Wednesday 4 November 2015

“उन्माद भाषण”: केंद्र की दोहरी नीति क्यों ?



केंद्र सरकार और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए पार्टी के नेता सुब्रह्मनियम स्वामी गले की हड्डी बन गए हैं जिसे न उगलते बनता है न निगलते. यही वजह है कि ३, नवम्बर , २०१५ याने मंगलवार को सरकार को सपष्ट रूप से हलफनामा दे कर कहना पडा कि उनके भाषण लोक-व्यवस्था को बिगाड़ने वाले रहे है और इसके लिए उनके खिलाफ कानूनी मामला बनता है. दरअसल स्वामी के खिलाफ असम के करीमगंज में आई पी सी की धारा १५३(अ) के तहत एक मुकदमा तब कायम हुआ जब इस नेता ने काजीरंगा विश्वविद्यालय में  भड़काऊ भाषण दिया था. स्वामी ने इस धारा के संवैधानिक वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील इस आधार पर की कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद १९(१) (अ) में मिली अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के खिलाफ है और इसे अवैध करार दिया जाना चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि इस धारा को ख़त्म करने को लेकर वह क्या राय रखती है.

पेंच यह था कि अगर सरकार अपनी हीं पार्टी के इस बेलगाम नेता को बचाती तो कानून ख़त्म होता और देश में हर कोई चौराहों पर जातिगत, सांप्रदायिक वैमनस्यता का जहर अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर उगलने लगता और सरकार के पास इसे रोकने कि लिए कोई कानूनी हथियार न होता. लिहाज़ा केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने हलफनामे में परोक्ष रूप से न केवल स्वामी के खिलाफ असम में चल रहे मुकदमे को सही ठहराया बल्कि सर्वोच्च अदालत को यह भी बताया कि स्वामी ने “टेररिज्म इन इंडिया ” (भारत में आतंकवाद) शीर्षक किताब लिखा है जिसमें उधृत उनके भाषण, उनका उदाहरण , उनकी भाषा, उनका व्यंग्य और उनकी शैली सभी को अगर परिप्रेक्ष्य में लिया जाये तो यह भी उस धारा के तहत मुकदमें के लिए काफी है.

राजनीतिक रूप से सोचा जाये तो क्या सरकार का स्वामी के खिलाफ इतना सख्त रुख इस बात के संकेत तो नहीं कि पार्टी स्वामी के बेलगाम चरित्र से कई बार दिक्कत में आती है लिहाज़ा उनसे छुटकारा पाना चाहती है. ध्यान देना की बात है कि साध्वी निरंजना तो मोदी साकार में जगह पाती हैं, स्मृति ईरानी महत्वपूर्ण मानव संसाधन विकास मंत्रालय को “उपकृत” करती हैं पर स्वामी जो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इतिहास में अर्थ-शास्त्र के सबसे कम उम्र के पहले प्रवक्ता थे कोई भी पद न तो पार्टी में हासिल कर पाते हैं ना हीं सरकार में. कहना न होगा कि मोदी उन्हें अपने सिस्टम से दूर रखना चाहते हैं.

दरअसल केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद १९ (२) के युक्तियुक्त निर्बंध “लोक व्यवस्था के हित में” का हवाला देते हुए आई पी सी के धारा १५३ (अ) को सही ठहराया. हकीकत यह है कि संविधान निर्माताओं ने यह निर्बंध नहीं रखा था और इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु प्रथम संविधान संशोधन के तहत सन १९५१ में लाये. क्योंकि सर्वोच्च न्यायलय ने “मद्रास सरकार बनाम रोमेश थापर” मामले में सरकार को उस आदेश को ख़ारिज किया था जिसके तहत वह एक पत्रिका को अपने राज्य में नहीं बिकने  देना चाहती थी. नेहरु सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले से क्षुब्ध हुए और एक नहीं तीन-तीन संसोधन ला कर अभिव्यक्ति स्वातंत्रय पर लगाम लगाई. आज भाजपा सरकार उसी संशोधन के तहत राज्य को मिली शक्ति का हवाला दे रही है.  

