Sunday 12 October 2014

मोदी के अद्भुत प्रयोग की सफलता की शर्तें



विश्व के प्रजातान्त्रिक देशों के इतिहास में यह पहली बार होगा कि धुर राजनीतिक फॉर्मेट के बाड़े को लांघ कर कोई नेता समाज-सुधार की दुनिया में घुसे. गाहे-बी-गाहे बाहर के कुछ राष्ट्राध्यक्षों ने या भारत में कुछ प्रधानमंत्रियों ने कभी अगर यह कोशिश की भी तो जनता ने उसे रिसीव नहीं किया. गाँधी का प्रयोग पहला ऐसा प्रयोग था पर आखिर तक आते-आते उन्हें भी मायूसी हाथ लगी और राजनीतिक स्थितियां उनके हाथ से निकलने लगीं.
भारत के प्रधामं मंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह प्रयोग शुरू किया है. पहले लाल किले की प्राचीर से अपने पहले उद्बोधन में बलात्कार की चर्चा में अभिभावकों को यह बता कर कि वे लड़की अगर शाम  को कहीं घर से बाहर जाती है तो दस बार पूछते हैं लेकिन लड़का बाहर जाता है तो नहीं पूछते. याने लड़कों को  अभिभावकीय नियंत्रण की वही बंदिशें नहीं झेलनी पड़ती जो लड़कियों को. दूसरी बार आकाशवाणी से जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने “एक राजा था” नुमा दो कहानियों के जरिये जिसमें उन्होंने जनता से अपना आत्म बल को पहचानने और क्रियात्मक होने (आगे बदने ) का भाव दर्शाने को कहा था. सफाई को जनांदोलन का स्वरुप देने का शासकीय उपक्रम भी ऐसा हीं प्रयोग था. ये तीनों कार्य समाज सुधार के परिक्षेत्र में आते हैं. अगर मोदी अपने इस प्रयोग में सफल रहते हैं तो पूरे विश्व प्रजातंत्र के लिए यह एक नया आयाम खोलेगा. और जनता की अपेक्षा राजनेताओं से बढ़ जायेगी. उस राजनेता की व्यक्तिगत सुचिता और सामाजिक सोच की गुणवत्ता जन –स्वीकार्यता बढ़ने में महती भूमिका निभाने लगती है. पूरे राजनीतिक संवाद का धरातल बदल जाएगा , “पैराडाइम शिफ्ट” होगा.
आखिर मोदी को इस समाज सुधारक के फॉर्मेट में घुसने की ज़रुरत क्यों पडी? समाज सुधार का कार्य अलग संस्थाएं करती हैं. धार्मिक संस्थाएं भी कई बार इसमें अपनी भूमिका निभाती हैं. गाँधी के बाद पिछले ६५ सालों से इस देश में सामाजिक नेतृत्व में जबरदस्त शून्यता पायी गयी. एक भी सर्व-मान्य , सार्वभौमिक जन-स्वीकार्यता वाला समाज सुधारक भारत में पैदा नहीं हुआ. धार्मिक संस्थाएं अपनी विश्वसनीयता खोती चली गयी. शंकराचार्य की संस्था से लेकर तमाम शक्तिशाली और उच्च प्रतिबद्धता वाली सस्थाएं देश के चारित्रिक निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभाने का उपक्रम नहीं कर सकीं. अब कोई राजाराम मोहन राय या दयानंद सरस्वती पैदा नहीं हो पा रहा है और अगर है भी तो उसके विश्वसनीयता का घोर संकट है. गाँधी के बाद से शायद वह कारखाना बंद हो गया जिसमे समाज-सुधारक पैदा होते थे.

