Saturday 5 April 2014

गरीब और न्याय का तराजू


देश के सर्वोच्च न्यायालय के एक बेंच की यह ताज़ा टिपण्णी कि “देश की अदालतों में गरीबों के मामले सुनाने के लिए महज पांच प्रतिशत वक़्त मिल पाता है जबकि बाकि वक़्त अमीरों के मामले निपटने में लगता है”  ६५ साल के प्रजातंत्र की कोख के गरीबीरुपी उस बहते मवाद को दर्शाता है जिसे नज़रंदाज़ करने ले लिए संस्थाएं “डीऑडरेंट” झिड़क कर और नाक पर रुमाल डाल कर निकल जाती है. संस्थाओं में बैठे सुविधाभोगी वर्ग ना तो गरीब को को मरने देता है ना हीं ईलाज़ कर जीने देता है.

न्यायालय में लंबित मुकदमे की प्रकृति का विश्लेषण इसका सबसे चुभता उदाहरण हैं. दो वर्ष पहले तक देश की सभी निचली अदालतों में कुल २ करोड़ ७२ लाख ७५ हज़ार नौ सौ तिरपन मामले लंबित थे जिन में १ करोड ९५ लाख ५९ हज़ार बहत्तर मामले आपराधिक थे और ७७ लाख १६ हज़ार ८८१ सिविल. लेकिन देश के उपरी न्यायालयों याने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केवल आठ लाख २५ हज़ार ६५१ आपराधिक मामले हैं जबकि ३२ लाख ३५ हज़ार ५८ सिविल मामले. याने निचली अदालतों में लंबित मामलों में आपराधिक और सिविल का जो अनुपात लगभग १:३ का था वह  उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों तक पहुंचते-पहुंचते ठीक उल्टा हो जाता है मतलब ३:१. यहाँ हम सब जानते है कि आपराधिक मामलों में ९५ फी सदी आर्थिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग होता है जबकि सिविल मामलों में संपत्ति को लेकर सम्पन्नं लोग पहुंचते हैं. इस अनुपात के उलटे होने का सीधा मतलब है कि चूंकि न्याय महंगा है इसलिए गरीब व्यक्ति जेल की सलाखों में दम तोड़ देता है क्योंकि उपरी अदालत में जाने के हैसियत नहीं होती जब कि संपन्न लोग किसी व स्तर तक अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं वह चाहे जमीन हड़प कर या सरकारी मुआवज़े को बढाने के मामले में या पत्नी को तलाक देने का मामले में जिसका ना तो देश के विकास से मतलब है ना हीं गरीब के उत्थान से.

मज़बूत या सफल प्रजातंत्र के लिए पहली शर्त है गरीबों की न्याय तक पहुँच. लेकिन क्या कोई गरीब शासन या राज्य अभिकरणों के मनमानी या समाज के दबंग के खिलाफ न्याय का दरवाज़ा खटखटा पाटा है? सर्वोच्च न्यायालय में कुछ वकीलों की फीस कई लाख रुपये प्रति पेशी होती है. कौन पहुँच सकता है उनके पास अगर वह टाटा या अम्बानी नहीं है. लिहाज़ा न्याय कॉर्पोरेट हित की चेरी बनाती जाती है. सिद्धांत के हिसाब से वकालत या पत्रकरिता के पेशे का चरित्र सार्वजानिक होता है याने समाज के प्रति उसमें समर्पण अन्तर्निहित होता है. वकील राज्य और नागरिक बे बीच एक कड़ी का काम करता है याने वह एक प्रजातान्त्रिक , उदारवादी और विमुक्तिकर्ता की भूमिका में रहता है न कि मात्र निजी व्यवसाय के पोषक के रूप में. अमरीका के मशहूर न्यायाधीश नेल्सन के अपने एक बहुचर्चित फैसले (१८५० में स्टाकहोम बनाम फोर्ड) में कहा था “ एक वकील और मुवक्किल के बीच विश्वास का जो रिश्ता होता है वह जीवन के अन्य किसी रिश्ते में नहीं होता” .

अमरीकी बार एसोसिएशन के व्यवसाय एवं नैतिकता संबंधी कानून के नियम १२ में कहा गया है कि अपनी फी निर्धारित करते वक़्त एक वकील को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका पेशा –वकालत- न्याय प्रशासन का हीं एक अंग है ना कि पैसे पैदा करने वाली मशीन.

