Thursday 18 July 2013

भौंडे तर्के से असलियत नहीं छिपती

 
 
 
भा रत में एक चुपचाप सुधारात्मक आंदोलन चल रहा है। कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जरिए, कभी इंडिया गेट पर दीप जला कर तो कभी सोशल साइट्स पर भडास निकाल कर. एक तरफ भ्रष्टाचार के मामले में सरकार की सहभागिता नहीं तो उनींदापन है तो दूसरी तरफ बलात्कार की चीत्कार। निदान माना जा रहा है- संसद और विधान सभाओं को 'अपराधी-शून्य' कर 'चरित्रवान' लोगों को स्थापित करना, प्रजातांत्रिक संस्थाओं को स्वच्छ कर उन्हें भ्रष्टाचार से विमुख कर, भाई-भतीजावाद। कहते हैं अनुभव से प्रजातंत्र समुन्नत होता है. इसका अभ्यास 63 साल से हो रहा है. तीन से ज्यादा पीढियां निकल गई हैं. प्रजातंत्र में गुणात्मक ह्रास हुआ है. सन 1956 में योजना आयोग ने अनुमान लगाया कि देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का चार से पांच प्रतिशत काला धन है. सन 1970 में वांगचू समिति ने इसे सात प्रतिशत बताया. 1980-81 तक आते-आते नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ने अपने आकलन में पाया कि देश में काला धन जीडीपी का 18 से 21 प्रतिशत है. प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार ने अपनी किताब में बताया कि सन 1995-96 में यह प्रतिशत लगभग 40 हो गया. प्रोफेसर का अब मानना है कि 2005-07 तक यह प्रतिशत 50 से अधिक हो गया है. क्या यह सब समय के साथ प्रजातंत्र के मजबूत और समुन्नत होने की निशानी है? अनुभव से प्रजातंत्र समुन्नत होना चाहिए था, आम जीवन बेहतर होना चाहिए था परंतु अनुभव का लाभ किसे मिला यह देखें. संसद और राज्य विधानसभाओं में लगातार ऐसे 'असुरों' की संख्या बढ.ती जा रही है जिन पर आपराधिक ही नहीं संगीन और जघन्य अपराध के मुकदमे विभिन्न स्तर पर चल रहे हैं. क्या यह प्रजातंत्र को बेहतरी की ओर ले जा रहा है? जन प्रतिनिधियों में करोड.पतियों की संख्या बढ.ती जा रही है जबकि देश में गरीबों की संख्या बढ. रही है. क्या यह प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत है? एक और पहलू देखिए. अनुभव के साथ हमारी भ्रष्टाचार को लेकर सहिष्णुता या यूं कहें कि बेशर्मी भी बढ़ी है.
1951 में महज व्यापारियों से पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने पर प्रधानमंत्री नेहरू और पूरा संसद एक मत होकर एच. जी. मुदगल को निकाल देता है. पर हाल के वर्षों में जब साझा दल के एक मंत्री पर लाखों करोड. रुपए के घोटाले की आंच आती है तो देश की सरकार कहती है कि 'साझा सरकार चलाने की कुछ मजबूरियां हैं.' जो राजनीतिक दल आतंकवाद के खिलाफ एक कारगर एजेंसी के रूप में केंद्र सरकार द्वारा लाए जा रहे नेशनल काउंटर-टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) को इस बात पर खारिज कर देते हैं कि इससे राज्यों की स्वायत्तता पर आंच आएगी, वही दल इस बात पर एक होकर अध्यादेश लाने पर रजामंद हैं कि वे जनता को सूचना के अधिकार के तहत नहीं बताएंगे कि उनको चंदे के रूप में कितना मिलता है. भौंडे तर्कों से एक वर्ग सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों की धार को भोथरा बनाना चाहता है. तर्क है कि अगर विधायक या सांसद अपील का अधिकार नहीं रखेगा तो राजनीतिक प्रभाव के जरिए कोई भी सत्ताधारी दल निचली अदालत से उसके खिलाफ फैसला ले लेगा. उसी तरह अगर जेल में बंद होने से उम्मीदवारी खत्म होगी तो सत्तादल अपने विरोधियों खासकर गरीब और पिछड़ों के नेताओं को ऐन मौके पर जेल में डाल देगा. क्या तर्क है? अब जरा गौर करें. इन गरीबों के रहनुमाओं को पुलिस से कह कर जेल में कौन डलवाएगा? सत्ताधारी दल! निचली अदालतों से अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ फैसला कौन करवाएगा? सत्ताधारी दल! यानी समस्या की जड. में कौन है? सत्ताधारी दल!
क्या इन सत्तानशीन पार्टियों को जो निचली अदालतों को प्रभावित कर फैसले बदलवाने का अपराध करती हों, एक क्षण भी सत्ता में रहने का अधिकार है? दरअसल जब संभ्रांत वर्गीय चरित्र के लोग या सत्ताधारी लोग सत्य की आंच को नहीं झेल पाते तो कुतर्क का सहारा लेते हैं, शेर के कथन की तरह कि तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी जूठा किया होगा. सर्वोच्च न्यायालय का प्रयास उन सभी लोगों की भावना से जुडा है जो एक अच्छे, समतामूलक समाज में सांस लेना चाहते हैं. यही वजह है कि इंडिया गेट पर भीड. बढ.ती जा रही है. शासक वर्ग को डरना चाहिए कि कहीं यह उग्र न हो जाए लिहाजा हाल के फैसले के खिलाफ अपील नहीं अमल की जरूरत है. ल्ल■ जब संभ्रांत वर्गीय चरित्र के लोग या सत्ताधारी लोग सत्य की आंच को नहीं झेल पाते तो कुतर्कका सहारा लेते हैं, शेर के कथन की तरह कि तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी जूठा किया होगा. सर्वोच्च न्यायालय का प्रयास उन सभी लोगों की भावना से जुडा है जो एक अच्छे, समतामूलक समाज में सांस लेना चाहते हैं.
 