क्या कारण है कि एक हीं व्यक्ति ये दोनों कार्य ---राजनीति और समाज सुधार—एक साथ नहीं कर सका है जिसकी वजह से मोदी का प्रयास अनूठा लेकिन दुरूह माना जा रहा है और इसकी सफलता पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं? मनीषियों ने बताया है कि याचना में शक्ति नहीं होती. दाता उसी को देता है जिसमें दैन्य भाव देख कर वह अभिभूत होता है. दरअसल, प्रजातंत्र में चुनाव एक अहम् प्रक्रिया है. नेता चाहे कितना भी बड़ा हो याचक की तरह जनता से वोट की भीख माँगता है. भीख कभी एक हीं जगह से ज्यादा मिल जाती है तो याचक तृप्त हो जाता है और उसे दर- दर नहीं जाना पड़ता. कालांतर में उस भिखारी नेता और इस ज्यादा देने वाले दाता के बीच एक अप्रगट समझौता हो जाता है. जब बहुत वर्ष बीत जाते हैं तो दाता भी याचक में दैन्य भाव देखने का शौक पाल लेता है. राजनीति में एक प्रक्रिया शुरू होती है जिसमें जो दाता के सामने जितना दैन्य भाव दिखता है (झूठे वादे करना, एक दाता वर्ग को पहचान-समूह के आधार पर दूसरे पहचान-समूह से अधिक तरजीह देना) इसी क्रम में आते हैं. प्रजातंत्र जिसमें जन –सेवा व्यक्ति की बेहद समुन्नत सोच का प्रतिफल होना चाहिए था प्रोफेशनल याचना का भाव ले लेता है.  
मोदी की जन-स्वीकार्यता जबरदस्त है लेकिन वह राजनीतिक फॉर्मेट में है ना कि समाज सुधारक के रूप में. इस नेता में जनता ने सक्षम प्रशासक, कुशल विकासकर्ता, सुदृढ़ आतंकवादविरोधी राजनेता और भ्रष्टाचार के प्रति “शून्य –सहिष्णुता “ रखने वाला मुखिया देखा और उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचाया. लिहाज़ा मोदी के इस नए फॉर्मेट में याने समाज सुधारक की भूमिका में सफल होने की पहली शर्त यह होगी कि वह अपनी जन-स्वीकार्यता अक्षुण्ण रखें. अगर राजनेता के रूप में उनका परफार्मेंस जन -अपेक्षा से नीचे रह गया तो जनता को लगेगा कि वोट की भीख मांगने वाला यह याचक दैन्य भाव छोड़ कर दाता को हीं सही रस्ते पर आने की शिक्षा देने लगा. करीब ६५ साल पुराने दाता-याचक भाव के सम्बन्ध गड़बड़ाने लगेंगे.
तात्पर्य यह कि जहाँ भ्रष्टाचार रोकने के , महगाई कम करने के , मानव विकास सूचकांक पर देश को बेहतर करने के और देश को ताकतवर बनाने के उपक्रम तत्काल हीं करने होंगे या ऐसा करता हुआ दिखना होगा वहीं जनता के बीच सामाजिक बुराइयों के प्रति शून्य सहिष्णुता का भाव विकसित करना होगा. एक वर्ग आज १३५ दिन बाद पूछने लगा है कि हमने तो भेजा था महगाई कम करने या विकास को नयी गति देने के लिए , ये पलट कर हामी को लेक्चर दिया जा रहा है. उसका अहंकारी दाता भाव आहत हो रहा है. वह अपने अहंकार को आहट देख , खासकर वह वर्ग जो केंद्र सरकार में नौकरी कर रहा है और उसे सबसे ज्यादा यह बुरा लगा कि गाँधी जयंती की छुट्टी ख़राब हो गयी. लेकिन प्रधानमंत्री ऐसा लोगों को नज़रअंदाज कर सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं दोनों कार्यों को सम्पादित करने की दिशा में.

