Thursday 3 October 2013

चारा घोटाला में लालू को जेल ------ भारतीय प्रजातंत्र एक खूबसूरत मोड़ पर

 

राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया और बिहार के भूतपूर्व मुख्मंत्री लालू प्रसाद यादव को १७ साल बाद अदालत ने चारा घोटाले में पांच साल की सजा सुनाई. प्रजातंत्र की खूबसूरती यही है कि यह जैसे-जैसे परिपक्व होता है संस्थाओं की भूमिका, कानून का राज, व्यवस्था में सुचिता, आम आदमी की तर्क –शक्ति बेहतर और अधिक जनोपदेय होने लगती है. समग्र आन्दोलन के कोख से उपजे सामाजिक न्याय की ताकतों के बल पर सत्तानशीं हुए लालू यादव को यह लगा कि अब प्रजातंत्र और उसकी संस्थाएं या कानून और उसके अभिकरण उनके दास हैं. उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि जन चेतना के वशीभूत कोई ना कोई संस्था तन कर खडी होगी आज नहीं तो कल. उनको लगता रहा कि साझा –सरकार के युग में केंद्र में सत्ता चला रही सोनिया गाँधी को भी संसद में समर्थन चाहिए, लिहाज़ा सी बी आई कितना कूदेगा. कुछ काल के लिए हुआ भी यही. आय से अधिक संपत्ति के मामले में  सी बी आई अपील में नहीं गयी. लालू भूल गए कि देश में अन्य संस्थाएं भी हैं , कोई मनमोहन सिंह  हैं तो कोई राहुल गाँधी भी. उन संस्थाओं को चलाने वाले लोग हैं जो तन कर खड़े हो जायेंगे. फिर कांग्रेस भी एक डूबती नाव पर क्यों सवार होगी? वह कोई दूसरी मजबूत नाव देखेगी.

यही वजह है कि चारा घोटाले में चारा ढोने के नाम पर ट्रक भाड़े का पैसा भ्रष्ट लालू-शासन के लोग हड़प रहे थे और इतना भी ध्यान नहीं दिया कि जो ट्रक का नंबर दिया है वह स्कूटर का निकलेगा. जहाँ एक भी जानवर नहीं है वहां लाखों का चारा जानवरों के खाने के नाम पर “खरीदा” जाएगा, एक मुर्गी रोजाना ४० किलो दाना खाने लगी. दरअसल भ्रष्टाचार किया यह इतना महत्वपूर्ण  नहीं है जितना वह मानसिकता से जिसके तहत यह घोटाला किया गया. आज देखने पर लगता है कि लालू ने पूरे सिस्टम को , संवैधानिक व्यवस्था को , कानून को ठेंगे पर रखा यह मानते हुए कि वह अजेय हैं और रहेंगें.  

 लालू की सजा का एक और भी पहलू है. सत्ता पर काबिज़ नेताओं, उनके दलालों व अफसरों का गठजोड़. सत्ता के नशे में या अफसर भी यही समझते रहे कि वह तो हाथी के कंधे पर बैठे हैं और यह हाथी कभी मरेगा नहीं. सजा से पूरे देश भर में सन्देश गया कि नेता के साथ अगर अफसर अपेक्षित कानूनी सीमा के आगे बढा तो इस गठ-जोड़ की परिणति भ्रष्टाचार में होगी और नेता अफसर को बलि का बकरा बनाएगा.

 ऐसा नहीं था कि इस घोटाले का राजफाश होने का बाद लालू ने इसे दफ़न करने को कोई कोशिश छोड़ी हो—तब भी और अभी एक महीने पहले तक भी. सन १९९५ में जब नियंत्रक एवं लेखा महा परीक्षक (सी ए जी) की रिपोर्ट बिहार के मुताल्लिक आई तो जैसा आम तौर पर होता है विधान सभा में आम रिपोर्टों की तरह (उस ज़माने में कोई विधायिका या संसद इन रिपोर्टों की तवज्जह नहीं देती थी) नजरंदाज की गयी. इस रिपोर्ट में वर्तमान झारखण्ड के चाईबासा में फर्जी ढंग से बिल बना कर करोड़ों रुपये निकालने की बात थी. चूंकि बिहार सरकार की हालत उस समय बेहद दयनीय थी इसलिए तनख्वाहें नहीं बाँट रही थी. फाइनेंस विभाग ने इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए सारे कलेक्टरों को चिट्ठी लिखा कि वे जांच करें कि क्या फर्जीवाड़ा करके पैसा ट्रेजरी से निकाला जा रहा है. चाईबासा के उपयुक्त अमित खरे ने छानबीन जो पाया वह चौंकाने वाला था.ऍफ़ आई आर हुआ और तब पूरे राज्य में जिस तरह सैकड़ों करोड़ रुपये फर्जी रूप से पशुपालन विभाग की साठ-गाँठ से निकले जा रहे थे पता चला. यह भी पता चला कि यह सब लालू के काल में हीं नहीं , जगन्नाथ मिश्र के काल से हीं चल रहा था.

