Friday 4 August 2017

विलुप्त होता विपक्ष शुभ संकेत नहीं

राजनीतिक परिदृश्य से उठते खतरनाक संकेत  
  


सुदर्शन की अमर कहानियों में एक था “हार की जीत”. उसमें बाबा भारती एक पुजारी संत थे जिनके पास एक बलशाली घोड़ा था. एक दिन बाबा घोड़े पर हवा से बाद करते हुए जा रहे थे कि कान में आवाज़ आयी ,” बाबा , इस दुखियारे को भी लेता चल, बीमार हूँ डॉक्टर को दिखने जाना है”. बाबा ने दया करते हुए उसे बैठा लिया. लेकिन चंद मिनटों में हीं बाबा को धक्का दे कर वह दुखायारा तन कर लगाम ताने घोड़े पर बैठा था और कह रहा था “बाबा , तुम संतों को ऐसे बलवान घोड़े से क्या लेना देना, यह तो हम डाकुओं के इस्तेमाल के लिए है”. तब बाबा को अहसास हुआ कि दुखियारा कोई और नहीं, डाकू खड्ग सिंह है. डाकू घोड़े को लेकर अभी चंद कदम बढ़ा हीं था कि बाबा कि आवाज आयी. जिस पर डाकू ने कहा “बाबा कुछ भी मांग लो , दे दूंगा पर, अब यह घोड़ा नहीं दूंगा”. बाबा ने घोड़े  की ओर से मुंह मोड़ते हुए कहा, “घोडा अब तुंहारा हुआ मैं कभी इस ओर देखूँगा भी नहीं, पर एक प्रार्थना है और वह यह कि इस घटना का ज़िक्र किसी से न करना”. खडक सिंह चंका, “बाबा मैं तो स्वयं हीं आप से कहना चाहता था क्योंकि इस इलाके में आप का सम्मान है और लोगों को मेरा यह घोडा आप से छीनना अच्छा नहीं लगेगा पर आप स्वयं यह बात क्यों कह रहे हैं ?”. बाबा ने कहा , “अगर लोगों को यह पता लगा तो वे आज से किसी दुखियारे की मदद नहीं करेंगे “.

बिहार की ताज़ा राजनीतिक घटनाओं के बाद आब देश में राजनीतिक वर्ग से जनता का विश्वास हमेशा –हमेशा के लिए उठ गया. यह विश्वास पहले हीं से काफी कम हो गया था और राजनीति में सिद्धांत और विचारधारा  एक मजाक हो चुका था लेकिन फिर भी एक झीना पर्दा था और कई बार लगता था कि कभी यह पर्दा पूरी तरह पारदर्शी नहीं होगा. जिस देश में आजादी के लिए गाँधी ने लाखों लोगों के साथ एक अहिंसक आन्दोलन किया (जिसमें जबरदस्त नैतिक साहस की दरकार होती थी) उस देश में आज कोई लालू यादव २० साल तक चारा घोटाले में कानूनी प्रक्रिया को धता बताते हुए सत्ता में रह सकता है और यही नहीं लगातार अद्भुत हिमाकत दिखाते हुए भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार कर सकता है. कोई तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व्यक्तिगत सुचिता की नयी परिभाषा गढ़ते हुआ इसे सिर्फ अपने तक महदूद करता हुआ दूसरों के भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति दे सकता है. कोई वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी “पत्ता भी नहीं हिलेगा मेरी मर्जी के बगैर” के भाव में अपने मंत्रिमंडल पर ऐसा लगाम कस सकता है कि वह मंत्री महज सांस भर ले सकता है, लेकिन जब पूरे देश में एक नए राष्ट्रवाद के अलमबरदार के रूप में लम्पट तत्व किसी अखलाक को घर में घुस कर गौमांस तलाशते हुए उसे जान से मारते हैं या जब कुछ ऐसे हीं तत्व किसी कारोबारी पहलू खान को सरे –राह दिनदहाड़े पीट-पीट कर मार देते हैं और उसका विडिओ भी उपलब्ध होता है तो वही मोदी कुछ नहीं करते.