ऐसे में मोदी का प्रयास बेहद समीचीन है. लेकिन चूंकि मोदी राजनीतिक फॉर्मेट की उपज हैं उन्हें यह भी देखना होगा कि जनता का विश्वास उनकी राजनीतिक सार्थकता पर आधारित है लिहाज़ा राज नेता के रूप में वह जनता की अपेक्षाओं को भी उतना हीं मुकम्मल करें जिस शिद्दत से वह छोटी-छोटी सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. राजनीतिक सार्थकता की कीमत पर समाज सुधार का कार्य आगे नहीं बढ़ सकता. नेहरु के बाद शायद मोदी पहले व्यक्ति होंगे जिन्हें इस तरह का जन-विश्वास हासिल है. नेहरु के प्रति इस विश्वास का कारण स्वतन्त्रता आन्दोलन था लेकिन मोदी के प्रति उपजा विश्वास अनुत्पादक और शोषक सिस्टम के मरुस्थल में एक जलाशय की तरह है. मोदी के  अद्भुत प्रयोग की सफलता की शर्तें   
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विश्व के प्रजातान्त्रिक देशों के इतिहास में यह पहली बार होगा कि धुर राजनीतिक फॉर्मेट के बाड़े को लांघ कर कोई नेता समाज-सुधार की दुनिया में घुसे. गाहे-बी-गाहे बाहर के कुछ राष्ट्राध्यक्षों ने या भारत में कुछ प्रधानमंत्रियों ने कभी अगर यह कोशिश की भी तो जनता ने उसे रिसीव नहीं किया. गाँधी का प्रयोग पहला ऐसा प्रयोग था पर आखिर तक आते-आते उन्हें भी मायूसी हाथ लगी और राजनीतिक स्थितियां उनके हाथ से निकलने लगीं.
भारत के प्रधामं मंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह प्रयोग शुरू किया है. पहले लाल किले की प्राचीर से अपने पहले उद्बोधन में बलात्कार की चर्चा में अभिभावकों को यह बता कर कि वे लड़की अगर शाम  को कहीं घर से बाहर जाती है तो दस बार पूछते हैं लेकिन लड़का बाहर जाता है तो नहीं पूछते. याने लड़कों को  अभिभावकीय नियंत्रण की वही बंदिशें नहीं झेलनी पड़ती जो लड़कियों को. दूसरी बार आकाशवाणी से जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने “एक राजा था” नुमा दो कहानियों के जरिये जिसमें उन्होंने जनता से अपना आत्म बल को पहचानने और क्रियात्मक होने (आगे बदने ) का भाव दर्शाने को कहा था. सफाई को जनांदोलन का स्वरुप देने का शासकीय उपक्रम भी ऐसा हीं प्रयोग था. ये तीनों कार्य समाज सुधार के परिक्षेत्र में आते हैं. अगर मोदी अपने इस प्रयोग में सफल रहते हैं तो पूरे विश्व प्रजातंत्र के लिए यह एक नया आयाम खोलेगा. और जनता की अपेक्षा राजनेताओं से बढ़ जायेगी. उस राजनेता की व्यक्तिगत सुचिता और सामाजिक सोच की गुणवत्ता जन –स्वीकार्यता बढ़ने में महती भूमिका निभाने लगती है. पूरे राजनीतिक संवाद का धरातल बदल जाएगा , “पैराडाइम शिफ्ट” होगा.
आखिर मोदी को इस समाज सुधारक के फॉर्मेट में घुसने की ज़रुरत क्यों पडी? समाज सुधार का कार्य अलग संस्थाएं करती हैं. धार्मिक संस्थाएं भी कई बार इसमें अपनी भूमिका निभाती हैं. गाँधी के बाद पिछले ६५ सालों से इस देश में सामाजिक नेतृत्व में जबरदस्त शून्यता पायी गयी. एक भी सर्व-मान्य , सार्वभौमिक जन-स्वीकार्यता वाला समाज सुधारक भारत में पैदा नहीं हुआ. धार्मिक संस्थाएं अपनी विश्वसनीयता खोती चली गयी. शंकराचार्य की संस्था से लेकर तमाम शक्तिशाली और उच्च प्रतिबद्धता वाली सस्थाएं देश के चारित्रिक निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका निभाने का उपक्रम नहीं कर सकीं. अब कोई राजाराम मोहन राय या दयानंद सरस्वती पैदा नहीं हो पा रहा है और अगर है भी तो उसके विश्वसनीयता का घोर संकट है. 

गाँधी के बाद से शायद वह कारखाना बंद हो गया जिसमे समाज-सुधारक पैदा होते थे.

