Sunday 16 August 2015

“ललितगेट” , मोदी के वायदे और जनता के सवाल

राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार अर्ध-शिक्षित, नीम –तार्किक और मूल रूप से प्राथमिक संबंधों पर आधारित समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक व्यवस्था द्वारा प्रदत्त वैज्ञानिक, तार्किक और नैतिक मुद्दों पर अक्सर इतने भारी पड़ जाते हैं कि अचानक हमें “भारत बदलता “ दिखाई देने लगता है. नेहरु नए भारत के निर्माता बने, तो जयप्रकाश नारायण में सम्पूर्ण क्रांति दिखी तो अन्ना हजारे में भ्रष्टाचार –मुक्त भारत. डेढ़ साल पहले नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर आना और तत्काल जन-स्वीकार्यता हासिल कर लेना इस भाव की तस्दीक है. लेकिन चूंकि इस तरह की जन-स्वीकार्यता में ठहराव नहीं होता इसलिए “सक्षम” नेता या तो नए नए भावनात्मक मुद्दे पैदा करता है और उन्हें बेचता रहता है या सपनों को साकार करने के लिए तत्पर रहता है. चूंकि सपने साकार करना दुरूह हीं नहीं काल –भक्षी (टाइम –कनज्यूमिंग) भी होता है लिहाज़ा अधिकांस नेता पहले वाले विकल्प का सहारा लेते हैं.
“छप्पन इंच छाती” से हम देशवासियों का सामूहिक (भारतीय जनता पार्टी के शब्दों में राष्ट्रीय) पौरुष जागता है और हम सपना देखते हैं पाकिस्तान को इस छाती में दबाकर चूर-चूर करने की. “न खायेंगे, न खाने देंगे” के जुमले से हम फिर खुश होते हैं. इस जुमले से चार बाते स्वयं सिद्ध होती हैं ---पहला, मैं नहीं खाता; दूसरा, हमारे बीच भी खाने वाले हैं; तीसरा, वे खाना चाहेंगे; और चौथा, लेकिन मैं उन्हें खाने नहीं दूंगा”. जनता खुश होती है यह सोच कर कि प्रधानमंत्री के बगल में बैठे और लोग यह सब कुछ करेंगे और मोदी जी उन्हें पकड़ लेंगे.
जाहिर है जब इतने वादों और इतने सपनों की (और वह भी इतने बड़े और वैविध्यपूर्ण देश में) बुनियाद पर जन-स्वीकार्यता की इमारत खडी होगी तो उसे ढहाना भी मुश्किल नहीं होगा. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का “क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी?” ललित मोदी से सम्बन्ध और उस सम्बन्ध के तहत  “करुनाजनित” मदद करना प्रधानमंत्री के वायदे से निकले दो स्वयं- सिद्ध तर्क वाक्यों पर जनता का ध्यान आकर्षित करता है. पहला यह कि यह “खाने का मामला तो नहीं है ”  और दूसरा “क्या वो खाना चाहते हैं”. और तब जन-मानस में तत्काल चौथा तर्क-वाक्य “न खाने देंगे”  कौंधने लगता है. फिर जनता अपने मन मैं सवाल करती है “अगर वर्तमान या भूत-काल में  खा लिया गया है तो फिर “न खाने देंगे “ तो गलत साबित हुआ? लिहाज़ा जनता को प्रधानमंत्री से एक्शन की अपेक्षा थी “जीरो टालरेंस” के वायदे के मुताबिक, जड़वत चुप्पी की नहीं.    
न्याय शास्त्र के हिसाब से नैतिकता का पतन एक सीढी हो या हज़ार बहुत अंतर नहीं पड़ता. अर्थात अगर आप मंत्री हैं और आप नैतिक भी हैं तो आप के पति देश के कानून से बचने के लिए लन्दन में बैठे ललित मोदी के मुकदमें नहीं लड़ेंगे और आप की बेटी के लिए “सवा सौ करोड़ की टीम इंडिया “ में बहुत से मुवक्किल मिल जायेंगे. दूसरा करुणा-जनित मदद की भी कीमत चुकानी होती है. अगर करुणा उभरी तो मंत्रिमंडल में स्पष्टरूप से यह मुद्दा ला कर कहा जा सकता था  कि ललित मोदी की पत्नी की बीमारी कैंसर की है और पति का ऐसे में अस्पताल रहना मानवीय मूल्यों के अनुरूप होगा लेकिन चूंकि मेरी बेटी और पति ललित मोदी के रोल पर हैं लिहाज़ा मैं नैतिकता के आधार पर इस बैठक से बाहर जाती हूँ आप फैसला करें.
जब मोदी ने “न खाने देंगे” कहा तो देश खुश हुआ पर साथी सशंकित. ऐसे में टीम नहीं बन पाती अगर बनी भी तो किसी एक या दो लोंगों की जैसे किसी अमित शाह और किसी अरुण जेटली की. बाकि सजदा करने वाले होंगे. लिहाज़ा संसद में इतने बहुमत के बावजूद क्राइसिस मैनेजमेंट या फ्लोर कोआर्डिनेशन नहीं दिखेगा. अगर कोई अन्य बोला भी वह मोदी के गुणगान से ऊपर नहीं बढ़ पाता. यही वजह है कि टेलीविज़न चैनलों के डिस्कशन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ युवा प्रवक्ता अहंकार और बद्ज़ुबानी की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं.  