आई ए एस अधिकारी अमित पर दबाव पढ़ना शुरू हुआ. तबादले किये गए , तनख्वाह रोकी गयी, पिता के मरने पर भी छुट्टी रद्द की गयी. सी बी आई जांच की अनुशंसा तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने ठुकराई. बहरहाल हाई कोर्ट ने से बी आई जांच के जब आदेश दे दिए तो जो सी बी आई का एस पी जांच कर रहा था उसे उसके डी आई जी ने धमकाया. वह डी आई जी आज सी बी आई का बड़ा अधिकारी है. इस बीच केंद्र सरकार में कांग्रेस सत्ता में आई. गठबंधन की राजनीति लालू के इर्द-गिर्द फिर घूमने लगी. कांग्रेस की मजबूरी थी लालू को खुश रखना. लालू ने आय से अधिक संपत्ति मामले में हाई कोर्ट से बरी होने का बाद सुनिश्चित किया कि सी बी आई अपील में न जा सके. इस बीच लालू के खिलाफ चारा घोटाला का मामला सी बी आई अपने एक ईमानदार और सक्षम जॉइंट डायरेक्टर यूं एन विश्वास को सौंप दिया. विश्वास पर हमले की साजिश की गयी. डराया गया, लुभाया गया.

इस बीच देश के प्रधान मंत्री आई के गुजराल बने. लालू सबसे ताकतवर बन गए. तत्कालीन सी बी आई डायरेक्टर ने सेवा-निवृत्ति के बाद लिखे अपने किताब में बताया कि किस तरह गुजराल ने उन्हें ताकीद की कि लालू के खिलाफ सख्ती न बरतें क्योंकि वह उनके सहयोगी हैं. डायरेक्टर ने यह धमकी नजरंदाज कर दी नतीज़तन रिटायरमेंट के मात्र दो माह पहले उनका ट्रान्सफर कर दिया गया. दरअसल यह केस इतना खुला था कि सी बी आई चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी.

हाल के दौर में अचानक जब सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा ८(४) रद्द करते हुए कहा कि संसद या विधायिका का सदस्य अगर दो साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज इस लिए नहीं रहेगा कि “वह चुना गया है और ऊपरी अदालत ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए और एक स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह बिल स्थायी समिति के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने शर्मो-ओ-हया की सभी हदें पार करते हुए मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति को भी यह बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना पड़ता. पर इस बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी. बिल भष्म होने लगा.

कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई का डी आई जी स्तर  का अधिकारी मिला तो कोई ईमानदार आई जी स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला तो कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष में इस भाव में खड़ा  कि पार्टी का भविष्य कुछ भी हो चुनाव में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .    

शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.

 
jagran

देश का प्रजातंत्र पुख्ता हो रहा है


नोबेल पुरस्कार विजेता एवं विख्यात अर्थशास्त्री ने कहा था कि क्रियाशील प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष नहीं होता क्योंकि मीडिया के जरिये बना हुआ जनमत का दबाव सरकारों को मजबूर करता है कि रसद कहीं से भी लेकर दुर्भिक्ष वाले क्षेत्र में पहुँचाया जाये. दरअसल बंगाल के १९४२ में हुए दुर्भिक्ष जिसमें करीब २० लाख लोग मारे गए थे, का ज़िक्र करते हुए सिद्ध किया था कि यह दुर्भिक्ष और मौतें महज ब्रितानी सरकार की उदासीनता के कारण था अन्यथा सरकार के पास रसद की कमी नहीं थी. अगर प्रजातंत्र रहता तो मीडिया और जनमत सरकार को इस रसद को बंगाल के गांवों में भजने को बाध्य होता.