LOKMAT

तो बिहार फिर “फर्स्ट” !



कहीं यह नीतीश की प्रजातंत्र की नयी परिभाषा तो नहीं ? 

जिस दिन बिहार देश का पहला राज्य बना जहाँ मध्याह्न भोजन से २२ बच्चों की मौत हो गयी उसी दिन दिल्ली में पुलिस ने एक कार जब्त की जिसमें बिहार के मुंगेर जिले में बनाये गए ९९ बेहतरीन गैर-कानूनी पिस्तौल की खेप उत्तर भारत के अपराधियों को देने के लिए आ रही थी. यह जिला पिछले कई सालों से देश में अपराधियों को नकली हथियार सप्लाई का गढ़ माना जाता है. उसी दिन एक और खबर सरकार के सर्वेक्षण के हवाले से आई कि बिहार बाल विवाह के मामले में देश में “फर्स्ट” आया है. ताज़ा  नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की  रिपोर्ट के अनुसार जायजाद संबधित हत्या के मामले में प्रतिदिन तीन हत्याओं का रिकॉर्ड बना कर बिहार देश में अव्वल रहा है. ये हत्याएं हजारों की संख्या में हाल में उभरे भू-माफिया जमीन पर कब्जा करने के लिए कर रहे हैं. ध्यान देने की बात है बिहार आबादी घनत्व में १००३ प्रति किलोमीटर स्क्वायर के आंकड़े के साथ देश में सबसे आगे है क्योंकि परिवार नियोजन में असफल राज्यों में भी यह राज्य अपना झंडा सबसे ऊपर रखे है.

इतनी सारे “फर्स्ट” के बाद अगर बिहार के मुख्यमंत्री अपने को विकास में अग्रणी बताते हैं तो शायद उनकी विकास की परिभाषा अलग होगी.

अलास्टैर फर्रुजिया का एक कथन है : आजादी तब कहते हैं जब जनता अपनी बात कह सके, प्रजातंत्र तब जब सरकार उसे सुने. बिहार में बच्चों को दिए जाने वाले मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता, पकाने का घटिया स्तर के बारे में हीं नहीं बल्कि उन अफसरों के जिन के जिम्मे इसे बेहतर करने का काम था, निकम्मेपण के बारे में कई बार अपनी रिपोर्ट केंद्र व बिहार सरकार को सौंपी थी. एक अन्य गैर-सरकारी संस्था ने तो यह भी बताया कि स्थानीय माफिया धमका कर इस स्कीम के लिए आये पैसे अपना हिस्सा वसूलते है. मीडिया लगभग हर तीसरे दिन किसी न किसी जिले में मध्याह्न भोजन से बीमार हुआ बच्चों के बारे में बताती रही है. लेकिन नीतीश की सरकार इन  सभी आवाजों को नज़रंदाज़ करती रही. शायद उसकी प्रजातंत्र की परिभाषा फर्रुजिया की परिभाषा से अलग है.

बच्चों के जीवन से सरकार के खिलवाड़ का यह आलम रहा कि केंद्र सरकार के द्वारा नियुक्त दो प्रमुख संस्थाओं ---- पटना –स्थित ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज और दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया – ने बिहार में इस एम् डी एम् योजना के क्रियान्वयन को लेकर एक अध्ययन किया. दोनों ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि क्रियान्वयन में जबरदस्त खामियां है मसलन, तमाम स्चूलों में यह मिलता हीं नहीं है, अगर मिलता है तो घटिया स्तर का खाद्यान उपयोग किया जाता है और जिन स्थतियों में भोजन पकाया जाता है वह स्वच्छता के पैमाने पर बेहद स्तरहीन है. खासकर मुख्यमंत्री नीतीश के अपने गृहजिले में भी इस स्कीम की बुरी स्थिति थी. रिपोर्ट में इसे बेहतर करने के उपाय भी सुझाये गए थे. यह रिपोर्ट राज्य सरकार ने भी पढ़ी. इस योजना की निगरानी वाली सर्वोच्च संस्था प्रोग्राम अप्रूवल बोर्ड (पी ए बी) ने इस रिपोर्ट पर २३ अप्रैल, २०१३ को बिहार सरकार के शीर्ष अधिकारीयों बातचीत भी की और आगाह भी किया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि राज्य स्तर के अधिकारी तो छोडिये , यहाँ तक कि जिले या ब्लाक स्तर के अधिकारी भी कभी भोजन की गुणवत्ता की जांच के लिए नहीं जाते. जब कि उन्हें हर माह इंस्पेक्शन करना है और इंस्पेक्शन रजिस्टर में अपनी प्रविष्टि भी लिखनी है. यह रहस्य तब खुला जब तमाम स्कूलों के रजिस्टर में प्रविष्टि का खाना महीनों से खाली पाया गया.

