केंद्र सरकार और सत्ताधारी
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए पार्टी के नेता सुब्रह्मनियम स्वामी गले की
हड्डी बन गए हैं जिसे न उगलते बनता है न निगलते. यही वजह है कि ३, नवम्बर , २०१५
याने मंगलवार को सरकार को सपष्ट रूप से हलफनामा दे कर कहना पडा कि उनके भाषण
लोक-व्यवस्था को बिगाड़ने वाले रहे है और इसके लिए उनके खिलाफ कानूनी मामला बनता
है. दरअसल स्वामी के खिलाफ असम के करीमगंज में आई पी सी की धारा १५३(अ) के तहत एक
मुकदमा तब कायम हुआ जब इस नेता ने काजीरंगा विश्वविद्यालय में भड़काऊ भाषण दिया था. स्वामी ने इस धारा के
संवैधानिक वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील इस आधार पर की कि यह धारा संविधान
के अनुच्छेद १९(१) (अ) में मिली अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के खिलाफ है और इसे
अवैध करार दिया जाना चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि इस
धारा को ख़त्म करने को लेकर वह क्या राय रखती है.
पेंच यह था कि अगर सरकार
अपनी हीं पार्टी के इस बेलगाम नेता को बचाती तो कानून ख़त्म होता और देश में हर कोई
चौराहों पर जातिगत, सांप्रदायिक वैमनस्यता का जहर अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम
पर उगलने लगता और सरकार के पास इसे रोकने कि लिए कोई कानूनी हथियार न होता. लिहाज़ा
केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने हलफनामे में परोक्ष रूप से न केवल स्वामी के
खिलाफ असम में चल रहे मुकदमे को सही ठहराया बल्कि सर्वोच्च अदालत को यह भी बताया
कि स्वामी ने “टेररिज्म इन इंडिया ” (भारत में आतंकवाद) शीर्षक किताब लिखा है
जिसमें उधृत उनके भाषण, उनका उदाहरण , उनकी भाषा, उनका व्यंग्य और उनकी शैली सभी
को अगर परिप्रेक्ष्य में लिया जाये तो यह भी उस धारा के तहत मुकदमें के लिए काफी
है.
राजनीतिक रूप से सोचा जाये
तो क्या सरकार का स्वामी के खिलाफ इतना सख्त रुख इस बात के संकेत तो नहीं कि
पार्टी स्वामी के बेलगाम चरित्र से कई बार दिक्कत में आती है लिहाज़ा उनसे छुटकारा
पाना चाहती है. ध्यान देना की बात है कि साध्वी निरंजना तो मोदी साकार में जगह
पाती हैं, स्मृति ईरानी महत्वपूर्ण मानव संसाधन विकास मंत्रालय को “उपकृत” करती
हैं पर स्वामी जो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इतिहास में अर्थ-शास्त्र के सबसे कम
उम्र के पहले प्रवक्ता थे कोई भी पद न तो पार्टी में हासिल कर पाते हैं ना हीं
सरकार में. कहना न होगा कि मोदी उन्हें अपने सिस्टम से दूर रखना चाहते हैं.
दरअसल केंद्र सरकार ने
संविधान के अनुच्छेद १९ (२) के युक्तियुक्त निर्बंध “लोक व्यवस्था के हित में” का
हवाला देते हुए आई पी सी के धारा १५३ (अ) को सही ठहराया. हकीकत यह है कि संविधान
निर्माताओं ने यह निर्बंध नहीं रखा था और इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल
नेहरु प्रथम संविधान संशोधन के तहत सन १९५१ में लाये. क्योंकि सर्वोच्च न्यायलय ने
“मद्रास सरकार बनाम रोमेश थापर” मामले में सरकार को उस आदेश को ख़ारिज किया था
जिसके तहत वह एक पत्रिका को अपने राज्य में नहीं बिकने देना चाहती थी. नेहरु सर्वोच्च न्यायलय के इस
फैसले से क्षुब्ध हुए और एक नहीं तीन-तीन संसोधन ला कर अभिव्यक्ति स्वातंत्रय पर
लगाम लगाई. आज भाजपा सरकार उसी संशोधन के तहत राज्य को मिली शक्ति का हवाला दे रही
है.
