नहीं हो जाता. अगर ऐसा हुआ तो अगले ५० साल तक हमारी बच्चे कोयला घोटाला, २-जी घोटाला , या कामनवेल्थ
घोटाला के दंश के बीच दम तोड़ते रहेंगे. भावी पीढ़ी शायद हमें माफ़ ना करे.
lokmat