 “मिड-डे-मील” (एम् डी एम्) जिस मध्याह्न भोजन के नाम से समूचे भारत में चलाया जाता है शायद विश्व के प्रजातान्त्रिक लेकिन विकासशील देशों में सबसे उपादेय कार्यक्रमों में से एक माना जाता है. इस वर्ष सरकार ने इस मद में १३,२१५ करोड़ रुपये दिए हैं. इससे १२ करोड़ बच्चे स्कूल में पका भोजन १६७ दिन प्रति वर्ष दिया जाना चाहिए. याने हर बच्चे पर लगभग ५.५० रुपये प्रति भोजन का खर्च. इस कार्यक्रम के दो लाभ हैं. एक तो वे अभिभावक जो गरीबी के कारण बच्चों से काम करवाते थे ताकि कुछ आर्थिक मदद हो सके वे उन्हें स्कूल भेजने लगे ताकि कम से कम अपना एक वक़्त का भोजन तो सुनिश्चित हो सके और दूसरा पौष्टिक खाना मिला तो बच्चा एक स्वस्थ नागरिक बनेगा. यह अवधारणा अर्थशास्त्री फ्रीडमैन की उस सिद्धांत पर आधारित है जिसके अनुसार अगर विकासशील देशों में सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) के आकार में अपेक्षातीत वृद्धि हो तो चुनी हुई सरकारों को गरीबी  उन्मूलन के लिए डायरेक्ट डिलीवरी मोड़ (सीधे पैसे या वस्तु गरीबों को देना) में आ कर सीधे पैसे या वस्तु गरीबो को मुहैया करना चाहिए. ब्राजील में यह योजना “बोलसा फेमिलियास” के नाम से जबरदस्त रूप से सफल रही. भारत में, जो आज १.८  ट्रिलियन डॉलर की जी डी पी के साथ दुनिया के सात देशों में है में भी यह योजना या मंनरेगा इसी अवधारणा का प्रतिफल हैं. जहाँ देश में साक्षरता के लिए सर्व शिक्षा अभियान और मध्याह्न भोजन की बड़ी भूमिका रही है वहीं मनरेगा ने गरीबी सीमा रेखा से लोगों को ऊपर उठाने में भरी भूमिका निभाई है.

समस्या सिर्फ यह है कि ये योजनायें तो केंद्र सरकार की हैं परन्तु इनका अमलीकरण राज्य सरकारों के हाथ में हैं. जो राज्य सरकारें सक्षम हैं वे अपने प्रयास से ना केवल जनता को लाभान्वित कर रहीं है बल्कि उसका श्रेय भी केंद्र की जगह खुद ले रही हैं. छत्तीसगढ़ ऐसे नए राज्य ने तो अपनी तरफ से भी जन वितरण प्रणाली में पैसे देकर इससे जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की है. जबकि बिहार अपने कोटे का ४५ प्रतिशत अनाज हीं उठा पता है जबकि यह सबसे गरीब राज्य होने की वजह से सबसे ज्यादा इसे सस्ते अनाज की दरकार थी. दक्षिण भारत के राज्य अपने कोटे का ९० से ९८ प्रतिशत तक उठाते है और जनता को वितरित करते हैं.  

मध्याह्न भोजन खा कर मरने वाले २२ बच्चों के इस घटना का तात्कालिक असर यह होगा कि पूरी योजना जिसका देश की भावी पीढी पर सकारात्मक असर होता दम तोड़ देगी. कोई गरीब अभिभावक भी अपने बच्चे को इसलिए स्कूल नहीं भेजेगा कि वहां खाना खिलाया जाता है जिससे बच्चे मर जाते हैं.

वैसे भी सम्मानित स्वयंसेवी संस्था असर की हाल की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में कक्षा ५ के ७० प्रतिशत बच्चे कक्षा २ का ज्ञान नहीं रखते. सोचने की बात है कि दस साल बाद जब वह प्रयोगी परीक्षाओं में जायेंगे तो उनकी स्थिति क्या होगी. शायद बिहार के मुख्या मंत्री की प्रजातंत्र में सरकार के सुनने का मतलब मात्र यह होता है कि दिल्ली में जा कर बिहार के लिए स्पेशल दर्जे की मांग कर बिहारियों को बताओ को वह उनके लिए चिंतित हैं.

jagran

Monday 15 July 2013

न्यूज़ बनाम मनोरंजन---- सरकार को दोनों में फर्क समझना होगा



मीडिया मरे नहीं यह प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी

भारतीय इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ मीडिया एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. इनमें  कुछ स्थितियां इसकी बहबूदी और जनोपादेयता को मजबूत करेंगी तो कुछ कमजोर. इनमें तीन प्रमुख हैं. पहला : न्यूज़ चैनलों के प्रबंधन ने बाजारू ताकतों द्वारा संचालित और नितांत त्रुटिपूर्ण दस साल से चले आ रहे  “टैम” (दर्शकों की पसंद नापने की प्रक्रिया) नामक जुए को उतार फेंकना. दूसरा, दर्शकों का रुझान घटिया मनोरंजन से हट कर कुछ-कुछ खबरों की तरफ बढना. तीसरा: कानून के अनुपालन के तहत सभी चैनलों को अपने विज्ञापन समय को १२ मिनट प्रति घंटे तक महदूद करना याने राजस्व में भारी गिरावट (या कुछ लोगों के अनुसार लाभ में कमी जबकि कुछ अन्य के अनुसार घाटे में).   

इन तीनों स्थितियों के निरपेक्ष विश्लेषण की ज़रुरत है. पहली और दूसरी स्थितियां भारतीय इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ मीडिया को प्रेरित करती हैं कि अपने कंटेंट (विषय-वस्तु) को और बेहतर और विश्वसनीय करे  ताकि लोग क्रिकेट मैच की तरह न्यूज़ बुलेटिन देखना अपना धर्म मान लें. अगर यह हो सका तो न्यूज़ चैनल सामजिक और तज्जनित राजनीतिक विकृतियों को दूर करने में संवाहक की भूमिका में होंगे और वह दिन शायद विश्व मीडिया के इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा. तीसरे को व्यापक दृष्टिकोण से देखना होगा.

