Sunday 4 November 2018

दोष सिर्फ राजनीतिक वर्ग का हीं नहीं है !



दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक “ द आइडिया ऑफ़ जस्टिस” में एक अध्ययन का जिक्र किया है. केरल स्वास्थ्य मानदंडों में भारत के अन्य राज्य तो छोडिये, चीन से भी आगे और लगभग यूरोप के समकक्ष है. इसका कारण स्वास्थ्य औरशिक्षा पर वहां  की सरकारों द्वारा पिछले तमाम वर्षों में किये गए प्रयास और खर्च है. इसके ठीक विपरीत सरकारी भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश इन स्वास्थ्य मानदंडों पर रसातल में लगातार बने हुए हैं. असामान्यरूप से जीवन प्रत्याशा और खासकर वृद्धावस्था की मृत्यु-दर बढी हुई है. लेकिन जब बीमारी को लेकर व्यक्तिगत-संतुष्टि (सेल्फ- पर्सीव्ड मोर्बिडिटी) का आंकलन किया गया तो केरल में लोग सबसे ज्यादा असंतुष्ट पाए गए और बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग सबसे कम असंतुष्ट. इसके पीछे के कारण को खोजने पर सेन को पता चला कि “अभाव में भी संतुष्टि” का यह भाव बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में इसलिए है कि  उन्हें कभी भी सरकारों से अपेक्षा नहीं रही क्योंकि वे जानते भी नहीं कि सरकार की भूमिका जन-जीवन को उठाने में क्या और कहाँ तक है. सेन की धारणा का मतलब यह है कि अशिक्षा, अज्ञानता और सत्ता, सरकार और राज्य अभिकरणों के प्रति “जाही विधि रखे राम, ताहि विधि रहिये” का दासत्व भाव आज भी उत्तर भारत के इन दो राज्यों में हीं नहीं बल्कि हिंदी पट्टी में भयंकर रूप से व्याप्त है. इसके ठीक विपरीत केरल में एक ज़माने से शिक्षा अव्वल रही है और सामूहिक चेतना विकास के तमाम पैरामीटर्स को लेकर तार्किक और सत्ता पर दबाव बनाने वाली रही है. एक कुंठित और तार्किकरूप से अवैज्ञानिक समझ वाले समाज सरकारों के लिए “मैनेज” करना ज्यादा आसान होता है क्योंकि भ्रष्टाचार करते हुए भी राजनीतिक दल उन्हें भावनात्मक आधार पर सहज हीं अपने पक्ष में कर लेती हैं. 
अब यहाँ सवाल हम विश्लेषकों से पूछा जाना चाहिये कि अगर समाज की समझ हीं पिछले ७० सालों में गाय, तलाक, मंदिर, मस्जिद से ऊपर नहीं बढ़ पा रही है तो दोष महज राजनीतिक वर्ग का हीं क्यों? अगर केरल ऐसे शिक्षित और तार्किक सामूहिक सोच वाले राज्य में भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए पुरुष समाज महिलाओं को प्रवेश नहीं दे रहा है “आस्था” के नाम पर तो राजनीतिक दल क्यों नहीं पक्ष और विपक्ष में खडी होंगी. यहाँ सवाल यह भी है कि अगर यह समझते हुए भी कि हर चुनाव के पहले आरक्षण, धार्मिक प्रतीकों और जातिवाद का मुद्दा “बोतल में बंद जिन” की तरह बाहर निकल आता है तो समाज की आँखों पर पर्दा क्यों पड़ा रहता है और वह चुनाव -दर चुनाव धोखा खाते हुए भी यह सन्देश नहीं दे पाता कि खूंखार अपराधी शहाबुद्दीन की जगह संसद नहीं सलाखों के पीछे है. शहाबुद्दीन कैसे चार बार प्रजातंत्र के सबसे “पवित्र मंदिर” लोक सभा में चुन कर आता है और क्यों किसी लालू यादव को यह सन्देश नहीं जाता कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रजातंत्र में जगह नहीं ?कैसे किसी राजनीतिक दल का नेता जनमंच से चेतावनी दे सकता है कि आस्था के मुद्दे से छेड़खानी करने से सुप्रीम कोर्ट बाज आये ?
