Friday 29 December 2017

बर्बर, आदिम पड़ोसी से छुटकारा कैसे !


हमारे पडोसी पाकिस्तान में विकास अंतिम सांसे ले रहा है, मोबाइल के लिए क़त्ल हो जाता है बेटियां पढ़ती नहीं हैं. लाहौर तहरीक--तालिबान--पाकिस्तान के प्रभाव से दूर है तो क्या हुआ? दो साल पहले इस खूंखार संगठन ने ऐलान किया कि उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान की तरह यहाँ भी लड़कियां अगर स्कूल गयी तो स्कूल बम से उड़ा दिया जाएगा. न मानने पर एक स्कूल बम से उड़ा दिया गया. सरकार मूकदर्शक बनी रही. लिहाज़ा लोगों ने अपनी बेटियों को स्कूल भेजना बंद कर दिया था. पूरे देश में मानव विकास के हर पैरामीटर उठ हीं नहीं पा रहे हैं और बस एक हीं भाव है कट्टर इस्लाम के वर्चस्व का. चूंकि आधुनिक शिक्षा के अभाव में सामूहिक चेतना बेहद अतार्किक है लिहाज़ा युवा जिहाद को अपने वजूद की अंतिम परिणति मानता है. पाकिस्तान के इस जडवत समाज में हम आधुनिक मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करें तो झटका लगेगा हीं.
लिहाज़ा पाकिस्तानी हुक्मरान ने जिस तथाकथित “मानवता के मानदंडों को मानते हुए” अपने यहाँ जेल में बंद भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव की उसके परिवार से मुलाक़ात करवाई उसमें कुलभूषण कांच की दीवार के इस पार था और परिवार (मां और पत्नी) उस पार. उनसे कहा गया कि वे अपनी भाषा (मराठी) में नहीं बल्कि अंग्रेजी या हिंदी में बात करें. जाहिर है अगर कुरआन शरीफ के किसी पाकिस्तानी विद्वान को भी कहा जाये कि अल्लाह के बारे में जर्मन भाषा में बताओ तो वह नहीं बता सकता. लिहाज़ा कोई संवाद हो हीं नहीं पाया. उतने भावनात्मक क्षण में जिसमें पत्थर भी पसीज जाये, पाकिस्तानी अधिकारियों का रवैया पशुवत था. उस मानसिकता को देखें कि शीशे की दीवार के उस पार से टेलीफोन के ज़रिये अंग्रेज़ी की बाध्यता के साथ आतंक के माहौल में न तो मां -बेटे में कोई बात हुई न पति -पत्नी में. मुलाक़ात के पहले दोनों की चूड़ियाँ, माथे की बिंदी व मंगलसूत्र निकाल लिए गये, कपडे बदल दिए गए और जूते वापस हीं नहीं किये गए. जाहिर है पूरा भारत इस रवैये से स्तब्ध है. देश के विदेश मंत्रालय ने न केवल तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है बल्कि उसे यह भी शक है कि पाकिस्तानी सरकार जूते में कुछ रख कर यह आरोप लगा सकती है कि भारत के खुफिया एजेंसी ने ट्रांसमीटर या कैमरा फिट किया था इसलिए जूते वापस नहीं किये गए. बहरहाल अगले दिन भारत के आक्रोश का जवाब देते हुए पाकिस्तान विदेश मंत्रालय ने कहा “हमने यह सब इसलिए किया क्योंकि हमें शक था भारतीय एजेंसियां कुछ मशीने शरीर के वस्त्र या जूते में रखवा सकती हैं”. स्पष्ट है यह तर्क कितना लचर था विश्व समुदाय के लिए. मशीन केवल आवाज रिकॉर्ड कर सकती थी और कुलभूषण की असली शक्ल का फोटो खींचा जा सकता था. पाकिस्तान को क्या इसका डर था ? क्या कुलभूषण के शक्ल को बिगाड़ा गया है? क्या उसे इतना मारा-पीटा गया है जिससे पाकिस्तानी सरकार उजागर नहीं होने देना चाहती ? भारतीय विदेश मंत्रालय का मानना है कि कुलभूषण का निचला हिस्सा इसलिए मुलाकात के दौरान नहीं दिखाया गया क्योंकि नीचे का अंग मार के कारण लकवाग्रस्त हो गया होगा.

पाकिस्तान हमारे उस पड़ोसी की तरह है जो रोज़ शराब पी कर अपने बच्चों को और पत्नी को पीटता है , गाली -गलौच करता है, उन्हें खाना नहीं देता, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति आपराधिक उदासीनता दीखता है लेकिन न तो उसकी पत्नी कुछ बोलती है ना हीं बच्चे क्योंकि वे कहाँ जाएँ ? कोई कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकता जब तक परिवार के सदस्य इसके खिलाफ खुद न खड़े हों. सिद्धांत हैं किसी के व्यक्तिगत मामले में बाहरी दखल न देने की.
कुल मिलकर पाकिस्तान को इससे मिला क्या? क्या विश्व यह मान लेगा कि पाकिस्तान का व्यवहार मानवीय है तब जब कि मां-बेटे को शीशे की दीवार के उस पार से मिलवाया गया. किस बात का डर था अगर मां-बाप गले मिलते तो? क्या यह कि वह रो-रो कर बताता कि पाकिस्तानियों ने उसके हर अंग को तोड़ दिया है और मानसिक प्रताड़ना की सभी हदें पार करते हुए उसे अवचेतना की स्थिति में पहुंचा दिया है. जाहिर है कुलभूषण का मूंह सूजा था, वह सामान्य मानसिक अवस्था में नहीं लग रहा था. परिवार से मिलने का हर्ष व उत्साह कहीं भी उसके चेहरे पर नहीं झलक रहा था. वह जडवत दीख रहा था. उसने यंत्रवत वही बोला जो उसे पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा सिखाया गया था, शायद इस डर के साथ की जाने के बाद फिर उसे वही यंत्रणा झेलनी पड़ेगी.
क्या पूरी दुनिया यह सब कुछ समझ नहीं सकेगी? फिर पाकिस्तान को हासिल क्या हुआ? अगर दुनिया को रंगा-पुता कर अपना मानवीय चेहरा (जो भयावह है) दिखाना चाहता था तो वह खूंखार रूप से प्रगट हुआ. अगर भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए यह किया था तो वह उल्टा पडा और अगर अंतरराष्ट्रीय नियमों व तज्जनित दबावों के चलते किया था तो कुलभूषण के साथ की उसकी अमानवीय यातना का खाका दुनिया से छिपा नहीं रह गया. अगर भारत को चिढाने के लिए यह सब कुछ किया तो इसका प्रतिकार हमें वहां के अधिक से अधिकबीमारों का इलाज़ करके देना होगा. पिछले ३ जुलाई को पाकिस्तान मेडिकल एसोसिएशन ने भारत के इस रवैये की तारीफ की भारत का इस्लामाबाद स्थित उच्चायोग अपने वीसा नियमों को लचीला बनाते हुए बीमारों को वीसा दे रहा है. एसोसिएशन ने प्रेस नोट जारी करके बताया कि भारत में इलाज़ बेहतर और अन्य देशों के मुकाबले सस्ता है और पिछली साल पाकिस्तान के ५०० बच्चों सहित कुल दो हज़ार लोगों का भारत में इलाज हुआ.
उधर चेतना के स्तर पर आज भी सदियों पीछे रहे इस देश की स्थिति यह है कि इस देश के लोगों में इस जड़ता से निकलने की चाह भी ख़त्म हो गयी है बल्कि आधुनिक सभ्यता के मानदंडों से इसे भय लगता है. कुछ बानगी देखें. इस देश के उत्तर -पश्चिम क्षेत्र को फाटा के नाम से जाना जाता है जो कहने को तो पाकिस्तान में है परन्तु सारा प्रशासन अप्रत्यक्षरूप से इस्लामिक आतंकवादियों के संगठन तहरीक--तालिबान द्वारा चलाया जाता है. इसने एक फरमान जारे किया कि क्षेत्र की लड़कियां केवल घर में हीं रह कर पढ़ेंगी और वह भी मात्र कुरआन. दूसरा फरमान था कोई मर्द डॉक्टर किसी भी बीमार औरतों को हाथ नहीं लगाएगा और दूर से हीं इलाज करेगा. जाहिर है पढ़ेंगी नहीं तो औरतें डॉक्टर नहीं बनेगीं और पुरुष उन्हें छू भी नहीं पायेगा . हजारों औरतें सर्जरी के अभाव में या बच्चा पैदा होने के दौरान मर रहीं है. इन सबके बावजूद पाकिस्तान सरकार ने इस जून माह में वहां प्रचालन में रहे “रिवायती कानून” याने आतंकी मुल्लाओं के फैसले की प्रक्रिया को मान्यता दे दी और देश का सुप्रीम कोर्ट भी कट्टरपंथी मुल्लाओं की संस्था “जिरगा” के फैसले को नहीं बदल सकता.


