भारत
में जब कोई किसी अंग्रेज़ी
बोलने वाले से (खासकर
अफसर से) या
ऐसी “मानसिकता” वाले व्यक्ति
से गुस्सा होता है तो उसे “भूरा
साहेब” हीं नहीं “मैकाले का
वंशज” भी
कहता है.
पाकिस्तान
में जब मलाला यूसुफ़जाई को
अक्टूबर, २०१२
में तहरीक-ए-तालिबान
ने गोली मारी तो औचित्य बताने
के लिए एक लम्बे पत्र में कहा
“मलाला भी मैकाले की अनुयायी
बन गयी थी”. इस
अंग्रेज़ समाजशास्त्री,
कानूनविद
और युगदृष्टा को १९० साल से
हिन्दू हो या मुसलमान,
भारत
हो या पाकिस्तान या बंगलादेश
सामान रूप से घृणा करते रहे
हैं. जबकि
उसके द्वारा बनाई गयी दंड
संहिता, साक्ष्य
कानून और सिविल सर्विस आज तक
तीनों देशों में यथावत या थोड़े
-बहुत
तब्दीलियों के साथ लागू है.
क्या
कभी हमने सोचा है कि जिस व्यक्ति
का हमने दानवीकरण कर दिया है
उसकी हकीकत क्या है?
कहीं
ऐसा तो नहीं कि झूठ और तथ्यों
को गलत सन्दर्भ में रखा गया
है? वेबसाइट
पर हीं नहीं, देश
के पाठ्यक्रमों में भी बच्चों
को गलत शिक्षा से भ्रमित किया
जाता रहा है. देश
के पूर्व प्रधानमंत्री और
आमतौर पर सत्य के प्रति आग्रही
के रूप में सम्मानित लालकृष्ण
आडवाणी सहित तमाम मकबूल लोग
भी इस दुश्चक्र के शिकार होते
रहे हैं. आइये
देखें हकीकत क्या है.
आडवाणी
की आत्म-कथा
“माय कंट्री माय लाइफ” के
पृष्ठ १३२-१३३
के अंश देखें ----- आडवाणी
कहते है:
“भारत
के लिए सही भाषा नीति के सन्दर्भ
में हम इस बात को, कि
अंग्रेजों ने भारतीयों को
अपनी हीं भाषा और संस्कृति
के प्रति हीन भावना से ग्रस्त
होने की सचेतन रणनीति अपनाई,
नज़रंदाज़
नहीं कर सकते. मुझे
स्मरण आता है लार्ड मैकॉले
का वह चौंकाने वाला उद्बोधन
जो उसने फ़रवरी २, १८३५
को ब्रिटिश संसद में दिया था
: (अब
आडवाणी मैकाले को तथाकथित
रूप से ऊद्धृत करते है):
"मैंने
भारत का विस्तृत भ्रमण किया
और मैंने ऐसा एक भी आदमी नहीं
देखा जो भीखमंगा हो या जो चोर
हो. ऐसी
पूंजी हमने इस देश में देखी,
ऐसा
उच्च नैतिक मूल्य देखा,
ऐसे
प्रखर लोग देखे कि मुझे लगता
नहीं है कि हम कभी भी इस देश
को जीत सकते हैं जबतक इस राष्ट्र
की कमर – जो इसकी संस्कृति और
आध्यात्मिक विरासत में निहित
है -- नहीं
तोड़ देते, लिहाजा
मैं प्रस्तावित करता हूँ कि
हम इसके प्राचीन शिक्षा पद्धति
और संस्कृति को बदलें क्योंकि
अगर ये भारतीय यह सोचने लगें
कि हर वह चीज जो विदेशी है और
अंग्रेज़ी है वह उनकी अपनी
चीजों से अच्छी और महान है तो
उनका आत्म -सम्मान
और उनकी संस्कृति ख़त्म होगी
और (तब)
वे वही
होंगे तो हम उन्हें होने देना
चाहते हैं--- एक
सचमुच का गुलाम राष्ट्र”.
(यहाँ
जिस दिन ब्रिटिश संसद में भाषण
देने की बात कही जा रही है ,
मैकाले
उसके नौ माह पहले हीं भारत आ
गए थे और अगले छः साल भारत मेे)
रहे.