अमरीकी संविधान से अलग भारत में मीडिया के लिए संविधान में कोई अलग व्यवस्था नहीं है. यह नागरिक की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता से हीं अपने अस्तित्व का औचित्य हासिल करता है. यह अभिव्यक्ति कई तरह की होती है. सड़क पर डमरू बजा कर नट जो नाच करता है (अगर वह पैसे के लिए नहीं है और यातायात बाधित नहीं करता) भी इसी अधिकार की दुहाई देता है. मनोरंजन के टीवी शो जो भौंडे द्वैयार्थिक कॉमेडी के नाम पर कार्यकर्म होते हैं वह भी अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के अधिकार में आते हैं. जान पर खेल कर सत्ता से टकराते हुए भ्रष्टाचार का सत्य उजागर करने वाली खबर भी. डांस शो भी इसी अधिकार का भाग है और उत्तराखंड में शून्य तापमान पर रहते हुए अपनी खबरों से सरकार को मदद भेजने के लिए मजबूर करना भी उसी अधिकार के तहत होता है. लेकिन क्या दोनों कीं जनोपादेयता में व्यापक अंतर नहीं है? क्या मनोरंजन चैनल भी उसी स्तर पर रखे जाने चाहिए जिन पर न्यूज़ चैनल? क्या यह खबर कि किस दिन कोई मंत्री का निकट का रिश्तेदार किसी व्यवसायी से टेंडर खुलने के एक दिन पहले किस होटल के गुप्त कमरे में मिलता है और कैसे उसके अकाउंट में कुछ करोड़ रुपये ट्रान्सफर हो जाते हैं या कैसे एक सरकार का मंत्री अविश्वास प्रस्ताव के दो दिन पहले कुछ निर्दलियों के साथ बैठक करता है और उनमें से एक निर्दलीय सदस्य के घर अगले दिन एक नयी महंगी कार आ जाती है वही जनोपादेयता रखती है जो सास  - बहू का कार्यक्रम ? कैसे सरकार का मंत्री सी बी आई को बुलाकर प्रधानमंत्री कार्यालय और सम्बंधित मंत्रालय के अधिकारियों की मौजूदगी में कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट का मजमून बदलवाता है यह खबर किसी भी “डांस नाइट” से ज्यादा महत्वपूर्ण है. एक विकासशील समाज में जिसमें मनोरंजन मात्र चंद अभिजात्य वर्गीय लोगों का, जो रोटी जीत चुके हों, शगल हो, क्या खाद्य सुरक्षा, महंगाई, भ्रष्टाचार या या बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों पर न्यूज़ चैनलों द्वारा जनमत का दबाव बनाना ज्यादा जरूरी नहीं है?

अभावग्रस्त, विकासशील समाज में नयी तकनीकि पर पहला हक उन गरीबों का होता है जो जीने की  मूल समस्याओं से जूझ रहे हैं. अगर मुफ्त शिक्षा, गरीबों के होनहार बच्चों के लिए आई आई टी की कोचिंग, किसानों के लिए कृषि तकनीकी के ज्ञान को लेकर अगर चैनल आते हैं तो एक बड़े वर्ग का भला होगा और देश रोटी जीत कर भविष्य में उपयोगी और स्वस्थ नागरिक पैदा करेगा. इसी तरह न्यूज़ चैनल प्रजातंत्र की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से अपने फैसलों में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रहेगा अगर वह अभिव्यक्ति संचारित ना हो. सरकार के एक अच्छे प्रयास से यह तो हुआ है कि धीरे-धीरे नयी तकनीकी के ज़रिये सभी चैनलों को उस अनाप-शनाप खर्च से बचाया जा रहा है जो डिस्ट्रीब्यूशन (घर तक पहुंचाने के लिए केबल ऑपरेटरों को दिया जाता था). यह खर्च कुल खर्च का लगभग ४० प्रतिशत होता था या यूं कहें कि न्यूज़ लेन के मद में होने वाले खर्च का चार गुना. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि कानून बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि जनोपादेयता के हिसाब से चैनलों का वर्गीकरण किया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये किसानों के लिए चैनल , शिक्षा के प्रसार के लिए चैनल या न्यूज़ चैनल ऐसे वर्ग में हों जिनका खर्च कंटेंट में ज्यादा लगे.

एक और दिक्कत है. आज भी खबर और मनोरंजन के दर्शकों के बीच १ और ७ का अनुपात है. यही वजह है कि विज्ञापन (जो चैनलों के आय का मुख्य श्रोत है) देने वाला अपना माल बेंचने के लिए मनोरंजन चैनलों का रुख करता है. नतीजा यह कि जहाँ न्यूज़ चैनलों में विज्ञापन का औसत दर ६०० रुपये प्रति दस सेकंड भी नहीं है वहीं मनोरंजन चैनलों में यह दर औसतन ३० गुना ज्यादा है. कुछ मनोरंजन चैनल अपना समय एक लाख रुपये प्रति दस सेकंड  से ज्यादा में बेंच रहे हैं. न्यूज़ के कुछ बड़े चैनलों को छोड़ कर क्षेत्रीय चैनल बुरी तरह घटे में चल रहे हैं. कमो-बेश यही हालत अधिकांश तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों की है. बड़े चैनल भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं.                  

   एक सुखद परिवर्तन यह है कि जनता का रुझान पिछले कुछ समय से न्यूज़ की तरफ बढा है. न्यूज़ चैनलों ने भी इस चिर-अपेक्षित परिवर्तन का खैर-मकदम करते हुए अपने कंटेंट (विषय-वस्तु) अधिकाधिक जनोपादेय बनाने की कोशिश की है. लगभग हर न्यूज़ चैनल शाम को या दिन में देश के प्रमुख मुद्दों पर स्टूडियो से डिस्कशन करता है जिसमें मुद्दे के जानकार लोगों के अलावा राजनीतिक दलों के लोग शिरकत करते हैं. समृद्ध प्रजातंत्र की प्रमुख शर्त है जनता को तथ्यों से अवगत कराना, तर्क क्षमता बढ़ना और उन्हें अपनी राय बनाने के लिए हर पक्ष की बात उनतक पहुँचना. न्यूज़ मीडिया यह काम बखूबी कर रहा है हालांकि कई बार यह डिस्कशन तू-तू-मैं-मैं से ऊपर नहीं बढ़ पाता और जनता को सिर्फ यह पता चल पाता है कि किस नेता की गले में कितनी ताकत है और कौन नेता अपने शीर्ष नेता को खुश करने के लिए दूसरे पक्ष की बोलती बंद करने का हौसला रखता है. पर आने वाले दिनों में यह और बेहतर होगा.