lokmat

Friday 22 December 2017

२ जी स्पेक्ट्रम फैसला : तो फिर गलत कौन था !


वो वाकया भूकंप से किसी बड़ी ईमारत में आई दरार की मानिंद था. एक आरोप (बल्कि सही शब्द होगा चार्ज ) लगा वह भी एक बेहद मकबूल संस्था --- कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (सी ए जी) --- द्वारा. बताया गया कि कुछ लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए प्रक्रिया बदली गयी, छः साल पुराने दर पर स्पेक्ट्रम आबंटित किये गए और इस तरह देश को १.७६ लाख करोड़ (यह उस समय के भारत के रक्षा बजट से भी अधिक की राशि है) का चूना लगाया गया. (बोफोर्स घोटाला जिसमें राजीव गाँधी की सरकार चली गयी मात्र ६५ करोड़ का था और वह भी कभी सिद्ध नहीं हो पाया). देश के १२० करोड़ लोगों की प्रजातंत्र, न्याय और सत्ता के प्रति भावना बदलने लगी. वह इतिहास का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार माना गया. जाहिर है मैंने भी सभी उस वक्त के रिपोर्टरों की तरह दिन रात इसे एक लम्हे पर कवर किया.लगा कि “कोल्युसिव” किस्म के भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री है जिसे आने वाली पीढी समाजशास्त्र , राजनीति शास्त्र और लोक शासन के एक विषय के रूप में हीं नहीं कानून और अपराधशास्त्र के पाठ के रूप में पढेगी. आज सी बी आई कोर्ट ने कहा वह पूरा आरोप देश की सर्वोत्तम जांच एजेंसी –केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी बी आई – सिद्ध नहीं कर पाई. लिहाज़ा सभी दोषी मुक्त कर दिए गये.

प्रजातान्त्रिक व्यवहार के सभी मूल्य टूट गए थे. जब तत्कालीन मंत्री ए राजा को पुलिस अदालत ले जा रही थी तो अखबरों और चैनलों के रिपोर्टरों के शब्द थे ---- यही है वो पौने दो लाख करोड़ रुपये का चुना लगाने वाला राजा. जब जनमत गुस्से में हो तो मीडिया बेलगाम हो जाता है. या यूं कहिये कि मीडिया जब सभ्यता की हदें पार कर जाता है तो जनमत का गुस्से में आना स्वाभाविक है.

लेकिन आज का सी बी आई कोर्ट का फैसला हम सब को आइना दीखता है. इसका मतलब क्या है?मतलब वह जलजला गलत था, सी ए जी गलत थी , मीडिया का वह महीनों का कवरेज गलत था ,  संसद में कई हफ्ते चला हंगामा गलत था और तब इन सबसे बनने वाला जनमत गलत था और अंत में इस जनमत से उद्भूत २०१४ के चुनाव में यूं पी ए की हार भी गलत थी.

तो सही क्या था. यह इस पर निर्भर करेगा कि सरकार (सी बी आई) फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में या सुप्रीम कोर्ट में अपील करती है कि नहीं. जरूरी नहीं कि सत्य वहां भी मिले क्योंकि अगर हाई कोर्ट ने जो भी फैसला दिया , उससे प्रभावित पार्टी सुप्रीम कोर्ट जायेगी. चूंकि यह अपील दर अपील की अंतिम मंजिल सुप्रीम कोर्ट है लिहाज़ा सत्य वहां जा कर ठिठक जाता है या वहीं पर अंतिम सत्य का फैसला होता है. यह अलग बात है कि अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट के एक महान जज रोबर्ट जैक्सन ने कहा था “हम अंतिम सत्य इसलिए नहीं है कि हम अमोघ (कभी गलत न करने वाले ) हैं बल्कि इसलिए कि हम अंतिम हैं”.

तो मीडिया सहित क्या जरूरी नहीं कि जब तक अंतिम सत्य न आ जाये वह किसी को दोषी करार न दे , क्या यह ज़रूरी नहीं कि किसी ए राजा सूली पर महज किसी संस्था द्वारा आरोप लगाने पर न टांगा जाये.
लेकिन इसमें भी एक ख़तरा है . भारत में अगर मीडिया इसी बाबा के खिलाफ कम ऊँची आवाज में  बोले तो उसके गुर्गे भावना आहात होने का आरोप  कर देते हैं . आसाराम दशकों तक मीडिया को धमकाता रहा और राम रहीम के दरबार में नेता वोट के लिए मत्था टेकते रहे . लेकिन जब मीडिया को कुछ विश्वसनीय साक्ष्य मिल गए तो उसकी आवाज बुलंद हुई और ये बाबा आज जेल में हैं. प्रश्न यह है तो फिर मीडिया कब अपनी आवाज ऊँची करे ? 

सी बी आई अदलत के डेढ़ हजार से ज्यादा पृष्ठों वाले २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में आये फैसले में अदलत ने सीधे इस जाँच एजेंसी को हीं कटघरे में खड़ा किया है और साथ हीं टेलीफोन विभाग के अधिकारियों को अज्ञानता का दोषी ठह्रह है. “न तो इन्हें अपने हीं कानून में शब्दों के प्रयोग या उनके मायने मालूम हैं न हीं ये उन्हें सही जगह पर इस्तेमाल करते रहे हैं”. अदलत ने कहा सम्बंधित कानून की धारा ८ में “असोसिएट” , “प्रमोटर” या “स्टेक” शब्दों का प्रयोग है लेकिन इन अधिकारियों को इनके मायने नहीं मालूम. साथ हीं तमाम अधिकारियों द्वारा फाइल पर जो टिप्पणियां की गयी हैं उनमें से अधिकांस समझ से परे हैं क्योंकि उनकी लिखावट समझ से परे हैं. फिर कुछ ऐसी हैं जो मंत्री के समझ में आ हीं नहीं सकती क्योंकि बेहद टेक्निकल भाषा में हैं. ये जानबूझ कर ऐसे लिखी गयी हैं ताकि जब भी चाहे जैसे भी चाहें उनके अर्थ निकले जा सकें. यह सब देखने के बाद यह स्थापित नहीं हो सकता कि मंत्री ए राजा दोषी हैं. कट ऑफ तिथि तय करने में भी कहीं से ए राजा के दोषी होने के सबूत नहीं मिल सके. साथ हीं सी बी आई यह स्थापित करने में असफल रही कि जो दो सौ करोड़ रुपये कलैगनर टी वी में आये हैं उनका कोई सम्बन्ध २ जी स्पेक्ट्रम के घोटाले से हासिल तथाकथित लाभ से है.

