Friday 22 September 2017

सौहार्द्र : मुसलमानों की भी जिम्मेदारी है




सन १९४४ की बात है. भारत की आजादी को लेकर अंग्रेजों ने बटवारे का पेंच फंसा दिया. महात्मा गाँधी और मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना के बीच ऐतिहासिक १८ दिन लम्बी बातचीत चली. पर जिन्ना को ब्रितानी हुकूमत की शह थी. लिहाज़ा विवेक और तार्किकता जिद पर भारी नहीं पड़ सकती थी. सातवें दिन यानी १५ सितम्बर को गाँधी ने जिन्ना को एक पत्र लिखा: “हम दोनों की बातचीत के दौरान आपने पुरजोर तरीके से कहा कि भारत में दो देश हैं –हिन्दू और मुसलमान...'। जितनी अधिक हमलोगों के बीच बहस आगे बढ़ रही है उतनी हीं अधिक चिंताजनक मुझे आपकी तस्वीर दिखाई दे रही है........ इतिहास में मुझे एक भी घटना की याद नहीं आती जब धर्मान्तरण करने वाले लोग या उनके वंशज अपने मूल धर्म के लोगों से अलग उसी राष्ट्र में एक नए राष्ट्र का दावा करें. अगर भारत इस्लाम के आने के पहले एक राष्ट्र था तो इसे एक रहना होगा भले हीं उस राष्ट्र के तमाम लोगों ने अपना पंथ बदल लिये हो “.
बहरहाल ३५ महीने बाद हीं पाकिस्तान बन गया. लेकिन आगे की घटना देखिये.
बंटवारे के दौरान और बाद के कई  महीनों तक लाखों हिन्दू -मुसलमान एक दूसरे को मारते रहे . हिंसा का तांडव अभी चल हीं रहा था। संविधान सभा को अपना अपना कार्य करते हुए कोई एक साल से ज्यादा हो चुके थे. पूरा देश इस विभाजन से सकते की हालत में था. दिसम्बर , १९४७ को मुस्लिम लीग (जो बँटवारे के बाद बचे-खुचे सदस्यों से बना रह गया था) ने संविधान के प्रारूप में दो संशोधन प्रस्ताव रखे। पहला था --भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए अलग लोक सभा सीटों में आरक्षण। लेकिन दूसरा उस संकट में मुसलमान नेताओं की मनोदशा बताता है। यह संशोधन प्रस्ताव था --मुसलमानों  को पृथक मतदाता श्रेणी में रखना (याने सेपरेट एलेक्टोरेट --- एक ऐसी मांग जो अंततोगत्वा  फिर एक अन्य देश बनाने का मार्ग प्रशस्त करती. इस संशोधन को देख कर पूरा देश स्तब्ध रहा गया . पटेल ने बेहद भावातिरेक में कहा “मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इतने बढे झंझावात में फंसे देश के अनुभव के बाद भी इनमें कोई बदलाव आया भी या नहीं जो ऐसी मांग कर रहे हैं. "
आज ७० साल बाद सोशल मीडिया पर एक विडिओ वायरल हो गया है जिसे लाखों लोगों ने देखा. बांग्ला टीवी चैनलों ने इसे दिखाया। राज्य की राजधानी कोलकता में इसी सितम्बर १२  को पश्चिम बंगाल अल्पसंख्यक फेडरेशन के तत्वावधान में १८ संगठनों ने रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत में रहने की अनुमति देने की मांग को लेकर एक रैली आयोजित की। रैली में बोलते हुए एक युवा नेता मौलाना शब्बीर अली वारसी चीच-चीख कर कह रहा था “आप इस गलतफहमी में न रहें कि मुसलमान कमज़ोर है. तुम हमारी हिस्ट्री नहीं जानते . हम कर्बला वाले हैं , हम हुसैनी मुसलमान है . अगर हम ७२ भी है तो लाखों का जनाजा निकाल सकते हैं. ................. “ . मंच से आवाज आती है – बहुत खूब. भीड़ से अल्लाहो अकबर के नारे) इस नेता का चीखना और तेज होता है, “दिल्ली की सरकार से मैं बताना चाहता हूँ कि  ये रोहिंग्या हमारे भाई है. इनका और हमारा कुरआन एक है , जो इनका खुदा वो हमारा खुदा....... दुनिया में मुसलमान कहीं भी हो हमारा भाई है.........”