इसका अनुपालन भारत में एक्का –दुक्का वकीलों के मामले में देखने को मिलता है. कई दशक पूर्व जाने –माने वकील एम सी सीतलवाड ने स्पेशल लीव पेटिशन (एस एल पी) दायर करने के लिए मात्र १०४० रुपये की और अंतिम बहस के दिन मात्र १६८० रुपये की फी निर्धारित की थी. लेकिन क्या आज के वकील ऐसा कर सकेंगे? इसके ठीक विपरीत दिल्ली में बड़े वकीलों को अव्वल तो मुवक्किल सीधे जा हीं नहीं सकता अगर जाता है तो अपने लोकल वकील के साथ. याने दोनों की फीस भरिये. दिल्ली के अधिकांश बड़े वकीलों के यहाँ मुकदमे को पूरा समझाने के लिए जो वक़्त मुक़र्रर है उतने देर में अगर बात नहीं समझा सके तो अगले मिनट फीस दूनी. चाय पीयें तो उसका भीई पैसा लगेगा. अगर वकील साहेब को केस पसंद आ गया तो लड़ने की फी अलग और अगर नहीं आया तो यह फी तो डूबी हीं. क्या गरीब न्याय पा सकेगा ? 

अब जरा गौर करें. निचली अदालतों से जिन लोगों (जिनमें ९५  प्रतिशत गरीब और अशिक्षित होते हैं ) को सजा दे कर जेल में ठूंस दिया जाता है उनका हर किस्म का मौलिक अधिकार ख़त्म हो जाता है. ऐसे में उपरी अदालत में अपील  की ज़रुरत उसे ज्यादा होती है उस व्यक्ति के मुकाबले जो अपनी जायदाद बचाने या दूसरे की हड़पने का मुकदमा अदालत में ले जाता हो. या पत्नी को तलाक देने का? लेकिन ना तो वकीलों को न हीं अदालतों को , न हीं मीडिया को और न हीं प्रजातंत्र के तमाम अलमबरदारों को जो इसे जिन्दा रखने के नाम पर चर-खा रहे हैं आज तक यह देखने की ज़रुरत पडी कि अदालत का तराजू टेढ़ा है.

सुप्रीम कोर्ट की बेंच की टिपण्णी से उम्मीद बंधी है गरीब से दूर होता न्याय शायद उनकी तरफ भी रुख करे.

अब जरा एक और अदालती विडम्बना पर गौर करें. एक अपराधी निचली अदालत से झूट जाता है लेकिन अगर राज्य ऊपर की अदालत में अपील करता है तो कई बार निचली अदालत के फैसले को गलत ठहराते हुए उसे सजा मिल जाती है. याने अदालत दर अदालत सत्य बदल जाता है और निचली अदालत का जो सत्य किसी को जेल में सडा सकता है वही अगर वह ऊपर की अदालत में जाये तो उसे उन्मुक्त जीवन दे सकता है. लेकिन राज्य के पास तो ऊपर की अदालत में जाने की शक्ति होती है पर उस गरीब के पास जिसे दरोगा ने पैसे न देने पर फर्जी मुकदमों में भीतर कर दिया है वह प्रजातंत्र में आस्था कैसे रखे और कैसे विश्वास करे कि न्याय का तराजू सीधा भी होता है. याने सत्य (मतलब कि आप जेल में रहेंगे या बाइज्ज़त बाहर निकल  कर , राजनीति में आ कर संसद या विधान सभा में पहुँच कर कानून बनायेंगे) कई बार इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी की ऊपर की अदालतों तक जाने की क्षमता कितनी है. मीरुत के एक हत्या सहित बलात्कार का आरोपी निचली अदालत से सजा पाता  है पर हाई कोर्ट उसे छोड़ देता है लेकिन जब सरकार उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाती है तो देश की सबसे बड़ी अदालत न केवल हाई कोर्ट के फैसले को गलत ठहराती है बल्कि  निचली अदालत की तारीफ करती है.  अगर गरीब होता तो कब का सजा पा चुका होता या अगर सरकार जिद्दी ना होती तो कब का झूट चुका होता.  

किसी शायर ने ठीक हीं कहा है :  
“ख्वाबों के पर जले हुए बिखरे थे चार सू,
अखबार कह रहा था कोई घर जला न था”
sahara/lokmat

Monday 31 March 2014

वोटर में दम हो तो कर दे रिजेक्ट


रोमन तानाशाह जूलियस सीजर पर जब विद्रोहियों ने हमला किया तो शुरू में वह लड़ा लेकिन जब अपने हीं सबसे नजदीकी मित्र ब्रूटस को हमले में शामिल पाया तो अविश्वास से बोला “ब्रूटस तुम भी?” और तब  उसने  अपनी जान हमलावरों के हवाले कर दी. आज भारत में लगता है राजनीति में हर कोई ब्रूटस है और हर एक –दूसरे से पूछ रहा है “तुन भी ?” कोई लालू यादव राम कृपाल से यही पूछ रहा है. कोई जसवंत सिंह भी वसुंधरा तो वसुंधरा , पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह में ब्रूटस देख रहा है. कोई कांग्रेस जगदम्बिका पाल  और सत्यपाल मालिक से यही पूछ रही है.

