Saturday 17 June 2017

किसान आन्दोलन: चश्मा बदलना होगा



जरा विरोधाभास देखें.  इस साल देश में रिकॉर्ड २७४ मिलियन टन अनाज पैदा हुआ. गेंहू और चावल हीं नहीं दाल का उत्पादन भी देश की जरूरत से काफी ज्यादा रहा। फिर किसान आन्दोलन की राह पर क्यों? एक राज्य में  नहीं, दो राज्य में नहीं बल्कि कई राज्यों में यह फैलता जा रहा है. जो किसान आत्महत्या नहीं कर रहा  है  वह उग्र है और पुलिस की गोलियां खा कर मर रहा है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश ,  पंजाब  और  गुजरात इसकी चपेट में हैं और कर्णाटक, आंध्र प्रदेश में भी इसके दस्तक सुने जा सकते हैं. उत्तर प्रदेश और  बिहार में भी यह फ़ैल सकता है. सरकार के २४ घंटे पहले के आंकडे के अनुसार भारत में एक किसान की आय मात्र १६०० रुपये प्रति  माह है। 

इस किसान आन्दोलन  के मूल कारण दो हैं . एक तात्कालिक और दूसरा दीर्घ-कालिक. तात्कालिक कारण है किसानों की क़र्ज़ माफी का मुद्दा चुनावी मुद्दा बनाना जो भारतीय जनता पार्टी की अदूरदर्शिता का नतीजा है. सन २०१४ के आम चुनाव में पार्टी ने वादा किया कि अगर वह सत्ता  में आयी तो वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए अनाज  का समर्थन मूल्य लागत का ५० प्रतिशत बढ़ा  कर देगी. याने किसानों को जबरदस्त लाभ. लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट  में गया तो पार्टी की नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने हलफनामे में साफ़ तौर पर कहा कि यह संभव नहीं है. किसान तीन साल चुपचाप देखता रहा. इस बीच  उसे एक अन्य लोक-लुभावन वादा किया गया कि किसान की आमदनी पांच सालो में दोगुनी कर दी जायेगी. भूलना न होगा स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का छत्तीसगढ़ की एक जनसभा में यह  ऐलान कि उनकी सरकार आयी तो हर गरीब की जेब में १५ लाख रुपये होंगे. कहने की ज़रुरत नहीं कि भारत में गरीब और  किसान समानार्थी  होते हैं. कोई सामान्य गणित जानने वाला बच्चा भी यह समझ सकता है कि अगर यह वादा अमल में लाया जाये तो उस पर पूरा खर्च भारत अगले १०० साल के बजट से भी ज्यादा होता है. दरअसल  यह वादा नामुमकिन-उल-अमल था. बाद में इसे  जुमला करार देना पड़ा. तीन साल के भीतर हीं उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए और एक बार (तीसरा वादा ). फिर अपनी पिछली  गलतियों को नज़रंदाज़ करते हुए स्वयं प्रधानमंत्री ने ऐलान  किया कि उनकी पार्टी  की सरकार आयी तो किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया जाएगा. पार्टी की सरकार आयी  भी. और इस तीसरे वादे को पूरा करने की  अर्थात उत्तर प्रदेश के किसानों का ३६००० करोड  कर्ज  माफ़ करने की घोषणा भी  की गयी. (हालाँकि आज तक कोई भी अधिसूचना इस सम्बन्ध में नहीं लाई जा सकी है). लिहाज़ा आज अन्य राज्यों के किसानों को लगा कि वह क़र्ज़ माफी से इसलिए वंचित  है कि उसके यहाँ चुनाव नहीं है. जाहिर  है उसे आन्दोलन से हीं अपनी मांग मनवाना सबसे सहज रास्ता लग रहा है.                                                    

