Sunday 27 November 2016

काला धन: विपक्ष का कुतर्क




अद्भुत है इस देश के एक वर्ग की तर्क शक्ति जो सकारात्मक को नकारात्मक बना कर जन विमर्श में डालने की जबरदस्त सलाहियत रखता है. पूर्व-वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता चिदंबरम के सवाल-जवाब के प्रारूप में लिखे गए ताज़ा लेख में यह बताने की कोशिश की गयी है कि काला धन कोई बड़ी समस्या नहीं है और दुनिया के सभी देशों में यह कमोबेश है. इस बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने वर्ल्ड बैंक के एक अध्ययन को लिया है जिसके अनुसार अमेरिका में छाया अर्थ-व्यवस्था (काले धन की अर्थव्यवस्था) सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का ८.६ प्रतिशत, चीन में १२.७ प्रतिशत जापान में ११ प्रतिशत और भारत में २२.२ प्रतिशत है. उनका कहना है कि ब्राज़ील , रूस और दक्षिण अफ्रीका में तो यह भारत से भी ज्यादा है. याने पूर्व वित्त मंत्री के हिसाब से यह कोई खास समस्या नहीं है जिसके लिए जनता को इतने कष्ट में डाला जाये.

तर्क-शास्त्र में एक दोष का वर्णन है --- अपने मतलब के तर्क वाक्य छांट लेना और बाकि छोड़ देना. चिदाम्बरम ने अपने लेख में इसका खूब इस्तेमाल किया. वह भूल गए कि उनके शासन काल में हीं देश के एक प्रख्यात अर्थ-शास्त्री प्रोफेशन अरुण कुमार ने यह आंकड़ा गलत बताया और कहा कि भारत में काली अर्थ-व्यवस्था जी डी पी ६० प्रतिशत याने १.४० ट्रिलियन डॉलर है. विश्व बैंक के आंकडे का आधार गलत है और दूसरे चार अन्य अध्यनों में भी इसे ४० प्रतिशत से ७० प्रतिशत बताया गया है. कांग्रेसी कुतर्क का यह आलम है कि यू पी ए -२ में २०१२ में इस मुद्दे पर जारी श्वेत पत्र में श्नेडर गणना (गत्यात्मक बहु-संकेतक बहु-कारक आंकलन पद्यति ) को आधार माना गया जिसके अनुसार श्री लंका में भारत से तीन गुना काली अर्थ-व्यवस्था है । इसके उलट यह देश मानव विकास सूचकांक में भारत से काफी आगे है. चिदंबरम अपने तर्क के आधार पर यह भी कह सकते हैं कि श्री लंका की तरह भारत में भी काली अर्थ-व्यवस्था को दूना किया जाना चाहिए क्योंकि इससे मानव विकास बेहतर होता है.  

चिदंबरम के अन्य खुद हीं पैदा किये गए सवाल और उनके खुद हीं दिए गए जवाव देखिये. प्रशन :क्या नोटबंदी से भ्रष्टाचार रुकेगा? जवाब: नहीं. भ्रष्टाचारी नए नोट में घूस लेंगे? क्या इससे नकली नोट छपना बंद होंगे? नहीं, अगर वो पुराने नोटों की नक़ल कर सकते हैं  तो नए की भी कर लेंगे. प्रश्न: क्या इससे काला धन बंद होगा ? जवाब : नहीं, क्योंकि ऐसा करने वाले जिन क्षेत्रों – जैसे निर्माण, चुनाव या सोना की खरीद में यह सब करते रहेंगे. ये जवाब जितने सहज हैं उतना हीं बचकाने भी. इन सब जवाबों से यह निकलता है कि” लिहाज़ा यह कोई समस्या नहीं है और काला धन की समान्तर अर्थ व्यवस्था  चलती  रहनी चाहिए. और शायद यही कारण रहा कि ७० साल में इसे पाल-पोस कर दैत्याकार बना दिया कांग्रेस सरकार ने. यू पी ए -२ के शासन काल में काला धन पर एक श्वेत पत्र जारी किया गया उसमें भी यही आंकड़े दिए गए. और यहाँ तक बताया गया कि एशिया के अन्य देशों में तो यह समस्या दूनी ज्यादा है. कांग्रेस के ४५ साल के शासन में कभी कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नोटबंदी के ऐलान के बाद पहले २४ घंटों में देश की प्रतिक्रिया बेहद सकारात्मक रही. “सेठ फंसा”, “घूसखोर अफसर अब क्या करेगा” या “नेतवा की रात की नींद उड़ी” का ७० साल पुराना घुन लगा भाव अचानक मुखर हुआ. लेकिन उसके बाद यह प्रतिक्रिया नकारात्मकता में बदली और बढ़ती चली गयी. कमज़ोर वर्ग इस फैसले से दिक्कत में रहा और अभी भी है. इस दिक्कत को बेहतर ऐलान-पूर्व रणनीति के तहत कम किया जा सकता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इसे माना.

