Thursday 14 July 2016

संवैधानिक प्रावधानों का सम्मान ज़रूरी

“मन की बात” मात्र आकाशवाणी से माह में एक बार कुछ पलों के लिये भले हीं हो यह माना जाता है कि मन निर्मल होता है और वह काल- और स्थिति –सापेक्ष नहीं होता बल्कि व्यक्ति का शाश्वत आभूषण होता है. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी “मन की बात “ करते हैं. एक निर्मल सन्देश का भाव होता है और देश भी उसे यथावत ग्रहण हीं नहीं करता अपितु अमल में लाता है. लेकिन जब देश के हीं दो राज्यों में छल करके सत्ता में आने का कुचक्र किया जाता है और उसे सुप्रीम कोर्ट “असंवैधानिक” करार देता है तो शंका होती है कि “निर्मल मन” से यह कैसी “गंगा” ?

सुप्रीम कोर्ट ने मात्र दो महीने के भीतर दो फैसले दिए और दोनों में केंद्र और राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न चिन्ह लगा और दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें पुनर्प्रतिष्ठापित की गयीं. ताज़ा फैसला जो कि अरुणाचल प्रदेश के बारे में है एक तरह से राज्यपाल को “दोषी” ठहराने की तरह है. विश्वास नहीं होता कि राज्यपाल की संस्था “दिल्ली दरबार” को खुश करने के लिए इस हद तक गिर सकती है. संविधान निर्माताओं ने इस संस्था को बेहद सम्मानित स्थिति देने चाहा था और इसी वजह से देश की दो संस्थाओं --- राष्ट्रपति और राज्यपाल – के शपथ का प्रारूप अनुच्छेद में रखा जबकि बाकि सभी संस्थाओं का ---- प्रधानमंत्री से लेकर विधायक तक और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश से लेकर हाई कोर्ट के जज तक --शपथ-प्रारूप अनुसूची में रखा. और साथ हीं जहाँ राष्ट्रपति व राज्यपाल संविधान के परिरक्षण, संरक्षण और अभिरक्षण की शपथ लेते हैं वहीं बाकि लोग यहाँ तक कि भारत के प्रधान न्यायाधीश को भी संविधान में निष्ठा की शपथ लेनी होती है.

लेकिन यहाँ सवाल सिर्फ राज्यपाल की भूमिका का नहीं है. संविधान के अनुच्छेद ३५६ में स्पष्टरूप से लिखा गया है कि “राज्यपाल की रिपोर्ट पाने या अन्यथा (याने किसी भी अन्य रिपोर्ट या सूचना के आधार पर) अगर राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ट है कि राज्य संवैधानिक प्रावधानों .......  “ . अर्थात केंद्र सरकार (१) राज्यपाल की बात मानने को बाध्य नहीं है  और  (२) वह अन्य साधनों से भी तथ्यों व स्थिति का पता लगा सकती है. इसलिए राज्यपाल के फैसले पर अगर राष्ट्रपति शासन लगाया गया है तो इस कृत्य का आरोप मात्र राज्यपाल पर नहीं बल्कि केंद्र पर लगता है. दूसरा १९९४ में सुप्रीम कोर्ट के नौ–सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला आज भारत में राज –काज (ऐसे मामलों) में बोम्मई जजमेंट के नाम से ध्रुव तारे की तरह दिशा बताता है. उस फ़ैसलै में स्पष्टरूप से राज्यपाल को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, केंद्र को किस बात का संज्ञान लेना चाहिए और कितना यह सब दिया गया है. लिहाज़ा केंद्र जब भी चाहे राज्यपाल (अगर वह केंद्र के इशारे पर काम नहीं कर रहा है) के फैसले को नज़रंदाज़ कर सकता है.