2फरवरी,1835
को
वह कलकत्ता में
थे. )
अब
जरा हकीकत देखें! भारत
आने के पहले ब्रिटिश संसद में
दिनांक १० जुलाई, १९३३
को दिए अपने लम्बे भाषण में
मैकाले ने अपना ध्येय व अपनी
अवधारणा प्रस्तुत की और अपेक्षा
की कि सरकार की नीतियां उन्हीं
के अनुरूप हों. मैकाले
के भाषण का अंश:
“हमारे
लिए यह बेहतर होगा कि एक कुशासित
प्रजा के बजाय
एक सुशासित समाज से जो हमसे
स्वतंत्र शासन में अपने राजाओं
द्वारा शासित हो,
व्यापार
करें, यह
प्रजा गरीब रहे तो हमारा उद्योग
भी नहीं पनपेगा. एक
सभ्य समाज
से व्यापर करना
अज्ञानी और गरीब प्रजा पर शासन
करने से बेहतर होगा.......
क्या
हम यह चाहते हैं कि भारत की
जनता अज्ञान के गर्त में डूबी
रहे ताकि हम उन पर शासन करते
रहें? क्या
हम उनकी अपेक्षाओं को उभारे
बगैर उन्हें शिक्षित कर सकेंगें?
ज्ञान
होगा तो वे भी यूरोपीय संस्थाओं
(प्रजातांत्रिक
संस्थाओं ) की
चाह करने लगेंगे. ऐसा
दिन कब
आयेगा मैं नहीं कह सकता लेकिन
मैं कभी भी इस तरह की भारतीय
जनता की कोशिश (याने
स्व-शासन
की) को
न तो रोकूंगा न धीमा करना
चाहूँगा. (मैं
इतना कह सकता हूँ कि)
जिस
दिन ऐसा होगा .... कि
भारत की जनता नागरिक अधिकारों
के लिए सोचने लगेगी वह ब्रिटेन
के इतिहास का स्वर्णिम दिन
होगा.”
क्या
ऐसा सोचने वाला व्यक्ति यह
कह सकता है कि भारत को गुलाम
रखना है तो उसकी सांस्कृतिक
व नैतिक रीढ़ तोड़ना होगा?
बल्कि
इसके उलट मैकाले का मिशन हीं
भारतीय समाज को मॉडर्न शिक्षा
से आधुनिक सोच की ओर ले जाना
और उससे उनके अन्दर नए
प्रजातान्त्रिक संस्थाओं
के प्रति झुकाव बढ़ाना और अंत
में स्वतन्त्रता की मांग करना
था.
असत्य
१. जिस
तारीख और जगह (ब्रिटिश
पार्लियामेंट) का
यह भाषण बताया जा रहा है उस
तारीख से नौ माह पहले से हीं
मैकाले भारत आ चुके थे.
और अगले
छः साल तक भारत में हीं रहे.
साथ
हीं अपने पूरे जीवन के भाषणों
में कहीं भी मैकाले ने उपरोक्त
बात नहीं कही है.
असत्य
२: मैकाले
ने पूरा भारत भ्रमण किया हीं
नहीं था. फिर
जिस देश में भीख मांगना एक
संस्थागत स्वरुप में हो जिसमें
दान को पुण्य
का दर्जा हासिल
हो और भीख मांगना आदिकाल से
चला आ रहा हो उस देश में किसी
काल खंड में एक भी भिखारी पूरे
देश में न दिखे यह संभव है?
और वह
भी तब जब ईस्ट इंडिया कंपनी
ने अपने ८६ साल के वर्चस्व में
भारत के उद्योग, शिल्प
और तज्जनित “समृद्धि” ख़त्म
कर दी हो?
असत्य
३: मैकाले
को पूरे भारत में चोर या चोरी
की एक भी घटना नहीं मिली जबकि
उस काल में मेजर जनरल स्लीमन
(तब
कर्नल) ने
पिंडारियों (लुटेरों)
के
खिलाफ देशव्यापी अभियान चला
रखा था. पिंडारियों
की लूट और हत्या उस समय की सबसे
बड़ी त्रासदी मानी जाती थी.
असत्य
३: मैकाले
एक घोर नस्लवादी था और गैर
यूरोपी लोगों, खासकर
भारत की
संस्कृति और ग्यान
के प्रति उसमें जबरदस्त हिकारत
का भाव था. जो
मैकाले यह कह सकता है समूचा
भारतीय ज्ञान किसी ब्रिटेन
के किसी छोटी सी लाइब्रेरी
की छोटी सी अलमारी में बंद
किताबों से भी कम है वह कैसे
कह सकता है कि इस देश के लोगों
में अद्भुत मेधा है ,
परिष्कृत
संस्कृति है और अप्रतिम नैतिकता
है? (यह
झूट इसलिए उसके नाम से कहा जा
रहा है कि यह बता सकें कि भारतीय
समाज की गुणवत्ता से ऐसा व्यक्ति
भी घबराया था , याने
गुणवत्ता थी).
