राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया और बिहार के भूतपूर्व मुख्मंत्री लालू
प्रसाद यादव को १७ साल बाद अदालत ने चारा घोटाले में पांच साल की सजा सुनाई. प्रजातंत्र
की खूबसूरती यही है कि यह जैसे-जैसे परिपक्व होता है संस्थाओं की भूमिका, कानून का
राज, व्यवस्था में सुचिता, आम आदमी की तर्क –शक्ति बेहतर और अधिक जनोपदेय होने
लगती है. समग्र आन्दोलन के कोख से उपजे सामाजिक न्याय की ताकतों के बल पर
सत्तानशीं हुए लालू यादव को यह लगा कि अब प्रजातंत्र और उसकी संस्थाएं या कानून और
उसके अभिकरण उनके दास हैं. उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि जन चेतना के वशीभूत
कोई ना कोई संस्था तन कर खडी होगी आज नहीं तो कल. उनको लगता रहा कि साझा –सरकार के
युग में केंद्र में सत्ता चला रही सोनिया गाँधी को भी संसद में समर्थन चाहिए,
लिहाज़ा सी बी आई कितना कूदेगा. कुछ काल के लिए हुआ भी यही. आय से अधिक संपत्ति के
मामले में सी बी आई अपील में नहीं गयी.
लालू भूल गए कि देश में अन्य संस्थाएं भी हैं , कोई मनमोहन सिंह हैं तो कोई राहुल गाँधी भी. उन संस्थाओं को चलाने
वाले लोग हैं जो तन कर खड़े हो जायेंगे. फिर कांग्रेस भी एक डूबती नाव पर क्यों
सवार होगी? वह कोई दूसरी मजबूत नाव देखेगी.
यही वजह है कि चारा घोटाले में चारा ढोने के नाम पर ट्रक भाड़े का पैसा
भ्रष्ट लालू-शासन के लोग हड़प रहे थे और इतना भी ध्यान नहीं दिया कि जो ट्रक का
नंबर दिया है वह स्कूटर का निकलेगा. जहाँ एक भी जानवर नहीं है वहां लाखों का चारा
जानवरों के खाने के नाम पर “खरीदा” जाएगा, एक मुर्गी रोजाना ४० किलो दाना खाने
लगी. दरअसल भ्रष्टाचार किया यह इतना महत्वपूर्ण
नहीं है जितना वह मानसिकता से जिसके तहत यह घोटाला किया गया. आज देखने पर
लगता है कि लालू ने पूरे सिस्टम को , संवैधानिक व्यवस्था को , कानून को ठेंगे पर
रखा यह मानते हुए कि वह अजेय हैं और रहेंगें.
लालू की सजा का एक और भी पहलू
है. सत्ता पर काबिज़ नेताओं, उनके दलालों व अफसरों का गठजोड़. सत्ता के नशे में या
अफसर भी यही समझते रहे कि वह तो हाथी के कंधे पर बैठे हैं और यह हाथी कभी मरेगा
नहीं. सजा से पूरे देश भर में सन्देश गया कि नेता के साथ अगर अफसर अपेक्षित कानूनी
सीमा के आगे बढा तो इस गठ-जोड़ की परिणति भ्रष्टाचार में होगी और नेता अफसर को बलि
का बकरा बनाएगा.
