Friday 18 December 2015

भारत: २४ साल में विकास की हकीकत



जरा गौर करें ! कैसा लगता है यह जानकार कि बांग्लादेश तो छोडिये पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद (याने नारी-सशक्तिकरण) के स्तर पर हमसे काफी बेहतर हैं ! जरा सोचिये ! अगर हमें बताया जाये कि ७० साल के स्व-शासन के बाद भी गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के १८८ देशों में १५० नंबर पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है तो क्या हमारे पुरखों द्वारा खून बहा कर दिलाई गयी आज़ादी बेमानी नहीं लगेगी ?

गलती किसकी है ? हम हर पांच साल पर सरकार चुनते हैं पर हमें अपनी समस्याएँ भी नहीं समझ पाते. पिछले सात दशकों में या जब से (१९९० से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है एक बार भी यह मुद्दा जन-धरातल पर नहीं आया कि अगर हमारा आर्थिक विकास हो रहा तो अमीर और अमीर क्यों और गरीब और गरीब क्यों? हमने कभी भी इस बात पर जन-मत तैयार कर इस बात पर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा? कहना न होगा कि अगर जी डी पी बढ़ रहा है तो उसका लाभ जन-जन तक पहुँचाना सत्ता-पक्ष की नीति और शासन के अभिकरणों का काम है.  

यू एन डी पी द्वारा सोमवार (१४ दिसम्बर, २०१५) को जारी ताज़ा रिपोर्ट ने एक बार फिर मायूस किया. पिछले २४ साल में हम मानव विकास के मामले में वहीं के वहीं है. करेले पर नीम की तरह जहाँ सन २००० में देश के एक प्रतिशत धनाढ्य लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का ३७ प्रतिशत होता था वह २०१४ में ७० प्रतिशत हो गया है. याने अगर विकास हुआ है तो केवल एक प्रतिशत अभिजात्य वर्ग का हीं हालांकि हमने सन १९७६ में अपने संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के तहत “समाजवादी” शब्द भी डाला था. फिर क्यों आज ९९ प्रतिशत के पास मात्र ३० प्रतिशत संपत्ति. और यह संपत्ति भी साल-दर-साल धनाढ्यों के पास एकत्रित होती जा रही है. इससे भी बड़ी चिंता की बात है वह यह कि देश के जन-धरातल पर इन वर्षों में जो मुद्दे रहे या चुनावों में जिन बातों पर मतदान हुआ उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि क्यों देश में अगर हम सकल घरेलू उत्पाद में दुनिया के शिखर के दस राष्टों में हैं तो मानव विकास में १८५ देशों में पिछले २४ सालों में १३०वें  या १३५वें  स्थान पर क्यों? अगर तीन साल पहले शुरू लिया गया नया पैमाना –असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक – देखा जाये तो हम और फिसल कर १५१वें स्थान पर चले जाते हैं. भारत के इस मानक पर नीचे गिरने का एक और कारण है शिक्षा को लेकर भयानक विभेद. वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत व्यस्क शिक्षा ५.४ साल की है जो तमाम माध्यम आय वर्ग के देशों से काफी कम है. लेकिन आज तक शिक्षा को लेकर कोई आन्दोलन नहीं हुआ क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम है जब कि किसान का बेटा ५ वीं तक पढ़ने के बाद खेती में या मजदूरी की दुनिया में रोटी कमाने में लग जाता है.

उपरोक्त आंकड़ों से साफ़ है कि १९९० से जब से आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ देश में आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु उसका लाभ मात्र कुछ हाथों में सिमट कर रहा गया. लोक-प्रशासन के विद्वानों का मानना है कि अगर किसी देशी में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास और जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों की भूमिका होती है. और इन प्रजातंत्र में इस सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है “सचेत और तार्किक जनमत”.    

असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक में  संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) की वर्ष २०१४ की मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) रिपोर्ट, में कई और तथ्य चौकाने वाले हैं. वैसे तो पिछले ७० साल से देश का शासक वर्ग जनता को छलता आ रहा है “गरीबी हटाने, समाजवाद लाने, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर के बीच की शाश्वत खाई पाटने के नाम पर पिछले २४ साल से हमें इस धोखे का अहसास होना लगा जब १९९० में इस विश्व संगठन ने हर साल दुनिया किए तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर अमुक देश कहाँ है. यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है –देश की प्रति-व्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता. चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था किसी अम्बानी और किसी घुरहू के बीच कितना अंतर है इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा (हालांकि जिनी-कोएफिसेंट पैमाना अर्थ-शास्त्र में मौजूद था) तब पता चला कि जहाँ सन २००० में उपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपत्ति नीचे के ९९ प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति का ५८ गुना थी जो कि २००५ में ७५ गुना, २०१० में ९४ गुना और २०१४ में ९५ गुना हो गयी. औसत प्रति-व्यक्ति आय जो १९८० में १२५५ डालर थी ३४ साल में मात्र ३.४ गुना बढ़ी.      

आज देश में चर्चा जिन मुद्दों को लेकर हो रही है उनका दरअसल जन-सरोकार से दूर-दूर तक कोई लेना –देना नहीं. राजनीतिक वर्ग, मीडिया और बाजारी ताकतों ने यह सुनिश्चित करने का षड्यंत्र रचा कि लोगों को सतही मुद्दों में उलझाये रखो ताकि उसकी सोचने की शक्ति जडवत हो जाये. अगर बाजारी ताकतों को सीजन में पांच रुपये किलो आलू खरीद कर उसे चिप्स के नाम पर २५० रुपये किली बेंचना है तो समाज की सोचने की शक्ति ख़त्म करना जरूरी है. राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगी. यही वजह है कि देश के एक छोर पर “ताज महल के नीचे शिवालय” है कि नहीं, इस पर जबरदस्त चर्चा होती है दूसरे छोर पर “टीपू का जन्म दिन” कर्नाटक सरकार मानती है और उससे उभरा गुस्सा दो प्रदर्शनकारियों की बलि ले लेता है. लेकिन पिछले २० सालों में हर दिन २०५७ किसान क्यों खेती छोड़ कर मजदूरी करने लगता है और क्यों इसी काल में हर ३५ मिनट पर एक किसान आत्म-हत्या कर रहा है यह न तो किसी पार्टी का मुद्दा बनता है न हीं जनमत का.

समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुसार जन-विमर्श में सही मुद्दे आये और इन पर जन-मत तैयार हो ताकि सत्ता वर्ग इन मुद्दों पर नीति बना कर कार्रवाई करे इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्क-शक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की ज़रुरत होती है. हमने पिछले ६५ सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव में ६५ फीसदी तक मतदान करते हैं पर हमें अपने मुद्दे हीं नहीं मालूम.

मिर्ज़ा ग़ालिब को १९ सदी में भी हम लोगों की पहचान थी तभी तो उनका रेखता है ,““इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं”.


jagran