Saturday 26 August 2017

क्यों न समाज अपने हीं भीतर से सुधार का भाव पैदा करे ?


९० साल पहले भी महिलाएं बाल विवाह के खिलाफ खडी हुई थी
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“अगर आज तुम इस विधेयक (सारदा बिल) का विरोध करते हो तो पूरा विश्व तुम पर हंसेगा”. कोई ८८ साल पहले तख्ती हाथ में लिए और नारे लगाते सैकड़ों औरतें भारत में बाल विवाह की कुप्रथा के खिलाफ धर्मं के पोंगापंथी और कट्टर ठेकेदारों को जगा रही थी. जगह थी सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (आज का संसद) भवन का गेट. ये महिलाएं जिनमें मुसलमान औरतें भी थी,अखिल भारतीय महिला संगठनों ---आल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस, वीमेन’स इंडियन एसोसिएशन और नेशनल कौंसिल ऑफ़ वीमेन इन इंडिया) ---- के बैनर के तले सदियों पुरानी बाल विवाह की कुप्रथा के खिलाफ आन्दोलन कर रही थी. इन्हीं महिलाओं ने उसी साल जून माह में भी जोशी समिति के सामने उपस्थित होकर अपनी बात रखी थी. उधर पिछले पांच साल से असेंबली के कट्टरपंथी सदस्य बाल विवाह की उम्र (और शारीरिक सम्बन्ध के सहमती की उम्र) को मात्र १४ साल करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत और प्रगतिशील सोच वाले हिन्दू नेताओं के प्रयासों को यह कह कर ख़ारिज कर रहे थे कि इससे धर्म की मूल भावनाएं आहत होंगी.  

अगर मुसलमान नारी शक्ति आज इस्लाम में १४०० साल में पहली बार सुधार (रिफॉर्म्स) की प्रक्रिया के लिए तन कर खडी हुई है और सफलता हासिल की है तो आज से ९० साल पहले भी इसी नारी शक्ति ने बाल विवाह की कुप्रथा के खिलाफ कुछ ऐसा हीं कर दिखाया था नतीजतन ब्रिटिश सरकार को पोंगापंथी हिंदुवादियों और कट्टर मुल्लाओं के भारी विरोध के बावजूद बाल विवाह निरोधक अधिनियम जिसे सारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है, २८ सितम्बर, १९२९ को पारित किया. लेकिन प्रश्न यह है कि क्या बाकि समाज को इसमें पहल नहीं करनी चाहिए थी? बड़ा अजीब लगता है जब देश की सर्वोच्च अदालत धर्म, उससे जुड़े परम्पराओं और पद्धतियों के सत्य और औचित्य को दो के मुकाबले तीन से निर्णित करती है. क्या धर्म के अनुयायियों में वह कूवत नहीं है कि वे और धार्मिक अधिष्ठान खुद ये फैसले लें? अगर देश की न्यायपालिका और विधायिका को यह काम करना पड़े तो कमी किसकी मानी जायेगी ? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि धर्म के ठेकेदार आदतन यथास्थितिवादी होते हैं (चाहे वे परंमपराएंं ईश्वरीय मूल सिद्धांतों के खिलाफ हो और कई मामलों में अमानवीय हो) क्योंकि बदलाव से उनकी दूकाने खतरे में आ जाती हैं?

बात २३ मार्च, सन १९२५ की है. सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बाल विवाह को कट्टरपंथियों के डर से न छेड़ते हुए शादी -शुदा दंपत्ति की शारीरिक संबंधों की उम्र न्यूनतम १४ साल करने संबंधी विधेयक पर विचार हो रहा था. दक्षिण राज्य के एक ब्राह्मण सदस्य ने धमकी भरे स्वर में कहा : हमारे धर्म और सामाजिक परम्पराओं के तहत जो स्थान महिलाओं का है वह दुनिया के किसी धर्म , सभ्यता और संस्कृति में नहीं है. हमारी महिलाओं को जब वे दूधमुंही बच्ची होती हैं बताया जाता है कि उनके लिए उनका पति धरती पर उनका भगवान् होता है. अगर दुनिया के सभी समाज-सुधारकों को एक गठरी में बांध कर उनके महिला कल्याणकारी योजनाओं को तौला जाये तो पति का अकेला कार्य उस भारतीय पत्नी के लिए बड़ा होता है. आपको (याने अंग्रेजों शासकों को) क्या अधिकार है कि शादी के पवित्र बंधन रुपी हमारी इस उत्तम और प्राचीन परम्परा में हस्तक्षेप करें? इस कानून का उद्देश्य क्या है? क्या अाप हमारी महिलाओं को मजबूत और बच्चों को बेहतर व्यक्तित्व देना चाहते हैं? ध्यान रखिये कि ऐसा प्रयोग करने में आप और बुराइयों को जन्म देंगें. मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपया हिन्दुओं के घरों को बर्बाद न करें. लगभग ऐसा हीं भाव अन्य दर्जनों सदस्यों ने व्यक्त किया और तब विधेयक पारित नहीं हो सका था। 