एक और विरोधाभास केंद्र सरकार और सत्ता पर काबिज भाजपा की नीयत को लेकर दिखाई देता है. अगर इतनी हीं चिंता “हेट स्पीच” (वैमनस्यता फ़ैलाने वाले भाषण) को लेकर है तो स्वामी से पहले उन साध्वियों और महंतों के खिलाफ मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाता और उन्हें बेलगाम क्यों छोड़ा जाता है? क्यों किसी गिरिराज सिंह को जो भाजपा को वोट न देने वालों को (२०१४ के लोक सभा चुनाव में) पाकिस्तान जाने की हुंकार भरता है, केंद्र में मंत्री बना दिया जाता है. क्यों किसी संजीव बालियाँ को उत्तर प्रदेश के दंगों में नाम के बावजूद केंद्र में मंत्री बना दिया जाता है और क्यों किसी साध्वी निरंजन ज्योति को दिल्ली विधान सभा चुनाव में “जो भाजपा को वोट देंगे वो रामजादे और जो नहीं देंगे वो हराम......” कहने के बावजूद भी खुलेआम हर तीसरे दिन मुसलामानों के खिलाफ आग उगलने के लिए छोड़ दिया गया? दिल्ली की पुलिस तो केंद्र के हाथ में थी और मंत्री बनाना और हटाना भी प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में.

कौन बना रहा है आइकॉन (प्रतिमान) इन बेलगाम हिन्दुत्त्व के अलंबरदारों को.  दादरी में एक मुसलमान को शक के आधार पर घर से खींच कर मार दिया जाता है और दस दिन तक जनता टकटकी लगाये देखती है कि क्रिकेटर के जन्म दिन पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर क्या कहते है. क्या किसी साध्वी, महंत या मंत्री या ओवैसी छुट्टा घूमने दिया जा सकता है ताकि वह सांप्रदायिक सौहार्द्र की ऐसी तैसी करता रहे. और दस दिन बाद “आकाशीय वाणी”  की तरह प्रधानमंत्री के जानिब से आता क्या है और वह भी बिहार की चुनावी सभाओं में ? “तय कीजिये कि हमें किससे लड़ना है , आपस में या गरीबी से”. ऐसा लगा जैसे देश के गुनाह मुसलमानों ने भी किया (शायद गाँव मे रह के). तर्क शास्त्र का इतना बड़ा मजाक पहले कभी नहीं हुआ था. जब आप सही बात कहने में समर्थ नहीं होते तो उसे फैला देते हैं समाज, जीवन , विकास आदी शब्दों में. जबकि प्रधानमंत्री को कहना यह था आज से अगर सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने के लिए आक्रामक हिन्दुत्त्व का कोई भी भाव दिखाया गया तो वह कोई भी हो सलाखों के पीछे होगा. साथ हीं ओबैसी ब्रांड पॉलिटिक्स के लिए भी यही सन्देश जाना चाहिए था. पर जब अपना घर हीं गन्दा हो तो दूसरे को क्या कहेंगे.   

मोदी जी को राष्ट्रपति के संज्ञान लेने के बाद याद आया कि उन्हें भी कुछ बोलना है. जबकि घटना के दो दिन बाद उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा था “यह राज्य की जिम्मेदारी है कि नागरिकों के जान की हिफाज़त करे चाहे वह किसी मज़हब का हो”. लेकिन प्रधानमंत्री ने उसका संज्ञान नहीं लिया. तब से आज तक राष्ट्रपति पांच बार देश के बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल को लेकर चिंता जता चुके हैं. क्या यह ज़रूरी नहीं कि विरोध प्रकट करने वाले लेखकों, वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का डी एन ए और इतिहास भूगोल जानने की जगह या उन्हें “बुद्धिजीवी असहिष्णुता” या “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट” (कृत्रिम विप्लव) न कह कर यह देखा जाये कि माहौल बिगड़ने के मूल में क्या है.