अदलत ने दरअसल सी बी आई को पूरी तरह कटघरे में खड़ा किया है और साथ हीं यह नहीं कहा है कि सबूतों के आभाव में अभियुक्तों को छोड़ा जा रहा है बल्कि उनके बरी करने को बगैर किसी शर्त आदेशित किया है.

आज़ाद भारत में सी बी आई के खिलाफ शायद यह पहला इतना बड़ा आक्षेप है जिससे इस संस्था को उबरने में काफी वक्त लग सकता है. 

jagran/ lokmat

Saturday 9 December 2017

नेहरु से राहुल तक: आयातित सेकुलरिज्म से उदारवादी हिंदुत्व तक


नेहरु परिवार और कांग्रेस के नाभि-नाल बद्धता को समझने के लिए तुलसी के रामचरित मानस की चौपाई --- एक धरम परिमिति पहिचाने , नृपहिं दोष नहीं दीन्ही सयाने “ का जनता का भाव समझना होगा. जब दशरथ जी ने राम को बनवास जाने की आज्ञा दी तो प्रजा में कुछ लोग फैसले से आहात थे लेकिन सुधि जनों ने उन्हें समझाया कि धर्म की सीमा समझ कर राजा में दोष नहीं देखना चाहिए”. भारत में प्रजातंत्र तो आया पर “राजा के प्रति भाव “ आज भी वैसा हीं है. भारत का प्रजातंत्र एकल नेतृत्व में विश्वास करता है . नेहरु और उनका परिवार कांग्रेस से अलग हो तो जनता नहीं कांग्रेस बिखर जाती है. वोट कांग्रेस को नहीं नेहरु, इंदिरा , राजीव या सोनिया को मिलते हैं.  जनता के इस भाव का एक दूसरा पहलू देखिये. भारतीय जनता पार्टी तो वैचारिक तौर पर मजबूत मानी जाती है लेकिन एक नरेन्द्र मोदी के परिदृश्य में आने पर इस पार्टी का वोट २००९ के चुनाव में हासिल १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर सन २०१४ में ३२.७ प्रतिशत पर चला जाता है. लिहाज़ा  नेहरु और नेहरु परिवार को वंशवाद का दोषी मानने वालों को यह समझना होगा कि भारतीय जनता का मिजाज हीं एकल नेतृत्व का है , कम्युनिस्ट नहीं चल पाए क्योंकि उनके यहाँ विचार प्रधान था, व्यक्ति गौण. 
एक समाज जो शहाबुद्दीन सरीखे खतरनाक अपराधी को अपना “रोबिनहुड मान कर पांच बार लोक सभा में चुनता हो , एक समाज जहाँ भ्रष्टाचार के आरोप के बावजूद कोई लालू यादव देश की छाती पर सत्ता की चक्की से वर्षों तक मूंग दलता हो उसमें वंशवाद को पार्टियों के चरित्र से हटाना और प्रजातान्त्रिक तरीके से नेता चुनने की अपेक्षा रखना मूल सत्य से मुंह मोड़ना होगा. क्या भारतीय जनता पार्टी में अमित शाह किसी आतंरिक चुनाव से आये थे? क्या वेंकैया , ज ना कृष्णमूर्ति या कुशाभाऊ ठाकरे कार्यकर्ताओं के बैलट से पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे. अगर नेहरु परिवार वंशवाद का दोषी है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मात् संगठन के रूप में वही करता है. 
मूल प्रश्न जनता की समझ को लेकर है कि वह कांग्रेस को नेहरु परिवार का पर्याय समझती है . विश्लेषण इस बात का होना चाहिए कि क्या जनता के इस “राजा के प्रति समर्पण” के प्राचीन भाव को नेहरु परिवार ने ७० साल में सत्ता पाने का साधन मात्र माना या अपने को जन सेवा में समर्पित किया और अगर किया तो कितना और कितनी सही दिशा में.    
भारत के पहले प्रधानमंत्री और देश के मकबूल रहनुमा पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भारत के गणतंत्र बनने के एक साल में हीं सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और राष्ट्रपति के वहां प्राणप्रतिष्ठ समारोह में जाने का पुरजोर विरोध करते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताया. यह वह काल था जब उनके सेकुलरिज्म के यूरोपीय स्वरुप के प्रति आस्था पर अंकुश लगाने के लिए न तो महत्मा गाँधी जिंदा थे न हीं सरदार पटेल. उसके २६ साल बाद उनकी पुत्री और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने आपातकाल के शासन के दौरान इस सेकुलरिज्म को संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के जरिये जोड़ कर कंफ्यूजन को और बढ़ा दिया या सत्य को स्वीकार न करने का स्वांग करने लगी. सत्य अगर ज्यादा दिन नज़रंदाज़ हो तो इतिहास करवट लेने लगता है. अगले आठ वर्षों में हीं याने १९८४ में राम मंदिर को लेकर हिंदू समाज उद्वेलित करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् खडा हो गया. इतिहास ने करवट ली. आन्दोलन जोर पकड़ता गया. अगले पांच साल बाद उनके नाती (इंदिरागांधी के पुत्र) राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में अहसास होने लगा इतिहास की गलतियों को नज़रंदाज़ करने का. १९८९ में अयोध्या में युवा राजीव ने आम चुनाव के पहले राम मंदिर के शिलान्यास का फैसला किया और अपने भाषण में पांच बार राम का नाम लिया. पर चूंकि पुरखों का भाव ठीक उल्टा था इसलिए इस टोकेनिस्म ने हिन्दुओं को तो प्रभावित किया हीं नहीं, मुसलमान भी बिदक गए. यूं पी , बिहार सहित देश के अन्य भागों में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह के फैसले ने समाज में एक नए जाति आधारित दबाव समूह को जन्म दिया. अयोध्या में राजीव के मंदिर के शिलान्यास के रवैये से नाराज़ मुसलमान इन तथाकथित “सामाजिक न्याय की ताकतों” के साथ हो चले. कांग्रेस की हालत  “न खुदा हीं मिला , न विशाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे” वाली हो गयी. कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी और रही भी तो गठजोड़ करके. वोट प्रतिशत गिरता गया. लेकिन फिर भी चूंकि तासीरन भारतीय समाज अहसान फरामोश नहीं था इसलिए फिर से कांग्रेस को शासन में आई और यह दौर विदेशी मूल की लेकिन राजीव की पत्नी सोनिया का था भले हीं शासन मनमोहन सिंह का. 
इस बीच इतिहास एक बार फिर करवट लेता है. हिंदू एकता धीरे -धीरे परवान चढ़ती है क्योंकि किसी लालू , किसी मुलायम या किसी मायावती से भी वही टोकेनिस्म मिला. अशिक्षित या दबे समाज में सामूहिक चेतना का स्तर अतार्किकता की भेंट चढ़ जाता है. मायावती , मुलायम या लालू भ्रष्टाचार के पर्याय बनाने लगे लेकिन लालू के वोटर (यादव) इस बात पर हीं क्रुद्ध थे “कि जगन्नाथ बाबू (तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र) भ्रष्टाचार करें तो ठीक लेकिन मेरा नेता करे तो गलत ?”  शुरू में दलित इस बात से हीं खुश था कि उनकी नेता मयावती भी उच्च जाति के नेताओं की तरह साम्राज्ञी की तरह लाखों रुपये का हार पहनती हैं.  मायावती का भ्रष्टाचार दलितों के लिए सशक्तिकरण का पर्याय बन गया.  कांग्रेस हाशिये पर आने लगी .  
इस उहापोह में कांग्रेस में फूट पडी . नेहरु परिवार का वर्चस्व एक बार फिर दरकने लगा. कोई अर्जुन सिंह , कोई कमलापति या कोई नारायण दत्त तिवारी राजीव गाँधी के नेतृत्व का विरोध करने लगे और कुछ तो अलग पार्टी बनाने का उपक्रम भी करने लगे. कोई प्रधानमंत्री नरसिंह राव सोनिया को चुनौती देने लगा . लेकिन सदियों तक गुलाम रही जनता एकल नेतृत्व की हिमायती है लिहाज़ा सोनिया फिर कांग्रेस का नेतृत्व संभालने लगीं, मनमोहन सिंह मात्र प्रधानमंत्री थे शासन सोनिया के इर्दगिर्द हीं रहा . इस बीच कांग्रेस सत्ता में तो आयी पर कैडर संरचना के अभाव में और नेता -कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता से मनमोहन सरकार के अच्छे कार्यक्रम भी जनता के बीच नहीं जा सके . साझा सरकार में समझौते होते हैं लिहाज़ा मनमोहन सिंह की ईमानदारी बाँझ साबित हुई और भ्रष्टाचार का बोलबाला जनता को निराश करने लगा. 
इस बीच हिंदू साम्प्रदायिकता परवान चढने लगी. नरेन्द्र मोदी विकास और हिंदू अस्मिता के पर्याय के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर छाने लगे. 
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी बीमार रहने लगीं. राहुल ने जयपुर कांग्रेस अधिवेशान के दौरान एक भावनात्मक भाषण दिया जिसे देशवासियों ने भी टेलीविज़न के जरिये सुना. उसका सार यह था कि राहुल राजनीति को अन्यमनस्क भाव से लेते हैं. अगले कुछ सालों में देश में जब भी कोई बड़ी घटना हुई और देश ने एक मजबूत विपक्ष या नेता की जरूरत महसूस की राहुल गायब पाए गए. लेकिन गुजरात चुनाव में अचानक जिस शिद्दत  से राहुल ने चुनाव प्रचार किया एक बार फिर लगाने लगा कि देश को एक युवा और मकबूल नेतृत्व मिल सकता है. इस दौरान  राहुल गाँधी उसी मंदिर में गुजरात चुनाव प्रचार किया जिस मंदिर के शिलान्यास का उनके परनाना ने विरोश किया था. एक बार फिर लगने लगा कि नेहरू परिवार की पांचवीं पीढी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए तैयार है. राहुल को पार्टी का औपचारिक अध्यक्ष चुना जाना मात्र औपचारिकता है. 
लेकिन राहुल ने अपने पिता राजीव गाँधी से सीख लेते हुए कुछ नए ढंग से कांग्रेस की नीति में अमूल चूल परिवर्तन का फैसला किया है. नेहरु की धर्मनिरपेक्षता से ठीक उलट राहुल मंदिर-मंदिर जा रहे हैं (और मस्जिद नहीं). शायद कांग्रेस के रणनीतिकार समझ गए हैं कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से देश में जो उग्र हिंदुत्व देखने को मिला है वह भारत के आम हिंदू पसंद नहीं करते और कालांतर में वे इसे ख़ारिज करेंगे क्योंकि तासीरन हिन्दू उदारवादी संस्कृति का है और धर्म में भी वह उग्रता को ख़ारिज करता है. चूंकि उदार हिंदुत्व का स्लॉट खाली है लिहाज़ा कांग्रेस अगर उसे भर पाई तो पिछड़ा वर्ग और दलित एक बार फिर उसके साथ हो सकता है. राहुल की रणनीति सही है लेकिन जनता को अभी भी पूरी तरह यह भरोसा नहीं है कि राहुल गाँधी में राजनीति को लेकर एक निरंतरता रहेगी. अगर वह रही और जनता को विश्वास हो सका तो भारत को एक मजबूत विपक्ष और उदारवादी नेता मिल सकता है. यह प्रजातंत्र के लिए अच्छा होगा.     