तीसरा मुद्दा ज्यादा गंभीर है. कानून का अनुपालन करते हुए न्यूज़ चैनलों को . अपने विज्ञापन की समय सीमा को १२ मिनट करना होगा. अब अगर ये चैनल अपना रेट बढ़ाते है तो विज्ञापनदाता मनोरंजन चैनलों की तरफ रुख करेगा और अगर नहीं बढ़ाते तो आय का अन्य कोई साधन नज़र नहीं आता. यह बात सही है कि यूरोप के देशों में चैनलों के लिए 12 मिनट की विज्ञापन सीमा है लेकिन वहां विज्ञापन से मात्र 30 प्रतिशत राजस्व आता है, बाकी 70 प्रतिशत दर्शकों से। भारत में इसके विपरीत चैनलों को 90 प्रतिशत आय विज्ञापनों से होती है। एक अन्य साधन है दर्शकों से पैसे लेने का लेकिन अगर यह किया गया तो उससे गरीब दर्शक न्यूज़ से वंचित हो सकता है क्योंकि वह ज्यादा पैसे देने की क्षमता नहीं रखता. 

बहरहाल जहाँ सरकार को प्रजातंत्र की गुणवत्ता के लिए न्यूज़ चैनलों को स्वस्थ आर्थिक हालत में रखने के लिए कानून बनाकर उनका वितरण बगैर किसी खर्च के होना सुनिश्चित करना होगा जैसा कि लोक सभा और राज्य सभा चैनलों के लिए किया गया वहीं न्यूज़ चैनलों को भी कमर कस कर कंटेंट को इतना मजबूत बनाना होगा कि मनोरंजन से हट कर दर्शक न्यूज़ बुलेटिन देखना अपना धर्म समझने लगे.    
bhaskar 


Sunday 14 July 2013

सिस्टम शुद्धिकरण का सही वक्त

भारतीय समाज में आजादी का आन्दोलन छोड़ दें तो बुराइयों को लेकर जानाक्रोश कई शताब्दियों की गुलामी और तज्जनित “कोऊ नृप हो हीं हमें का हानी (नि)” के शाश्वत भाव की भेंट चढ़ता रहा है. देश में शीर्ष से लेकर नीचे तक व्यापत भ्रष्टाचार का सांप पूरे समाज को डसता रहा लेकिन सिस्टम ने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को सजा नहीं दी जिससे भ्रष्टाचारी के मन में डर व्यापत हो और जनता के मन में सिस्टम के प्रति सम्मान. चूंकि दासत्व की जबरदस्त भावना सत्ता के प्रति आक्रोश की जगह उदासीनता पैदा करती है इसलिए देश में चुनाव के समय भी भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा नहीं बन पाता. मुद्दा बनता है तो मंदिर-मस्जिद, जाति, रॉबिनहुड इमेज वाला अपराधी-नेता. अपराधी होना जनता की नज़रों में कोई योग्यता नहीं होती. विख्यात न्यायविद सॉलमण्ड ने कहा था- वह समाज जो कि गलत कार्यों को भोगने के बाद भी अपने अंदर क्रोध नहीं पैदा कर पाता उसे कानून की एक प्रभावी पद्धति कभी नहीं मिल सकती। भारत में प्रभावी कानून जो इस क्रांति को जन्म दे बन हीं नहीं सकता क्योंकि एक बड़ा वर्क जो चुनकर आता है वह जनप्रतिनिधि कम बाहुबल , धन-बल या जाति व्यवस्था की कुरीति का उत्पाद होता है.  

लन्दन –स्थित ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर-२०१३ पूरी दुनिया के १०७ देशों में करीब १,७०००० लोगों से उनके देश में भ्रष्टाचार के बारे में सर्वेक्षण किया. जहाँ विश्व के अन्य देशों में औसतन २७ प्रतिशत लोगों ने कहा कि पिछले १२ महीनों में उन्हें रिश्वत देनी पड़ी है, भारत के ५४ प्रतिशत लोगों ने इस बात को कबूला. यानि भारत में घूस का बोलबाला दूना. सर्वेक्षण के अनुसार भारत में अगर प्रमुख संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात की जाये तो लोगों राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा भ्रष्ट माना और इस स्केल पर राजनीतिक वर्ग को पांच में से ४.४ अंक मिले.  

लेकिन प्रजातंत्र की एक खूबसूरती है. देर से हीं सही कोई ना कोई संस्था अचानक जन-विश्वास जीतती हुई कड़ी होती है और वह अन्य भ्रष्ट संस्थाओं पर लगाम कसना शुरू करती है. आज देश में सर्वोच्च न्यायलय यह काम कर रहा है. जन-आक्रोश तो नहीं बन पाया लेकिन जनता की सामूहिक चेतना भ्रष्टाचार के खिलाफ या बलात्कार के खिलाफ या यूं कहें कि सिस्टम के खिलाफ इंडिया गेट पर जुटाने लगी है. सुप्रीम कोर्ट ऐसी संस्थाओं को ऐसे सामूहिक चेतना से बल मिलता है.  