क्या मुसलमानों की जन-संख्या पिछले डेढ़ साल में हीं बढ़ी है? क्या गौ-मांस की समस्या आज पैदा हुई है और क्या लव जिहाद मोदी के सत्ता में आने के बाद शुरू हुआ है ? अगर नहीं तो इन्हें फिलवक्त छोड़ कर मेक इंडिया को सफल बनाया जाये और “स्किल इंडिया “ को अमली जामा पहनाया जाये ताकि कोई ज्यूकर्बर्ग भारत में अपने पैसे को सुरक्षित समझे.    

patrika

Tuesday 3 November 2015

“वैचारिक द्वन्द” का इस स्वरुप से देश का अहित




मात्र ७२ घंटों के भीतर भारत को लेकर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर दो परस्पर विरोधाभासी रिपोर्टें आयीं. “बिजनेस” करने को लेकर सहज़ता और सुविधाओं के पैमाने पर विश्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट ने भारत को पहले से लेकर बेहतर माना और दुनिया के देशों में १२ खाने ऊपर कर दी इसकी रैंकिंग. एक अच्छा संकेत था. लेकिन वहीं दूसरी ओर प्राइवेट रेटिंग संस्था मूडी’ज ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगाह किया कि वे अपने लोगों पर लगाम लगाये वरना विश्वसनीयता का संकट पैदा हो सकता है.

देश में स्पष्ट रूप से दो परस्पर विरोधी विचारधारायें टकराव पर हैं. स्वस्थ प्रजातंत्र में जन-संवाद के धरातल पर यह अच्छा संकेत है. पर जब विचारधाराओं की टकराहट की परिणति “गवर्नेंस” की विश्वसनीयता पर संकट पैदा करने लगे तो उससे विकास अवरुद्ध होने लगता है और व्यवस्था की समस्या जन्म लेती है. वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के एक ऐसे दौर में जब कोई भी राष्ट्र अर्थ-व्यवस्था को लेकर “सुतुर्मुर्गी अलगाव” में जिन्दा नहीं रह सकता, भारत को लेकर सन्देश गलत जा रहा है. देश को एक नेतृत्व मिला है जिसकी विकास को लेकर समझ अप्रतिम है और जो इसे अंजाम भी देने की क्षमता रखता है. फिर क्या यह उचित नहीं होगा कि अगले चार साल के लिए वैचारिक लड़ाई का स्वर इतना उन्मादी न होने दिया जाये कि विश्व परिदृश्य में गलत सन्देश जाये. फिर लड़ाई तो देश में दो विचारधाराओं की है न कि विकास को लेकर ?  

वित्त मंत्री अरुण जेटली की परेशानी समझी जा सकती है. और यही कारण है उन्होने दोनों बातों का संज्ञान लिया. द्वंदात्मक प्रजातंत्र में वैचारिक रस्साकशी चलती रहती है पर जब उसका सन्देश गवर्नेंस की विश्वसनीयता या सामाजिक वैमनस्यता के वैश्विक प्रचार के रूप में होने लगे तो विचारधाराओं के पुरोधाओं को सोचना पडेगा. क्या वाकई देश में लोग एक दूसरे के खिलाफ सडकों पर लाठी लेकर खड़े हैं ? अगर नहीं तो मूडी’ज क्यों मान रहे हैं कि भारत में कुछ गड़बड़ हो रहा है और इसे ठीक करना होगा? विचारधाराओं की लड़ाई के लिए हमारे पास एक विकसित मीडिया तंत्र, सेमिनार में बोलने और लेख लिखने के अलावा सोशल मीडिया है. न तो अवार्ड लौटने की ज़रुरत है ना हीं सड़क पर आने की. जो विचारधारा बलवती होगी वह २०१९ के चुनाव में अपना प्रभाव दिखा देगी. हालांकि हकीकत यह है कि मूडी’ज की राय लोगों सम्मान लौटाने से कम बल्कि दादरी जैसी घटनाओं से बनी है.  
      