यहाँ  प्रशन यह है कि क्या क़र्ज़ माफी चुनाव का मुद्दा होना चाहिए? यह तो शुद्ध रूप से नीतिगत मामला है और इसे नीति बनाने वाली सस्थाओं पर छोड़ देना चाहिए. किस आधार पर उत्तर प्रदेश के किसानों का क़र्ज़ माफ़ करने का ऐलान प्रधानमंत्री करते है?  क्या महाराष्ट्र का किसान अपने खेत में सोना उगाता है या मध्य प्रदेश या  ऐसे हीं अन्य राज्यों के किसान की उत्पादकता उत्तर प्रदेश के किसानों से ज्यादा है? वोट पाने की ललक में पार्टियाँ गैर-जिम्मेदाराना वादे करती हैं और फिर या तो मुकर जाती हैं या आंशिक रूप उन्हें पूरा करके समूचे देश में गैर-बराबरी –जनित आक्रोश  पैदा करती हैं.                        
आज अगर पूरे देश के किसानों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया जाये तो सरकार को लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे. क्या वादा करने वाली केंद्र या राज्य का सरकारें यह राशि खर्च करने  की स्थिति में हैं और अगर करती हैं तो तज्जनित वित्तीय घाटा अर्थ-व्यवस्था में कमजोरी नहीं लायेगा? दरअसल क़र्ज़  माफ़ करना कैंसर के मरीज को दर्द की गोली देने से अधिक कुछ भी नहीं. मूल कारण पर  जाना होगा और वह है – क्यों भारत में खेती अलाभकर है, क्यों देश में पिछले २५ सालों से हर ३७ मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर  रहा है और क्यों पिछले २५ सालों में हर रोज़ २०५२ किसान खेती छोड़ कर शहरों  में रिक्शा पकड़ लेते हैं या मजदूर बन कर रहते हैं?

इस  बीच एक नयी स्थिति उत्पन्न हुई. सरकार ने इन तीनों अदूरदर्शी वादों से किसानों की अपेक्षाएं तो बढ़ा दीं लेकिन उनके  हाथ में कुछ भी नहीं आया. इसके ठीक उलट उन्होंने मोदी  की बात  मानते हुए जम  कर अनाज पैदा किया और दलहन (जिसका  उत्पादन लगातार घट रहा था)  का  उत्पादन ३० प्रतिशत बढ़ा दिया याने १७.१५ मिलियन टन से २२.१४ मिलियन  टन. लेकिन जब वह अपने उत्पाद को लेकर बाज़ार गया तो जो अरहर की दाल एक साल पहले २५००० रुपये  कुन्तल तक  बिकी  थी उसे  आढ़तियों  ने ३८०० रुपये खरीदने की पेशकश की.  ध्यान देने की बात यह है  कि सरकारी समर्थन ५०५० रुपये प्रति कुन्तल था लेकिन सरकारी  क्रय केन्द्रों पर या तो उसे तंग करके मजबूर  किया जाता था कि वह आढ़तियों      के हाथ  सस्ते में बेचे या फिर अगर इन  केन्द्रों पर खरीद हुई  भी तो पैसे महीनों तक नहीं मिलते थे।                                                                                                                      
खुले  बाज़ार में अरहर की दाल के सस्ते  होने  का कारण था म्यांमार, तंज़ानिया,                      मोज़ाम्बीक  और मलावी ऐसे  देशों से दाल की आयत. सरकार ने एडवांस इन्टेलिजेंस से यह जानकारी नहीं ली कि भारत में इस साल  दलहन उत्पादन की क्या स्थिति रहेगी. अगर यह पता होता कि अरहर की दाल  का  उत्पादन डेढ गुना होने जा रहा है तो सरकार यह भी जान जाती कि भारत में  जितनी दाल की खपत हर साल  होती  है वह घरेलू उत्पादन से हीं पूरी की जा सकती है. महाराष्ट्र और    मध्यप्रदेश दलहन उत्पादन  के लिए जाना  जाता  है. वहां का किसान आज अपने को ठगा महसूस  कर रहा है.                        
                                                                                                                                                                                                                      
