Sunday 11 November 2018

आस्था बनाम संवैधानिक नैतिकता


ट्रैफिक पुलिस का एक अदना सा सिपाही चौराहे पर हाथ उठाकर बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ रोक देता है. उसे यह शक्ति कानून देता है. देश में प्रति 740 लोगों पर मात्र एक पुलिसवाला है. इसीलिये जुमला है --- सरकार इकबाल से चलती है. सुप्रीम कोर्ट के पास भी अपने आदेशों और फैसलों को मनवाने के लिए कोई एजेंसी नहीं होती. संवैधानिक व्यवस्था के तहत आदेशों का अनुपालन सरकार के हाथ में होता है. कोई सरकार अगर यह कह दे “जाओ, नहीं करेंगे” तो फिर क्या होगा? जो अवमानना का आदेश अदालत द्वारा होगा उसका भी अनुपालन सरकार को हीं करना होता है. अब एक दूसरी स्थिति देखें. अगर अदालत कोई आदेश देती है और जनता उसे नज़रंदाज़ करते हुए अपने मन के हिसाब से करती है और सरकार (या सत्ताधारी दल के नेता) सख्ती तो छोडिये, जनता को इसके लिए समर्थन देती हैं तो फिर इस व्यवस्था को ढहने से कौन रोक नहीं सकता?
हाल की दो घटनाएँ लें. सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण की खतरनाक स्थिति देखते हुए देश की राजधानी, दिल्ली में दीपावली पर पटाखे न जलाने के या मात्र शाम के दो घंटे और  वह भी “हरित पटाखे” जलाने के आदेश दिए. इस पर्व को राम की रावण पर या अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में हर्ष प्रदर्शन के लिए आतिशबाजी की परम्परा के साथ मनाया जाता रहा है. याने आस्था का प्रश्न है. यह आस्था या परम्परा तब बनी होगी जब दिल्ली का आबादी दो करोड से ऊपर नहीं थी, गगनचुम्बी सोसाइटियों में फ्लैट के ऊपर फ्लैट नहीं बने थे और वायु प्रदूषण की कल्पना या माप का विज्ञान नहीं होगा और हर मिनट प्रदूषण के आंकड़े नहीं आते होंगे. आज देश की राजधानी एक गैस चैम्बर बन गयी है. दिवाली के अगले दिन प्रदूषण के आंकडे कुछ जगहों पर १८०० माइक्रोन अर्थात मानदंडों से ३० गुना ज्यादा रहे. यह स्थिति सांस की बीमारी हीं नहीं मौत की दावत साबित हो सकती है. लेकिन पुलिस मूकदर्शक के रूप में खडी रही और आस्था जीतती रही, भले हीं इस जीत में आस्थावानों के मौत का बुलावा भी रहा. बुराई पर बुराई की जीत में बदल गयी दीपावली.
इसके कुछ हीं दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने “संवैधानिक नैतिकता” (कॉनस्टीच्युशनल मोरालिटी) का सिद्धांत प्रतिपादित किया (हालाँकि यह पहले से भी प्रजातंत्र के मूल तत्वों में रहा है), जब उसके सामने सबरीमाला का मामला आया. इस मामले में आस्था और परम्परा कहती है कि रजस्वला की उम्र वाली महिलाओं का मंदिर में जाना (याने १० साल से ५० साल तक की आयु) वर्जित है. क्योंकि उस आयु में महिलाएं मंदिर को अपवित्र कर सकती हैं. उधर संविधान के अनुच्छेद १४ में विधि के समक्ष समानता” को मौलिक अधिकार में रखा गया है. अब अगर मान लें कि हज़ार साल पहले कोई परम्परा बनी और आस्था बनकार संस्था के रूप में विकसित हो गयी ( मसलन दक्षिण भारत के एक समुदाय में सैकड़ों शिशुओं को एक पहाडी पर बने मंदिर से नीचे फेंका जाता है जहाँ कुछ लोग चादर ले कर उन्हें रोकते हैं. अक्सर कई बच्चों की मौत हो जाती है) तो क्या आज हमें उसे जारी रखना चाहिए? इस समस्या को तोड़ा गहराई से समझना होगा. जब ये धर्म-आधरित आस्थाएं बनी थी तो प्रजातंत्र नहीं था , हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार नहीं दिए गए थे, राजा और रंक का वोट सामान नहीं था और विज्ञान और तार्किक समझ नहीं थी. लिहाज़ा आस्था ने कई बार शोषण का कारण भी बन जाती थीं, ईश्वर तक पहुँचने या परलोक सुधारने का ठेका राजा की मदद से कुछ संभ्रांत वर्ग के पास हीं सिमट जाता था, और अक्सर जाति, लिंग और क्षेत्रीय विभेद को वैधानिकता प्रदान करता था. यहाँ तक की आज के आधुनिक दौर में भी यह आस्था हीं तो थी जिसके तहत आसाराम, राम-रहीम और बाबा रामपाल अर्ध-ईश्वर (डेमी -गॉड) बन कर भक्तों से बलात्कार करते रहे. सत्ता नतमस्तक होती रही. 