थोडा और गहरा विश्लेषण करें तो पाएंगे कि विचार असहिष्णु तो होता ही है क्योंकि विचार तब बनता  है जब उसके प्रति प्रतिबद्धता आती है. और प्रतिबद्धता होगी तो द्वन्द का भाव होगा जिससे असहिष्णुता जन्म लेगी. अगर दूसरे के विचार ग्राह्य बन जाये तो पहला वाला विचार विचार हीं नहीं होता. समस्या तब पैदा होती है जब कोई राहुल गाँधी, कोई ओवैसी या कोई गिरिराज सिंह, साध्वी या संगीत सोम गलत समझ के कारण इस वैचारिक असहिष्णुता को राजनीति में तब्दील करते हैं. और तब जन-धरातल पर जुमले आते है और कोई इसे “पाकिस्तान भेजना” मानने लगता है या “१५-मिनट के लिए पुलिस हटा लो फिर देखो” या “फिर मुज़फ्फरनगर” करने की धमकी देने लगता है.      

जेटली ने अपने लेख में इसका बेबाकी से संज्ञान लिया है. हालाँकि वह पक्ष इतना प्रचारित नहीं हुआ जिनता उनका “वैचारिक असहिष्णुता” या “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट” (कृत्रिम विप्लव). उन्होंने उसी चिंता से यह भी कहा कि वे सभी लोग जो भारत के और सरकार के शुभेच्छु हैं वे एेसे बयान न दें या ऐसे कृत्य न करें जिनसे उन ताकतों को जो भारत के विकास की विरोधी हैं कोई मौक़ा मिले.

समस्या कहाँ है. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में विकास को लेकर अद्भुत समझ है. आधुनिक भारत में शायद हीं कोई ऐसा नेता होगा जो विकास के व्यावहारिक पहलुओं को इतनी गहराई से समझता होगा.
शायद जेटली का संकेत भी इसी तरफ है. क्या नरेन्द्र मोदी को मात्र पांच साल नहीं दिए जा सकते थे ? क्या “लव जेहाद” और “घर वापसी” को मात्र पांच साल नहीं रोका जा सकता था? क्या जबरदस्त विकास करके पांच साल बाद फिर इसी जनता के पास गवर्नेंस की अद्भुत मिसाल ले कर नहीं जाया जा सकता था?

दूसरी तरफ “सेक्युलर बुद्धिजीवियों” से यह अपेक्षित है कि वैचारिक स्तर पर जम कर विरोध करें लेकिन यह विरोध तब भी हो जब कोई मुलायम सिंह, दिग्विजय सिंह, ओवैसी, लालू या आज़म “आतंकवादियों” में अल्पसंख्यक देखने लगता है याने १४.२ प्रतिशत “सॉलिड वोट”. इन बुद्दिजीवियों का यह भी कर्तव्य है कि तथाकथित “सेक्युलर” विचारधारा अगर आतंकवाद का चारागाह बन रही हो तो उसे भी उसी शिद्दत से उठायें जिस शिद्दत से आज पुरस्कार लौटा रहे हैं. विरोध तब भी होना चाहिए जब संप्रदाय-विशेष के वोट के लिए मुलायम सिंह –अखिलेश की सरकार मुरादाबाद में डी आई जी ़को पीट-पीट कर मरणासन्न करने वाले सम्प्रदाय विशेष के युवाओं पर से केस ख़त्म करने की अर्जी कोर्ट में डालती है या कांग्रेस का एक मुख्यमंत्री हैदराबाद में गोकुल स्वीट्स ब्लास्ट के मामले में सपष्ट साक्ष्य  के बाद भी एक मुहल्लें में आरोपियों के छिपे होने के बावजूद छापा मारने से मना कर देता है. विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की कुपरिणति अगर आतंकवादी के प्रति उदारता में हो तो कुछ हीं साल में वह विचारधार धीरे-धीरे जनता द्वारा ख़ारिज कर डी जाती हैं. और दूसरी विचारधारा अपनी पैठ बना लेती है. भारतीय जनता पार्टी के उदय और कांग्रेस के पराभव के पीछे यही कारण रहे हैं. लेकिन मोदी की जन-स्वीकार्यता इन सब से परे कुशल-प्रशासक, भ्रष्टाचार के प्रति शून्य –सहिष्णुता और सक्षम विकासकर्ता की उनकी छवि के रूप में हुई है. और सेक्युलर बुद्धिजीवियों को उन्हें उस पैमाने पर तुलना होगा. साथ हीं आक्रामक हिंद्त्व के अलंबरदारों को जाने-अनजाने में “सेल्फ-गोल" से बचना होगा.      

lokmat