lokmat

Monday 4 December 2017

आखिर हम बीमार क्यों रहते हैं ?


देश के जाने माने हॉस्पिटल चेन मैक्स के दिल्ली स्थिति एक नामी अस्पताल इकाई में एक महिल के जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए ---एक बेटा और दूसरी बेटी. डॉक्टरों ने बताया कि एक बच्चा मारा पैदा हुआ और दूसरा कुछ हीं क्षण बाद मर गया. जब दुखी माँ-बाप अपने सगे सम्बन्धियों के साथ इन “शवों” को अंतिम क्रिया के लिए ले जा रहे थे तो आधे रास्ते में पिता ने देखा कि एक “शव” में कुछ हरकत हो रही है. फ़ौरन उसे कफ़न से निकाल कर पास के अस्पताल में ले जाया गया. घंटों पॉलिथीन में ऑक्सीजन के अभाव में बंद बच्चे की स्थिति गंभीर हो गयी थी. बहरहाल उसका इलाज़ चल रहा है. मीडिया में खबर के बाद देश के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले का संज्ञान लिया. एक अन्य नामी गिरामी हॉस्पिटल चेन--- फोर्टिस--- के गुडगाँव इकाई ने सात साल की एक बच्ची के १५ दिन चले असफल इलाज़ (बच्ची मर गयी) में पिता को १६ लाख रुपाए का बिल पकड़ा दिया गया. सोशल मीडिया और बाद में औपचारिक मीडिया में उछले इस खबर के बाद फिर मंत्री ने संज्ञान लिया. तीसरे मामले में नॉएडा के हीं एक इसे मशहूर अस्पताल में एक व्यक्ति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी तीन दिन पहले मर चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने वेंटीलेटर पर रख कर तीन दिनों में हजारों रुपये का बिल बनाया. लेकिन चूंकि मीडिया ने इस मामले को उस पुरजोर तरीके से नहीं उठाया लिहाज़ा मंत्री जी ने संज्ञान भी नहीं लिया.
ये तीनों घटनाएँ पिछले १५ दिन के भीतर घटीं हैं. इनसे तीन निष्कर्ष निकलते हैं. आप या आपका बच्चा बीमार पड़े तो प्राइवेट बड़े अस्पताल में जाने के बाद तीन बातों का ध्यान रखें. अस्पताल में जरूरी नहीं कि इलाज हो और अगर हो तो मरीज़ बच हीं जाये. फिर कब मरे और कब मरना बताया जाये यह भी अस्पताल और डॉक्टर के “प्रोफेशनल बुद्धिमत्ता” पर निर्भर करेगा . अगर मरना बता भी दिया गया तो ज़रूरी नहीं कि यह सच हो इसलिए गम करते हुए उसे शमशान ले जाने के पहले एक बार किसी और डॉक्टर से दिखा लें. और आखिर में अगर मरीज़ मर भी गया हो तो आप उस बिल के सदमें से न मरें. इससे दो सीख और भी हैं. अगर आप अस्पताल और उसके बिल से मरने से बच भी गए तो कम से कम सोशल मीडिया में ट्विट जरूर करें. औपचारिक मीडिया तभी मामले का न्यूज महत्त्व समझता है जब वह सोशल मीडिया में वाइरल हो जाता है वरना उसे बाबा राम रहीम और हनी प्रीत और उनके बेडरूम से फुर्सत नहीं होती. जब सोशल मीडिया में वायरल होगा तो शाम को एक कम पढ़ा लिखा लेकिन बुलंद आवाज वाला एंकर -एडिटर चीख-चीख कर बताएगा और उतनी हीं चीख के साथ सत्ताधारी दल का उतने हीं अज्ञानी प्रवक्ता अपने विपक्षी प्रतिद्वन्दी के साथ “तेरा-नेता , मेरा नेता “ करते हुए टी आर पी बढ़ने में चैनल का सहयोग करेगा. आख़िरी बात : मंत्री जी को जगाने के लिए आवाज बुलंद हीं नहीं हो , मीडिया में हो.
क्या हो गया हैं इस देश की नैतिकता , समझ और कर्तव्यबोध को. क्या हत्या का अपराध सिर्फ चौराहे पर गोली मारने को कहा जाना चाहिए. कम से कम दस साल पढ़ाई और हाउसजॉब के बाद किसी डॉक्टर से यह अपेक्षा की जा सकती है वह हमारी - आपकी की टैक्स के रूप में वसूली गयी रकम के लाखों रुपये खर्च करने के बाद इतना ज्ञानी (या जिम्मेदार) तो हो हीं कि जिन्दा और मरे में अंतर कर सके? मोदी सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने ओड़िसा एम्स में डॉक्टरों को संबोधित करते हुए सन २०१४ की २० जुलाई को बताया था कि एक डॉक्टर बनाने में सरकार जनता के टैक्स का आठ से दस करोड़ रुपया खर्च करती है. तो फिर इनमें से कुछ डॉक्टर (सभी नहीं क्योंकि नैतिक प्रैक्टिस के भी तमाम उदाहरण हैं) इतना अनैतिक (आपराधिक) क्यों होते हैं कि अस्पताल का और अपना बिल बढाने के लिए मरे व्यक्ति को कई दिन तक वेंटीलेटर पर रख कर “धंधा” करे? क्या यह संगठित अपराध की परिभाषा में नहीं अना चाहिए ? जेब काटने वाले गरीब को तो हर कोई पकडे जाने पर दो हाथ लगा देता है और कानून भी मुश्तैद हो जाता है पर जब हम इन “तथाकथित रूप से पढ़े लिखे लोगों वाले और संस्थागत अस्पताल के नाम पर चल रहे “ क्राइम सिंडिकेट” से खुद शोषण के लिए जाते हैं तो उनका दोष तभी होता है जब मंत्री जी को मीडिया के जरिये बताया जाये. एम आर पी पर दवा भी अस्पताल हीं देगा क्योंकि निर्माता कंपनी से समझौता है कि दूकान से न बेंचों. पेटेंट की जगह जेनेरिक दावा लिखवाने के सारे सरकारी प्रयास विफल रहे और डॉक्टर महंगी दावा लिख कर कंपनियों से मोटी रकम कमीशन के रूप में वसूलते रहे या विदेश परिवार के साथ घूमने या अकेले रंगरेलियां मानते जाते रहे . कभी भी इनकम टैक्स विभाग ने इनके खर्च के स्रोत का पता नहीं किया. मेडिकल सेमिनार के नाम पर पांच तारा होटलों में दारू पार्टियाँ (जिसका बिल ये दवा कंपनियां भरती हैं) कैसे नए चिकित्सा-ज्ञान बढाने का सबब बनती हैं कभी किसी सरकार ने नहीं पूछा .
तस्वीर का दूसरा पहलू
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अगर आप बिहार में पैदा हुए हैं तो वहां की सरकार आपके स्वास्थ्य पर मात्र ३३८ रुपये खर्च करेगी जबकि हिमाचल, उत्तराखंड या केरल में पैदा हुए हैं तो क्रमशः इसके छः गुना, पांच गुना और चार गुना खर्च करेगी. इसका दूसरा मतलब यह कि उपयुक्त सरकारी सुविधा के अभाव में आप बिहार , उत्तर प्रदेश या झारखण्ड में गरीब होते हुए भी आप अपनी जेब से इस खर्च का पांच गुना खर्च करेंगे भले हीं इसके लिए आपको घर या जमीन बेंचना पड़े. गुजरात और महाराष्ट्र में प्रति-व्यक्ति स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च क्रमशः १०४० और ७६३ रुपये है. उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेरिया पर काबू पाने में बुरी तरह असफल रहा और आज ७० साल बाद भी केवल आठ प्रतिशत मलेरिया के मामले हीं सर्विलांस के जरिये संज्ञान में आते हैं . इस मामले में भारत नाइजीरिया के समकक्ष खड़ा है. बाल मृत्यु दर और मात्र मृत्यु दर, जन्म के समय बच्चे के वजन या कुपोषण ऐसे पैरामीटर्स पर भारत आज भी बेहद पीछे है. इसका कारण यह है कि जहाँ हम देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का मात्र एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य मद में खर्च करते हैं वहीं चीन और तमाम छोटे -छोटे देश चार प्रतिशत तक खर्च करते हैं. हालांकि मोदी सरकार के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री जी पी नड्डा ने संसद के सदन में नयी स्वास्थ्य नीति रखते हुए इसे जी डी पी का २.५ प्रतिशत तक लाने का संकल्प बताया था लेकिन जब बजट आया तो वह कहीं भी परिलक्षित नहीं हुआ.

तो गरीब क्या करे? सरकारी अस्पताल में दवा नहीं, डॉक्टर नहीं , इलाज के उपकरण नहीं और मंशा भी नहीं. प्राइवेट में अस्पतालों में संगठित गैंग के रूप में डॉक्टर और नर्सिंग होम के मालिक का गिरोह किसको मरा बता दे , किसकों मरने के बाद भी वेंटीलेटर पर रख कर बिल बढ़ा दे और किसे गलत मर्ज बता कर ज्यादा दिन अस्पताल में रखे यह उसके विवेक (धंधे की जरूरत ) पर है. क्या कानून बनाकर जीवन से अनैतिक व्यापर करने वालों पर अंकुश लगना सरकार की जिम्मेदारी नहीं? ऐसे में गरीब जाये तो जाये कहाँ लिहाज़ा बीमार होने पर घर या जमीन बेंच कर जिन्दा रहने की कोशिश (अगर रह पाया) हीं उसकी नियति हो चली है

lokmat

Friday 1 December 2017

मैकाले का दानवीकरण अज्ञानता व फरेब की उपज !



भारत में जब कोई किसी अंग्रेज़ी बोलने वाले से (खासकर अफसर से) या ऐसी “मानसिकता” वाले व्यक्ति से गुस्सा होता है तो उसे “भूरा साहेब” हीं नहीं “मैकाले का वंशज” भी कहता है. पाकिस्तान में जब मलाला यूसुफ़जाई को अक्टूबर, २०१२ में तहरीक--तालिबान ने गोली मारी तो औचित्य बताने के लिए एक लम्बे पत्र में कहा “मलाला भी मैकाले की अनुयायी बन गयी थी”. इस अंग्रेज़ समाजशास्त्री, कानूनविद और युगदृष्टा को १९० साल से हिन्दू हो या मुसलमान, भारत हो या पाकिस्तान या बंगलादेश सामान रूप से घृणा करते रहे हैं. जबकि उसके द्वारा बनाई गयी दंड संहिता, साक्ष्य कानून और सिविल सर्विस आज तक तीनों देशों में यथावत या थोड़े -बहुत तब्दीलियों के साथ लागू है. क्या कभी हमने सोचा है कि जिस व्यक्ति का हमने दानवीकरण कर दिया है उसकी हकीकत क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि झूठ और तथ्यों को गलत सन्दर्भ में रखा गया है? वेबसाइट पर हीं नहीं, देश के पाठ्यक्रमों में भी बच्चों को गलत शिक्षा से भ्रमित किया जाता रहा है. देश के पूर्व प्रधानमंत्री और आमतौर पर सत्य के प्रति आग्रही के रूप में सम्मानित लालकृष्ण आडवाणी सहित तमाम मकबूल लोग भी इस दुश्चक्र के शिकार होते रहे हैं. आइये देखें हकीकत क्या है. आडवाणी की आत्म-कथा “माय कंट्री माय लाइफ” के पृष्ठ १३२-१३३ के अंश देखें ----- आडवाणी कहते है:
भारत के लिए सही भाषा नीति के सन्दर्भ में हम इस बात को, कि अंग्रेजों ने भारतीयों को अपनी हीं भाषा और संस्कृति के प्रति हीन भावना से ग्रस्त होने की सचेतन रणनीति अपनाई, नज़रंदाज़ नहीं कर सकते. मुझे स्मरण आता है लार्ड मैकॉले का वह चौंकाने वाला उद्बोधन जो उसने फ़रवरी २, १८३५ को ब्रिटिश संसद में दिया था : (अब आडवाणी मैकाले को तथाकथित रूप से ऊद्धृत करते है):

