Sunday 15 May 2016

“जंगल राज” में भी कुछ मर्यादाएं होती हैं पर बिहार के "नव - प्रजातंत्र " में वे भी नहीं




१५ अगस्त, १९४७ की बात है. देश आजादी का जश्न मना रहा था. हल्की बारिश हो रही थी. वाराणसी के पास एक स्टेशन था –कोढ़ रोड जिसे आज ज्ञानपुर कहते हैं. उस स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर फुन्नन सिंह भी अति उत्साह में ऑफिस में बैठे थे. ट्रेन आने का टाइम हो गया था. लेकिन एक भी आदमी टिकट लेने नहीं आया. फुन्नन सिंह अचम्भे में कार्यालय के बाहर निकले तो देखा सैकड़ों लोग प्लेटफार्म पर खड़े हैं. उन्होंने चिल्लाकर सबसे कहा “अरे भाई टिकट ले लो , ट्रेन आने वाली है”. भीड़ का जवाब था “अरे अब किस बात का टिकट. अब ये अंग्रेजों की ट्रेन थोड़े ना है, आज से ये हमारी ट्रेन है”.   

बिहार में आज अपराधियों का भी यही भाव है मानो कह रहे हों --- कैसा कानून, अब ये हमारा शासन है. सीवान में एक हिंदी अखबार के पत्रकार की गोली मार कर सरे शाम फल-मंडी में हत्या करना "जंगल राज “ को शर्मशार करता है. जानवरों के भी कुछ कानून होते हैं. प्रजातंत्र के दार्शनिकों को कोई नया शब्द गढ़ना होगा “नए बिहार” के “सुशासन” को लेकर. लेकिन शब्द गढ़ने से क्या होगा? “जंगल राज” कहा गया था तो क्या जनता ने समझ लिया था इसका मतलब? नहीं, उसने कानून-रूपी नयी गाड़ी को अपना माना और फिर शुरू हो गया तांडव. उसने “जाति देखी”. उसने अपना “रोबिनहुड” पैदा किया और फिर उसे सत्ता की शक्ति का अदृश्य कवच पहना दिया. वर्षों से जेल में रहे एक खतरनाक अपराधी को एक राजनीतिक दल ने बाकायदा अपनी पार्टी का पदाधिकारी बनाया. कानून को “फ्री की ट्रेन” समझने वालों ने लोगों को मारना शुरू किया.

कैसे शुरू होता है यह सिलसिला, इसे समझने की ज़रुरत है. सिस्टम पर विश्वास नहीं लिहाजा जनता अपने पहचान समूह में फिर से वापस चली जाती है और उसमें तलाशती है एक रोबिनहुड  -- याने वह डकैत जो उसके विचार में अमीरों को तो लूटता है पर गरीबों की शादी में उस लूट का कुछ अंश दान के रूप में दे देता है. कार्ल मार्क्स ने भी तो यही कहा था --- राज्य का उद्भव शोषण-जनित वर्ग संघर्ष को ख़त्म करने के अभिकरण के रूप में होता है लेकिन कालांतर में राज्य के अभिकरण स्वयं शोषक हो जाए हैं. तो किसी ठाकुर जाति के लोगों को किसी अपनी जाति  के गुंडे में या किसी मुसलमान समाज के लोगों को एक मुसलमान गुंडे में अपना रहनुमा देखने में क्या दिक्कत है? कुछ दिन में हीं इस रािबनहुड को मतदान के ज़रिये  राज्य की शक्तियों से भी नवाज़ दिया जायेगा। राकी और शहाबुद्दीन को भी यह मालूम है कि जनता के बीच भी अपने को रािबनहुड के रूप मे स्थापित करने के लिये किसी बेगुनाह निहत्थे आदित्य या राजदेव रंजन को तो मारना ही पड़ेगा। चूँकि फिर कोई चश्मदीद गवाह आदित्य या रंजन नहीं बनना चाहेगा लिहाज़ा गवाह बदल जायेंगे और मीडिया ख़ामोश। अदालत को गवाह और सबूत चाहिये जो सरकार और पुलिस जुटाती है। जब सत्ता मे भी राकी और शहाबुद्दीन की ज़रूरत होने लगे तो पुलिस क्या करेगी।
       