मान लीजिये कि केंद्र में शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी का यह तर्क मान भी लिया जाये कि अगर कोई पार्टी अपनी आतंरिक कलह के कारण टूट भी रही है तो क्यों न उसका फायदा उठाते हुए सरकार बनायी जाये, तो क्या यह देखना जरूरी नहीं कि दल-बदल विरोधी कानून, २००३ के प्रावधानों को ठेंगा न दिखाया जाये. इस कानून के अनुसार दल-बदल तभी वैध होगा जब किसी दल के दो-तिहाई विधायक पार्टी छोड़ें और किसी दूसरे दल में शामिल हों. इन दोनों राज्यों में टूटने वाले कांग्रेस विधायको की संख्या क़ानूनी सीमा से काफी कम थी. लिहाज़ा इसे किसी भी किस्म का समर्थन देना अनैतिक हीं नहीं गैर-कानूनी भी था. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के कुछ उत्साही नेताओं ने न केवल इन्हें भड़काया बल्कि इन्हें अपने होटलों में ठहराया और बाद में अपनी पार्टी में शामिल किया.

शायद पार्टी के शीर्ष नेताओं में संवैधानिक मर्यादाओं के प्रति अपेक्षित निष्ठा नहीं है जिसका नतीजा यह होता है कि आरोप की आंच सीधा प्रधानमंत्री मोदी तक पहुँच जाती है. कोई भी “सक्षम” प्रधानमंत्री यह नहीं चाहेगा कि देश को नयी उंचाइयों तक ले जाने के वायदे के लिए जनता में सरकार और उसके मुखिया के प्रति एक अपेक्षित विश्वास कहीं कम हो. राज्यों में चुनी हुई कांग्रेस सरकारों को असंवैधानिकरूप से हटाने के मामले में  तो मोदी को इस तर्क का भी लाभ नहीं मिल सकता कि “भारत माता की जय बोलने” या गौ मांस खाने वालों को पाकिस्तान ्भेजने के संघीय दुराग्रह से प्रधानमंत्री मजबूर हैं. फिर इस तरह के फैसले लेने का प्रयोजन भी क्या था – दो छोटे-छोटे राज्यों में छल करके सरकार बनाना? उत्तराखंड में तो वैसे भी कुछ माह में चुनाव होने वाले हैं. शायद प्रधानमंत्री को छोटी सोच वाले पार्टी व सरकार के रणनीतिकारों से बचना होगा.    

फिर सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों से देश भर में जो सन्देश गया वह यह कि राज्य की गैर-भाजपा सरकारों के प्रति केंद्र का अनैतिक हीं नहीं दमनकारी और वैमंस्य्तापूर्ण रवैया है. ऐसे में “सहकारी संघवाद” (को-ऑपरेटिव फेड़ेरालिस्म) के मोदी डॉक्ट्रिन का क्या होगा? विकास के लिए राज्यों का सहयोग अपरिहार्य है. क्या मोदी के तमाम जनोपयोगी कार्यक्रमों पर उसी शिद्दत से राज्य सरकारें अमल करेंगी? क्या मोदी को यह नहीं मालूम कि केंद्र अधिकांश कार्यक्रम उदासीनता की चौखट पर दम तोड़ देंगे अगर राज्यों का साथ न मिला? पर यह ओछी हरकत क्यों?              

अगले हफ्ते प्रधानमंत्री ने अंतर-राज्यीय परिषद् की बैठक बुलाई है. शायद मकसद है फिर से एक बार केंद्र –राज्य संबंधों में दुराव कम करना और विकास को आगे बढ़ने के लिए उनकी मदद मांगना जिसमें जी एस टी बिल के लिए राज्य सभा में समरथन हासिल करना भी शामिल है.  

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने सन २०० में गणतंत्र दिवस की स्वर्णजयंती समारोह के अवसर पर देश की संसद से राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था “आज हमें विचार करना होगा कि संविधान ने हमें असफल किया है या हमने संविधान को”. आगे उन्होने देश के प्रथम राष्ट्रपति डर राजेंद्र प्रसाद के कथन को उधृत किया --- अगर लोग जो चुने जा रहे हैं चरित्रवान और ईमानदार व्यक्तित्व वाले सक्षम (लोग) हैं तो वे एक खराब संविधान से भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं लेकिन अगर उनमें ये कमियां हैं तो एक बेहतरीन संविधान भी देश की मदद नहीं कर सकता”.

lokmat