"मैंने भारत का विस्तृत भ्रमण किया और मैंने ऐसा एक भी आदमी नहीं देखा जो भीखमंगा हो या जो चोर हो. ऐसी पूंजी हमने इस देश में देखी, ऐसा उच्च नैतिक मूल्य देखा, ऐसे प्रखर लोग देखे कि मुझे लगता नहीं है कि हम कभी भी इस देश को जीत सकते हैं जबतक इस राष्ट्र की कमर – जो इसकी संस्कृति और आध्यात्मिक विरासत में निहित है -- नहीं तोड़ देते, लिहाजा मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम इसके प्राचीन शिक्षा पद्धति और संस्कृति को बदलें क्योंकि अगर ये भारतीय यह सोचने लगें कि हर वह चीज जो विदेशी है और अंग्रेज़ी है वह उनकी अपनी चीजों से अच्छी और महान है तो उनका आत्म -सम्मान और उनकी संस्कृति ख़त्म होगी और (तब) वे वही होंगे तो हम उन्हें होने देना चाहते हैं--- एक सचमुच का गुलाम राष्ट्र”.
(यहाँ जिस दिन ब्रिटिश संसद में भाषण देने की बात कही जा रही है , मैकाले उसके नौ माह पहले हीं भारत आ गए थे और अगले छः साल भारत मेे) रहे. 2फरवरी,1835 को वह कलकत्ता में थे. )
अब जरा हकीकत देखें! भारत आने के पहले ब्रिटिश संसद में दिनांक १० जुलाई, १९३३ को दिए अपने लम्बे भाषण में मैकाले ने अपना ध्येय व अपनी अवधारणा प्रस्तुत की और अपेक्षा की कि सरकार की नीतियां उन्हीं के अनुरूप हों. मैकाले के भाषण का अंश:
हमारे लिए यह बेहतर होगा कि एक कुशासित प्रजा के बजाय एक सुशासित समाज से जो हमसे स्वतंत्र शासन में अपने राजाओं द्वारा शासित हो, व्यापार करें, यह प्रजा गरीब रहे तो हमारा उद्योग भी नहीं पनपेगा. एक सभ्य समाज से व्यापर करना अज्ञानी और गरीब प्रजा पर शासन करने से बेहतर होगा....... क्या हम यह चाहते हैं कि भारत की जनता अज्ञान के गर्त में डूबी रहे ताकि हम उन पर शासन करते रहें? क्या हम उनकी अपेक्षाओं को उभारे बगैर उन्हें शिक्षित कर सकेंगें? ज्ञान होगा तो वे भी यूरोपीय संस्थाओं (प्रजातांत्रिक संस्थाओं ) की चाह करने लगेंगे. ऐसा दिन कब आयेगा मैं नहीं कह सकता लेकिन मैं कभी भी इस तरह की भारतीय जनता की कोशिश (याने स्व-शासन की) को न तो रोकूंगा न धीमा करना चाहूँगा. (मैं इतना कह सकता हूँ कि) जिस दिन ऐसा होगा .... कि भारत की जनता नागरिक अधिकारों के लिए सोचने लगेगी वह ब्रिटेन के इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा.”
क्या ऐसा सोचने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि भारत को गुलाम रखना है तो उसकी सांस्कृतिक व नैतिक रीढ़ तोड़ना होगा? बल्कि इसके उलट मैकाले का मिशन हीं भारतीय समाज को मॉडर्न शिक्षा से आधुनिक सोच की ओर ले जाना और उससे उनके अन्दर नए प्रजातान्त्रिक संस्थाओं के प्रति झुकाव बढ़ाना और अंत में स्वतन्त्रता की मांग करना था.
असत्य १. जिस तारीख और जगह (ब्रिटिश पार्लियामेंट) का यह भाषण बताया जा रहा है उस तारीख से नौ माह पहले से हीं मैकाले भारत आ चुके थे. और अगले छः साल तक भारत में हीं रहे. साथ हीं अपने पूरे जीवन के भाषणों में कहीं भी मैकाले ने उपरोक्त बात नहीं कही है.
असत्य २: मैकाले ने पूरा भारत भ्रमण किया हीं नहीं था. फिर जिस देश में भीख मांगना एक संस्थागत स्वरुप में हो जिसमें दान को पुण्य का दर्जा हासिल हो और भीख मांगना आदिकाल से चला आ रहा हो उस देश में किसी काल खंड में एक भी भिखारी पूरे देश में न दिखे यह संभव है? और वह भी तब जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने ८६ साल के वर्चस्व में भारत के उद्योग, शिल्प और तज्जनित “समृद्धि” ख़त्म कर दी हो?
असत्य ३: मैकाले को पूरे भारत में चोर या चोरी की एक भी घटना नहीं मिली जबकि उस काल में मेजर जनरल स्लीमन (तब कर्नल) ने पिंडारियों (लुटेरों) के खिलाफ देशव्यापी अभियान चला रखा था. पिंडारियों की लूट और हत्या उस समय की सबसे बड़ी त्रासदी मानी जाती थी.