अब किसान आक्रोश के दीर्धकालीन कारणों पर आते हैं. देश में ७७ प्रतिशत किसानों के  पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है और ७० साल के प्रजातन्त्र में किसानों को अन्नदाता कह कर बेवक़ूफ़ बनाने वाले सत्ताभोगी अभिजात्य वर्ग ने आज तक मात्र ४५ प्रतिशत जमीन पर हीं सिंचाई की  व्यवस्था की है बाकि ५५ प्रतिशत खेती  इंद्रा भगवान् के भरोसे होती हैं. यह समझने के लिए कि किसान को  एक हेक्टेयर में कितनी सालाना आय होती है आइन्स्टीन की दिमाग नहीं  चाहिए. किसान को सिर्फ परिवार के पेट पालने के लिए भी अन्य लोगों  की खेती किराये पर लेनी होती है. यह अन्य लोग कुलीन वर्ग के हैं जो बड़ी नौकरी या बड़ा बिज़नस  करने बड़े शहरों में डेरा जमाये हैं  और अपनी खेती  गरीब काश्तकारों को २५,००० से ३०,००० रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से  दे कर शहरों में  एयर कंडिशन्ड बंगलों में रौनकआफरोज़ होते हैं. और अपने  काले धन  को  खेती से  हुई आय दिखा कर सफ़ेद कर लेते हैं. अगर इस  किराये को  किसान के खर्ज में जोड़ दिया जाये तो दरअसल उसे खेती से  बहुत कम आय हो पाती है. आज ज़रुरत इस बात की है कि लघु व सीमान्त किसानों को जो किराये पर जमीन ले कर खेती  करते  हैं उन्हें अलग से उत्पाद का  मूल्य दिया जाये.                                                                                                                            
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                            
आखिर किसान की स्थिति की वजह क्या है? किसानों की समस्या को पिछले ३०० सालों से कभी भी गहराई से नहीं समझा गया. सत्ता चाहे मुग़लों की रही या अंग्रेजों या वर्तमान में प्रजातंत्र के  नाम पर अभिजात्य वर्ग की, सबने इसे शोषण का साधन बनाया. कोड़े मार कर “तीन कठिया” (१५ प्रतिशत खेत में  जबरन नील की खेती की  मजबूरी) स्कीम में बिहार में  नील की खेती कराई गयी तो थॉमस  मुनरो की रैयतवारी व्यवस्था में इस पर जबरदस्त टैक्स लाद  कर ईस्ट इंडिया कंपनी ऐश करती रही और वारेन हेस्टिंग्स ने जमींदारी की व्यवस्था ला कर किसानों की रही सही कमर तोड़ दी.

जहाँ सन २००० में भारत के एक फीसदी अभिजात्य वर्ग के पास देश की ३७  प्रतिशत पूंजी  होती थी,  सन  २००५ में वह बढ़ कर ४२ प्रतिशत, सन २०१० में ४८ प्रतिशत, सन २०१२ में ५२ प्रतिशत  और आज वह बढ़ कर ५८.४  प्रतिशत  हो गयी है. बढ़ती गरीब-अमीर की खाई भी इन आंदोलनों का  एक बड़ा कारण  हैं.          

लेकिन मोदी सरकार की कृषि क्षेत्र में कुछ  क्रांतिकारी कदमों को भी समझने की ज़रुरत है. फसल बीमा योजना,  यूरिया पर नीम  की परत, किसानों को मृदा-स्वास्थ्य  कार्ड और बैंक खाते  में मदद का पैसा सीधा जमा करना भ्रष्टाचार की  जड़ पर हमला है. और अगर राज्य सरकारें  इस क्रांतिकारी  योजनाओं  पर  राजनीति छोड़ कर अमल करें तो  देश में किसानों की  हालत काफी हद तक बदली जा सकती है.                                                                                                 
Lokmat