यूरोप में एक कहावत प्रचलित है “फिश रोट्स फ्रॉम थे हेड फर्स्ट”  (मछली पहले सर से सड़ती है). शुद्धिकरण की प्रक्रिया घुरहू को पड़ने से नहीं बल्कि घरहू से जाति के नाम पर वोट लेने वाले को बदलने से होगा. लेकिन राजनीतिक वर्ग का हौसला देखिये. आजतक के १५ आम चुनावों या दर्जनों राज्य के चुनावों में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया. अगर बना भी (जैसे बोफोर्स के मामले में) तो मात्र एक चुनाव के लिए. 

कुछ उदाहरण लें. अगले चुनाव का मुदा फिर मंदिर बनेगा या मोदी. जबकि भ्रष्टाचार के मामले मसलन २-जी घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला , कोयला घोटाला आज मोदी के व्यक्तित्व की आंच में गल गए से लगते हैं. हाल हीं में उत्तर प्रदेश के चुनाव में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन आर एच एम्) में प्रदेश में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ सरकारी अमला और मंत्री से लेकर संतरी तक, हजम कर गए लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में कुछ महीनों पहले लगा था कि एक जबर्दस्त जनाक्रोश फूट पड़ा है और अब यह आक्रोश ठंडा नहीं पड़ने जा रहा है। लेकिन उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड या अन्य तीन राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में शायद ही भ्रष्टाचार एक मुद्दा बन पाया है। ऊपर से तुर्रा यह कि राजनीतिक दलों ने फिर वही हिमाकत दिखाते हुए आपराधिक छवि के लोगों को टिकट दिया है। बड़ी पार्टियों द्वारा खड़ा किया गया हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का है।

   ऐसा लगता है कि तुलसीदास के कोउ नृप होहिं हमे का हानिकी अनमनस्कता ने हमारी विद्रोही रगों को कहीं गहरे तक खत्म कर दिया है। हमें उसकी चिंता नहीं रहती कि नृप कौन होगा क्योंकि हमने मान लिया है कि चेरी छोड़ न होउब रानीयानि सत्ता सत्ताधारियों की है, लूटना उनका काम है और हमें दासत्व भाव में इस त्रासदी को जीवनपर्यन्त झेलना है। वरना कोई कारण नहीं था कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में इतने बड़े घपले के बाद भी भ्रष्टाचार मुद्दा न बनता।  

नोनन ने अपनी किताब ब्राइबमें लिखा था- हमें जनजीवन में भ्रष्टाचार के बारे में अपना फैसला इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि हमने कितने कानून बनाए और कितने लोगों को सजा दी। करप्शन की विभीषिका का अंदाज़ा तब मिल पाता है जबकि हम यह समझ पाएं कि समाज छोटे से छोटे भ्रष्टाचार या अनैतिकता को लेकर किस हद तक संवेदनशील हैं।                                                                                   
सभी राजनीतिक दलों ने अपना घोषणा-पत्र जारी करते हैं लेकिन एक भी यह नहीं बताता  कि भ्रष्टाचार से लड़ने का उनके पास कौन सा नुस्खा है ? किसी ने मुस्लिम आरक्षण की बात की तो किसी ने बेरोज़गारों को बैठे-बैठाए भत्ता देने का वादा किया। दरअसल हमाम में रहने का एक अलिखित कोड है कि कोई किसी को नंगा नहीं कहेगा।

   इटली की समसामयिक राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने से समझ में आता है कि किस तरह माफिया गैंग कानून-व्यवस्था व सरकारों पर भारी ही नहीं पड़ते बल्कि उनको जिस तरह चाहते हैं तोड़-मरोड़ लेते हैं। भारत में भी जिस तरह टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में सादिक बाचा जो कि ए.राजा का काफी करीबी माना जाता था, की लाश फांसी में लटकी हुयी उसके घर में पायी गयी, इस बात के संकेत हैं। इसी तरह चारा घोटाल के मामले में पशुपालन मंत्री भोलाराम तूफानी ने खुद को चाकू घोपकरआत्महत्या कर ली। वह भी घोटाले में आरोपी थे। इसी तरह 

70 लाख करोड़ की ब्लैकमनी की कोख से उपजा भ्रष्टतंत्र भीमकाय होता रहा और अब वह इतना ताकतवर हो गया है कि समूचे समाज को मुंह चिढ़ाकर राजफाश करने वालों की हत्याएं कर रहा है। 

इसी बीच जो कुछ दासत्व भाव वाले गलती से शीर्ष पर पहुंच गए उन्होंने भी नृप का चोला पहन लिया और मौसेरे भाई बन गए। इनमें से अगर कभी किसी ने अन्नाभाव में आने की कोशिश की तब या तो वह अलग-थलग पड़ गया या तो चांदी के जूते खाकर चुप हो गया। आज खतरा यह है कि इस भ्रष्टतंत्र में लगे माफिया अब न तो उन्हे अलग-थलग करेंगे ना तो चांदी का जूता दिखाएंगे बल्कि सिर्फ यह संदेश देंगे कि मौत कब, कहां आ जाए कोई भरोसा नहीं।   

आज से कुछ साल पहले तक अपराधी को यह डर रहता था कि भरी बाजार से लड़की उठाने पर लोगों का प्रतिरोध झेलना पड़ सकता है। लेकिन नए परिदृश्य में यह डर हो रहा है कि कहीं अपहर्ता गलती यह न समझ ले कि अमुक ने इस घटना को देखा भी है। हम नजरें मोड़ लेने के भाव में आ गए हैं। पुलिस वाला भी उस जगह से खिसक लेता है जहां अपराधी की हलचल दिखायी देती है। अमेरिका में इन्हीं स्थितियों से निपटने के लिए विटनेस प्रोटेक्शन लॉ(गवाह सुरक्षा अधिनियम) लाया गया ताकि हम अपराधी का प्रतिरोध न कर सकें तो कम से कम गवाही तो दे सकें। एफ.बी.आई को यहां तक शक्ति दी गयी है कि वह न सिर्फ अपने गवाहों की पहचान बदल देते हैं बल्कि अपने गवाहों को नए नाम से नए शहर में नए सिरे से जीने के लिए सारी सुविधाएं और धन मुहैया कराते हैं। इसके ठीक विपरीत आज भारत में इस बात का खतरा है कि पुलिस अपराधियों से अपनी जान बचा रही है।  