असत्य ३: मैकाले एक घोर नस्लवादी था और गैर यूरोपी लोगों, खासकर भारत की संस्कृति और ग्यान के प्रति उसमें जबरदस्त हिकारत का भाव था. जो मैकाले यह कह सकता है समूचा भारतीय ज्ञान किसी ब्रिटेन के किसी छोटी सी लाइब्रेरी की छोटी सी अलमारी में बंद किताबों से भी कम है वह कैसे कह सकता है कि इस देश के लोगों में अद्भुत मेधा है , परिष्कृत संस्कृति है और अप्रतिम नैतिकता है? (यह झूट इसलिए उसके नाम से कहा जा रहा है कि यह बता सकें कि भारतीय समाज की गुणवत्ता से ऐसा व्यक्ति भी घबराया था , याने गुणवत्ता थी).
असत्य ४: उस समय तक अधिकांश भारत अंग्रेजों के कब्जे में आ चुका था और इसकी कमर तोड़ने के लिए इसकी संस्कृति और उस संस्कृति के प्रति समाज की प्रतिबद्धता की कमर तोड़ने की ज़रुरत हीं नहीं थी.
असत्य ५. जिन अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भाषण में बताया गया है वे शब्द मैकाले के ज़माने में प्रचलित नहीं थे. फिर वर्तनी और व्याकरण की भी अशुद्धियाँ स्पष्ट है. मैकाले साहित्यकार भी थे और उनकी कवितायेँ स्तरीय होती थीं.
पूरे भारत में आडवाणी हीं नहीं एक भी चिन्तक ने तथ्य जानने की कोशिश नहीं की , ना हीं इस झूठ के पर्दाफाश की कोशिश की जो मैकाले के नाम पर चलाया गया. हकीकत यह है कि जिस दिन, जहाँ और जिस भाषण का जिक्र किया गया है वह मैकॉले ने कभी दिया हीं नहीं. दिनाक २ फ़रवरी, १८३५ को मैकॉले ब्रिटेन में थे हीं नहीं बल्कि वह उसके आठ महीने पहले १० जून , १८३४ को वह तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक के बुलावे पर भारत आ चुके थे. लिहाज़ा ब्रिटिश संसद में उनके भाषण देने का प्रश्न हीं नहीं उठता. जी हाँ, , फ़रवरी को उनका भाषण एक लिखित रिपोर्ट के रूप में हुआ था जो उन्होंने तत्कालीन वाइसराय के परिषद् के शिक्षा सदस्य के रूप में अपने मिनट्स में दिया. उस रिपोर्ट में भी मैकाले की कोशिश थी कि देश को वैज्ञानिक सोच की ओर उन्मुख कराया जाये और उन्हें आधुनिक विकास का लाभ मिले. यह बात सही है कि भाषण के अंश में उन्होंने भारतीय संस्कृति और ज्ञान को हिकारत से देखा और अंग्रेज़ी और विज्ञानं पढाये जाने की वकालत की. पर उन्होंने ऐसा कहने के लिए आंकड़े दिए. उन्होंने ने बताया कि उनके पास सैकड़ों युवाओं के शिकायती पत्र आये हैं कि शासन से मिले वजीफे से वे केवल संस्कृत या अरबी की पढाई कर अपने जीवन के १२ साल बर्बाद कर चुके हैं और उन्हें न तो इनके गाँव में इज्ज़त मिल सकी है न हीं गांव के बाहर नौकरी. उन युवाओं ने हुकूमत पर आरोप लगाया कि इस वजीफे से हासिल ज्ञान उनके किसी भी काम का नहीं है.
मैकाले ने परिषद् के सदस्यों को बताया कि किस तरह पिछले २१ साल से अंग्रेज़ सरकार हर साल एक लाख रुपये शिक्षा के विकास के लिए देती हैं और कैसे उन पैसों से छापी गयी संस्कृत और अरबी की किताबें गोदामों में दीमक के हवाले हैं क्योंकि कोई इसे मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं है. मैकाले ने यह भी खुलासा किया कि भारतीय युवाओं का बड़ा वर्ग अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए महंगी ट्यूशन फी देने में नहीं हिचकता. यही कारण है कि मैकाले गरीब युवाओं को विज्ञान और अंग्रेज़ी की शिक्षा दे कर उन्हें रोजगार परक बनाना चाहते थे. इसका एक मकसद और भी था और वह यह कि इस तरह से शिक्षित युवा भारत की जनता और अंग्रेज़ शासन के बीच एक संवाद का काम करेंगे और विकास की रफ़्तार के प्रति गाँव तक में चेतना जागृत करेंगे.

लेकिन आज उनकी आत्मा शायद अपनी प्रति हो रहे अन्याय को देख कर कब्र में कुढ़मुढ़ाती होगी.

lokmat 

Monday 20 November 2017

हर दूसरा व्यक्ति संसद और न्यायपालिका को किनारे कर मोदी को निर्बाध शक्ति देने के पक्ष में

मोदी -इफ़ेक्ट” आज भी जन-भावनाओं का नियंता




हमारे पास पिछले ३४ दिन में तीन अध्ययन रिपोर्ट आये. तीनों अमरीका-स्थित संस्थाएं. तीनों विश्व में सम्मानित. एक के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जन स्वीकार्यता हीं नहीं उनके शासन पर विश्वास भी बढ़ा है और जबकि दूसरे ने पिछले मोदी सरकार की आर्थिक सुधार की नीतियों पर मोहर के रूप में भारत को अपग्रेड करते हुए “सकारात्मक” से “स्थिर” वर्ग में डाला है. तीसरे ने कुछ हीं दिनों पहले की अपनी रिपोर्ट में पिछले तीन सालों में भूखमरी की समस्या से जूझने में दुनिया के अन्य गरीब देशों से भारत को ४५ पायदान नीचे दिखाया है. पहला देश के २४६४ लोगों से बातचीत/साक्षात्कार के आधार पर हैं और तीसरा भारत सरकार की हीं संस्थाओं द्वारा व्यापक सर्वेक्षण के बाद दिए गए आंकड़ों के आधार पर. पहला पिउ रिसर्च सेंटर का है जबकि दूसरा अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज का है जिसने नीतियों पर मोहर लगाई है. तीसर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (इफ्प्री) ा है जो केवल पिछले आंकड़ों के आधार पर देशों का वर्गीकरण कर्ता है। हम न तो पिउ के मेथोड़ोलोजी (अध्ययन प्रक्रिया) को गलत कह सकते हैं न हीं मूडीज की नीतियों की सार्थकता माप कर भावी दिशा को निर्धारित करने की सलाहियत को और न हीं सरकारी आंकड़ों पर आधारित निष्कर्ष को. इन तीनों की ईमानदारी पर शायद हीं कोई सवाल उठा सकता है.