देश के राजनीतिक इतिहास में पार्टी में फेर बदल का इतना नंगा नाच शायद इसके पहले नहीं हुआ है. इसने राजनीतिक मानदंडों के सारे स्थापित मूल्यों को टुकडे –टुकडे कर जनता के सामने ऐसे फेंका है मानो बेशर्मी से चुनौती दे रहा हो कि “दम हो तो रिजेक्ट करो”. राजनाथ सिंह का किसी जगदम्बिका पल को गले लगा कर मीडिया के लिए मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाना इसी के संकेत है. ऐसा लग रहा है कि आदर्श , नैतिकता , कैडर –पार्टी रिश्ता वोट की वेदी पर बलि चढ़ाये जा रहे हों. सब देखर कर जनता मानो हमलावरों से घिरे सीजर की तरह राष्ट्रीय पार्टियों से पूछ रही हो “क्षेत्रीय पार्टियों में तो यह सब पुराना है पर आज तुम भी वही निकले ?”           

इस २०१४ के आम चुनाव में राजनीति –शास्त्र के हर नैतिक नियम को तोडा जा रहा है. राजनीतिक पार्टियाँ कुछ सिद्धांतों व आदर्शों पर चलती है. जनता उन सिद्धांतों व आदर्शों के आधार पर उन्हें वोट देती हैं. इन सिद्धांतों को जनता तक पहुँचाने के लिए कैडर होता है. यह कैडर अपने क्षेत्र के लोगों के बीच अपने उन्हीं सिद्धांतों व आदर्शों के आधार पर उपादेयता बनता है. पार्टी , कैडर और जनता का यह त्रिकोण हीं किसी प्रजातंत्र में चुनाव की बुनियाद माना जाता है.  

राजनीति शास्त्र में अप -आदर्शों के वर्ण-शंकर (मोन्ग्रेलाइज़ेश्न ऑफ़ आइडियाज) की चर्चा तो है लेकिन इस तरह के चुनावी वर्ण –शंकर की चर्चा नहीं है. शायद ऐसी बीमारी का भान उन्हें भी नहीं था.  
 राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने अपने हनुमान रुपी राम कृपाल यादव को पुत्रीमोह के वशीभूत हो कर पटना से टिकट नहीं दिया. राम कृपाल ने दो हफ्ते पहले तक सार्वजानिक रूप से मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को गुजरात दंगों  के लिए जिम्मेदार माना था और हत्यारों की पार्टी की संज्ञा दी थी. अचानक ७२ घंटों में पलटी  मारते हुए इस तथाकथित हत्यारों की पार्टी में शामिल होते हैं. चेहरा ऐसा चमक रहा होता है जैसे समाज के लिए फिर कोई नया हत्यारा पकड़ेंगे, चुनाव मंच से अब उनका कहना है कि देश को बचाने कि लिए भारतीय जनता पार्टी और उसके (उनके) नेता मोदी को लाना जरूरी है.             

दल-बदल निरोधक क़ानून के तहत अगर कोई सांसद या विधायक पार्टी व्य्हिप के खिलाफ सदन में मतदान करता है तो पार्टी के मुखिया (अध्यक्ष) के लिखित शिकायत पर स्पीकर उस जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर सकता है. यानि सदन में एक जन प्रतिनिधि किसी बड़े से बड़े या छोटे से छोटे मुद्दे पर क्या कहता है यह उसकी राय नहीं होगी बल्कि पार्टी के नेता जो चाहेंगे उसे वही कहना होगा. लेकिन वही सदस्य पांच साल तक पानी पी कर दूसरे दल , उसकी नीतियों या उसके सदस्यों को देश के लिए घातक बताता रहे लेकिन ठीक चुनाव के वक्त इसलिए पाला बदल ले कि उसे टिकट नहीं मिला या उसके पार्टी की हवा खराब है तो उसके खिलाफ कोई कानून नहीं.  

प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों में एक यह कहता है कि जनता को मुद्दों पर शिक्षित करना , उनकी चेतना को बेहतर बनाना और उन्हें अपनी नीतियों के प्रति आकर्षित करना राजनीतिक पार्टियों का मूल कर्तव्य है. राम कृपाल यादव या दस दिन पहले तक कांग्रेस में रहे जगदम्बिका पाल ( अब भारतीय जनता पार्टी की शोभा बढ़ा रहे हैं) किस नीति से जनता को अवगत करा रहे हैं? कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में जाट  आरक्षण या आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण की नीति से या भारतीय जनता पार्टी की राम मंदिर की नीति से या मुजफ्फरनगर के दंगा आरोपी को टिकट देने के कदम के औचित्य से?  

