Saturday 8 March 2014

संस्थाओं को ढहाना “आप” के जिंदा रहने की शर्त लेकिन कब तक ?






प्रजातंत्र की अजब नियति है, कहने को तो यह प्रजा का तंत्र होता है, लेकिन इसमें स्वत: ही एक सुविधाभोगी वर्ग विकसित होता है, जो थोड़ा-थोड़ा भ्रष्ट होने का मौका मिले तो खांटी भ्रष्ट बन सकता है, और ना मिले तो सरकारी गाड़ी में बजरंगबली के मंदिर जाकर नैतिक भी हो जाता है.यहां तक कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के आंदोलन में भी खड़ा दिखाई देता है,लेकिन शाम को सत्ता के नाम  पर उगाहे हुए धन का बंटवारा भी कर लेता है.
अभी हाल में अरविंद केजरीवाल और आप पार्टी की इसने बुराई की. इसको एतराज है कि अरविंद सुरक्षा क्यों नहीं लेते. इसको यह भी ऐतराज है कि अरविंद संविधान की शपथ लेने के बाद दफा 144 तोड़कर धरने पर क्यों बैठते हैं. इसको इस बात का भी मलाल है कि आप पार्टी को मौका मिला तो दिल्ली में शासन क्यों नहीं चलाया. और इसका मानना है कि आप पार्टी लोकसभा चुनाव के बाद मृतप्राय हो जाएगी.
दरअसल, आप 65 साल के सड़े सिस्टम के खिलाफ उपजे जनाक्रोश की पैदाइश है, यह कोई सामान्य राजनीतिक पार्टी नहीं है जिसका परंपरागत तौर पर कैडर होता है, विचार होता है. यथास्थितिवादी सुविधाभोगी वर्ग का यह भी आरोप है कि आप ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा,क्योंकि इसमें विचारधारा नहीं है. वास्तव में आप की एक ही विचारधारा है और वह है इस सड़े सिस्टम को बदलना, और यह विचारधारा उसकी अपनी नहीं है बल्कि देश में उपजी उस सामूहिक चेतना की है जो भारत में पहली बार देखने को मिल रही है. जब तक आप के लोग इस सिस्टम से टकराते रहेंगे,कानून व्यवस्था को चुनौती देते रहेंगे,और यथास्थितिवादियों के जनमानस को झकझोरते रहेंगे, तब तक जिंदा रहेंगे.
उदाहरण के लिए संविधान में कहीं भी नहीं लिखा है कि संसद में कानून बनाने के लिए केंद्र की इजाजत चाहिए,लेकिन तत्कालीन सत्ता ने बड़ी ही चालाकी से एनसीटी कानून में इस बात का जिक्र किया है. अब यथास्थितिवादियों के तर्क के अनुसार जबतक यह कानून है तबतक दिल्ली के मुख्यमंत्री को इस कानून का अनुपालन करना होगा. यानि अरविंद केजरीवाल लोकपाल बिल लाने के लिए केंद्र का मुंह तांके या अदालत की चौखट पर जाकर कानून को खारिज कराएं, हम सब हकीकत जानते हैं कि केंद्र इजाजत नहीं देगा और अदालत से फैसला आने में कुछ साल लगेंगे.
एक और उदाहरण लें, मुख्यमंत्री ने चूंकि संविधान की शपथ ली है, इसलिए दफा 144 का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. अगर तोड़ना है तो अदालत में जाकर सिद्ध करना होगा कि रेल भवन में धरना देने के खिलाफ केंद्र सरकार द्वारा लगायी गयी दफा 144 गलत है. संविधान के अनुच्छेद (१९(२) में राज्य को लोक-व्यवस्था के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी बाधित करने के अधिकार तो दिए गए हैं लेकिन यह भी कहा गया है कि वह “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिजनेबल रेसट्रिकशन”) हो. याने इसमें प्रतिबन्ध लगने के पहले दिमाग का उपयोग किया जाये. इस मामले में दिल्ली व केंद्र के शासन और  प्रशासन ने दिमाग का प्रयोग नहीं किया. केंद्र सरकार अगर चाहती तो रेल भवन के ट्रैफिक को इंडिया गेट की तरफ से निकाल सकती थी, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री को इसके लिए अदालत जाना पड़ता और कुछ महीने निकल जाते और यही कुछ यथास्थितिवादी चाहते थे.