उस समय के आंकड़ें बताते हैं कि हर साल देश में ३२ लाख औरतें प्रसव पीड़ा में मर जाती थी क्यों कि दस या १२ साल में उनका शरीर बच्चे पैदा करने के लिए तैयार नहीं होता था. यह संख्या प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन, फ़्रांस , बेल्जियम , इटली और अमेरिका में मारे गए लोगों से ज्यादा थी. दूसरा नतीजा यह था अधिकांश बच्चे जन्म के दौरान या कुछ दिनों में या तो मर जाते थे या पूरी जिन्दगी कमजोर रहते थे और देश की नस्ल की नस्ल खराब हो जाती थी. पति भी कम उम्र में सेक्स के अाधिक्य  के कारण जल्दी हीं काल के ग्रास बनते थे. औसत आयु मात्र २८ साल होती थी. स्वयं गाँधी ने अपने पत्र यंग इंडिया में
और अपनी आत्म-कथा में बड़े हीं दुःख से जिक्र किया है. स्वयं गाँधी की शादी १४ साल की अवस्था में हुई थी और बक़ौल उनके वह दाम्पत्य क्रियायों में शामिल हो गए थे.

                  धर्म में सुधार के तत्व
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इसके ठीक विपरीत ईसाई धर्म में सुधार को लेकर कठमुल्लाओं के खिलाफ आवाज उठी. सन १५१७ में मार्टिन लूथर ने अपने ९५ प्रश्नों के जरिये  धार्मिक आर्डर --पादरी से लेकर पोप तक--को चुनौती दी. उनका कहना था ईसाई खुद बाइबिल पढ़े न कि पादरी के जरिये धर्म को समझें. नतीजा यह हुआ कि धार्मिक पदों पर बैठे लोगों और परिवर्तन के हिमायतियों के बीच भयंकर मार-काट करीब १५० साल चली. ईसाई धर्म अनेक और परस्पर विरोधी शाखाओं में बंटा. और आज धर्म ने एक उदारवादी सोच अख्तियार किया क्योंकि अनुयायियों ने स्वय धर्म ग्रन्थ पढ़ कर जो अंश समय के अनुरूप नहीं था उसे नज़रअंदाज किया और जो समयानुकूल था उसे ग्रहण किया.  

भारत में भी हिन्दुओं ने अपने को बदला. सती- प्रथा जैसी कुरीति के खिलाफ लार्ड विलियम बेंटिंक ने १८२९ में राजा राम मोहन राय की मदद से कानून पारित किया हालाकिं कट्टर पंथी हिन्दू राजस्थान में अगले डेढ़ सौ वर्षों तक इस कुप्रथा पर टिके रहे और हिन्दू औरतें पति के मरने पर चिता पर जलती रही या जलाई जाती रहीं.

सर्वोच्च न्यायलय के ताज़ा फैसले से देश में पहली बार इस्लाम के नाम पर जारी एक बेहद अमानवीय कुप्रथा –एक बार में मुसलमान पति द्वारा तीन तलाक कह कर औरत को घर से बाहर का रास्ता दिखाना --ख़त्म हुआ है. और इसका भी श्रेय मुस्लिम महिलाओं को जाता है जो इस कुप्रथा के दंश को झेल रहीं थीं. लेकिन अभी इस लड़ाई में और लोगों को खासकर आधुनिक और मानवीय सोच वाले पुरुषों को भी शामिल होना होगा. जाहिर हैं धर्म के ठेकेदारों को यह नागवार गुजरेगा जैसे बाल विवाह और सती –प्रथा को लेकर हिन्दू कठमुल्लाओं ने प्रारंभिक दौर में किया था.

lokmat