असत्य
४: उस
समय तक अधिकांश भारत अंग्रेजों
के कब्जे में आ चुका था और इसकी
कमर तोड़ने के लिए इसकी संस्कृति
और उस संस्कृति के प्रति समाज
की प्रतिबद्धता की कमर तोड़ने
की ज़रुरत हीं नहीं थी.
असत्य
५. जिन
अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग
भाषण में बताया गया है वे शब्द
मैकाले के ज़माने में प्रचलित
नहीं थे. फिर
वर्तनी और व्याकरण की भी
अशुद्धियाँ स्पष्ट है.
मैकाले
साहित्यकार भी थे और उनकी
कवितायेँ स्तरीय होती थीं.
पूरे
भारत में आडवाणी हीं नहीं एक
भी चिन्तक ने तथ्य जानने की
कोशिश नहीं की , ना
हीं इस झूठ के पर्दाफाश की
कोशिश की जो मैकाले के नाम पर
चलाया गया. हकीकत
यह है कि जिस दिन, जहाँ
और जिस भाषण का जिक्र किया गया
है वह मैकॉले ने कभी दिया हीं
नहीं. दिनाक
२ फ़रवरी, १८३५
को मैकॉले ब्रिटेन में थे हीं
नहीं बल्कि वह उसके आठ महीने
पहले १० जून , १८३४
को वह तत्कालीन गवर्नर जनरल
लार्ड विलियम बेंटिंक के
बुलावे पर भारत आ चुके थे.
लिहाज़ा
ब्रिटिश संसद में उनके भाषण
देने का प्रश्न हीं नहीं उठता.
जी हाँ,
२,
फ़रवरी
को उनका भाषण एक लिखित रिपोर्ट
के रूप में हुआ था जो उन्होंने
तत्कालीन वाइसराय के परिषद्
के शिक्षा सदस्य के रूप में
अपने मिनट्स में दिया.
उस
रिपोर्ट में भी मैकाले की
कोशिश थी कि देश को वैज्ञानिक
सोच की ओर उन्मुख कराया जाये
और उन्हें आधुनिक विकास का
लाभ मिले. यह
बात सही है कि भाषण के अंश में
उन्होंने भारतीय संस्कृति
और ज्ञान को हिकारत से देखा
और अंग्रेज़ी और विज्ञानं पढाये
जाने की वकालत की. पर
उन्होंने ऐसा कहने के लिए
आंकड़े दिए. उन्होंने
ने बताया कि उनके पास सैकड़ों
युवाओं के शिकायती पत्र आये
हैं कि शासन से मिले वजीफे से
वे केवल संस्कृत या अरबी की
पढाई कर अपने जीवन के १२ साल
बर्बाद कर चुके हैं और उन्हें
न तो इनके गाँव में इज्ज़त मिल
सकी है न हीं गांव
के बाहर नौकरी.
उन
युवाओं ने हुकूमत पर आरोप
लगाया कि इस वजीफे से हासिल
ज्ञान उनके किसी भी काम का
नहीं है.
मैकाले
ने परिषद् के सदस्यों को बताया
कि किस तरह पिछले २१ साल से
अंग्रेज़ सरकार हर
साल एक लाख रुपये
शिक्षा के विकास के लिए देती
हैं और कैसे उन पैसों से छापी
गयी संस्कृत और
अरबी की किताबें गोदामों में
दीमक के हवाले हैं क्योंकि
कोई इसे मुफ्त में भी लेने को
तैयार नहीं है. मैकाले
ने यह भी खुलासा किया कि भारतीय
युवाओं का बड़ा वर्ग अंग्रेज़ी
शिक्षा के लिए महंगी ट्यूशन
फी देने में नहीं
हिचकता. यही
कारण है कि मैकाले गरीब युवाओं
को विज्ञान और अंग्रेज़ी की
शिक्षा दे कर उन्हें रोजगार
परक बनाना चाहते थे.
इसका
एक मकसद और भी था और वह यह कि
इस तरह से शिक्षित युवा भारत
की जनता और अंग्रेज़ शासन के
बीच एक संवाद का काम करेंगे
और विकास की रफ़्तार के प्रति
गाँव तक में चेतना जागृत करेंगे.
लेकिन
आज उनकी आत्मा शायद अपनी प्रति
हो रहे अन्याय को देख कर कब्र
में कुढ़मुढ़ाती होगी.
lokmat