आज प्रजातंत्र के मंदिर –संसद – के सदन लोक सभा में जनता से चुन के आये कुल ५४३ में से १६२ सांसद पर खुद उन्हीं के हलफनामे के अनुसार आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. इनमें से १०२ पर गंभीर और उनमें ७६ पर जघन्य अपराध के मामले हैं. यानी हर तीसरा जनता का सदस्य अपराधी है. झारखण्ड में ऐसे आपराधिक छवि वाले लोग बहुमत (५४ प्रतिशत ) हैं. यानी वे जो चाहें कानून पारित करवा सकते हैं

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सही अमल हो तो खाद्य कानून कांग्रेस का “गेम चेंजर” हो सकता है!


हालांकि नव –उदारवादी अर्थ -व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की भूमिका से सरकार लगभग विमुख हो चुकी थी जिसका उदाहरण स्वास्थ्य और शिक्षा का जबरदस्त निजीकरण है--- आज गरीब आदमी के लिए क्वालिटी शिक्षा एक सपना है और बीमार पड़ना एक ऐयाशी ----लेकिन खाद्य सुरक्षा कानून बना कर वर्तमान सत्ता पक्ष ने यह दिखाने की कोशिश ज़रूर की है कि गरीब उनके राडार पर है भले हीं वोट के लिए.  बहरहाल देर आयद, दुरुस्त आयद. विश्व के किसी भी प्रजातंत्र में गरीबों को भूख जीतने के लिए राज्य की तरफ से शायद यह पहला कानून है. जिसमें भोजन का अधिकार भारत के ६७ प्रतिशत लोगों को या यू कहें कि विश्व के १३ प्रतिशत आबादी को मिलने जा रहा है. जैसे अनुसूचित जाति के लिए रिजर्वेशन की संवैधानिक व्यवस्था को चाह कर भी उच्चवर्गीय दल छेड़ नहीं सकते उसी तरह एक बार कानून बनने की बाद अब कोई भी दल इसे बेहतर हीं करने का उपक्रम करेगा.   
   जो सबसे बड़ी मूर्खता , जिसे पालिसी पैरालिसिस (नीतिगत पक्षाघात) के नाम से जाना जाता है इन चार सालों में सरकार के खाते में रही है वह यह कि वह यह कि अनाज सड़कों पर बारिश में सड़ रहा था , चूहे (या आदमीनुमा चूहे) खा रहे थे (हमारे पास मात्र ५० मिलियन टन की भण्डारण क्षमता है जबकि सरकार के पास अनाज करीब ८८ मिलियन टन है) लेकिन सर्वोच्च न्यायलय की सलाह के बाद भी सरकार ने इसे “चूहे” के पेट में जाने दिया , आदमी के पेट में नहीं. याद आता है नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का अपनी मशहूर पुस्तक  “गरीबी एवं  दुर्भिक्ष “ में यह कहना कि क्रियाशील प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष नहीं हो सकता क्योंकि सरकार पर मीडिया या जनमत का इतना बड़ा दबाव रहता है कि उसे चाहे जैसे भी हो रसद पहुँचाना हीं पड़ता है. दरअसल १९४२ के बंगाल दुर्भिक्ष में सेन ने पाया कि अनाज प्रचुर मात्र में अंग्रेज़ सरकार के पास था परन्तु दबाव नहीं था लिहाज़ा २० लाख लोग भूख से मर गए. भारत में तो मीडिया हीं नहीं सर्वोच्च न्यायलय भी सरकार को अपने गोदाम खोलने के लिए कहता रहा. लेकिन कोई चिदंबरम या कोई प्लानिंग कमीशन इस बात को लेकर खूंटा गाड़ कर बैठ गया कि इस कानून से वित्तीय घटा बढ़ेगा. चुनाव घोषणा पत्र में वायदे के बावजूद कांग्रेस की नेतृत्व वाली सरकार को चार साल लग गए इस कानून को बनाने में. क्या अनाज की जगह प्रजातंत्र में चूहे का पेट है या आदमी का पेट वह भी जब करोड़ों आदमी भूखे हो?
    कांग्रेस की अगुवाई वाली यू पी ए -२—के शासन काल की दो विशेषताएं रहीं हैं. पहला, भ्रष्टाचार को लेकर जनता की सामूहिक चेतना में व्यापक बदलाव जो कि आने वाले दिनों में काफी सकारात्मक भूमिका निभाएगा. इस सामूहिक चेतना के विकास का “श्रेय” भी सरकार अदूरदर्शिता को जाता है. इस काल में  भ्रष्टाचार की तीन घटनाओं ---२-जी, कामनवेल्थ घोटाला और कोलगेट—ने देश की चेतना को झकझोर दिया. ऐसा नहीं कि शासन-प्रायोजित भ्रष्टाचार  पहले नहीं होता था, लेकिन बढ़ती शिक्षा-जनित तार्किक समझ, राज्य के प्रति जनता का “माई-बाप” भाव का ह्रास और राज्य से बढ़ती अपेक्षाओं ने जनता के मनस को औपनिवेशिक जड़ता से बाहर निकाला. ट्रेन में रिजर्वेशन देने के लिए घूस लेने वाले टी टी को, पैसे मांगने वाले पुलिस दरोगा को सामूहिक रूप से पकड़ कर पीटा और कानून के हवाले किया. अन्ना आन्दोलन में या बलात्कार की घटनाओं पर क्षण भर में हज़ारों युवा इंडिया गेट पर पहुँच गए. जनता के इस नए तेवर से सत्ता पक्ष के पसीने छूट गए. भ्रष्टाचार के मामले में अगर कामनवेल्थ घोटाले को छोड़ दिया जाये तो बाकि दोनों में जनता की नज़रों में शीर्ष नेतृत्व किसी ना किसी स्तर पर दोषी नज़र आया या तो सीधे तौर पर या स्थितियों को जान –बूझ कर नज़रंदाज़ करने के कारण.  