क्या कारण है कि एक हीं व्यक्ति ये दोनों कार्य ---राजनीति और समाज सुधार—एक साथ नहीं कर सका है जिसकी वजह से मोदी का प्रयास अनूठा लेकिन दुरूह माना जा रहा है और इसकी सफलता पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं? मनीषियों ने बताया है कि याचना में शक्ति नहीं होती. दाता उसी को देता है जिसमें दैन्य भाव देख कर वह अभिभूत होता है. दरअसल, प्रजातंत्र में चुनाव एक अहम् प्रक्रिया है. नेता चाहे कितना भी बड़ा हो याचक की तरह जनता से वोट की भीख माँगता है. भीख कभी एक हीं जगह से ज्यादा मिल जाती है तो याचक तृप्त हो जाता है और उसे दर- दर नहीं जाना पड़ता. कालांतर में उस भिखारी नेता और इस ज्यादा देने वाले दाता के बीच एक अप्रगट समझौता हो जाता है. जब बहुत वर्ष बीत जाते हैं तो दाता भी याचक में दैन्य भाव देखने का शौक पाल लेता है. राजनीति में एक प्रक्रिया शुरू होती है जिसमें जो दाता के सामने जितना दैन्य भाव दिखता है (झूठे वादे करना, एक दाता वर्ग को पहचान-समूह के आधार पर दूसरे पहचान-समूह से अधिक तरजीह देना) इसी क्रम में आते हैं. प्रजातंत्र जिसमें जन –सेवा व्यक्ति की बेहद समुन्नत सोच का प्रतिफल होना चाहिए था प्रोफेशनल याचना का भाव ले लेता है.  
मोदी की जन-स्वीकार्यता जबरदस्त है लेकिन वह राजनीतिक फॉर्मेट में है ना कि समाज सुधारक के रूप में. इस नेता में जनता ने सक्षम प्रशासक, कुशल विकासकर्ता, सुदृढ़ आतंकवादविरोधी राजनेता और भ्रष्टाचार के प्रति “शून्य –सहिष्णुता “ रखने वाला मुखिया देखा और उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचाया. लिहाज़ा मोदी के इस नए फॉर्मेट में याने समाज सुधारक की भूमिका में सफल होने की पहली शर्त यह होगी कि वह अपनी जन-स्वीकार्यता अक्षुण्ण रखें. अगर राजनेता के रूप में उनका परफार्मेंस जन -अपेक्षा से नीचे रह गया तो जनता को लगेगा कि वोट की भीख मांगने वाला यह याचक दैन्य भाव छोड़ कर दाता को हीं सही रस्ते पर आने की शिक्षा देने लगा. करीब ६५ साल पुराने दाता-याचक भाव के सम्बन्ध गड़बड़ाने लगेंगे.
तात्पर्य यह कि जहाँ भ्रष्टाचार रोकने के , महगाई कम करने के , मानव विकास सूचकांक पर देश को बेहतर करने के और देश को ताकतवर बनाने के उपक्रम तत्काल हीं करने होंगे या ऐसा करता हुआ दिखना होगा वहीं जनता के बीच सामाजिक बुराइयों के प्रति शून्य सहिष्णुता का भाव विकसित करना होगा. एक वर्ग आज १३५ दिन बाद पूछने लगा है कि हमने तो भेजा था महगाई कम करने या विकास को नयी गति देने के लिए , ये पलट कर हामी को लेक्चर दिया जा रहा है. उसका अहंकारी दाता भाव आहत हो रहा है. वह अपने अहंकार को आहट देख , खासकर वह वर्ग जो केंद्र सरकार में नौकरी कर रहा है और उसे सबसे ज्यादा यह बुरा लगा कि गाँधी जयंती की छुट्टी ख़राब हो गयी. लेकिन प्रधानमंत्री ऐसा लोगों को नज़रअंदाज कर सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं दोनों कार्यों को सम्पादित करने की दिशा में.

ऐसे में मोदी का प्रयास बेहद समीचीन है. लेकिन चूंकि मोदी राजनीतिक फॉर्मेट की उपज हैं उन्हें यह भी देखना होगा कि जनता का विश्वास उनकी राजनीतिक सार्थकता पर आधाawरित है लिहाज़ा राज नेता के रूप में वह जनता की अपेक्षाओं को भी उतना हीं मुकम्मल करें जिस शिद्दत से वह छोटी-छोटी सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. राजनीतिक सार्थकता की कीमत पर समाज सुधार का कार्य आगे नहीं बढ़ सकता. नेहरु के बाद शायद मोदी पहले व्यक्ति होंगे जिन्हें इस तरह का जन-विश्वास हासिल है. नेहरु के प्रति इस विश्वास का कारण स्वतन्त्रता आन्दोलन था लेकिन मोदी के प्रति उपजा विश्वास अनुत्पादक और शोषक सिस्टम के मरुस्थल में एक जलाशय की तरह है.  
lokmat