ऐसा नहीं था कि इस घोटाले का राजफाश होने
का बाद लालू ने इसे दफ़न करने को कोई कोशिश छोड़ी हो—तब भी और अभी एक महीने पहले तक
भी. सन १९९५ में जब नियंत्रक एवं लेखा महा परीक्षक (सी ए जी) की रिपोर्ट बिहार के
मुताल्लिक आई तो जैसा आम तौर पर होता है विधान सभा में आम रिपोर्टों की तरह (उस
ज़माने में कोई विधायिका या संसद इन रिपोर्टों की तवज्जह नहीं देती थी) नजरंदाज की
गयी. इस रिपोर्ट में वर्तमान झारखण्ड के चाईबासा में फर्जी ढंग से बिल बना कर
करोड़ों रुपये निकालने की बात थी. चूंकि बिहार सरकार की हालत उस समय बेहद दयनीय थी
इसलिए तनख्वाहें नहीं बाँट रही थी. फाइनेंस विभाग ने इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते
हुए सारे कलेक्टरों को चिट्ठी लिखा कि वे जांच करें कि क्या फर्जीवाड़ा करके पैसा
ट्रेजरी से निकाला जा रहा है. चाईबासा के उपयुक्त अमित खरे ने छानबीन जो पाया वह
चौंकाने वाला था.ऍफ़ आई आर हुआ और तब पूरे राज्य में जिस तरह सैकड़ों करोड़ रुपये
फर्जी रूप से पशुपालन विभाग की साठ-गाँठ से निकले जा रहे थे पता चला. यह भी पता
चला कि यह सब लालू के काल में हीं नहीं , जगन्नाथ मिश्र के काल से हीं चल रहा था.
आई ए एस अधिकारी अमित पर दबाव पढ़ना शुरू हुआ. तबादले किये गए ,
तनख्वाह रोकी गयी, पिता के मरने पर भी छुट्टी रद्द की गयी. सी बी आई जांच की
अनुशंसा तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने ठुकराई. बहरहाल हाई कोर्ट ने से बी आई
जांच के जब आदेश दे दिए तो जो सी बी आई का एस पी जांच कर रहा था उसे उसके डी आई जी
ने धमकाया. वह डी आई जी आज सी बी आई का बड़ा अधिकारी है. इस बीच केंद्र सरकार में
कांग्रेस सत्ता में आई. गठबंधन की राजनीति लालू के इर्द-गिर्द फिर घूमने लगी.
कांग्रेस की मजबूरी थी लालू को खुश रखना. लालू ने आय से अधिक संपत्ति मामले में
हाई कोर्ट से बरी होने का बाद सुनिश्चित किया कि सी बी आई अपील में न जा सके. इस
बीच लालू के खिलाफ चारा घोटाला का मामला सी बी आई अपने एक ईमानदार और सक्षम जॉइंट
डायरेक्टर यूं एन विश्वास को सौंप दिया. विश्वास पर हमले की साजिश की गयी. डराया
गया, लुभाया गया.
इस बीच देश के प्रधान मंत्री आई के गुजराल बने. लालू सबसे ताकतवर बन
गए. तत्कालीन सी बी आई डायरेक्टर ने सेवा-निवृत्ति के बाद लिखे अपने किताब में
बताया कि किस तरह गुजराल ने उन्हें ताकीद की कि लालू के खिलाफ सख्ती न बरतें
क्योंकि वह उनके सहयोगी हैं. डायरेक्टर ने यह धमकी नजरंदाज कर दी नतीज़तन
रिटायरमेंट के मात्र दो माह पहले उनका ट्रान्सफर कर दिया गया. दरअसल यह केस इतना
खुला था कि सी बी आई चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी.
हाल के दौर में अचानक जब सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार
निरोधक कानून की धारा ८(४) रद्द करते हुए कहा कि संसद या विधायिका का सदस्य अगर दो
साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज इस लिए नहीं रहेगा कि “वह
चुना गया है और ऊपरी अदालत ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए
और एक स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार
शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह
बिल स्थायी समिति के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर
पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र
सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने शर्मो-ओ-हया
की सभी हदें पार करते हुए मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा.
राष्ट्रपति को भी यह बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार
इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना पड़ता. पर इस बीच
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी.
बिल भष्म होने लगा.
कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई
का डी आई जी स्तर का अधिकारी मिला तो कोई
ईमानदार आई जी स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला तो
कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा
मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर
व्यक्ति सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष
में इस भाव में खड़ा कि पार्टी का भविष्य
कुछ भी हो चुनाव में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .
शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.