Sunday 10 September 2017

अज्ञानी व अनैतिक मीडिया देश के सम्यक सोच के लिए घातक


स्वस्थ जन-संवाद को कुंठित करते ये न्यूज़ चैनल 
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कोई दस साल पहले जब प्राइम-टाइम स्लॉट को बाबा, भूत-भभूत और “एलियन” के शिकंजे से छुडा कर स्वस्थ स्टूडियो –डिस्कशन की ओर लाया गया तो उद्देश्य था जन-संवाद के धरातल में लोकोपयोगी मुद्दे लाना. अपेक्षा थी कि एंकर उस मुद्दे पर यथासंभव जानकारी अपनी रिसर्च यूनिट से हासिल कर पूरी तरह सत्य के निकट पहुँचने की कोशिश करे, याने पक्ष-विपक्ष दोनों पहलू से समाज को अवगत कराएगा. राजनीतिक संवाद में पार्टियों के प्रमुख लोग होंगे और सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या अन्य मामलों में उस विषय के प्रतिनिधि व जानकार और स्वतंत्र विश्लेषक जिनकी जानकारी और निरपेक्ष तर्क-शक्ति विषय को ट्रैक पर रखेगी.

यह प्रयास दो कारणों से किया गया. पहला: घटिया विषय-वस्तु देने से समाज में मीडिया और खासकर एडिटरों को छवि काफी गिरने लगी थी और दूसरा: प्रजातंत्र के बेहतर संचरण के चार मूल तत्व होते हैं ; (१) बहुमत का शासन, (२) अल्प-संख्यकों के अधिकार की रक्षा, (३) संवैधानिक शासन पद्धति और (४) विमर्श से शासन क्योंकि  चुनाव जीत कर सरकार चलाना कोई साइकिल स्टैंड का ठेका लेना नहीं है और सरकार से उसके कार्यों का हिसाब लगातार लेना, जन-विमर्श के जरिये उसे अमुक कार्य करने या न करने के लिए उद्दत करना और अगले चुनाव में उसे ख़ारिज करने या फिर बहाल करने का भय बनाये रखना इसी विमर्श का हिस्सा होता है। और इसी अवधारणा के कारण मीडिया की भूमिका स्वस्थ प्रजातंत्र में अपरिहार्य मानी जाती है.

स्टूडियो डिस्कशन के जरिये हमारा प्रयास था कि सार्थक मुद्दों पर बहस के माध्यम से दर्शकों को दोनों पक्ष के तथ्य दे दिए जाएँ और फिर उन्हें जन-विमर्श के धरातल पर छोड़ दिया जाये ताकि अगले दिन सुबह चाय की दूकानों, कार्यालयों और अन्य विमर्श के “कोनोँ” इसे लोग डिस्कस करें और प्रजातंत्र की जड़ें अतार्किक, अवैज्ञानिक व भावनात्मक मुद्दों के बाढ़ में बह न जाएँ. साथ हीं चूंकि भारत सरीखे परम्परागत देश में वैज्ञानिक सोच लाने के लिए कोई क्रांति हुई हीं नहीं (जो हुई वह गलत या सही संविधान में हीं कैद रह गयी जैसे दलित प्रताड़ना व जातिवाद से छुटकारा, भ्रष्टाचार उन्मूलन, सम्प्रदायवाद के दंश से मुक्ति) लिहाज़ा डिस्कशन का एक बड़ा फायदा यह होता कि समाज की तर्क-शक्ति बेहतर होती और वह भाव-शून्य और तथ्य पर आधारित सोच विकसित करता.

लेकिन कुछ हीं वर्षों में यह सब कुछ पटरी से उतर गया और उद्देश्यों के ठीक उल्टा होने लगा. एडिटर को लगा कि इसमें देश-व्यापी पहचान बनती है, सत्ता सीधे प्रभावित होती है और उसकी फेस-वैल्यू उसे तनख्वाह आसमानी करवाने में मदद करती है. लिहाज़ा चेहरा रंगा-पोतवा कर वह हर शाम घंटे –दो घंटे की कवायद को अपनी पत्रकरिता की “गणेश-पूजा” मानने लगा. भूत-भभूत, बाबाओं और “गाय ले जाने वाले आकाशीय एलिएंस" दिखाने से अभी-अभी छूटे इन संपादकों को पढ़ने की आदत नहीं रही लिहाज़ा शाम के “डिस्को” के लिए विषय का चुनाव भी राधे-माँ, आसाराम और “दो के बदले दस सिर” से ऊपर नहीं बढ़ पाया. दरअसल इसमें संपादक-एंकर महोदयों को पढ़ना नहीं होता. खाली हांफ-हांफ कर राष्ट्रवाद में तनमन न्योछावर करने के भाव में आना होता है. अंग्रेज़ी चैनल के एक संपादक ने तो “राष्ट्रवाद” को अपनी पत्रकारिता का अपरिहार्य गुणक बता कर अपने को बौद्धिक ईमानदारी का अलमबरदार बताना शुरू किया। तमाम हिंदी चैनलों के युवा एंकर –एडिटरों ने इस स्टाइल को यथावत अंगीकार कर लिया. राष्ट्रवाद को लेकर वही गुस्सा, गैर-भाजपाइयों और गैर हिंदुवादी पैनालिस्टों को खासकर कांग्रेस के प्रवक्ताओं को अ-राष्ट्रवादी मानते हुए इन एंकर –एडिटरों  द्वारा बाकि का काम तथाकथित “राष्ट्रवादी पेनलिस्टों पर छोड़ देना जो अगले पांच मिनट में अपने “प्रतिद्वंदियों” पाकिस्तान भेजने की बात कह कर अपने को विजयी घोषित कर लेगा इस नये फ़ॉर्मेट की बुनियाद बन गया।  इसमें न तो एंकर-एडिटर महोदय को पढ़ने की जरूरत है न हीं दलों से जुड़े पैनालिस्टों को. बस आवाज बुलंद (लंग  पॉवर से) और बदतमीज़ी की हद तक दूसरे को न बोलने देने की सलाहियत हीं तो चाहिए. “तेरा नेता बनाम मेरा नेता” का लाभ यह है कि प्रवक्ता दिल्ली बैठे शीर्ष नेतृत्व की नज़रों में चढ़ जाता है और कई बार मंत्री पद से नवाज़ दिया जाता है या राज्य-सभा में जगह मिल जाती है.