लेकिन इसी बीच अर्थशात्रियों का एक वर्ग इस प्रयास के औचित्य पर प्रश्न उठाने लगा. उस का कहना था कि नोटबंदी मुख्य समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि धन के रूप में काली कमाई और उससे उपजी संपत्ति का बहुत कम हिस्सा हीं नकदी के रूप में रहता है. उनका मानना है कि हमला कहीं और करना होगा. इस हमले से एक तो कुछ चोर हीं पकडे जायेंगे और दूसरा इस प्रयास के अनुषांगिक क्षति के रूप में कमज़ोर तबके की दिक्कतें अचानक बढ़ जायेंगी. यह भी तर्क है कि इससे अगर कुछ चोर पकडे भी गए तो इससे आगे चोरी न हो इसकी कोई गारंटी नहीं है. यह आखिरी तर्क कुछ ऐसा है जैसे यह कहना कि चोर को जेल भेजने से यह सुनिश्चित नहीं होता कि अब कोई चोर पैदा नहीं होगा लिहाज़ा चोर पकड़ना छोड़ कर समाज में नैतिकता का प्रचार –प्रसार किया जाना चाहिए. दरअसल अव्वल तो यह राज्य का कार्य नहीं है. उसके लिए दूसरी सामाजिक –नैतिक संस्थाएं और गैर-राज्य प्रक्रियाएं होती हैं (जो भारत में विलुप्त-प्राय हैं) और दूसरे  अगर राज्य को कहीं से शुरू करना है तो आखिर किस मुकाम से शुरू करे, खासकर उस स्थिति में जब पूरा “आवां का आवां” हीं खराब हो. जिस देश में सिपाही से लेकर मंत्री तक और ठेकेदार से लेकर जज तक भ्रष्ट पाए जाते हों उसमें काला धन पर अंकुश लगाना किसी क्रांति से कम नहीं और वह भी न केवल राज्य-नीत क्रांति बल्कि सामाजिक –नैतिक –व्यक्तिगत –आध्यात्मिक क्रांति.    

एक बात जो इस प्रयास को नाकाफी बताने वाले अर्थशास्त्री भूल रहे हैं वह यह कि मोदी सरकार ने यह कदम उस समय उठाया है जब टेक्नोलॉजी ने समाज के हर व्यक्ति की एक –एक गतिविधि पर नज़र रखना बेहद सहज कर दिया है. आप माल जाते है उसका टीवी फुटेज है, आप के घर पर सेठ की कार दिवाली का गिफ्ट लेकर आती है उसका फुटेज मिल सकता है (सी बी आई के डायरेक्टर के घर कौन दलाल कब कब गया यह आज भी एक बड़ा मामला है), आप अब ज्यादा दिन बेनामी संपत्ति नहीं रख सकते क्योंकि जिसके नाम संपत्ति ली है उसे रजिस्ट्री आफिस में हीं फोटो खिंचवाना है. आपसे उसका रिश्ता पता लगाना मुश्किल नहीं होगा. उन सभी सोने बेचने वालों से सीसीटीवी फुटेज ली जा रहीं हैं जिन्होंने नोटबंदी की रात सोना बेंचा.  

सात दशक तक समाज कान में तेल डालकर सोता रहा “कोई नृप होहिं हमें का हानि” के भाव में और लोग अपनी जाति के कुख्यात छवि वाले लम्पट को भी प्रतिनिधि के रूप में प्रजातंत्र के मंदिरों –विधान सभाओं और संसद--को दूषित करने के लिए भेजता रहा. समाज की सोच की जड़ता यहाँ तक बढ़ी कि गाँव में बूढ़ी माँ बेटे की नौकरी लगने पर यह पूछने लगी कि “ऊपर की आमदनी कितनी है?”. भष्टाचार पूरे समाज में आत्मसात हो गया, जीवन पद्यति का भाग बन गया और महिमा-मंडित होने लगा. शादी के बाज़ार में एक सप्लाइ इंस्पेक्टर की कीमत इंटरमीडिएट के शिक्षक से ज्यादा होने लगी.

ऐसा नहीं था कि सरकारों को काला धन के बारे में आज पता चला है. अंग्रेज़ी शासन में भी इस व्याधि से मुक्ति के लिए अनेक समितियां बनी. सन १९३६ में अय्यर समिति ने सिफारिश की कि कर कानून में आमूलचूल बदलाव लाये जाएँ ताकि कम से कम कर –वंचना रोग की तरह न फैले. लेकिन इच्छा-शक्ति का नितांत अभाव रहा. आज जरूरत है कि भारतीय समाज इसे एक जन अभियान के रूप में ले और भ्रष्टाचार की ताबूत में आखिरी कील ठोके स्वयं को बदल कर और दूसरों पर बदलने का दबाव बना कर. केवल राज्य अभिकरण यह काम नहीं कर सकते.    

jagran

No comments:

Post a Comment