किसी भी प्रजातंत्र में, खासकर के भारत के सन्दर्भ में जहाँ द्वंदात्मक प्रजातंत्र है, विपक्ष की बड़ी भूमिका होती है. लेकिन जिस तरह सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस मृतप्राय सड़क के कोने में पडी है और कभी कभी पूंछ हिलाकर अपने जीने का संकेत दे रही है उससे साफ़ है कि युवाओं को अपना भविष्य भारतीय जनता पार्टी में या राष्ट्रवादी बनकर गौ के नाम पर एक समुदाय विशेष के लोगों को मार कर भारतीय जनता पार्टी में अपनी उपादेयता सिद्ध करने पर लगी है, यही वजह है कि आज भारतीय जनता पार्टी देश के ६८ प्रतिशत जनसंख्या पर अपनी राज्य सरकारों के जरिये शासन कर रही है और कांग्रेस मात्र पांच प्रतिशत पर सिमट गयी है. कोई ताज्जुब नहीं कि राष्ट्रवाद की एक झूठी किन्तु अति बलशाली चेतना में बहते हुए पूरे देश याने ७९.५ प्रतिशत बहुसंख्यक इसी दल को अपना मुखिया बना ले.
और शायद यही वजह है कि अन्य पार्टियों के तमाम नेता और मकबूल कार्यकर्ता अपनी पार्टियों को अलविदा कह कर भजपा की शरण में आ रहे हैं. इसमें दोष भाजपा का नहीं बल्कि दोष कांग्रेस जैसी पूर्व की बड़ी पार्टी के नेतृत्व का है जो लड़ने की क्षमता खो चुकी है और अपनी राजनीतिक मौत के प्रति आश्वस्त है.

हम विश्लेषक क्यों दोष देते हैं किसी अमित शाह या प्रकारांतर से किसी मोदी को. कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी अगर हर आम-ओ-ख़ास मौके पर सीन से नदारत रहेंगे और कभी –कभी उल्का पिंड की तरह नज़र आयेंगे और वह भी क्षण मात्र में रात के आकाश के समुन्दर में विलीन होने के लिए तो कौन कार्यकर्ता या विधायक या संसद ज्यादा दिन “मोदी-अमित” ब्रांड “फाइट –टु- फिनिश” युद्ध में टिका रह सकता है. इस ब्रांड की राजनीति में “साम-दाम-दंड-भेद” सभी कुछ तो अपनाये जा रहे हैं. चूंकि राजनीति में आज के दौर में ज्यादातर लोग या तो अपराध की दुनिया से आये हैं या अपराधी को संरक्षण दे कर वहां तक पहुंचे हैं या भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं और अगर यह सब भी नहीं तो टैक्स की चोरी तो आम बात है. मुलायम के पास जो खेती है उसमें औसतन एक हेक्टेयर में कुछ करोड की पैदावार होती है. फिर मुलायम –मायावती आदि पर तो आय से अधिक संपत्ति के मामले फिर से चलाये जा सकते हैं. लिहाज़ा  विपक्ष के किसी भी नेता  की आज हिम्मत नहीं है कि तन कर खडा हो फिर अगर  समाजवादी पार्टी का भुक्कल नवाब सरीखा व्यक्ति पाला बदलता है और मोदी-अमित शाह के गुणगान करता हुआ भाजपा में जाता है तो इसमें थानेदार की क्षमता या आयकर अधिकारी की पारखी नज़रों का हीं तो कमाल है.

आरोप मीडिया पर लग रहे हैं. मीडिया की भूमिका हमेशा द्वितीयक रही है प्राथमिक नहीं. जब ८० प्रतिशत एक समुदाय विशेष की सोच एक खास दिशा में जा रही हो, जब विपक्ष का मुद्दों को लेकर दूर-दूर तक नमो-निशाँ न मिले तो मीडिया उस भावनात्मक आंधी के खिलाफ ज्यादा दूर नहीं जा सकती. सन १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लगाया तो जनमत, विपक्ष और नैतिकता का पूर्ण संबल इसकी ओर था. फिर भी आपने देखा कि मीडिया का कुछ वर्ग हीं नहीं सर्वोच्च न्यायलय का एक धडा भी इंदिरा गाँधी के साथ हो चला.

आज जरूरत है कि एक सबल विपक्ष और जन-स्वीकार्यता वाला नेता सामने आये. वरना मोदी-अमित ब्रांड “फाइट- तु-फिनिश” वार में कोई भी नहीं बचेगा. मीडिया भी नहीं, विपक्ष भी नहीं और ना हीं तर्क-आधारित जनमत.


lokmat

Tuesday 1 August 2017

दोष राजनीतिक वर्ग का नहीं, हमारा है !


“उसकी खता नहीं है, ये मेरा कुसूर था”  !


“जनता को वैसा हीं शासन (सरकार) मिलता है जिसकी वह पात्र होती है”. यह कथन दुनिया के जाने-माने  फ्रांसीसी राजनीति –शास्त्र के विद्वान टोक्विल के नाम पर उदृत किया जाता है. बिहार की घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि गलती राजनीतिक वर्ग की नहीं, उन्हें पैदा करने वाले मतदाताओं के सोच की है.