राजस्थान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का अहसान फरामोश होना या भारतीय जनता पार्टी के फैसला लेने की प्रक्रिया में आपातकाल की आहट बुज़ुर्ग नेता जसवंत सिंह को  तब सुनाई देने लगी जब टिकट नहीं मिला. उधर राजनाथ सिंह के सलाहकार का यह बयान कि “टिकट देना या ना देना पार्टी का फैसला है” भी जनता की समझ में नहीं आता. कब तक पार्टी हर काम में वयोवृद्ध नेता आडवानी को शामिल करती है और कब उन्हें उन फैसलों से अलग रखा जाता है यह जनता ठगी सी देखती रहती है.  

हाल के कुछ वर्षों पहले जब एक पत्रकार ने संघ के किसी शीर्ष नेता से बात करते हुआ कहा कि कुछ भी हो आडवाणी का भाजपा को इस उंचाई तक लाने  में बड़ा योगदान हैतो उस संघ नेता का फौरी प्रश्न था और आडवाणी को यहाँ तक लाने में किसका योगदान है?” यही समस्या है. संघ यह समझ रहा है कि वह आडवाणी पैदा करता है और आडवाणी को यह लग रहा है कि उनके आजीवन योगदान को संघ के लोग ना केवल नज़रंदाज़ कर रहें हैं बल्कि उसकी भरपाई भी नहीं हो रही है.      

यहाँ तक तो ठीक है. पार्टी और नेता के बीच योगदान को लेकर अपेक्षाएं बदलती रहती हैं. राजनीतिक दल चूंकि व्यक्ति और उनकी महत्वाकांक्षा का सकल योग होता है लिहाज़ा इसमें बदलाव, झंझावात, व्यक्तित्व की टकराहट, संस्था व्यक्तित्व रसाकसी और तज्जनित चारित्रिक-सैद्धांतिक  परिवर्तन अपरिहार्य है. चिंता तब होनी चाहिए जब यह सब कुछ न हो रहा हो. क्योंकि तब यह डर रहता है कि दल कहीं अधिनायकवादी तो नहीं हो गया है. यह अलग बात है कि कैडर-आधारित दलों में यह पोलित ब्यूरो के माध्यम से बगैर जनता में जाये होता है और खुले दलों में यह थोडा बेलगाम तरीके से होता है और जनता को भी पता चलता रहता है

अगर कम्युनिस्ट पार्टी श्रीपाद अमृत डाँगे सरीखे संस्थापक नेता को दरकिनार करती है और तथाकथित  वैचारिक अगर आधार १९६४ में दो टुकड़ों में बाँट सकती है और कालांतर में इसके कई टुकड़े बिखरते है तो आजाद भारत में हीं कांग्रेस में नेहरु-टंडन टकराहट, वाम-दक्षिण धडों के नाम पर इंदिरा बनाम पुराने कांग्रेस नेताओं का झगड़ा, राजीव-वी पी सिंह टकराव, सोनिया-राव टकराव किसी से छिपा नहीं है.    

लेकिन क्या जिस पार्टी या व्यक्ति को देश के लिए घातक  बनाने के कुछ घंटों बाद उसी शिद्दत से उसी  पार्टी या व्यक्ति को देश का तारनहार बताना जनता को गुमराह करना नहीं माना जाना चाहिए ? क्या इसके लिए सजा का क़ानून नहीं बनना चाहिए? अगर चुने जाने के बाद पार्टी से अलग होने पर सदस्यता इस सिद्धांत  पर जा सकती है कि पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद पार्टी की बात ना मानना जनता के साथ धोखा है तो चुनाव के पहले का यू-टर्न या पैंतरेबाज़ी क्यों इस परिधि में नहीं आते?     

उसी तरह अगर पार्टी का सदस्य पार्टी के हिसाब से (व्हिप जारी होने पर) ना वोट करे तो सदस्यता गयी लेकिन पूरी की पूरी पार्टी अगर पलटी मार जाये तो कोई  कानून नहीं. जनता दल (यू) नेता नीतीश कुमार के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ते है. साथ में सरकार बनाते है लेकिन अचानक सत्ता में रहते हुए भी उसी भारतीय जनता पार्टी को देश के लिए घातक बताने लगते हैं. मोदी का २००२ दंगा उन्हें फिर याद आने लगता है. क्या यह जनता के साथ धोखा नहीं है. आखिर २००५ या २०१० के बिहार विधान सभा  चुनाव या २००४ और २००९ के लोक सभा चुनाव तो उसके बाद हीं हुए हैं?

sahara(hastakshep)