. भीड़ हाथ उठाकर कहती है ---- नाला-ए -तदबीर , अल्लाहोअक्बर . नेता आगे कहता है, “ये बंगाल है , गुजरात नहीं, आसाम नहीं , यूपी नहीं , मुज़फ्फरनगर नहीं. मीडिया यहाँ बैठी है. मेरा चैलेंज है. अभी बंगाल में किसी मां ने वो औलाद पैदा नहीं किया जो एक भी रोहिंग्या मुसलमान को निकाल सके”.  भीड़ पागल की हालत में नारे लगाने लगती। प्रश्न इस नेता के आपत्तिजनक भाषण का नहीं है. प्रश्न उस भीड़ का है जो इसे न केवल अनुमोदित कर रही थी बल्कि इन वाक्यों से एक तादात्म्य प्रदर्शित कर रही थी, कुछ भी कर गुज़रने के भाव में।
अब जरा इस कुतर्क को समझें. यह नेता दुनिया के मुसलमानों को अपना भाई मान रहा है पर वह जिससे खून का रिश्ता रहा है या जिस मिट्टी में पला है उसी को चुनौती दे रहा है. इस्लाम से पहले इसके पूर्वज भारतवासी थे. लेकिन क्या आपने कभी किसी सभा में भारत के टुकडे करने वाले कश्मीरी नारों के खिलाफ अन्य भाग के मुसलमानों को इतने गुस्से में देखा है.? खालिद और उसके लोग जे एन यू में कौन सी आजादी मांग रहे थे और न मिलने पर “भारत तेरे टुकडे होंगे इंशाल्लाह “ का ऐलान कर रहे थे? याने धार्मिक रिश्ता वैश्विक है और वह जहाँ की मिटटी में सांस ली है उसके रिश्ते पर भारी पड़ती है. तर्क-वाक्य के विस्तार की प्रक्रिया के तहत यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का मुसलमान हमला करे तो वह जायज है क्योंकि वह भाई है. सेमिटिक धर्मों की यह एक बड़ी समस्या है उनकी प्रतिबद्दता में राष्ट्र नहीं है. परा-राष्ट्रीय  निष्ठा जो मूलरूप से विश्व भर में फैले उन  धर्मनुयाइयों के प्रति होती है वह उन्हें राष्ट्र की अवधारणा से दूर ले जाती है. ऐसे में देश क्या करे? हिन्दुओं का भाव कैसे गीता के “स्थितिप्रज्ञ” सरीखा बना रहे. आज जरूरत  है कि मुसलमान भी इस बात को समझे कि अगर दुनिया के मुसलमान एक हैं और वो कहीं से भी आयें तो यह बक़ौल इस नेता के यह भारत की जिम्मेदारी है कि उन्हें उदार दिल के साथ आत्मसात करे , तो फिर कल ये ४०,००० रोहिंग्या  भी तो इसी तरह चीख-चीख कर चिल्लायेंगे और चुनौती देंगे और कर्बला का इतिहास बताएँगे. यहाँ के मूल होंगे तो पाकिस्तान बनायेंगे या अलग मतदाता श्रेणी की बात करेंगे।
जहाँ एक ओर अपेक्षा के जाती है कि सत्ता किसी दल विशेष द्वारा हासिल होने का मतलब यह नहीं कि उग्र हिन्दु किसी अखलाक के घर गौमांस तलाशें और फिर उसे मार दें और न हीं ट्रक से दूध के व्यापार के  लिए वैधरूप से गाय ले जा रहे पहलू खान को सरे आम पीट-पीट कर मार दें वहीं “उनकी मां ने वह लाल पैदा नहीं किया” कहना भी अमनपसंद औसत मुसलमानों द्वारा ऐतराज़ का सबब होना चाहिये न कि उन्माद का कारण। स्वयं मुसलमानों को ऐसे भाषणों पर रोक लगाना होगा क्योंकि किसी ममता या अन्य राजनीतिक दलों को सिर्फ वोट से मतलब है जानें तो आती जाती रहती हैं।
हम निरपेक्ष विश्लेषक अख़लाक़ के मारे जाने पर उग्र हिन्दुत्व को कोसने लगते है स्वयं को तटस्थ साबित करने का होड़ में, पर क्या कभी कट्टरता के इस पहलू पर ऐतराज़ जताया है। आतंकी घटना होती है तो हमारा तर्क होता है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता। हम झूठ बोलते है। उसे धर्म ही वैचारिक प्रतिबद्धता देता है और धर्मानुयाई शरण और वे ही उसका महिमामंडन भी करते हैं।

punjab kesri