लेकिन आदतन एक बार फिर निरपेक्ष विश्लेषकों ने हीं नहीं, समाज के एक तार्किक व ईमानदार सोच वाले  बड़े वर्ग ने बिहार के  राजनीतिक घटनाक्रम और उसकी परिणति पर किसी नीतीश कुमार , किसी लालू यादव या किसी सुशील  मोदी की निंदा की, मौकापरस्त बताया या भ्रष्ट करार दिया या नैतिक मानदंडों से गिरा बताया।  यह काम हम पिछले ६७ साल से कर रहे हैं. अगर ये गलत है या थे तो हमने इन्हें बदला क्यों नहीं? भारत में तो शुद्ध प्रजातंत्र है और इसके संविधान की उद्देशिका की पहली पंक्ति हीं “हम भारत के लोग.....” से शुरू होती है. अगर हमें लालू पसंद नहीं और नीतीश मौकापरस्त लगते थे तो पिछले ३० सालों में ये लोग राजनीति में जिंदा कैसे हैं? कैसे ये भांति- भांति के चोलों में हमारे कल्याण करने का विश्वास दिला कर हमारे वोट ले जाते हैं और फिर अपनी अट्टालिकाएं खडी करते हैं या उन सिद्धांतों से समझौता कर लेते हैं जिनके खिलाफ इनकी उद्घोषणाओं से हम इनसे प्रभावित हो जाते हैं?

लगभग दो साल पहले याने सन २०१५ में बिहार विधान सभा चुनाव में जनता ने ४२ प्रतिशत मत दे कर महागठबंधन को सरकार बनाने का जनादेश दिया. पिछले सप्ताह वह गठबंधन टूट गया और नीतीश कुमार ने जिस भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली एन डी ए के खिलाफ “नो-होल्ड्स-बार्ड” (कोई भी दांव वर्जित नहीं) के भाव में चुनाव लड़ा उसी के साथ हाथ मिला कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के मात्र १६ घंटे में फिर उसी पद के लिए भारत के “संविधान में निष्ठा की शपथ ले ली”. विश्लेषण की तकनीकियों के अनुसार यह प्रजातंत्र के साथ सबसे बड़ा धोखा है क्योंकि बिहार की जनता ने ४२ प्रतिशत वोट महागठबंधन को दिए थे जबकि एन डी ए को मात्र ३४ प्रतिशत याने उसने तो महागठबंधन को सरकार चलाने को कहा था. लेकिन ़तब क्या २०१५ का जनमत राजनीतिक नैतिकता के मानदंडों पर सही था? क्या तब जातिवाद और अल्पसंख्यकवाद का अपवित्र तांडव नहीं हुआ था? साम्प्रदायिकता का फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी को मिले तो ग़लत लेकिन ६७ साल से कोई और दल सत्ता मे बैठे  और बेटे -बीवी के नाम माल बनवाये तो वह सही!


हम विश्लेषकों और प्रबुद्ध वर्ग ने इसे नीतीश की मौका परस्ती कहा क्योंकि वही इस १६ घंटे के घटनाक्रम के मुख्य लाभभोगी रहे. नीतीश का कहना है कि यह सब उन्होंने बिहार की जनता के “हित “ के लिए किया. पिछले ६७ साल में हर नेता अनैतिकता या भ्रष्टाचार के आरोप के जवाब में यही कहता है. कोई ताज्जुब नहीं कल लालू यादव बताएं कि कैसे बिहार की जनता के हित के लिए हीं चारा घोटाला किया और कैसे उसी ग़रीब लोगों के लिये दिल्ली में फार्म हाउस और खूबसूरत अट्टालिकाएं बनवाई, पटना में माल बनाना शुरू किया. लालू यह भी कह सकते हैं कि इन संपत्तियों को भ्रष्टाचार से उपजी संपत्ति मान कर और उन्हें जब्त कर सी बी आई और टैक्स अधिकारियों ने बिहार की जनता के हित को बाधित किया. उनका आरोप यह तो हैं हीं कि भारतीय जनता पार्टी की केंद्र की सरकार के कहने पर सी बी आई यह सब कुछ कर रही है. इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए लालू यह भी आरोप लगा सकते हैं कि चूंकि भारतीय जनता पार्टी और नीतीश बिहार की जनता का हित नहीं चाहते इसलिए हमारी संपत्ति जब्त की जा रही है. उनके बेटे तेजस्वी ने सत्ता जाने के बाद मीडिया से कहा भी कि वह और उनकी पार्टी बिहार की जनता , खासकर गरीबों का, दबे कुचलों के हित में "पहले की तरह" काम करती रहेगी चाहे कितनी मुसीबतें खडी की जाएँ. 