दरअसल समाज का एक तबका जिनमें कुछ शिक्षित शहरी लोग हीं राजनीतिक वर्ग भी शामिल है, जन-मंचों पर, जैसे टी वी चैनलों पर चीख-चीख कर विकास की बात करते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए “अपने पक्ष के चुनिन्दा आंकड़े” भी पेश करते हैं लेकिन वापस लौट कर  वह दल जाति और संप्रदाय के आधार पर टिकट दे देता है और यह तथाकथित शिक्षित शहरी वर्ग अपनी जाति के नेता के घर अपनी बेटे की नौकरी लगवाने या अपना तबादला रुकवाने या मलाईदार जगह करवाले के लिए पहुँच जाता है. 
अगर आस्था इतनी अक्षुण है तो फिर बलात्कारी बाबा आसाराम को जेल क्यों? वह तो आज भी लाखों लोगों का भगवान है? राम रहीम को आज भी खुला छोड़ दें और देख लें कि किस तरह राजनीतिक वर्ग भक्तों के वोट के लिए नतमस्तक होता है. तो फिर इस संविधान का क्या होगा जिसके अनुच्छेद १४ में समानता को मौलिक अधिकार माना गया और सर्वोच्च न्यायालय को उसे बनाये रखने की अपेक्षा की गयी. सबरीमाला मंदिर में तो सभी आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का मामला था और भारत में एक बड़ा वर्ग इस फैसले के पूर्व इस मंदिर का नाम भी नहीं जनता था लेकिन राम मंदिर को भारत के १०० लोग अपनी अटूट आस्था के साथ देखते हैं और राम तो आराध्य देव माने जाते हैं. तो क्या राजनीतिक पार्टी के हिसाब से जहाँ भी समाज के किसी वर्ग की आस्था हो, अदालतों को मामले सुनाने का हक नहीं होना चाहिए. तब फिर चौराहे या सडकों पर एक मस्जिद, एक मंदिर हर रोज बनाये जाते रहेंगे और कुछ दिन में भक्त भी आने लगेंगे फिर आस्था मुकम्मल हो जायेगी. और तब सड़कें जाम हो जायेंगी क्यों पूजा और अजान के ऊपर कुछ भी नहीं. 
हम कैसा भारत अपनी आने वाली पीढी के लिए बनाने जा रहे हैं. अमर्त्य सेन ने इसका कारण बताया. उनके अनुसार हमारे तार्किक फैसले और किसी फैसले का चुनाव करते समय असली इच्छा में एक बड़ा अंतर रहता है. इसे “इच्छा की कमजोरी” (वीकनेस ऑफ़ द विल” कहते हैं. ग्रीक दर्शन में इसे “अक्रासिया” कहते हैं. भारत के समाज दर्शन में इसे “अपूर्ण आत्म-नियंत्रण” भी माना गया है. 
कितना साम्य है , केरल के उस शिक्षित व तार्किक समाज में जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ महिलाओं को पुरुषसत्ताक जकडन से निकलने नहीं देना चाहता और इसमें उसे दोनों पक्षों की तरफ से या खिलाफ राजनीतिक वर्ग रोटियां सेंकने खड़े हैं और उत्तर प्रदेश और बिहार का बीमार समाज जो शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में तिल-तिल कर मर रहा है लेकिन “आस्था” और “भावनात्मक” मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय से भी दो-दो हाथ करने को उद्धत है. तभी उत्तर प्रदेश के गेरुआधारी योगी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ “अन्य” विकल्पों की बात कह रहे हैं तो बिहार के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज किशोर इस अदालत से जनवरी में पीठ बनाये जाने के फैसले के अगले दिन कहा कि “मुझे डर है कि कहीं हिन्दुओं के सब्र का बांध न टूट जाये” . जाहिर है आस्था या की बात आस्था वालों को अच्छी लगेगी और अगली बार फिर कोई गिरिराज, कोई लालू या शहाबुद्दीन या कोई ओबैसी संसद की शोभा बनेंगे. और बिहार में ७० साल की आज़ादी के बाद भी (विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार) कुपोषण के कारण हर दूसरा बच्चा ठूंठ (स्टंटेड) या कमजोर (वेस्टेड) पैदा होता रहेगा और बड़ा होकर अशिक्षत और अस्वस्थ होते हुए भी आस्था का झंडा ऊँचा करता रहेगा. उधर बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने लोक सभा चुनाव की तैयारी के साथ अपने दलित प्रेम का मुजाहरा करते हुए ताज़ा ऐलान किया “किसी में ताकत नहीं जो अनुसूचित जाति व जनजाति का आरक्षण ख़त्म कर सके”.

Jagran