Wednesday 14 June 2017

किसान आन्दोलन: चश्मा बदलना होगा



जरा विरोधाभास देखें.  इस साल देश में रिकॉर्ड २७४ मिलियन टन अनाज पैदा हुआ. गेंहू और चावल हीं नहीं दाल का उत्पादन भी देश की जरूरत से काफी ज्यादा रहा। फिर किसान आन्दोलन की राह पर क्यों? एक राज्य में  नहीं, दो राज्य में नहीं बल्कि कई राज्यों में यह फैलता जा रहा है. जो किसान आत्महत्या नहीं कर रहा  है  वह उग्र है और पुलिस की गोलियां खा कर मर रहा है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश ,  पंजाब  और  गुजरात इसकी चपेट में हैं और कर्णाटक, आंध्र प्रदेश में भी इसके दस्तक सुने जा सकते हैं. उत्तर प्रदेश और  बिहार में भी यह फ़ैल सकता है. सरकार के २४ घंटे पहले के आंकडे के अनुसार भारत में एक किसान की आय मात्र १६०० रुपये प्रति  माह है। 

इस किसान आन्दोलन  के मूल कारण दो हैं . एक तात्कालिक और दूसरा दीर्घ-कालिक. तात्कालिक कारण है किसानों की क़र्ज़ माफी का मुद्दा चुनावी मुद्दा बनाना जो भारतीय जनता पार्टी की अदूरदर्शिता का नतीजा है. सन २०१४ के आम चुनाव में पार्टी ने वादा किया कि अगर वह सत्ता  में आयी तो वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए अनाज  का समर्थन मूल्य लागत का ५० प्रतिशत बढ़ा  कर देगी. याने किसानों को जबरदस्त लाभ. लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट  में गया तो पार्टी की नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने हलफनामे में साफ़ तौर पर कहा कि यह संभव नहीं है. किसान तीन साल चुपचाप देखता रहा. इस बीच  उसे एक अन्य लोक-लुभावन वादा किया गया कि किसान की आमदनी पांच सालो में दोगुनी कर दी जायेगी. भूलना न होगा स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का छत्तीसगढ़ की एक जनसभा में यह  ऐलान कि उनकी सरकार आयी तो हर गरीब की जेब में १५ लाख रुपये होंगे. कहने की ज़रुरत नहीं कि भारत में गरीब और  किसान समानार्थी  होते हैं. कोई सामान्य गणित जानने वाला बच्चा भी यह समझ सकता है कि अगर यह वादा अमल में लाया जाये तो उस पर पूरा खर्च भारत अगले १०० साल के बजट से भी ज्यादा होता है. दरअसल  यह वादा नामुमकिन-उल-अमल था. बाद में इसे  जुमला करार देना पड़ा. तीन साल के भीतर हीं उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए और एक बार (तीसरा वादा ). फिर अपनी पिछली  गलतियों को नज़रंदाज़ करते हुए स्वयं प्रधानमंत्री ने ऐलान  किया कि उनकी पार्टी  की सरकार आयी तो किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया जाएगा. पार्टी की सरकार आयी  भी. और इस तीसरे वादे को पूरा करने की  अर्थात उत्तर प्रदेश के किसानों का ३६००० करोड  कर्ज  माफ़ करने की घोषणा भी  की गयी. (हालाँकि आज तक कोई भी अधिसूचना इस सम्बन्ध में नहीं लाई जा सकी है). लिहाज़ा आज अन्य राज्यों के किसानों को लगा कि वह क़र्ज़ माफी से इसलिए वंचित  है कि उसके यहाँ चुनाव नहीं है. जाहिर  है उसे आन्दोलन से हीं अपनी मांग मनवाना सबसे सहज रास्ता लग रहा है.                                                    

