देश
के सर्वोच्च न्यायालय के एक बेंच की यह ताज़ा टिपण्णी कि “देश की अदालतों में
गरीबों के मामले सुनाने के लिए महज पांच प्रतिशत वक़्त मिल पाता है जबकि बाकि वक़्त
अमीरों के मामले निपटने में लगता है” ६५
साल के प्रजातंत्र की कोख के गरीबीरुपी उस बहते मवाद को दर्शाता है जिसे नज़रंदाज़
करने ले लिए संस्थाएं “डीऑडरेंट” झिड़क कर और नाक पर रुमाल डाल कर निकल जाती है.
संस्थाओं में बैठे सुविधाभोगी वर्ग ना तो गरीब को को मरने देता है ना हीं ईलाज़ कर
जीने देता है.
न्यायालय
में लंबित मुकदमे की प्रकृति का विश्लेषण इसका सबसे चुभता उदाहरण हैं. दो वर्ष
पहले तक देश की सभी निचली अदालतों में कुल २ करोड़ ७२ लाख ७५ हज़ार नौ सौ तिरपन
मामले लंबित थे जिन में १ करोड ९५ लाख ५९ हज़ार बहत्तर मामले आपराधिक थे और ७७ लाख
१६ हज़ार ८८१ सिविल. लेकिन देश के उपरी न्यायालयों याने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
में केवल आठ लाख २५ हज़ार ६५१ आपराधिक मामले हैं जबकि ३२ लाख ३५ हज़ार ५८ सिविल
मामले. याने निचली अदालतों में लंबित मामलों में आपराधिक और सिविल का जो अनुपात
लगभग १:३ का था वह उच्च न्यायालयों और
सर्वोच्च न्यायालयों तक पहुंचते-पहुंचते ठीक उल्टा हो जाता है मतलब ३:१. यहाँ हम
सब जानते है कि आपराधिक मामलों में ९५ फी सदी आर्थिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग
होता है जबकि सिविल मामलों में संपत्ति को लेकर सम्पन्नं लोग पहुंचते हैं. इस
अनुपात के उलटे होने का सीधा मतलब है कि चूंकि न्याय महंगा है इसलिए गरीब व्यक्ति
जेल की सलाखों में दम तोड़ देता है क्योंकि उपरी अदालत में जाने के हैसियत नहीं
होती जब कि संपन्न लोग किसी व स्तर तक अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं वह चाहे
जमीन हड़प कर या सरकारी मुआवज़े को बढाने के मामले में या पत्नी को तलाक देने का
मामले में जिसका ना तो देश के विकास से मतलब है ना हीं गरीब के उत्थान से.
मज़बूत
या सफल प्रजातंत्र के लिए पहली शर्त है गरीबों की न्याय तक पहुँच. लेकिन क्या कोई
गरीब शासन या राज्य अभिकरणों के मनमानी या समाज के दबंग के खिलाफ न्याय का दरवाज़ा
खटखटा पाटा है? सर्वोच्च न्यायालय में कुछ वकीलों की फीस कई लाख रुपये प्रति पेशी
होती है. कौन पहुँच सकता है उनके पास अगर वह टाटा या अम्बानी नहीं है. लिहाज़ा
न्याय कॉर्पोरेट हित की चेरी बनाती जाती है. सिद्धांत के हिसाब से वकालत या
पत्रकरिता के पेशे का चरित्र सार्वजानिक होता है याने समाज के प्रति उसमें समर्पण
अन्तर्निहित होता है. वकील राज्य और नागरिक बे बीच एक कड़ी का काम करता है याने वह
एक प्रजातान्त्रिक , उदारवादी और विमुक्तिकर्ता की भूमिका में रहता है न कि मात्र
निजी व्यवसाय के पोषक के रूप में. अमरीका के मशहूर न्यायाधीश नेल्सन के अपने एक
बहुचर्चित फैसले (१८५० में स्टाकहोम बनाम फोर्ड) में कहा था “ एक वकील और मुवक्किल
के बीच विश्वास का जो रिश्ता होता है वह जीवन के अन्य किसी रिश्ते में नहीं होता” .
अमरीकी
बार एसोसिएशन के व्यवसाय एवं नैतिकता संबंधी कानून के नियम १२ में कहा गया है कि
अपनी फी निर्धारित करते वक़्त एक वकील को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका पेशा –वकालत-
न्याय प्रशासन का हीं एक अंग है ना कि पैसे पैदा करने वाली मशीन.