तीसरा उदहारण लें. जब मीडिया आप पार्टी और अरविन्द केजरीवाल को हाथों –हाथ लेती थी तब वह किसी मोदी या मिकेश अम्बानी के हाथ में नहीं खेलती थी लेकिन जैसे ही मीडिया अरविन्द और आप के सत्तानशीं होने के बाद नकारात्मक विश्लेषण के भाव में आई (जो मीडिया का मूल धर्म है) अरविन्द के लोगों ने पानी पी कर इसे मोदी और मुकेश के पैसे पर बिका बताने लगी. लेकिन फिर भी अरविन्द की पार्टी के लिए यह जिंदा रहने की पहली शर्त है कि वह हर संस्था को ज़मींदोज़ करे. लालू , कांसीराम या तथाकथित सामाजिक न्याय की ९० दशक में उभरी सभी जातिवादी पार्टियों ने भी यही किया था. लेकिन आप को अगर इस जनाक्रोश को बनाये रखना है अपने पक्ष में तो संस्थाओं को गिराने के साथ सार्थक संस्थाएं भी लाना होगा. वरना लालू का हश्र सामने है.
शोले में गब्बर सिंह ने कहा था बसंती जब तक तुम्हारे पैर चलेंगे तब तक इसकी (वीरू) की सांसे चलेंगी, अरविंद या आप की राजनीति के जिंदा रहने की भी यही शर्त है कि हर पल इस सड़ी व्यवस्था को चुनौती देते रहें,जब तक यह चुनौती जनाक्रोश के अनुरूप रहेगी तब तक आप पार्टी जिंदा रहेगी,अन्यथा यह भी किसी बसपा या सपा की तरह सीमित होकर रह जायेगी .
जाने माने विद्वान गिब्बन ने कहा था भ्रष्टाचार संवैधानिक स्वछंदता (लिबर्टी) का अपरिहार्य रोग है कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इस लिबर्टी का फायदा व्यक्तियों को देने के चक्कर में पूरे समाज को भ्रष्टाचार के रोग का शिकार बना रहे हैं. बाद के विद्वानों ने गिब्बन की इस अवधारणा को संशोधित करते हुए बताया कि दोष इस संवैधानिक स्वछंदता का नहीं बल्कि प्रजातंत्र में खड़ी की गई संस्थाओं, उनके प्रतिनिधियों व जनता की भ्रष्टाचार को लेकर बनी सहिष्णुता का है। अगर समाज में नैतिकता को लेकर उदासीनता बनी रहेगी तो कानून और संस्थाएं कुछ भी नहीं कर पाएंगी. आज जरूरत इस बात की है कि समाज में व्यक्ति के नैतिक आचरण को लेकर गुणात्मक परिवर्तन किया जाये ताकि शीर्ष पर वही लोग बैठे जिनकी ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न लग ही ना सके. फिर ना तो किसी अन्ना की जरूरत होगी ना ही कोई राजा पैदा होगा.सीएजी एक संवैधानिक संस्था है और उस की रिपोर्ट सरकार में बैठे लोग भी उसी सम्मान से लेंगे जो सम्मान अपेक्षित है और फिर गलतियों को दूर करने की कोशिश करेंगे.  
आज प्रश्न यह नहीं है कि मोदी सत्ता पाते है या अरविन्द केजरीवाल या राहुल. जनता को यह सोचना होगा कि उसका भ्रष्टाचार के प्रति उपजा ६५ साल से सुलग रहा गुस्सा जो इस सड़े सिस्टम के खिलाफ “जीरो टोलरेंस” बन कर उभरा है वह वोट दे कर किसी इस या उस नेता को या पार्टी को लाने के बाद शांत तो नहीं हो जाता. अगर ऐसा हुआ तो अगले ५० साल तक हमारी बच्चे  कोयला घोटाला, २-जी घोटाला , या कामनवेल्थ घोटाला के दंश के बीच दम तोड़ते रहेंगे. भावी पीढ़ी शायद हमें माफ़ ना करे.