एक और विरोधाभास केंद्र
सरकार और सत्ता पर काबिज भाजपा की नीयत को लेकर दिखाई देता है. अगर इतनी हीं चिंता
“हेट स्पीच” (वैमनस्यता फ़ैलाने वाले भाषण) को लेकर है तो स्वामी से पहले उन
साध्वियों और महंतों के खिलाफ मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाता और उन्हें बेलगाम
क्यों छोड़ा जाता है? क्यों किसी गिरिराज सिंह को जो भाजपा को वोट न देने वालों को
(२०१४ के लोक सभा चुनाव में) पाकिस्तान जाने की हुंकार भरता है, केंद्र में मंत्री
बना दिया जाता है. क्यों किसी संजीव बालियाँ को उत्तर प्रदेश के दंगों में नाम के
बावजूद केंद्र में मंत्री बना दिया जाता है और क्यों किसी साध्वी निरंजन ज्योति को
दिल्ली विधान सभा चुनाव में “जो भाजपा को वोट देंगे वो रामजादे और जो नहीं देंगे
वो हराम......” कहने के बावजूद भी खुलेआम हर तीसरे दिन मुसलामानों के खिलाफ आग
उगलने के लिए छोड़ दिया गया? दिल्ली की पुलिस तो केंद्र के हाथ में थी और मंत्री
बनाना और हटाना भी प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में.
कौन बना रहा है आइकॉन
(प्रतिमान) इन बेलगाम हिन्दुत्त्व के अलंबरदारों को. दादरी में एक मुसलमान को शक के आधार पर घर से
खींच कर मार दिया जाता है और दस दिन तक जनता टकटकी लगाये देखती है कि क्रिकेटर के
जन्म दिन पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर क्या कहते है. क्या किसी
साध्वी, महंत या मंत्री या ओवैसी छुट्टा घूमने दिया जा सकता है ताकि वह
सांप्रदायिक सौहार्द्र की ऐसी तैसी करता रहे. और दस दिन बाद “आकाशीय वाणी” की तरह प्रधानमंत्री के जानिब से आता क्या है
और वह भी बिहार की चुनावी सभाओं में ? “तय कीजिये कि हमें किससे लड़ना है , आपस में
या गरीबी से”. ऐसा लगा जैसे देश के गुनाह मुसलमानों ने भी किया (शायद गाँव मे रह
के). तर्क शास्त्र का इतना बड़ा मजाक पहले कभी नहीं हुआ था. जब आप सही बात कहने में
समर्थ नहीं होते तो उसे फैला देते हैं समाज, जीवन , विकास आदी शब्दों में. जबकि
प्रधानमंत्री को कहना यह था आज से अगर सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने के लिए आक्रामक
हिन्दुत्त्व का कोई भी भाव दिखाया गया तो वह कोई भी हो सलाखों के पीछे होगा. साथ
हीं ओबैसी ब्रांड पॉलिटिक्स के लिए भी यही सन्देश जाना चाहिए था. पर जब अपना घर
हीं गन्दा हो तो दूसरे को क्या कहेंगे.
मोदी जी को राष्ट्रपति के
संज्ञान लेने के बाद याद आया कि उन्हें भी कुछ बोलना है. जबकि घटना के दो दिन बाद
उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा था “यह राज्य की
जिम्मेदारी है कि नागरिकों के जान की हिफाज़त करे चाहे वह किसी मज़हब का हो”. लेकिन
प्रधानमंत्री ने उसका संज्ञान नहीं लिया. तब से आज तक राष्ट्रपति पांच बार देश के
बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल को लेकर चिंता जता चुके हैं. क्या यह ज़रूरी नहीं कि विरोध
प्रकट करने वाले लेखकों, वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का डी एन ए और इतिहास भूगोल
जानने की जगह या उन्हें “बुद्धिजीवी असहिष्णुता” या “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट”
(कृत्रिम विप्लव) न कह कर यह देखा जाये कि माहौल बिगड़ने के मूल में क्या है.
क्या मुसलमानों की
जन-संख्या पिछले डेढ़ साल में हीं बढ़ी है? क्या गौ-मांस की समस्या आज पैदा हुई है
और क्या लव जिहाद मोदी के सत्ता में आने के बाद शुरू हुआ है ? अगर नहीं तो इन्हें
फिलवक्त छोड़ कर मेक इंडिया को सफल बनाया जाये और “स्किल इंडिया “ को अमली जामा
पहनाया जाये ताकि कोई ज्यूकर्बर्ग भारत में अपने पैसे को सुरक्षित समझे.
patrika