इसका
अनुपालन भारत में एक्का –दुक्का वकीलों के मामले में देखने को मिलता है. कई दशक
पूर्व जाने –माने वकील एम सी सीतलवाड ने स्पेशल लीव पेटिशन (एस एल पी) दायर करने
के लिए मात्र १०४० रुपये की और अंतिम बहस के दिन मात्र १६८० रुपये की फी निर्धारित
की थी. लेकिन क्या आज के वकील ऐसा कर सकेंगे? इसके ठीक विपरीत दिल्ली में बड़े
वकीलों को अव्वल तो मुवक्किल सीधे जा हीं नहीं सकता अगर जाता है तो अपने लोकल वकील
के साथ. याने दोनों की फीस भरिये. दिल्ली के अधिकांश बड़े वकीलों के यहाँ मुकदमे को
पूरा समझाने के लिए जो वक़्त मुक़र्रर है उतने देर में अगर बात नहीं समझा सके तो
अगले मिनट फीस दूनी. चाय पीयें तो उसका भीई पैसा लगेगा. अगर वकील साहेब को केस
पसंद आ गया तो लड़ने की फी अलग और अगर नहीं आया तो यह फी तो डूबी हीं. क्या गरीब
न्याय पा सकेगा ?
अब
जरा गौर करें. निचली अदालतों से जिन लोगों (जिनमें ९५ प्रतिशत गरीब और अशिक्षित होते हैं ) को सजा दे
कर जेल में ठूंस दिया जाता है उनका हर किस्म का मौलिक अधिकार ख़त्म हो जाता है. ऐसे
में उपरी अदालत में अपील की ज़रुरत उसे
ज्यादा होती है उस व्यक्ति के मुकाबले जो अपनी जायदाद बचाने या दूसरे की हड़पने का
मुकदमा अदालत में ले जाता हो. या पत्नी को तलाक देने का? लेकिन ना तो वकीलों को न
हीं अदालतों को , न हीं मीडिया को और न हीं प्रजातंत्र के तमाम अलमबरदारों को जो
इसे जिन्दा रखने के नाम पर चर-खा रहे हैं आज तक यह देखने की ज़रुरत पडी कि अदालत का
तराजू टेढ़ा है.
सुप्रीम
कोर्ट की बेंच की टिपण्णी से उम्मीद बंधी है गरीब से दूर होता न्याय शायद उनकी तरफ
भी रुख करे.
अब
जरा एक और अदालती विडम्बना पर गौर करें. एक अपराधी निचली अदालत से झूट जाता है
लेकिन अगर राज्य ऊपर की अदालत में अपील करता है तो कई बार निचली अदालत के फैसले को
गलत ठहराते हुए उसे सजा मिल जाती है. याने अदालत दर अदालत सत्य बदल जाता है और
निचली अदालत का जो सत्य किसी को जेल में सडा सकता है वही अगर वह ऊपर की अदालत में
जाये तो उसे उन्मुक्त जीवन दे सकता है. लेकिन राज्य के पास तो ऊपर की अदालत में
जाने की शक्ति होती है पर उस गरीब के पास जिसे दरोगा ने पैसे न देने पर फर्जी
मुकदमों में भीतर कर दिया है वह प्रजातंत्र में आस्था कैसे रखे और कैसे विश्वास
करे कि न्याय का तराजू सीधा भी होता है. याने सत्य (मतलब कि आप जेल में रहेंगे या
बाइज्ज़त बाहर निकल कर , राजनीति में आ कर
संसद या विधान सभा में पहुँच कर कानून बनायेंगे) कई बार इस बात पर निर्भर करेगा कि
आरोपी की ऊपर की अदालतों तक जाने की क्षमता कितनी है. मीरुत के एक हत्या सहित
बलात्कार का आरोपी निचली अदालत से सजा पाता
है पर हाई कोर्ट उसे छोड़ देता है लेकिन जब सरकार उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम
कोर्ट जाती है तो देश की सबसे बड़ी अदालत न केवल हाई कोर्ट के फैसले को गलत ठहराती
है बल्कि निचली अदालत की तारीफ करती
है. अगर गरीब होता तो कब का सजा पा चुका
होता या अगर सरकार जिद्दी ना होती तो कब का झूट चुका होता.
किसी
शायर ने ठीक हीं कहा है :
“ख्वाबों
के पर जले हुए बिखरे थे चार सू,
अखबार
कह रहा था कोई घर जला न था”
sahara/lokmat