फिर यह विरोधाभास क्यों? यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि पहला अध्ययन, उसकी प्रश्नावली और उसका तरीका लोगों की भावना को लेकर था जबकि दूसरा आर्थिक नीतियों के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर. और तीसरा शुद्ध तर्क-आधारित वैज्ञानिक आंकड़ों पर जो मात्र तथ्य दिखाता है।. शायद अर्ध-शिक्षित और अतार्किक समाज में भोगा यथार्थ भावना निर्माण का आधार नहीं बनता. इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मोदी पर आज भी वह भरोसा कायम है जो जनता ने दस साल के मनमोहन शासन काल में खो दिया था. “अगर मोदी हैं तो वह सबकुछ होगा जो हम अपेक्षा करते हैं” का भाव. यह भाव “कोई नृप होहीं, हमें का हानी” वाले नैराश्य-भाव से अलग है. इसमें “राजा” से अपेक्षा का अभाव नहीं है पर “राजा” को तीन साल बाद नज़रों से उतार देने और पांच साल बाद बदल देने की प्रजातान्त्रिक जिद भी नहीं है. मोदी इस लिहाज़ से सफल माने जायेंगे कि एक ऐसे समाज में जिसमें मीडिया की पैठ इतनी गहरी हो कि देश के ९५ प्रतिशत घरों में टी वी सेट हों या जहाँ सरकार की हर गलती और सही कुछ मिनटों में दे, सुन या पढ़ सकता हो, मोदी का उसके मन-मस्तिष्क में बने रहना किसी दुनिया के राजनीति शास्त्र के विद्वानों के लिए एक शोध का सबब हो सकता है. फिर जो बात मूडीज समझ जाता है , जो पिउ रिसर्च को जनता बताती है वह इफ्प्री के भूख सूचकांक से अलग क्यों है और अगर है तो जनता इस भोगे यथार्थ को संज्ञान मे क्यो नही लेती?
पिउ की प्रश्नावली का एक सवाल देखे. क्या आप एक ऐसे मजबूत नेता को चाहेंगे जो फैसले बगैर किसी संसद या न्यायपालिका के हस्तक्षेप के ले? ५५ पातिशत लोगों के हाँ में जवाब दिया और लगभग इतने हीं देश में फौजी शासन की भी हिमायत की.
इसे क्या समझा जाये? ७० साल के प्रजातान्त्रिक शासन में जनता का विश्वास देश की सबसे बड़ी संस्था ---संसद-- या सबसे प्रभावी संस्था — न्यायपालिका -- में कम हुआ है? या यह कि मोदी के प्रति भरोसे के भावनात्मक तूफ़ान में ये संस्थाएं डूब रहीं हैं? क्या यह मोदी के व्यक्तित्व का कमाल है या जनता की डरावनी नासमझी जो प्रजातंत्र की जगह सैन्य शासन को बेहतर मानती ? क्या भारत का समाज सोच के स्तर पर जडवत होता जा रहा है या उसका ७० साल की कुंठा -जनित क्रोध उभर आया है? ध्यान देने की बात यह है कि पिउ ने दुनिया के जिन ३८ देशों में यह सर्वे किया उनमें से सिर्फ चार हीं ऐसे थे जिनकी जनता में से हर दूसरे व्यक्ति ने फौजी शासन को बेहतर विकल्प बताया.
अब ज़रा इन भावनाओं में विरोधाभास देखें. दस में से आठ लोगों ने कहा कि पिछले ५० सालों में जीवन बेहतर हुआ है और उनका यह भी मानना है कि उनके बच्चो का भविष्य बेहतर होगा. फिर संसद और न्यायपालिका को किनारे कर एक “मजबूत” नेता को सर्वशक्तिमान बनाने की चाहत क्यों? शायद “मोदी इफ़ेक्ट” !
१३ मुद्दों को लेकर बहुसंख्यक लोगों ने खराब गुणवत्ता वाले स्कूल, स्वास्थ्य और गरीब-अमीर की बढ़ती खाई को कम अहमियत दी है हालांकि आतंकवाद, अफसरों में भ्रष्टाचार और महंगाई पर इनकी चिंता सर्वोच्च है.
अगर दुनिया की मकबूल १४ संस्थाओं द्वारा आर्थिक-, सामजिक, स्वास्थ्य और मानव विकास को लेकर किये गए अध्ययन में १६ में से १० पैरामीटर पर भारत पिछले तीन सालों में पहले के मुकाबले पिछड़ा है लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बढी हीं है , कम नहीं हुई, तो इसका स्पष्ट मतलब हैं कि आंकड़े और जन-संतोष का सीधा और समानुपातिक रिश्ता नहीं होता. आंकड़े भी अंतरराष्ट्रीय संगठनों के है और लोकप्रियता का मीजान भी उतनी हीं विश्वसनीय संस्था का. यहाँ इस विभेद से प्रश्न यह उठता है क्या भोगा हुए यथार्थ या उस भोग-जनित संतुष्टि या नाराजगी जरूरी नहीं कि भावना में परिवर्तित हो ? पिउ के अध्ययन के अनुसार भारत सरकार को लेकर लगभग पांच में से चार व्यक्ति यह मानते हैं कि सरकार तमाम मुद्दों पर अच्छा काम कर रही है और सत्ताधारी पार्टी—भारतीय जनता पार्टी – भी कांग्रेस के मुकाबले पिछले एक साल में बेहतर समर्थन हासिल कर सकी है. उधर दुनिया के १४ अन्य संगठनों की रिपोर्ट को अगर एक साथ रखा जाये तो इन १६ पैरामीटर्स में से तीन पर भारत का प्रदर्शन बेहतर रहा है और अन्य तीन पर लगभग पूर्ववत. जिनमें पिछड़ा है उनमें भूख पर काबू पाने में अन्य देशों के मुकाबले असफलता, मानव संसाधन, खुशी का पैमाना और बौद्धिक संपदा प्रमुख हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं भारतीय समाज की सामूहिक सोच में भावना का अंश आदिकाल से हीं यथार्थ पर भारी रहा है. यही वजह है कि हम एक तार्किक समाज नहीं बन पाए क्यों पश्चिमी समाज जहाँ “निविदा-आधारित” रहा है (कॉन्ट्रैक्ट-बेस्ड”), वहीं भारतीय समाज की बुनियाद “संबंधों की प्रगाढ़ता” पर बनी है. यही वजह है नेहरु दशकों तक “डार्लिंग ऑफ़ द इंडियन मासेज” (जनता के दुलारे) रहे और लोगों ने कभी उनके शासन की गुणवता पर उनके जीवन काल में प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया. भावना प्रबल थी.

