Friday 10 November 2017

सफीर की चोरी: यू पी एस सी को एग्जाम का तरीका बदलना होगा




बचपने में स्कूल की किताब में एक पाठ था. एक साधू को डर लगा कि उसने अपने तोते को अगर कभी उदारतावश मुक्त किया तो वह शिकारी की जाल में फंस जाएगा लिहाज़ा उसने तोते को सिखाना शुरू किया “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं”. जब तोता दिन भर यह गाने लगा तो साधू को लगा कि उसे तोते को अब मुक्त कर देना चाहिए. पिजड़े से आजाद होते ही तोता खुले आकाश में और फिर एक जंगल में पेड़ पर बैठ गया. अन्य तोतों ने जब यह गाना सुना तो वे भी गाने लगे. शिकार के लिए आये एक बहेलिये ने जब यह सब कुछ तोतों के मुंह से सूना तो उसे लगा तोते समझदार हो गये हैं और अब उसके दुर्दिन आ गए. एक दिन एक पंडित उधर से निकला और बहेलिये को उदास देख कर सलाह दी कि एक बार जाल डाल कर कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है. बहेलिये ने ऐसा हीं किया लेकिन ताज्जुब हुआ कि तोते “शिकारी आयेगा ......” गाते जा रहे थे और जाल में दाना खाने के चक्कर में फंसते भी जा रहे थे. शायद उन्होंने साधू की सीख रट तो ली थी पर उसका मायने नहीं जानते थे.
गिरफ्तार ट्रेनी आई पी एस सफीर करीम तोता नहीं था. उसने पाठ पढ़ा भी और उसका मायने भी जनता था कि यह कापी में लिख कर मार्क्स हासिल करने के लिए होता है न कि जिन्दगी में अमल के लिए. तभी तो उसने सन २०१४ की सिविल सर्विसेज परीक्षा के सामान्य ज्ञान के चतुर्थ पेपर में, जो उम्मीदवार की नैतिकता और ईमानदारी (एथिक्स और ईमानदारी) को जांचने लिए पहली बार सन २०१३ में शुरू किया गया था, सबसे अधिक नंबर पाए थे और जिसकी बदौलत वह सामान्य ज्ञान के पेपर में २५० में १०८ नंबर पा कर ११२वी रैंक हासिल किया और आई पी एस अधिकारी बना. ध्यान रहे कि सामान्य ज्ञान के अन्य तीन पेपरों में उसे एथिक्स (नैतिकता) के पेपर से कम अंक मिले थे. सफीर को लिखित परीक्षा में १७५० में ७७२ अंक मिले जबकि साक्षात्कार में २७५ में १७८ अंक मिले जो आम तौर पर अच्छा माना जाता है. क्या साक्षात्कार बोर्ड में बैठे मनोवैज्ञानिक सदस्य को भी भनक नहीं लगी कि नैतिक आधार पर यह अभ्यर्थी कैसा है? अगर यह पता करना मनोवैज्ञानिक के लिए भी मुश्किल है तो फिर पिछले तमाम दशकों से साक्षात्कार की चोंचलेबाजी क्यों ?
तमिलनाडु कैडर के इस आई पी एस अधिकारी सफीर ने आई ए एस बनने के लिए फिर इस साल याने २०१७ में सिविल सर्विसेज का एग्जाम दिया. वह अक्टूबर ३० को सामान्य ज्ञान का द्वितीय पेपर दे रहा था. आई बी की सब्सिडियरी यूनिट ने सर्विलांस के जरिये पाया कि सफीर ने अपने शर्ट के बटन में एक मिनी कैमरा फिट किया है जो बाहर रखे एक मॉडेम से कनेक्टेड है और जिसके जरिये हैदराबाद में वह अपनी पत्नी के नेत्रित्व वाली एक टीम से प्रश्नों का जवाब हासिल कर रहा था. उसके कान में एक माइक्रोट्रांसमीटर फिट था. गिरफ्तारी के बाद पूछ ताछ में जो बड़ा खुलासा हुआ वह यह कि सफीर भारत के पांच राज्यों कोचिंग सेंटर चलता था और शक है कि वह बड़ी रकम ले कर अभ्यर्थियों को इसी तरह सिविल सर्विस की परीक्षा में पास भी करवाता था. आई बी यह भी जांच कर रही हैं कि केरल निवासी इस अधिकारी के तार और कहाँ कहाँ जुड़े हैं.
यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं. पहला : देश की सबसे बड़ी ब्यूरोक्रेसी को चुनने वाली प्रक्रिया में नैतिकता को परखने के लिए यह प्रश्न पत्र तमाम समितियों की सिफारिश के बाद सन २०१३ में शुरू किया गया था. लेकिन अगर तोते की तरह रट कर कोई सफीर अधिक नंबर हासिल करता है लेकिन वह एक बड़े गैंग के सरगना के रूप में उभरता है तो क्या हमें नैतिकता मापने के लिए कोई नयी प्रक्रिया शुरू करनी होगी? सफीर अगर पकड़ा न गया होता तो अगले २४ घंटे में फिर से (३१ अक्टूबर को) नैतिकता का पेपर देता और उसमें जो सवाल संख्या ९ आया था वह था : आप एक एक ईमानदार और जिम्मेदार लोकसेवक हैं. आप प्रायः निम्नलिखित को प्रेक्षित करते हैं () एक सामान्य धारणा है कि नैतिक आचरण का पालन करने से स्वयं को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है और परिवार के लिए भी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं , जबकि अनुचित आचरण जीविका लक्ष्यों तक पहुँचने में सहायक हो सकता है ।
इस प्रश्न में तीन अंश और हैं और सबका जवाब मात्र २५० शब्दों में देना हैं. याने उप -प्रश्न के लिए केवल ६३ शब्द. जरा सोचे यह रटने के अलावा और क्या हो सकता है जो कोचिंग इंस्टिट्यूट में रटाया जता है. इसी पर उस अभ्यर्थी की नैतिकता का फैसला यूं पी एस से करेगा. ऐसे में सफीर पैदा होते हैं तो गलत क्या है? कहना न होगा कि सफीर जो जवाब देता वह उसकी करनी से अलग होता. वह और उसकी पत्नी बड़े जोर शोर से पांच कोचिंग चला रहे थे और जीविका लक्ष्यों के लिए सफीर ने आपराधिककृत्य का सहारा लिया था.
इस पेपर का क्या मतलब है जब उम्मीदवार तोते की तरह जवाब रट लेते हैं और अफसर बनने के बाद फिर वह भ्रष्टाचार के उसी मकडजाल में फंसा रहता है जिससे उसकी तथाकथित जीविका लक्ष्यों की सिद्धि होती है याने अच्छी पोस्टिंग , अच्छे कॉन्टेक्ट्स , अच्छा पैसा और कुल मिलकर एक आपराधिक-अनैतिक चक्र जिसमें नेता व अफसर मिल कर इस देश को लूटते रहते हैं. मध्य प्रदेश के आई ए एस दम्पत्ति अरविन्द जोशी और टीनू जोशी भी सिविल सर्विसेज में अच्छे रैंक से उत्तीर्ण हुए थे और भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन कर जेल में हैं. नीरा यादव का केस आज उत्तर प्रदेश के हर अफसर की जुबान पर है. कैसी है यह चुनाव प्रक्रिय जिसमें जिन अफसरों को असीमित शक्ति (जनता पर गोली चलने के अधिकार से लेकर लाखों करोड रुपये का विकास फण्ड खर्च करने का अधिकार ) दिया जाता है लेकिन हम आज तक यह व्यवस्था नहीं कर पायें हैं कि उनके नैतिक लब्धि (मारल कोशेंट) का अंदाज़ा नहीं लगा पाये और अंत में यह उम्मीदवार रटे रटाये उत्तर देकर फिर तोते की तरह उसी जाल में फंस जाता है ?