lokmat

बदलते जन-संवाद के कारण अलग होगा यह आम चुनाव



कई मायनों में यह आम चुनाव जो १६वीं लोक सभा को चुनने (यानि कौन दल या दल समूह अगले पांच साल रु. १८ लाख करोड़ बजट वाले देश को शासित करेगा तय करने) के लिए हो रहां है, महत्वपूर्ण होगा. पहली बार देश में सामूहिक चेतना ने व्यवस्था के खिलाफ अंगड़ाई ली है. आबादी में युवाओं का प्रतिशत बढना, शिक्षा का प्रसार , समाज में मीडिया द्वारा लाये गए बहु-पक्षीय तथ्य और उससे पैदा हुई   तर्क –शक्ति सबने मिल कर इस चेतना में सामूहिक व व्यक्तिगत स्तर पर गुणात्मक परिवर्तन किया है. नतीजा यह हुआ कि जनता का ६५ साल से सड़ रहे सिस्टम पर जबरदस्त आक्रोश पनप गया है.  राजनीतिक संवाद पिटे –पिटाए मंदिर, मस्जिद से हट कर या जाति-आधारित आरक्षण या दाढ़ी वाले मुल्ला बनाम चन्दन वाले पंडित से हट कर आई एम् आर (बाल मृत्यू दर ) और एम् एम् आर (मातृ मृत्यू दर ) तक पहुंचा. चर्चा होने लगी विकास का मोदी माडल सही या नितिश माडल या फिर सशक्तिकरण के लिए केंद्र द्वारा बनाया गया सूचना का अधिकार ज्यादा जनोपादेय या खाद्य सुरक्षा कानून.     
राजनीति-शास्त्र की अवधारणा के अनुसार “अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे वास्तविक मुद्दों पर हावी हो जाते हैं”.  राजनीतिक दलों को विचारधारा के तलवार की धार  पर चलने की जगह तर्क-सम्मत या वैज्ञानिक सोच की जगह क्रोध, प्रतिशोध, रोबिन हुड इमेज (जिसमें डकैत इसलिए स्वीकार्य होता है कि वह राज्य अभिकरणों से लड़ता है और सीधे अपने जाति के चुनिन्दा गरीबों की मदद करता है याने अमीरों को लूट कर गरीब की बेटी की शादी में कुछ पैसा खर्च करता है) अंगीकार करना आसान होता है . इसके ठीक उल्टा समाज की सोच बदल रही है. पहली बार १८ से ३५ साल के मताधिकार प्राप्त युवाओं के ४७ प्रतिशत होना. इनमें १८ से २३ साल के करीब नौ करोड़ युवा पहली बार वोट देंगे.
ये ३९ करोड़ युवा उस नए युग के हैं जिसमें पिछले पांच वर्षों में फेसबुक और ट्विटर पर अपना अधिकाँश समय बिताना शुरू किया है. जिसके पास सूचना का विस्फोट है. देश में इस दौरान कुल २४ करोड़ परिवारों में से १६ करोड़ के पास टीवी सेट हैं , हर घर में ३.५ मोबाइल सेट्स है, हर पांच मोबाइल सेटों में एक इंटरनेट सुविधायुक्त है. सूचना की बाढ़ उसके पास आती हीं नहीं है , उसको बहा ले जाती है और वह उसमें डूबता-उतराता एक दूसरे के साथ अपना विचार –व्यक्त करता है. नतीजा यह होता है कि सिस्टम की खराबी जब किसी आदर्श घोटाले या कोयला आबंटन में गड़बड़ी के रूप में उसके पास आती है तो वह ना केवल अपना विचार बनाता है बल्कि शाम तक टीवी चैनलों पर उसके तर्क शक्ति को बढाने वाले हर पक्ष के तमाम तर्क वाक्य भी उसे उपलब्ध रहते हैं. उदाहरण के तौर पर, आप नेता अरविन्द केजरीवाल गुजरात में पुलिस द्वारा रोके गए. दिल्ली में आप के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के ऑफिस पर प्रदर्शन के लिए आधे घंटे में नेट के जरिये सौ-डेढ़ सौ कार्यकर्ता बुला लिए. पहला तथ्य आया कि अरविन्द को गलत रूप से हिरासत में लिया गया. दूसरा तथ्य आया कि अरविन्द ने राज्य सरकार से मीटिंग की इज़ाज़त