आज ६३ साल के प्रजातान्त्रिक शासन के बाद सरकारें इस मीडिया के माध्यम से उभरे जनमत को नज़रंदाज़ नहीं कर पा रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह की सामूहिक चेतना उभरी है वह रंग ला रही है. राजनीतिक वर्ग, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी इससे प्रभावित हैं. और भ्रष्टाचारी नेता को सलाखों के पीछे देख कर इस बदलते भारत को सहज हीं पहचाना जा सकता है. एक और भी स्थिति पनपती है. अगर एक संस्था पुराने ढर्रे पर बने रहना चाहती है या ऐसी हीं कई अन्य संस्थाएं यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है तो कोई एक औपचारिक या अनौपचारिक संस्था या ताकतवर व्यक्ति अचानक उठ  खड़ा होता है और जन-समर्थन के बूते यथास्थितिवादी संस्थओं के मंसूबे ढेर कर दिए जाते हैं.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में अपनी हीं सरकार के खिलाफ बोलना उसी जन-भावना के प्रभाव का असर था. सुप्रीम कोर्ट का भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा ८(४) को गैर-कानूनी करार देने भी उसी का हिस्सा था. इसके उलट सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ चुने हुए जन प्रतिनिधियों को जिन्हें अदालत से से दो साल से अधिक की सजा मिल चुकी हो दोबारा बचाना  लोक सभा की यथास्थितिवादी प्रवृति का मुजाहरा करता है. राज्य सभा बेहतर सोच का था और इस बिल पर पानी फेरते हुए स्थायी समिति को सुपुर्द करने का फैसला लिया गया. फिर यथास्थितिवादी जिद के तहत कांग्रेस का एक वर्ग, भारत सरकार का मंत्रिमंडल “खूंटा वहीं गड़ेगा” के भाव में आकर अध्यादेश लाता है तो अचानक देश के राष्ट्रपति तन कर खड़े हो जाते है क्योंकि ६० साल राजनीति में रहने की वजह उन्हें जन-भावना की ताकत का अहसास था. राहुल का तेवर भी उसी लाइन पर था.

यह ठीक है कि प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल,  कांग्रेस की कोर कमिटी की गरिमा गिरी पर जब जन-भावना की क़द्र नहीं होगी तो आज नहीं तो कल यथास्थितिवादी संस्थाओं और व्यक्तियों की इज्ज़त खतरे में तो होगी हीं.

राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव को भी मुख्यमंत्री रहते हुए यही लगा कि संविधान, कानून और सिस्टम तो मेरी चेरी है. तभी तो भ्रष्टाचार करते हुए यह भी नहीं सोचा कि फर्जी बिल में भैंस ढोने के लिए कम से कम स्कूटर के नंबर की जगह ट्रक का नंबर डाल देते.

हाल के दौर में अचानक सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा ८() रद्द करते हुए कहा कि संसद या विधायिका का सदस्य अगर दो साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज इस लिए नहीं रहेगा कि वह चुना गया है और ऊपरी अदालत ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए और एक स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह बिल स्थायी समिति के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने शर्मो--हया की सभी हदें पार करते हुए मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति को भी यह बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना पड़ता. पर इस बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी. बिल भष्म होने लगा.

कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई का डी आई जी स्तर  का अधिकारी मिला तो कोई ईमानदार आई जी स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला तो कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष में इस भाव में खड़ा  कि पार्टी का भविष्य कुछ भी हो चुनाव में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .

   यह बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये. वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक पहुंचते हैं और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को बनाये रखने वाले अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल फाड़ कर फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को “चौराहे पर गोली मारने” की बात कहती है. 

प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न लेने में दो सेकंड की देरी भी नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी की राय  है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले आप  जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी होड़ मंत्रियों में लग गयी कि  कौन मंत्रिमंडल में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है. 

फिर भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं जनता में एक नयी आशा की किरण जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई युवा सार्थक क्रोध में आता है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर खाना खाना और रात बिताना, हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और लगता है कि नहीं ये राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता बता कर भीड़ में घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.

राहुल का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला हो सकता है. दरअसल मोदी का भी “यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद), संस्थाओं और व्यक्तियों की गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी बात खडी करना मोदी की भी सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास के पैमाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान को ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय जन-मानस को भाती है. 

शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.
patrika

राहुल का विद्रोही भाव जनता को रास आता है



प्रजातंत्र में राजकीय नीति निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है जो बहु-स्तरीय सामूहिक विचार-विमर्श के बाद ली जाती है. इसके लिए शासन तंत्र याने मंत्रिमंडल व शासनेतर संस्थाएं जैसे पार्टी फोरम और जन-संवाद के धरातल, मीडिया की बड़ी भूमिका होती है. लेकिन कई बार शीर्ष मान्यता वाले लोग अचानक इस प्रक्रिया को एक झटके से तोड़ कर तात्कालिक जन-भावना को अपील करने वाली बात के साथ अपने को जोड़ते हुए जनता के चहेते बन जाते हैं. इसका नुकसान यह होता है कि संस्थाओं का कद घट जाता है और जनता का विश्वास इस विधि-सम्मत और “लेजिटिमेट” प्रक्रिया से हट कर व्यक्ति पर चला जाता है. अर्थात उस व्यक्ति का कद तो बढ़ जाता है पर इसकी कीमत प्रजातंत्र को चुकानी पड़ती है. यह कुछ रॉबिनहुड इमेज जैसा होता है.

यह बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये. वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक पहुंचते हैं और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को बनाये रखने वाले अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल फाड़ कर फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को “चौराहे पर गोली मारने” की बात कहती है.     

प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न लेने में दो सेकंड की देरी भी नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी की राय  है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले आप  जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी होड़ मंत्रियों में लग गयी कि  कौन मंत्रिमंडल में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है. 

फिर भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं जनता में एक नयी आशा की किरण जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई युवा सार्थक क्रोध में आता है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर खाना खाना और रात बिताना, हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और लगता है कि नहीं ये राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता बता कर भीड़ में घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.

राहुल का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला हो सकता है. दरअसल मोदी का भी “यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद), संस्थाओं और व्यक्तियों की गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी बात खडी करना मोदी की भी सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास के पैमाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान को ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय जन-मानस को भाती है.

लेकिन एक बात साफ़ है कि अगर राहुल आज भी अपनी इस “एंग्री यंगमैन” की इमेज को स्थायी भाव बना लें तो मोदी को गिरती हुई साख वाले कांग्रेस के बीच से हीं  ना केवल एक दमदार विपक्षी मिलेगा बल्कि मोदी से ज्यादा अपील और सर्वस्वीकार्य चेहरा भी जनता को विकल्प के रूप में मिलेगा. मुश्किल यह है कि राहुल एक बार यह कहने की बाद नेपथ्य में चले जाती हैं. जयपुर में जब राहुल ने अपनी हीं पार्टी के चरित्र पर जबरदस्त प्रहार किया तो जन-मानस में इस युवराज के लिए विश्वास पनपा. लेकिन अगले कुछ महीनों तक राहुल का यह भाव नहीं देखने को नहीं मिला. इधर मोदी चुनाव के अखाड़े में हर दूसरे दिन ताल ठोकते रहे तो भी जनता ने सोचा कि पीढ़ी के अंतर वाले दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच मुकाबला होगा जन धरातल पर. पर कुछ समय में लगने लगा कि एक पहलवान ने वॉकओवर दे कर मैदान हीं छोड़ दिया है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मुकाबले की अपेक्षा न तो पहले थी ना अब है.

आज भी कांग्रेस के लिए एक हीं रास्ता बच रहा है. भ्रष्टाचार, कुशासन, महंगाई और राजनीति के अपराधीकरण से त्रस्त लोगों को कांग्रेस रंच मात्र भी नहीं भा रही है लेकिन अगर राहुल का अपने हीं लोगों के खिलाफ विद्रोही भाव में आकर जनता में विश्वास दिलाते हैं तो  मोदी के लिए महंगा पड़ सकता है.

यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर राहुल पर चौतरफा हमला करने को अपनी रणनीति का सबसे बड़ा हिस्सा मानने लगी है.

ध्यान देने की बात यह है कि पिछले तीन चुनावों में (याने सन १९९८ से २००९ के बीच ) भारतीय जनता पार्टी ने हर तीसरे मतदाता को खोया है जबकि कांग्रेस पिछले २० सालों में कमोबेश २८ प्रतिशत का वोट पाती रही है. लिहाज़ा यह सोचना कि कांग्रेस पूरी तरह से ख़ारिज की जायेगी गलत होगा. आखिर वो कौन १२ करोड़ मतदाता हैं जिन्होंने कांग्रेस को २००९ में वोट दिया जबकि भारतीय जनता पार्टी मात्र आठ करोड़ पर सिमट गयी. क्या मोदी यह खाई भर पाएंगे ?        
जहाँ तक राहुल के अपने हीं प्रधान मंत्री के खिलाफ सिद्धे जनता में जाने या अपनी हीं सरकार व मंत्रिमंडल  को नीचा दिखने का भाव है यह बौद्धिक जुगाली का विषय तो हो सकता है पर जनता में इसका सन्देश अच्छा गया है.          

lokmat