कुंठित सामाजिक सोच और बेपटरी होते जन-मुद्दे
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राजस्थान के करौली जिले में एक परिवार के आठ
लोगों ने भगवान के दर्शन न होने पर हंसते हुए लड्डू में जहर डालकर खा लिया . पांच
की मौत हो गयी जबकि तीन अस्पताल में मौत और जिंदगी की बीच झूल रहे है. उन्होंने यह
कदम इसलिए उठाया क्योंकि उनका विश्वास था कि भगवान उनकी पूजा पर दर्शन देंगे चूंकि
भगवान प्रगट नहीं हुए तो उन्होंने स्वयं भगवान् के पास जाने का फैसला किया. अपने
इस कृत्य की उन्होंने वीडिओ रिकॉर्डिंग भी की. रिकॉर्डिंग में पाया गया कि
उन्होंने सिरिंज से अपना खून निकाल कर भगवान् की पूजा-अर्चना भी की थी.
देश किसी गंभीर “सामूहिक कुचेतना” की बीमारी से
ग्रस्त है. जिन समाजों में तर्क-शक्ति का नितांत आभाव होता है उनमें जन-संवाद
कुतर्क के रास्ते पर चला जाता है यानी कुंठित भावना के आधार पर फैसले होने लगते
है. समाज दिमाग से सोचने की जगह दिल से सोचने लगता है. मंदिर-मस्जिद को मुद्दा मान
लेता है लेकिन भ्रष्टाचार को नहीं. जाति पर वोट करता है, अपराधी में रोबिनहुड
देखता है और उसको सत्ता में लाने के लिए वोट देने को उचित टहराने के लिए बताता है
कि “ वह (अपराधी) अमीरों के सताता है गरीब की बेटी की शादी में मदद करता है.” शायद
यही वजह है कि देश की वर्तमान लोक सभा में १६२ सांसद गंभीर अपराधों के मामलों में
फंसे हैं.
जरा गौर करे. जो परिवार भगवान से मिलने ले लिए
हंसते हुए सामूहिक रूप से जहर खा लेता हो उससे कहीं भी वोट डलवाया जा सकता है, कोई
दीवार जो भगवान या अल्लाह तक पहुँचाने में बाधा बन रही हो, गिरवाया जा सकता है.
आतंक की घटनाएँ करवाई जा सकती हैं , आत्मघाती दस्ते तैयार किये जा सकते है. कुल
मिलकर देश को या भारतीय समाज को उसी जड़ता में जकडे रखा जा सकता है जिसके तहत हमने
सदियों से सती- प्रथा, बाल विवाह, स्त्री-प्रताड़ना, बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूर ,
जाति-व्यवस्था, धर्मान्धता सरीखे कुरीतियों को कायम रखा.
शासक-वर्ग के लिए कितना आसन होता होगा कि जहाँ
समाज के एक बड़े हिस्से को भगवान खोजने में लगा रहे और दूसरी तरफ कोई राजा देश
लूटता रहे. कोई मंत्री-अफसर गठजोड़ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के मद में
आये आठ हज़ार करोड़ रुपये में से छह हज़ार करोड़ रुपये डकार जाये और अज्ञानी जनता फिर
किसी ओझा, तांत्रिक या फ़क़ीर के यहाँ जा कर बेटा पैदा होने के लिए जादू टोना करने
लगा रहे. और इधर कानून जब कभी हाथ बढ़ाये भी तो मंत्री-अफसर अपने गुर्गों से शामिल
लोंगों में से कुछ को जेल के भीतर हीं ख़त्म कर देते हैं. अदालत को गवाह चाहिए,
सबूत चाहिए लिहाज़ा दोनों ख़त्म कर दो.
यही वजह है कि देश का सकल उत्पाद (जी डी पी)
बढ़ता जा रहा है और मानव विकास घटता जा रहा है. पिछले ३१ सालों में ६.५ के जबरदस्त
विकास दर से हम आज विश्व के दस देशों में हैं और मानव विकास सूचकांक (एच डी आई )
में जहाँ ३१ साल पहले १३४ वें नंबर पर थे आज भी वहीं हैं. बल्कि ताज़ा आंकड़ों के
अनुसार एक खाना और नीचे आ गए हैं.
राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार
प्रजातंत्र में सरकारें जनमत के दबाव पर चलती हैं और यह जनमत तैयार होता है पब्लिक
स्फीयर (जन धरातल) पर होने वाली चर्चाओं से. लेकिन अगर जन –चेतना कुंठित कर दी
जाएँ यानि भगवान के साक्षात् दर्शन ना मिलने पर जहर खाने तक हीं सिमट जाये तो मानव
विकास का मुद्दा उभर हीं नहीं सकता. लिहाज़ा अगर जन-संवाद को ऐसा मोड़ दे दिया जाये
कि मुद्दा संजय दत्त की सजा कम करने के आगे बढ़ हीं ना पाए तो सत्ता पक्ष आराम से
२-जी में घपला करता रह सकता है. टीवी में बाबाओं व तथाकथित अर्ध –भगवानों द्वारा
“समोसे के साथ हरी चटनी खाओ” कह कर अंध-भक्तों को समृधि का रास्ता बताता हो उस
समाज में मानव विकास सूचकांक का कोई मतलब नहीं रह जाता.