तो लब्बो-लुआब यह कि नीतीश ने भी बिहार की जनता के हित में पहले लालू से रिश्ता जोड़ा फिर तोड़ा और अब लालू का इरादा  भी इस घटना के बाद “बिहार की जनता के हित में” एक बार फिर पक्का हो गया.

तो क्या ये नीतीश या ये लालू हीं गलत हैं और जनता के हित के नाम पर बेवकूफ बना रहे हैं? नीतीश पर आरोप हैं कि अगर आज वह लालू के बेटे और बिहार के तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी के भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस (शून्य-सहिष्णुता) रखते हैं और गद्दी तक छोड़ने का संकल्प रखते हैं तो जब लालू की पार्टी से मिलकर महागठबंधन बनाया और जनता के पास “सांप्रदायिक ताकतों को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया” तो लालू यादव में उन्हें क्या “धर्मराज युधिष्ठिर” दिखाई दे रहे थे? क्या उन्हें नहीं मालूम था कि चारा घोटाले में लालू सजायाफ्ता हैं और चुनाव लड़ने से कानून-बाधित हैं? क्या नीतीश कुमार यह भी नहीं जानते थे कि लालू के बेटे या बेटों की सलाहियत क्या है और बिहार की जनता का हित घटिया “परिवारवाद” से कैसे संभव है.

लेकिन क्यों हम विश्लेषक या बुद्धिजीवी केवल किसी नीतीश या लालू को दोषी क़रार दे कर अपनी तार्किक अक्षमका परिचय देते हैं. क्यों नहीं हम यह कहने की हिम्मत करते कि दोष इन राजनीतिक वर्ग के लोगों का नहीं, बल्कि दोष बिहार में जाति और सम्प्रदाय के रंग में सराबोर जनता का है. क्या वोटरों को ये सारी बातें नहीं मालूम थीं? अगर जनता का मतलब यादव, जनता का मतलब कुर्मी , जनता का मतलब हिन्दू –मुसलमान , जनता का मतलब  दलित और जनता का मतलब  “नीतीश-कृत” “महादलित” है तो जाहिर है सामाज को ऐसे हीं नेता मिलेंगे. वर्ना दुनिया के किसी भी सभ्य, तार्किक और समुन्नत समाज में चारा घोटाले में फंसने के बाद और अदालत से सजा पाने के बाद कैसे कोई नेता अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना देगा और बेटे को उप-मुख्यमंत्री और वह भी “जनता “ के वोट से?

गलती समाज की है, जनता की है और वोटरों की है. अगर खतरनाक अपराधी शहाबुद्दीन संसद की चौखट को “माननीय” के रूप में पांच बार लाँघ सकता है जनता के वोटों के बल पर, तो शहाबुद्दीन नहीं हम गलत हैं. समस्या राजनीति या राजनीतिक वर्ग की नहीं है. अगर कांग्रेस सेकुलरिज्म के नाम पर एक वर्ग को संतुष्ट और दूसरे को रुष्ट करेगी तो सन १९८४ में राम मंदिर आन्दोलन होगा और अगर मंदिर के नाम पर जनता गुमराह होगी तो अगले पांच साल में कोई नेता मंडल आयोग को भी अलमारी से झाड-पोंछ कर निकालेगा और तब सामजिक न्याय की ताकतों के रूप में कोई लालू , मुलायम , मायावती, ममता, पैदा होंगा. कोई नीतीश इसकी भी काट निकालने के लिए एक महादलित पहचान समूह पैदा करेगा.

लेकिन सवाल यह है कि हम क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि लालू के फार्म हाउस सालों –दर-साल कैसे बढ़ते  जा रहे हैं? सामजिक न्याय का यह कौन सा मकाम है जिसे लोहिया नहीं समझ पाए पर लालू –मुलायम समझ जाते हैं. क्या कभी हमने बिहार में रोजगार के लिए कोई आन्दोलन किया? क्या कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ तन कर खड़े हुए? बिहार आज भी आन्दोलन कर रहा है और फिर इस बार लालू और उनके बेटे का दावा है कि वह इस आन्दोलन के जरिये पिछड़ों, गरीबों और मजलूमों के लिए आवाज़ उठाते रहेंगे. हम यह कह कर नहीं बच सकते कि विकल्प क्या है? दरअसल अगर शहाबुद्दीन वोटरों की पसंद है तो कोई आदर्शवादी राजनीति में कैसे जाएगा. लिहाज़ा अपनी पसंद बदलें.      

lokmat