सुप्रीम कोर्ट जब तलाक की प्रथा ख़त्म करने के आदेश देता है तो जो वर्ग स्वागत करता है वही सबरीमाला में आस्था से छेड़खानी न करने की चेतावनी देता है. फिर अगर हाजी अली शाह दरगाह में सबरीमाला की तरह पवित्रता के नाम पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित होना सुप्रीम कोर्ट ने गलत माना तो सबरीमाला में आस्था इतनी प्रबल क्यों? तर्क के सारे आधार तो एक हीं हैं.
ऐसे में जब देश की सर्वोच्च न्यायलय के सामने यह प्रश्न आता है कि दलित को मंदिर में जाने का अधिकार है कि नहीं, या महिलाएं शारीरिक कारणों से क्यों मंदिर में दर्शन से अपने जीवन के ४० साल वंचित रखी जाएँ या मेले में जानवरों के साथ ज्यादती (जली-कट्टू) को धर्म का अभिन्न अंग और आस्था का प्रश्न बना कर समाज मूक दर्शक बना रहे तो कैसे वह अदालत हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे? उस पर देश की एक बड़ी राजनीतिक वर्ग की यह चेतावनी कि “सर्वोच्च न्यायलय आस्था के साथ छेड़खानी न करे” यही प्रदर्शित करती है कि हम आदिम सभ्यता की एक बार फिर मुड़ रहे हैं.
यहाँ एक समस्या और भी है. अगर एक वर्ग की आस्था दूसरे वर्ग की आस्था से टकरा रही है तो समाज, संविधान और उसकी संस्थाएं क्या चुपचाप देखती रहें और दोनों वर्ग एक दूसरे के खून के प्यासे बने रहें? हम अक्सर देखते हैं कि पुलिस के लिए एक भारी समस्या बन जाती है जब दो समुदायों के त्योहार एक हीं दिन पड़ते हैं और दोनों एक हीं सड़क से , एक हीं समय जुलूस निकालने की जिद पर अड़े रहते हैं. कुछ हीं माह पहले बिहार में इस मामले में तीन जगह दंगे हो चुके हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट को आस्था से “छेड़-छाड़” नहीं करना चाहिए तो फिर पुलिस को भी यह अधिकार नहीं है. तब सोचिये देश में शांति की क्या हालत होगी?
कौन हैं सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद दीवाली में पटाखे फोड़ने वाले आर्थिक रूप से संपन्न दिल्लीवासी या केरल का “शिक्षित” पुरुष वर्ग ? दरअसल भारतीय समाज में इस बात की शिक्षा पाट्यक्रम में दी जानी चाहिए कि पहली आस्था संविधान में होनी चाहिए और कभी भी अगर धार्मिक आस्था और संवैधानिक व्यवस्था के बीच, अर्थात् अनुच्छेद १४ (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) और अनुच्छेद २५ (अंतःकरण, धर्म के आचरण, प्रचार और प्रसार की स्वतन्त्रता) में टकराव हो तो सम्मानपूर्वक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को व्यापक समाज की स्वतन्त्रता के आगे समर्पित कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने यही सिद्धांत सबरीमाला के मामले में प्रतिपादित किया है.