राम रहीम मुद्दे पर दिन रात वह तहखाना दिखाया जा रहा है जिसमें इन लालबुझक्कडों के अनुसार बाबा सुरंग से लड़कियों को मंगवाता था बलात्कार करने के लिए. इन में से कई संपादकों के चैनलों में हाल हीं में यह बाबा इन्हीं संपादकों को अपनी फ़िल्म प्रोनोशन के लिये इन्टरव्यू दे चुका है। लेकिन तब इन संपादकों को बाबा नैतिकता की प्रतिमूर्ति लगा। किसी एंकर-एडिटर ने इस बात पर चर्चा नहीं की कि कैसे देश में पारम्परिक व औपचारिक धार्मिक आर्डर ख़त्म हुए या जातिवाद , छुआछूत को प्रश्रय देते रहे जिसकी प्रतिक्रिया में कमज़ोर और अज्ञानी वर्ग इन बाबाओं के चंगुल में फंसता गया; इसमें सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों और बाज़ार की ताकतों और सत्ता-बाबा गठजोड़ की क्या भूमिका थी? संविधान में संशोधन करके सन १९७६ से  “वैज्ञानिक सोच विकसित करना” हर नागरिक का कर्तव्य माना गया लेकिन क्या सरकार ने इसके लिए कोई फण्ड या विभाग या कोई अन्य उपक्रम किया. या फिर किसी मीडिया हाउस ने क्या कभी इसके लिए कोई अभियान चलाया. बाबा से हम विज्ञापन लेते रहे और जब “फंस” गया तो उसके “बेड-रूम” की अय्याशी हफ़्तों-दर-हफ़्तों दिखाने लगे. कहाँ है जरूरत पढने की? एक और उदाहरण  लें. कुछ हफ्ते पहले देश के स्वास्थ्य को लेकर सरकार की एक विस्तृत रिपोर्ट आयी. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन ऍफ़ एस एच) की यह चौथी रिपोर्ट है (तीसरी सन २००७ में आयी थी). इतनी वृहद् रिपोर्ट जिसमें देश के हर जिले में स्वास्थ्य की कितनी बुरी स्थिति है पर प्रमाणिक व्योरा था. पढने पर पता चला कि देश में स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब है. क्या इन “सर्वज्ञं” एंकर-एडिटरों को इस पर जन-विमर्श तैयार नहीं करना चाहिए था7th ?  लेकिन इसके लिए इनको कई दशकों तक पढ़ना पड़ता तब इस टॉपिक का महत्व समझ पाते. लिहाज़ा शाम को ये फिर “किसी बाबा के बेड –रूम “ में घुस गए. जाहिर है जब संपादक महोदय न्यूज़ रूम में ऐसे टॉपिक का चुनाव करेंगे तो रिपोर्टर खबर लायेगा “बाबा रोज शाम को काम-शक्ति वर्धक दावा खाता था”. दो दिन पहले एक प्रमाणिक रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में लगातार गरीब-अमीर खाई बढ़ रही है (जिन्नी गुणक) के पैमाने पर. तमाम अंतर-राष्ट्रीय संस्थाएं लगातार चीख-चीख कर बता रही हैं कि भारत का आर्थिक मॉडल गलत है और इसमें गरीब और गरीब बन रहा है और अमीर और अमीर. लेकिन क्या आपने एक दिन भी कोई चर्चा सुनी है? कारण ? एंकर महोदय को पढ़ना पडेगा. मीडिया में लाखों रुपये महीने की तन्खवाह, रातों-रात सेलेब्रिटी बन कर बे –पनाह “पहचान” , हर शाम महज घंटे-दो घंटे के लिए राष्ट्रवाद या “बाबा की ऐय्यासी”  को लेकर गुस्से के भाव ने भारत के सार्थक  जन संवाद को कहीं दूर फेंक दिया है.
इनमें से एक अपेक्षाकृत बेहतर वसूलों वाले संपादक का बचाव सुनिए: “संपादक कोई प्रोफेसर थोडे न होता है. १३ घंटे काम करता है. अगर वह ऑफिस में संविधान और गूढ़ रिपोर्ट पढेगा तो चैनल चल चुका.” शायद उसे नहीं मालूम था कि संपादक प्रोफेसर से ज्यादा पढता है और तब जब समाज से सम्मान मिलता है वह अलग होता है. पंडित भीमसेन जोशी और मीका में अन्तर समझना होगा।    

Jag