सफीर का मामला केवल अनैतिक होने का हीं नहीं है बल्कि आपराधिक भी है. आज जांच एजेंसियां यह देख रही है कि सफीर ने किसी गैंग के सरगना की तरह पैसे लेकर पिछले तीन सालों में कहीं अन्य कई उम्मीदवारों को भी अपनी हीं तरह सवाल के जवाब तो नहीं लिखवाए थे ?

lokmat    

Monday 6 November 2017

विकास: रणनीति बदलनी होगी


भूख से मुक्ति भी “स्वच्छ भारत” की तरह अभियान बने 

विश्व स्तर पर व्यापारिक, आर्थिक, जीवन संतुष्टि व मानव विकास के १६ सूचकांकों में पिछले तीन सालों में भारत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले १० सूचकांकों पर नीचे गिरा है जब कि तीन पर लगभग समान स्तर पर रहा और बाकी तीन पर बेहतर हुआ है. इसका मतलब यह है कि दुनिया के अन्य देश खासकर विकसित देशों में सरकारें बेहतर प्रदर्शन कर रहीं हैं. ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के प्रति देश में एक विश्वास बना और तीन साल पहले जनता ने भारतीय जनता पार्टी को सन २००९ के मुकाबले डेढ़ गुना (प्रतिशत के रूप में १८.६ से बढ़ा कर ३१.७) वोट दे कर जिताया तो आज साढ़े तीन साल बाद अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपने विकास की नीति का पुनरावलोकन करे. इसमें दो राय नहीं है कि मोदी की विकास की समझ और इच्छा अभूतपूर्व है और यह भी सच है कि उनकी अप्रतिम ईमानदारी और निष्ठा देश सत्तावर्ग में एक चिर-अपेक्षित दहशत के रूप में विद्यमान हैं फिर समस्या कहाँ है? शायद राज्य सरकारें विकास की नीति को जनता तक नहीं ले जा सकी हैं. ध्यान रहे कि भारत के संविधान के अनुसार अर्ध-संघीय व्यवस्था है जिसमें अधिकतर विकास के कार्य राज्य सरकारों के माध्यम से होते हैं. हालांकि आज देश की ६८ प्रतिशत आबादी पर भारतीय जनता पार्टी राज्य सरकारों के माध्यम से शासन कर रही हैं और मोदी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सन्देश उनके लिए ईश्वरीय आदेश से कम नहीं होते. इससे अब उम्मीद बंधती है कि राज्य सरकारें विकास कार्यों को गति देंगी. मोदी सरकार की अद्भुत फसल बीमा योजना भी इसी राज्य सरकारों के इसी निकम्मेपन की वजह से असफल हो रही है और एक साल के भीतर (ऋण न लेने वाले) मात्र ३.७ प्रतिशत किसानों को हीं बीमित किया जा सका है   
विश्व की तमान विश्वसनीय रेटिंग संस्थाओं जिनमें संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुषांगिक संगठन भी है की ताज़ा रिपोर्ट को अगर एक साथ रखा जाये तो पता चलता है इन तीन सालों में तमाम विकासशील देशों ने विकास के मामले में काफी रफ़्तार पकड़ी है. इनमें वो देश भी हैं जिन्हें एक दशक पहले तक सबसे नीचे पायदान पर शाश्वत रूप से पाया गया था जैसे निकारागुआ , घाना और सोमालिया. जिन तीन मानकों पर भारत दुनिया के कुछ देशों से बेहतर कर सका है वे हैं : व्यापार करने में सुगमता, विश्व प्रतिस्पर्धा सूचकांक और विश्व इनोवेशन (नवोंमेषण) सूचकांक. जिन अन्य तीन में भारत लगभग समान स्तर पर रहा या थोडा ऊपर-नीचे के खाने में पहुंचा वे हैं : विश्व मानव सूचकांक, विश्व शांति सूचकांक और करप्शन परसेप्शन (भ्रष्टाचार अनुभूति) सूचकांक. 
लेकिन जिन १० पैरामीटर्स पर देश तीन सालों में बुरी तरह पिछड़ा है वे हैं : विश्व भूख सूचकांक जिसमें इन तीन वर्षों में भारत अन्य देशों की अपेक्षा काफी नीचे चला गया. सन २०१४ में हम दुनिया के १२० देशों में ५५ नंबर पर थे लेकिन २०१७ में यह देश ११९ देशों में १०० नंबर पर है. यह एक बड़ी गिरावट है जो उस पैरामीटर पर हैं जो भारत को दुनिया की नज़रों में वास्तविकरूप से “समृद्ध” बताने की पहली शर्त है. देश जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद ) वृद्धि दर से नहीं बल्कि उस उत्पाद वृद्धि से गरीब के आंसू पोंछने में सफलता से आंका जाता है. यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि सन २०१४ में हीं भारत ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाया याने हर गरीब को भूख से निजात का कानूनी वादा. पर हकीकत यह थी कि देशव्यापी भ्रष्टाचार का दंश राज्य सरकारों की अकर्मण्यता से  मिल कर भूखे के पेट तक अनाज पहुँचाने में बड़ा रोड़ा बना रहा. मोदी सरकार को इस पर शायद सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. अगर बुलेट ट्रेन विकास के इंजन का एक पहिया है तो दूसरा शाश्वत भूख से निजात दिलाना दूसरा. साथ हीं अगर “व्यापार करने में सुगमता” के पैरामीटर पर भारत सन २०१४ में १८९ देशों में १४२ वें नंबर से कूद कर सन २०१७ में १९० देशों में १०० नंबर पर आ गया और देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पूरी उत्साह से प्रेस कांफ्रेंस कर बताया कि भारत कैसे तरक्की कर रहा है तो उन्हें उस दिन भी प्रेस कांफ्रेंस करना चाहिए था जिस दिन भूख सूचकांक में हमारा देश घाना, वियतनाम, मलावी, बांग्लादेश और नेपाल तो छोडिये, रवांडा, माली और नाइजीरिया और कमरून से भी पीछे चला गया. हमारा सत्ताधारी वर्ग पिछले २५ सालों में जी डी पी बढ़ने पर कसीदे तो काढ़ता रहा “भारत महान “ बताता हुआ,  पर भूख से मरते -बिलबिलाते नवनिहालों पर केवल “खाद्य सुरक्षा कानून”  बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लिया. 
अन्य नौ पैरामीटर्स जिनपर देश फिसला है वे हैं : मानव संसाधन (सन २०१३ में दुनिया के १२२ देशों में ७८ लेकिन २०१७ में १३० देशों में १०३), कनेक्टिविटी में २०१४ में २५ देशों में १५ पर आज ५० देशों में ४३, एफ डी आई भरोसा में २५ देशों में ७ से आज ८, खुशी के पैमाने पर १५८ देशों में ११७ से आज १५५ देशों में १२२, बौद्धिक संपदा में ३० देशों में २९ से ४५ देशों में ४३, आर्थिक स्वतन्त्रता में १८६ में १२० से आज १४३, समृधि में १४२ देशों में १० से १४९ देशों में १०४, टिकाऊ विकास में १४९ देशों में ११० से १५७ देशों में ११६ और मेधा प्रतिस्पर्धा में ९३ देशों में ३९ से ११८ देशों में ९२. 
आज सरकार को पूरे विकास के प्रति दृष्टि बदलनी होगी. सबसे चौकाने वाली स्थिति दो पैरामीटर्स को लेकर है – भूख कम करने और मेधा प्रतिस्पर्धा में भारत का विश्व स्तर पर बेहद नीचे जाना. अगर देश के व्यापार सुगमता में ३० अंकों की बढ़ोत्तरी पर वित्त मंत्री प्रेस कोनेफेरेंस कर सकते हैं तो मेधा प्रतिस्पर्धा में ५३ अंकों की गिरावट पर भी उन्हें चिंता दिखानी होगी. भारत की मेधा जो हमारे करोड़ों युवा में पैदा होनी चाहिए थी वह अन्य देशों को मुकाबले अगर कम रही तो “ युवा शक्ति” का क्या मतलब होगा जिसके बारे में प्रधानमंत्री अपने भाषणों में जिक्र करते हैं. समस्या न तो मोदी या वित्त मंत्री के प्रयासों में है न हीं  सरकार की नियत या नैतिकता में. केवल प्रयासों की दिशा मोड़नी  होगी और प्रथम चरण में भूख पर काबू पाने की कोशिश उसी तरह अभियान के रूप में करनी होगी जिस तरह “स्वच्छ भारत” आज हर अधिकारी-मंत्री की जुबान पर है और हर अधिकारी -मंत्री के हाथ में झाडू.                          
कुपोषण-जनित व्याधियों में चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार बच्चों का शारीरिक हीं नहीं मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है. अगर भूख को नहीं जीतेंगे तो भारत की युवा शक्ति बीमार नागरिक के रूप में खडी होगी. सरकार को समझना होगा कि अगर भूख और कुपोषण से बच्चे कम वजन के, ठूंठ (स्टंटेड) याने छोटे कद के और मानसिकरूप से कुंद होंगे तो जाहिर हैं मेधा की कमी होगी और विश्व स्तर पर वे कहीं भी नहीं टिक पाएंगे. सरकार को डिलीवरी का माडल बदलना होगा ताकि राज्य सरकारों का शाश्वत उनीदापन और भ्रष्ट तंत्र इन नौनिहालों के रुदन को ख़त्म करने में सक्रिय हो सके या फिर संविधान संशोधन के जरिये इन्हें डिलीवरी में कोताही या भ्रष्टाचार करने पर प्रशासनिक कार्रवाई का अधिकार केंद्र के हाथों में हो.

lokmat