यहाँ  प्रशन यह है कि क्या क़र्ज़ माफी चुनाव का मुद्दा होना चाहिए? यह तो शुद्ध रूप से नीतिगत मामला है और इसे नीति बनाने वाली सस्थाओं पर छोड़ देना चाहिए. किस आधार पर उत्तर प्रदेश के किसानों का क़र्ज़ माफ़ करने का ऐलान प्रधानमंत्री करते है?  क्या महाराष्ट्र का किसान अपने खेत में सोना उगाता है या मध्य प्रदेश या  ऐसे हीं अन्य राज्यों के किसान की उत्पादकता उत्तर प्रदेश के किसानों से ज्यादा है? वोट पाने की ललक में पार्टियाँ गैर-जिम्मेदाराना वादे करती हैं और फिर या तो मुकर जाती हैं या आंशिक रूप उन्हें पूरा करके समूचे देश में गैर-बराबरी –जनित आक्रोश  पैदा करती हैं.                        
आज अगर पूरे देश के किसानों का क़र्ज़ माफ़ कर दिया जाये तो सरकार को लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे. क्या वादा करने वाली केंद्र या राज्य का सरकारें यह राशि खर्च करने  की स्थिति में हैं और अगर करती हैं तो तज्जनित वित्तीय घाटा अर्थ-व्यवस्था में कमजोरी नहीं लायेगा? दरअसल क़र्ज़  माफ़ करना कैंसर के मरीज को दर्द की गोली देने से अधिक कुछ भी नहीं. मूल कारण पर  जाना होगा और वह है – क्यों भारत में खेती अलाभकर है, क्यों देश में पिछले २५ सालों से हर ३७ मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर  रहा है और क्यों पिछले २५ सालों में हर रोज़ २०५२ किसान खेती छोड़ कर शहरों  में रिक्शा पकड़ लेते हैं या मजदूर बन कर रहते हैं?

इस  बीच एक नयी स्थिति उत्पन्न हुई. सरकार ने इन तीनों अदूरदर्शी वादों से किसानों की अपेक्षाएं तो बढ़ा दीं लेकिन उनके  हाथ में कुछ भी नहीं आया. इसके ठीक उलट उन्होंने मोदी  की बात  मानते हुए जम  कर अनाज पैदा किया और दलहन (जिसका  उत्पादन लगातार घट रहा था)  का  उत्पादन ३० प्रतिशत बढ़ा दिया याने १७.१५ मिलियन टन से २२.१४ मिलियन  टन. लेकिन जब वह अपने उत्पाद को लेकर बाज़ार गया तो जो अरहर की दाल एक साल पहले २५००० रुपये  कुन्तल तक  बिकी  थी उसे  आढ़तियों  ने ३८०० रुपये खरीदने की पेशकश की.  ध्यान देने की बात यह है  कि सरकारी समर्थन ५०५० रुपये प्रति कुन्तल था लेकिन सरकारी  क्रय केन्द्रों पर या तो उसे तंग करके मजबूर  किया जाता था कि वह आढ़तियों      के हाथ  सस्ते में बेचे या फिर अगर इन  केन्द्रों पर खरीद हुई  भी तो पैसे महीनों तक नहीं मिलते थे।                                                                                                                      
खुले  बाज़ार में अरहर की दाल के सस्ते  होने  का कारण था म्यांमार, तंज़ानिया,                      मोज़ाम्बीक  और मलावी ऐसे  देशों से दाल की आयत. सरकार ने एडवांस इन्टेलिजेंस से यह जानकारी नहीं ली कि भारत में इस साल  दलहन उत्पादन की क्या स्थिति रहेगी. अगर यह पता होता कि अरहर की दाल  का  उत्पादन डेढ गुना होने जा रहा है तो सरकार यह भी जान जाती कि भारत में  जितनी दाल की खपत हर साल  होती  है वह घरेलू उत्पादन से हीं पूरी की जा सकती है. महाराष्ट्र और    मध्यप्रदेश दलहन उत्पादन  के लिए जाना  जाता  है. वहां का किसान आज अपने को ठगा महसूस  कर रहा है.                        
                                                                                                                                                                                                                      