जिस कुंठित सोच के तहत एक पूरा का पूरा परिवार
ईश्वर के साक्षात् दर्शन ना मिलने पर जहर खा लेता है या मनोविकार से ग्रस्त महिला
को सामूहिकरूप से ईंट से यह सोच कर मार देता है कि डायन है और गाँव को खाने आई है उस
समाज की सोच में और इस कुछ तथाकथित पढ़े –लिखे लोगों के इस तर्क में कि “संजय दत्त
कि सजा इसलिए कम कर देनी चाहिए कि “उनहोंने गांधी फिल्म में काम कर के गाँधी का
सन्देश हमें दिया है और फिर डेढ़ साल की सजा भी तो काट चुका है“ कोई ज्यादा अंतर
नहीं है. जनमत इसलिय तैयार किया जा रहा है अगर अदालत तार्किक हो तो उसे ठेंगा
दिखाते हुए कार्यपालिका क्षमा –दान दे दे. तर्क को वजन देने के लिए गाँधी का
सन्देश का सहारा ले लिया जाता है. संजय दत्त खलनायक में भी कुछ सन्देश देते हैं पर
वह तर्क का भाग नहीं बन पाया ना यह बात सामने आई कि ३३ साल का व्यक्ति क्यों बच्चा
माना जाता है.
ये ही वे कारण है जिनकी वजह से भ्रष्टाचार सरीखा
मुद्दा धीरे –धीरे ठंडा पड़ गया और अन्ना या केजरीवाल अलग –थलग पड़ गए. जन-आक्रोश इस
बात पर नहीं बनता कि क्यों अपराधी (या आरोपी?) को अंतिम अदालत से सजा ना मिलने तक देश की छाती पर
मूंग-दलते हुए संसद में बैठने का अधिकार है. दोषी सिस्टम के खिलाफ शाश्वत-भाव से
लड़ने के लिए जिस तर्क शक्ति की ज़रुरत है वह भारतीय समाज में पनपने नहीं दी गयी लिहाज़ा
भ्रष्टाचार आज मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया. मुद्दा है तो यह कि कोई मुलायम किसी
सरकार को बचाएगे कि नहीं या तीसरा फ्रंट बनेगा कि नहीं. कोई बेनी किसी मुलायम को
किस तरह की गाली से नवाजेगा या कोई नीतीश या नवीन अपने राजनीतिक ऊँट को इस करवट
बैठायेगा या उस करवट और कोई दिग्विजय किस आतंकवादी ओसामा के नाम के पहले “मिस्टर”
लगायेगा या कोई गृह मंत्री किसी हाफिज सईद नाम के बाद “जी”.
बिहार के कई जिलों में पुरुषों की बच्चेदानी
(प्रकृति ने ऐसा कोई चमत्कार आज तक नहीं किया) निकाल कर गरीबों के स्वास्थ्य बीमा
का पैसा हड़प लिया पर मुद्दा बना “बिहार का स्वाभिमान”. जन्तर-मंतर पर रैली हुई इस
बात को लेकर ना कि इस बात को लेकर क्यों बिहार मानव विकास के हर संकेतक पर आज भी
सबसे नीचे है.
सत्ता-धारी बर्ग की तरह हीं बाजारू ताकतों को भी
समाज कुंठित और अतार्किक रहना सुहाता है. १० रुपये किलो का आलू अगर ४०० रुपये किलो
खिलाना है तो उसके लिया एक ऐसा समाज चाहिए जो भगवन के नाम पर जहर खा ले और पैसे
हों तो “चिप्स” खा ले. अगर वह माध्यम वर्ग का है तो पडोसी के घर की लम्बी गाड़ी
उसकी भी जिंदगी की साध बन जाती है. कोई पोंटी चड्ढा मुख्यमंत्रियों की नाक का बाल
बन कर अरबों कम लेता है और कोई कांडा जनप्रतिनिधि हीं नहीं मंत्री बन कर कुछ भी कर
लेता है.
इनमें से कोई जन-मुद्दा नहीं बन पाता. इस बात की
भी चर्चा नहीं होती कि कैसे खुफिया एजेंसी की निदेशक या सी आई ए का मुखिया रिटायरमेंट
की बाद राज्यपाल क्यों बना दिया जाता या
आयोगों की चारागाह में बाकि ज़िन्दगी चरने के लिए छोड़ दिया जाता. साथ हीं क्यों अगर
कोई जज क्षमतावान है (और बुढापे की बीमारियों ने असर दिखाना नहीं शुरू किया है) तो
उसकी रिटायरमेंट की उम्र बढाने की जगह उसे रिटायर होने के बाद फिर से किसी आयोग
में बैठा कर नीली बत्ती और बंगले से नवाजा जाता है.
समाज को इन सबसे छुटकारा पाना है तो ईश्वर की
खोज सही मुद्दों में करनी होगी और जहर खाने की जगह निरंतरता के साथ जनमत का दबाव
बनाना होगा.
bhaskar
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