कांग्रेस की मुसीबत यह है कि उसके नेता राहुल गाँधी के पास गंभीर समझ हीं नहीं तथ्यों की भी कमी है और लोक सभा में नेता नेता मल्लिकार्जुन खड्गे के पास प्रवाहपूर्ण भाषा के ज्ञान की. लिहाज़ा संसद में आरोप –प्रत्यारोप का स्तर “मोदी में गट्स नहीं “ और “..... की मौसी के पास कितना पैसा है” तक गिरता गया. इसी दौरान भाजपा की एक साध्वी सांसद को विरोध करने वाले सांसदों पर एक दिन इतना गुस्सा आया कि पत्रकारों से बोली “संसद में भी एक दो आतंकवादी हैं”. पार्टी में इस तरह एक अमर्यादित आचरण का बोल बाला महज़ इसलिए बढ़ रहा है कि वह मोदी को “डिफेंड” करने में अति –उत्साह दिखाने लगे हैं. हालाँकि मोदी को ऐसे भौंडे “डिफेन्स” से फायदे की जगह नुक्सान हो रहा है. उसी तरह राहुल का आरोप कि  “मोदी में गट्स (साहस) नहीं हैं” बचकाना लगता है. मोदी में मात्र गट्स हीं तो है और यही जनता का मोह-भंग कर रहा है.
   कौन सा मुद्दा जन-भावनाओं को उद्वेलित करता है और कौन ४८ घंटे में उबाऊ हो जाता है , इस बात की समझ राजनीति में जरूरी है. दूसरा इन मुद्दों को कैसे उठाया जाये और किस माध्यम का इस्तेमाल किया जाये इस बात की समझ भी होनी चाहिए. तीसरा समाज का तत्कालीन शिक्षा स्तर और  तर्क-शक्ति से उपजी जन -चेतना इस बात को सुनिश्चित करती है कि कौन सा मुद्दा किस खंड- व् काल-विशेष में कितना प्रभावित करता है. चौथा: अगर मुद्दे में चौंकाने वाला तत्व नहीं है याने “स्टनिंग वैल्यू” नहीं है और “घिसे-पिटे तथ्य” पर हीं आधारित है तो मुद्दा दूर तक जन-मानस में घर नहीं कर पाता. साथ हीं अगर कुछ विधेयकों खासकर जी एस टी के बारे में आम धारणा है कि इससे सुधार और विकास होगा. जब जनता को यह पता चलता है कि ये बिल विपक्ष की हठधर्मिता के कारण पारित नहीं हो रहे हैं तो विपक्ष को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है यह बताने में कि उसका मुद्दा विकास से भारी है. कांग्रेस यह नहीं कर पाई. नतीज़तन कहीं यह सन्देश भी गया कि सोनिया-राहुल की पार्टी विकास –विरोधी है और मोदी सरकार के विकास के कार्यों को रोकना चाहती है.         
कांग्रेस के रणनीतिकार इस बात में फर्क नहीं कर पाए कि क्रूड (स्थूल) भ्रष्टाचार और नैतिकता के प्रश्न में अंतर होता है. लिहाज़ा २-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला या बोफोर्स घोटाला उसी पायदान पर नहीं रखे जा सकते जिस पर नैतिक आचरण के मुद्दे. इस का कारण यह है कि पहले किस्म के भ्रष्टाचार कम पढी –लिखी जनता को भी तत्काल समझ आ जाते है क्योंकि उनको परिमाणात्मक तराजू पर देखा जा सकता है जैसे २-जी घोटाले में जनता का १.७६ लाख करोड़ का नुकसान. “यह इतना पैसा है कि देश की अति-गरीब जनता को पांच साल तक मुफ्त राशन दिया जा सकता है” विपक्ष यह कह कर जन-भावनाओं को उभार सकता है. बोफोर्स के मामले ने जनाक्रोश के कारण कांग्रेस सरकार हारी क्योंकि मामला सेना की तोपों का था, क्वात्रोकी इटली का और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पत्नी सोनिया भी वहीं की थीं.          
इधर भारतीय जनता पार्टी ने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल के भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर “खूंटा  वहीं गड़ेगा” का भाव ओढ़े रहे. ललित मोदी कैसे रातों-रात क्रिकेट की दुनिया का बेताज बादशाह बादशाह बन जाता है , किस तरह एक काल विशेष में राजस्थान की सत्ता का नंबर -२ बन कर शासन चलाता है , किस तरह चेन्नई के थाने में सन २०१० में बी सी सी आई को मुकदमा लिखवाना पड़ता है जिसे पढ़ कर एक बच्चा भी कहेगा कि यह शुद्ध र्रूप से मनी लौंडरिंग का मामला है, और किस तरह तत्कालीन यू पी ए -२ की सरकार चार साल तक मात्र टैक्स का मामला बता कर उसे शिकंजे में कसने से बचाती रही और किस तरह भाजपा नेता , केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री उस व्यक्ति पर “करुणा “ उंडेलते रहे? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तो देना तो दूर बल्कि यह कहा गया कि कोई नहीं हटेगा. व्यापम घोटाले से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि खराब हो या न हो मोदी का चौथा वादा “न खाने देंगे” ज़रूर शंका पैदा करने लगा है.

लिहाज़ा जनता के मन में मुद्दा यह नहीं रह गया कि “वे भी खाते हैं या वो खायेंगे” बल्कि प्रश्न यह रहा  “ क्या खाने देंगे” . खैर अभी तक पहले तर्क वाक्य की विश्वसनीयता पर कोई आंच नहीं आयी है. मोदी की व्यक्तिगत ईमानदारी अक्षुण है.      

patrika