नहीं ली थी जब कि आचार संहिता लागू हो चुकी थी. तीसरा तथ्य आया कि भारतीय जनता पार्टी कार्यालय से पत्थर और कुर्सियां फेंकी गयी जिसमें कुछ कार्यकर्त्ता –मीडिया कर्मी घायल हुआ. चौथा तथ्य आया कि आप के लोगों ने भी पत्थर फेंका. उधर लखनऊ में बी जे पी –आप कार्यकर्ताओं में झड़प हुई जिसमें भाजपाइयों ने आप के लोगों को जमकर पीटा. ये सारे तथ्य विसुअल के साथ थे याने झूठ नहीं हो सकते. चलते –चलते पता चला कि एक कलेक्टर ने कहा कि अरविन्द ने कोई गलती नहीं कि थी और उन्हें तो अहतियातन रोह कर सलाह और सुरक्षा दी गयी थी.
ये तमाम तथ्य महज चार घंटों के अन्दर पूरी दुनिया को मिल चुके थे. अब प्रश्न था राय बनाने का. क्या दूसरी पार्टी के कार्यालय पर आप को प्रदर्शन करना चाहिए. प्रजातंत्र यह कितना भौंडा स्वरुप होगा कि मंत्री से नाराज लोग उसके घर पर प्रदर्शन करें या दो दलों के लोग आपस में कार्यालय के सामने भिड़ें. क्या यही ६५ साल की परिपक्वता की परिणति है? सक्दक न्याय चलेगा. भाजपा के लोग मजबूत और पत्थर से लैस हों तो वो जीती नहीं तो दूसरा  पक्ष ईंटा बरसा कर अपने सत्य को खडा  करेगा? फिर मुद्दा आया कि पहले ईंट किस तरफ से चला (जबकि अशोक रोड में दूर-दूर तक ईंट –पत्थर नहीं दिखाई देते). क्या पहला पत्थर कार्यालय से आया तो अगले चार पत्थर फेंकने का लाइसेंस आप के कार्यकर्ताओं को मिल जाता है?
८१ करोड़ मताधिकार प्राप्त लोगों ने इसे देखा. अपनी राय  बनाई. युवाओं ने उस राय  पर ट्वीट किया और प्रजातंत्र में मत –निर्माण की प्रक्रिया मजबूत हुई. भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरा जनाक्रोश भी इसी प्रक्रिया की उपज है. और यही वजह है कि मतदान का प्रतिशत , जो यूरोप के देशों में भी कम हो रहा है, भारत में बढ़ रहा है.
इस आक्रोश का एक पक्ष और है. धीरे-धीरे ट्विटर या अन्य साधनों के ज़रिये पारस्परिक संवाद के कारण संकुचित सोच भी ख़त्म हो रही है. जातिवाद की जगह सिस्टम के खिलाफ गुस्से ने ले ली है. कोयला घोटाले या आदर्श घोटाले से हर जाति का युवा रंज है. उसे यह लग रहा है कि यह ना होता तो उसकी नौकरी लग गयी होती , उसकी माँ का इलाज भी हो गया होता और गाँव की सड़क भी बन गयी होती.
ध्यान रहे कि इसी भारत के झारखण्ड में हर तीसरे दिन मनोविकार से पीड़ित भटकते हुए आयी महिला  को गाँव के लोग ईंट –पत्थर से मार डालते है यह कह कर कि डायन है और पूरे गाँव को खा जायेगी. इसी देश में पंचायत का फैसला आता है कि पीडिता से जिस युवक ने बलात्कार किया उसके भाई को इज़ाज़त है कि आरोपी की बहन के साथ वह भी बलात्कार करे.

भारत में इस समय प्रजातंत्र का बेहतर युग शुरू होने जा रहा है जिसमें राजनीति या तो स्वस्थ होगी या नेता भाग जायेंगे. अच्छा आचरण नेता बनने की पहली शर्त होगी. हो सकता है इस चुनाव में इसका पूरा मुज़ाहरा न हो पाए क्योंकि तीन हज़ार साल की दकियानूसी रातो-रात नहीं जा सकती परन्तु इस चुनाव में नेताजी “अपने लोग” की राजनीति कर चुनाव वैतरणी नहीं पार कर पाएंगे. साथ हीं बाहुबलियों या पैसे के दम पर चुनाव लड़ने वालों को टिकट देने शायद पार्टियों को महंगा पड़ सकता है.   

jagran