Monday 30 November 2015

बाबा साहेब को सच्ची श्रद्धांजलि है “संविधान दिवस”




इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार ने २६ नवम्बर को “संविधान दिवस” के रूप में मनाने का फैसला कर इस पवित्र दस्तावेज के जन्मदाता डॉ भीमराव अम्बेदकर (बाबा साहेब) को सच्ची श्रद्धांजलि दी है. इसके साथ हीं “संविधान” और “कानून” के प्रति जनता की “आदतन” निष्ठा की भावना को भी इससे मजबूती मिलेगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक हीं कहा कि “अगर कोई संविधान से छेड़-छाड़ की सोचता भी है तो वह आत्महत्या कर रहा है”. भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग अभी तक आदतन कानून के प्रति एक अनादर का भाव रखता है और अगर ट्रैफिक सिपाही न हो या पकडे जाने का डर न हो तो दोपहर में भी सहज भाव से “लाल बत्ती” को ठेंगा दिखाते हुए वाहन आगे बढ़ा लेने में कोई हिचक उसे नहीं होती. लाइन में खड़े हो कर टिकट लेना अपनी तौहीन समझता है और भ्रष्टाचार के प्रति सहिष्णुता की सीमा दूसरे पर तो थोपता है परन्तु अपने करने को “स्थिति-जन्य  अपरिहार्यता” मानता है.    

बाबा साहेब को भारत के लोगों की तासीर पता थी. संविधान सभा में बोलते हुए उन्होने कहा “संवैधानिक नैतिकता कोई प्राकृतिक भावना नहीं है. इसे पैदा करना पड़ता है. हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि हमें अपने लोगों को अभी यह सिखाना होगा. प्रजातंत्र भारत की जमीन पर एक ऐसी फसल को खाद- पानी देने जैसा है जो मूल रूप से गैर-प्रजातान्त्रिक है” . बाबा साहेब के अलावा संविधान विशेषज्ञों और विश्व राजनीति के कई प्रमुख लोगों को भारत के संविधान के सफल होने में शक था. राष्ट्रमंडल देशों में  में संवैधानिक इतिहास के जाने-माने विद्वान् सर आइवर जेंनिंग्स ने भारत के गणराज्य बनने के लगभग एक साल बाद सन १९५१ में मद्रास विश्वविद्यालय में बोलते हुए कहा “भारतीय संविधान में केंद्र व राज्यों को लेकर बनाये गए प्रावधान बेहद जटिल हैं और संविधान सभा में वकील-राजनीतिज्ञों के वर्चस्व ने इसे और जटिल बना दिया है”. इनका मानना था कि ऐसा जटिल संविधान शायद हीं व्यावहारिक रूप से टिक नहीं पायेगा. ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चर्चिल का मानना था कि भारत ने अगर गलती से भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था लेन की कोशिश की तो वहां अराजकता फ़ैल जायेगी.

भारतीय प्रजातंत्र ७० साल से चल रहा है. अराजक भी नहीं हुआ. एक बार आपातकाल लगा भी तो जनता ने जिस गुस्से का इज़हार किया उसका सदेश था कि दुबारा कभी कोई सत्ताधारी ऐसा करने की हिम्मत न करे”. मोदी ने भी लोक सभा में इस अवसर पर बोलते हुए इस बात की ओर इंगित किया.
  
लेकिन ऐसा नहीं कि सब कुछ सहज हीं होता रहा. भारत के गणराज्य बनने के बाद हीं संस्थागत तनाव शुरू हो गया. इसका मुजाहरा हमें संविधान को अंगीकार करने के तत्काल आठ महीने में मिलने लगा. संवैधानिक शक्तियों के तहत तत्कालीन नेहरु सरकार ने कई कानून बनाये जिनमें से लगभग ४० प्रतिशत सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर गलत ठहराए कि राज्य को ऐसी शक्तियाँ संविधान नहीं देता. सबसे पहला मामला दिसम्बर, सन १९५० में उत्तर प्रदेश के जलालाबाद के सब्जी विक्रेता मुहम्मद यासीन ने म्युनिसिपैलिटी के नए एक आदेश के खिलाफ उठाया जो वहां की मंडी में किसी बिशम्भर पाण्डेय को विक्रेताओं से टैक्स बसूलने का एकाधिकार देता था. सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को ख़ारिज किया.