दूसरी विशेषता यह रही कि देश सकल घरलू उत्पाद के नज़रिए से दुनिया के आठ देशों में आ गया. भारत के पास अनाज की रिकॉर्ड पैदावार ---2५८ मिलियन टन तक पहुँच गयी. जिस सरकार के पास ८८ मिलियन टन का खाद्यान्न रिज़र्व हो(जो कि समान्य से कई गुना ज्यादा है) और जिस सरकार को अभावग्रस्त किसानों के आत्महत्या की खबरें लगातार आती रही हो, उस सरकार के कार्यकाल में महंगाई आसमान छू जाए, इसका सीधा मतलब था कि रायसीना शक्तिपीठ पर काबिज़ मनमोहन-चिदंबरम-कपिल सिब्बल की तिकड़ी को बदलते जनमत को समझने की क्षमता नहीं थी।
देश की अर्थ-व्यवस्था में कुछ मौलिक खामियां नज़र आने लगीं. सन १९८० से इंदिरा गांधी ने उदारवाद की प्रक्रिया शुरू की जो अगले दशक में राव-मनमोहन जोड़ी ने अर्थ-व्यवस्था को शासकीय शिकंजों से उबरते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था में समेकित किया. और उसके अगले दशक में यानि २००१ से नव-उदारवादी अर्थ-व्यवस्था का आगाज़ हुआ. इन ३२ सालों में भारत की औसत जी डी पी ६.५ प्रतिशत रही जो विश्व- स्तर सराहनीय थी. लेकिन जो सबसे बड़ी चिंता की बात थी वह यह कि सन १९८० में मानव विकास सूचकांक में भारत १३४वें स्थान पर था. और २०११ में भी वह ठीक १३४ वें स्थान पर रहा.    
खाद्य सुरक्षा बिल 64 वर्ष के शासनकाल का (बल्कि विश्व का ) शायद सबसे बड़ा जनोपयोगी कानून बना । बल्कि यूं कहें कि समूचे विश्व में सीधी डिलीवरी का इतना बड़ा कोई प्रयास नहीं हुआ है। लेकिन यू.पी.ए सरकार और इसके समझदार मैनेजरों ”  में सरकार के अच्छे कार्यों का भी श्रेय लेने की समझ नहीं है। पिछली बार यह बिल भी संसद में ठीक उसी दिन लाया गया जिस दिन विवादास्पद लोकपाल बिल सदन के पटल पर रखा गया लिहाज़ा मीडिया में और संपूर्ण देश में लोकपाल बिल पर जम कर चर्चा हुयी। खाद्य सुरक्षा बिल जिसमें कि एक रुपए से तीन रुपए तक या रियायती दरों पर लगभग 70 करोड़ लोगों को अनाज देने की सरकारी प्रतिबद्धता थी, चर्चा में नहीं रही। यू.पी.ए-2 के अब तक के शासनकाल में शीर्ष पर बैठे लोगों में राजनीतिक सूझ-बूझ की बेहद कमी नज़र आती है। विश्वास नहीं होता कि यह वही कांग्रेस का नेतृत्व है जिसे कई दशकों तक शासन चलाने का अनुभव रहा है. इस बार भी जब यह उपक्रम शुरू किया गया तो अध्यादेश के जरिये जबकि बेहतर होता कि इसे जबरदस्त प्रचार दे कर सीधे संसद में विधेयक के रूप में लाते. किसी राजनीतिक दल की हिम्मत नहीं होती कि इसके खिलाफ जाये. लेजिन शायद यह कांग्रेस के डी एन ए की समस्या है. 
   अगर गहराई से विश्लेषण करें तब पाएंगे कि मनरेगा अभी तक सीधी डिलीवरी का पहला कार्यक्रम था , जिसमें कि सरकार सीधे रोज़गार का सृजन करके पैसा ग्रामीण बेरोज़गारों को देती है. यह एक बेहद जनोपयोगी योजना रही है। और कांग्रेस को इसका फायदा २००९ के चुनावों में फिर से सरकार बनाने के रूप में मिला.  लेकिन भ्रष्ट राज्य सरकारों के हाथ इसका क्रियान्वयन न होने की वजह से अपयश भी केंद्र सरकार के खाते में चला गया। 
   इस कानून के तहत पहली बार केंद्र सिविल सोसाइटी को क्रियान्वयन के स्तर पर जोड़ रही है—राज्य और जिला स्तर पर. अगर  खाद्य सुरक्षा कानून पर सही अमल हो जाये तो  देश में बढ़ती अमीरी-गरीबी की खांई को कुछ कम करने का एक बड़ा ज़रिया हो सकता है। भारत जैसे देश में जहां कि जितनी अमेरिका की पूरी आबादी है उतने लोग रोज़ शाम को भूखे सोते हैं, सस्ते दाम पर अनाज उपलब्ध कराना किसी भी सरकार की नेक-नियति को उसकी स्थायी राजनीतिक सुग्राह्यता के रूप में जनता में पेश किया जा सकता था लेकिन आज संदेश यह जा रहा है कि सोनिया न होतीं तब मनमोहन एण्ड कंपनी इस बिल को कभी पास ही न होने देती। क्या संभव है कि सोनिया के मैनेजर कम से कम पार्टी के इस गिरते ग्राफ को रोक सकें ?

sahara hastakshep