अब किसान आक्रोश के दीर्धकालीन कारणों पर आते हैं. देश में ७७ प्रतिशत किसानों के  पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है और ७० साल के प्रजातन्त्र में किसानों को अन्नदाता कह कर बेवक़ूफ़ बनाने वाले सत्ताभोगी अभिजात्य वर्ग ने आज तक मात्र ४५ प्रतिशत जमीन पर हीं सिंचाई की  व्यवस्था की है बाकि ५५ प्रतिशत खेती  इंद्रा भगवान् के भरोसे होती हैं. यह समझने के लिए कि किसान को  एक हेक्टेयर में कितनी सालाना आय होती है आइन्स्टीन की दिमाग नहीं  चाहिए. किसान को सिर्फ परिवार के पेट पालने के लिए भी अन्य लोगों  की खेती किराये पर लेनी होती है. यह अन्य लोग कुलीन वर्ग के हैं जो बड़ी नौकरी या बड़ा बिज़नस  करने बड़े शहरों में डेरा जमाये हैं  और अपनी खेती  गरीब काश्तकारों को २५,००० से ३०,००० रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से  दे कर शहरों में  एयर कंडिशन्ड बंगलों में रौनकआफरोज़ होते हैं. और अपने  काले धन  को  खेती से  हुई आय दिखा कर सफ़ेद कर लेते हैं. अगर इस  किराये को  किसान के खर्ज में जोड़ दिया जाये तो दरअसल उसे खेती से  बहुत कम आय हो पाती है. आज ज़रुरत इस बात की है कि लघु व सीमान्त किसानों को जो किराये पर जमीन ले कर खेती  करते  हैं उन्हें अलग से उत्पाद का  मूल्य दिया जाये.                                                         
आखिर किसान की स्थिति की वजह क्या है? किसानों की समस्या को पिछले ३०० सालों से कभी भी गहराई से नहीं समझा गया. सत्ता चाहे मुग़लों की रही या अंग्रेजों या वर्तमान में प्रजातंत्र के  नाम पर अभिजात्य वर्ग की, सबने इसे शोषण का साधन बनाया. कोड़े मार कर “तीन कठिया” (१५ प्रतिशत खेत में  जबरन नील की खेती की  मजबूरी) स्कीम में बिहार में  नील की खेती कराई गयी तो थॉमस  मुनरो की रैयतवारी व्यवस्था में इस पर जबरदस्त टैक्स लाद  कर ईस्ट इंडिया कंपनी ऐश करती रही और वारेन हेस्टिंग्स ने जमींदारी की व्यवस्था ला कर किसानों की रही सही कमर तोड़ दी.

जहाँ सन २००० में भारत के एक फीसदी अभिजात्य वर्ग के पास देश की ३७  प्रतिशत पूंजी  होती थी,  सन  २००५ में वह बढ़ कर ४२ प्रतिशत, सन २०१० में ४८ प्रतिशत, सन २०१२ में ५२ प्रतिशत  और आज वह बढ़ कर ५८.४  प्रतिशत  हो गयी है. बढ़ती गरीब-अमीर की खाई भी इन आंदोलनों का  एक बड़ा कारण  हैं.          

लेकिन मोदी सरकार की कृषि क्षेत्र में कुछ  क्रांतिकारी कदमों को भी समझने की ज़रुरत है. फसल बीमा योजना,  यूरिया पर नीम  की परत, किसानों को मृदा-स्वास्थ्य  कार्ड और बैंक खाते  में मदद का पैसा सीधा जमा करना भ्रष्टाचार की  जड़ पर हमला है. और अगर राज्य सरकारें  इस क्रांतिकारी  योजनाओं  पर  राजनीति छोड़ कर अमल करें तो  देश में किसानों की  हालत काफी हद तक बदली जा सकती है.  

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