आदित्य सचदेव को मारने वाला रॉकी लाईसेंसी पिस्तौल रखता है और उसका का पिता एक क्षेत्रीय बाहुबली है. इसे समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि बाहुबली क्यों और कैसे पैदा होते हैं और उनका बेटा कैसे उन्हीं नक़्शे कदम पर चलता रोबिनहुड की महिमामंडित संस्था पर बैठता है. किसी राजद या किसी जदयू को यह समझने में देर नहीं लगती कि बाहुबली का बल सत्ता का संरक्षण पा कर रामचरित मानस के उस बालि की तरह हो जाता है जिसके सामने अगर शत्रु खड़ा भी हो जाये तो उसकी आधी शक्ति बालि के पास पहुँच जाती है. लिहाज़ा ऐसे भावी “राबिनहुडों” को तैयार करने के लिए पहले चरण में किसी नितीश कुमार को या किसी लालू यादव को उसकी माँ में देश का रहनुमा नज़र आने लगता है. और उसे चुनाव की जलालत न झेलनी पड़े लिहाज़ा विधान परिषद् में ला कर इस “नव-प्रजातांत्रिक प्रक्रिया” के तहत महिमामंडित किया जाता है. लालू यादव का जेल में बंद खतरनाक अपराधी शहाबुद्दीन को पार्टी में पद से नवाजना भी उससी "नव-प्रजातंत्र” का हिस्सा है.

प्रश्न यह नहीं है कि इस “नव-प्रजातंत्र “ में रोबिनहुड पैदा किये जा रहे हैं. प्रश्न यह है कि औपचारिक प्रजातंत्र, जिसमें एक संविधान होता है और कानून के राज की अपरिहार्य शर्त होती है, के प्रसाद में बैठ कर कुछ नेता इसे ईंट-दर-ईंट तामीर कर रहे हैं और वह भी औपचारिक प्रजातंत्र की इमारत को गिरा कर और उसी की ईंटों द्वारा.

यही वजह है कि आदित्य सचदेवा की बीच सड़क पर की गोली मार कर के गयी हत्या के बाद भी प्रदेश का मुख्यमंत्री कहता है “इसमें रॉकी की माँ का क्या दोष है ?”. कितनी निश्छल है यह स्वीकारोक्ति. लेकिन अगले २४ घंटे में हीं शायद नितीश कुमार को पता चला कि “निर्दोष माँ” के घर में प्रतिबंधित शराब भी मिलती है. हालांकि अदालत में यह भी कहा जा सकता है कि किसी अदने नौकर ने यह शराब रखी है और वह नौकर उसे स्वीकार भी कर लेगा जैसे रॉकी का कहना है कि वह घटना के समय दिल्ली में था और सभी गवाहों ने अचानक “किसी को भी आदित्य को गोली मारते नहीं देखा” कहना शुरू किया है. फिल्म अभिनेता सलमान की ड्राइवर ने भी “बाद” में अपना जुर्म कबूल लिया था.

नितीश कुमार को राजनीतिक दार्शनिक जर्मी बेन्थैम की मशहूर उक्ति “कानून और नैतिकता की केंद्र बिंदु एक होता है परन्तु परिधि अलग-अलग” मालूम होनी चाहिए. मैकआइवर ने कहा था “कानून का अनुपालन सामाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में होती है” और बिहार में इसके उलट अपराधियों के हौसले सत्ता की गुणवत्ता के प्रतिक्रिया के रूप में सडकों पर दिखाई दे रहे हैं. 

सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या बिहार में प्रजातंत्र के घाव का बदबूदार मवाद है और अगर इसे छोड़ दिया गया तो यह मेटा-स्टासिस के स्टेज का कैंसर बन कर न केवल मीडिया को बल्कि पूरे बिहार को अपनी आगोश में ले लेगा. तब शायद सत्ताधारी भी न बच पायें.


lokmat