दरअसल गणतंत्र बनने के पहले देश में सिर्फ तीन हाई कोर्टों – मद्रास, कलकत्ता और बॉम्बे – को हीं रिट जारी करने का अधिकार था और सरकार के खिलाफ किसी भी अभियोग के लिए अदालतों को भी गवर्नरजनरल से अनुमति लेनी होती थी. हमें राज्य की शक्तियों की उस औपनिवेशिक मानसिकता से अचानक बाहर आना था जो मुश्किल था. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के खिलाफ प्रेस स्वतन्त्रता सम्बंधित रोमेश थापर मामले सरकार के कानून को गलत करार दिया. अदालतों ने सरकार द्वारा बनाये लगभग हर तीसरे नए कानून को असंवैधानिक करार दिया. न्यायपालिका के इस रवैये को लेकर नेहरु काफी नाराज हुए और १६ मई, १९५१ को लोक सभा में बोलते हुए  में उन्होंने कहा “हमने एक भव्य और बेमिसाल संविधान अंगीकार किया लेकिन काले कोट में वकीलों ने इसका अपहरण कर लिया, इसे चुरा लिया”. नेहरु सरकार ने तत्काल याने संविधान के प्रभाव में आने के डेढ़ साल में हीं पहला संशोधन पेश किया जिसमें मौलिक अधिकारों में खासकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर तीन नए निर्बंध (रेस्ट्रिकशंस) लगाये और साथ हीं संपत्ति सम्बन्धी अधिकार को बाधित किया. लेकिन खूबसूरती यह थी कि इन संस्थागत झगड़ों में संस्थाएं बलवती होती गयी और संविधान काम करता रहा.    

यहाँ एक सवाल उठता है. भारत का संविधान दुनिया के संविधानों का निचोड़ है. यह सबसे बड़ा है और लगभग तीन साल की जाने माने कानूनविदों और समाजदृष्टाओं की अथक मेहनत का परिणति है. फिर दिक्कत कहाँ है? अमरीका का संविधान सबसे छोटा लिखित संविधान है. यह सबसे पुराना -२२६ साल --होते हुए भी मात्र २७ बार बदला गया जबकि भारत का संविधान पिछले ६५ साल के अपने अस्तित्व में १०० से ज्यादा बार बदला गया. इन संशोधनों के तहत २३० अनुच्छेदों को बदला गया, ४१ नए जोड़े गए और साथ हीं अनुसूचियों में ३७ संशोधन किया गए. याने जहाँ अमरीका का संविधान औसतन हर साढ़े आठ साल में एक बार बदला जाता है भारत में हम अपने संविधान में लगभग हर छः महीने पर एक संशोधन किया जाता है. अगर अनुच्छेदों में संशोधन के हिसाब से देखा जाये तो हर तीन महीने में कोई न कोई अनुच्छेद या तो बदला जाता है या फिर नया जोड़ा जाता है.

इसका कारण क्या है? भारत का संविधान बनाने के पहले दुनिया के कम से कम आधा दर्ज़न प्रतिष्ठित प्रजातंत्रों के सिद्ध संविधानों को देखा गया और उनके सार को लेते हुए भारतीय स्थितियों के अनुरूप उन्हें ढाला गया जैसे संघीय ढांचा हो लेकिन केंद्र –राज्य सम्बन्ध इस तरह हो कि राज्यों को स्वायत्ता भी रहे और केंद्र का वर्चस्व भी. अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और तमाम अन्य मुल्कों की सामाजिक संरचनाएं चूंकि अलग थी इसलिए हमने इसे अर्ध-संघीय बनाया. समता का अधिकार (अनुच्छेद १४) मौलिक अधिकार माना गया तो अल्प-संख्यक समुदाय के व्यक्तियों के सामूहिक अधिकार (कलेक्टिव राइट्स ऑफ़ इन्डिविजुअल्स)  को अनुच्छेद २७ और २८ के तहत और समूहों के अधिकार (राइट ऑफ़ कलेक्टीविटीज)  को अनुच्छेद २६, २९ और ३० के तहत अक्षुण रखा. फिर क्यों हमें संविधान में साल-दर साल या सत्र दर सत्र संशोधन करने पड़ते हैं?            

इसके दो प्रमुख कारण हैं. पहला हमें ऐसी संस्थाओं के प्रति जो हमारे खिलाफ भी हों सहनशीलता हीं नहीं बढानी पड़ेगी बल्कि उनका सम्मान भी करना होगा. अगर देश की संसद सर्वसम्मति से जजों की नियुक्ति का संवैधानिक संशोधन पारित करती है और देश के तमाम राज्य भी अनुमोदन करते है तो सुप्रीम कोर्ट को उस भावना को एक बार सम्मान देना चाहिए. भारत के इतिहास में कुछ अवसर छोड़ दिए जाये तो आमतौर पर सर्वोच्च न्यायलय के आदेशों के खिलाफ कानून लाने की परम्परा भारत के संसद में कम हीं देखने को मिलाती है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शुक्रवार के भाषण में इस ओर इंगित भी किया और कहा कि भ्रष्टाचार के मामले में दोषी को तत्काल चुनाव के लिए योग्य ठहराने वाले आदेश के खिलाफ संसद कानून बना सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया. दूसरा: प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के कारण, बढ़ती शिक्षा, नए टेक्नोलॉजी और मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण राज्य के प्रति बदलती जन-अपेक्षाओं की वजह से कानून में बदलाव जरूरी होते हैं और कई बार संविधान संशोधन अपरिहार्य हो जाता है. जी एस टी बिल इसका ताज़ा उदहारण है.



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