जब राजा दशरथ ने राम को वनवास का आदेश दिया तो जनता में कुछ लोगों ने निंदा की लेकिन वहीं अन्य ने कहा “ एक धर्म परमिति पहचाने, नृपहिं दोष नहीं दीन्ही सयाने” याने तुलसी के अनुसार ज्ञानी लोग धर्म की सीमा समझते हुए राजा में दोष नहीं देखते. आज की जनता शायद ज्ञानी हो चुकी है.

lokmat       

Friday 10 November 2017

सफीर की चोरी: यू पी एस सी को एग्जाम का तरीका बदलना होगा




बचपने में स्कूल की किताब में एक पाठ था. एक साधू को डर लगा कि उसने अपने तोते को अगर कभी उदारतावश मुक्त किया तो वह शिकारी की जाल में फंस जाएगा लिहाज़ा उसने तोते को सिखाना शुरू किया “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं”. जब तोता दिन भर यह गाने लगा तो साधू को लगा कि उसे तोते को अब मुक्त कर देना चाहिए. पिजड़े से आजाद होते ही तोता खुले आकाश में और फिर एक जंगल में पेड़ पर बैठ गया. अन्य तोतों ने जब यह गाना सुना तो वे भी गाने लगे. शिकार के लिए आये एक बहेलिये ने जब यह सब कुछ तोतों के मुंह से सूना तो उसे लगा तोते समझदार हो गये हैं और अब उसके दुर्दिन आ गए. एक दिन एक पंडित उधर से निकला और बहेलिये को उदास देख कर सलाह दी कि एक बार जाल डाल कर कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है. बहेलिये ने ऐसा हीं किया लेकिन ताज्जुब हुआ कि तोते “शिकारी आयेगा ......” गाते जा रहे थे और जाल में दाना खाने के चक्कर में फंसते भी जा रहे थे. शायद उन्होंने साधू की सीख रट तो ली थी पर उसका मायने नहीं जानते थे.
गिरफ्तार ट्रेनी आई पी एस सफीर करीम तोता नहीं था. उसने पाठ पढ़ा भी और उसका मायने भी जनता था कि यह कापी में लिख कर मार्क्स हासिल करने के लिए होता है न कि जिन्दगी में अमल के लिए. तभी तो उसने सन २०१४ की सिविल सर्विसेज परीक्षा के सामान्य ज्ञान के चतुर्थ पेपर में, जो उम्मीदवार की नैतिकता और ईमानदारी (एथिक्स और ईमानदारी) को जांचने लिए पहली बार सन २०१३ में शुरू किया गया था, सबसे अधिक नंबर पाए थे और जिसकी बदौलत वह सामान्य ज्ञान के पेपर में २५० में १०८ नंबर पा कर ११२वी रैंक हासिल किया और आई पी एस अधिकारी बना. ध्यान रहे कि सामान्य ज्ञान के अन्य तीन पेपरों में उसे एथिक्स (नैतिकता) के पेपर से कम अंक मिले थे. सफीर को लिखित परीक्षा में १७५० में ७७२ अंक मिले जबकि साक्षात्कार में २७५ में १७८ अंक मिले जो आम तौर पर अच्छा माना जाता है. क्या साक्षात्कार बोर्ड में बैठे मनोवैज्ञानिक सदस्य को भी भनक नहीं लगी कि नैतिक आधार पर यह अभ्यर्थी कैसा है? अगर यह पता करना मनोवैज्ञानिक के लिए भी मुश्किल है तो फिर पिछले तमाम दशकों से साक्षात्कार की चोंचलेबाजी क्यों ?
तमिलनाडु कैडर के इस आई पी एस अधिकारी सफीर ने आई ए एस बनने के लिए फिर इस साल याने २०१७ में सिविल सर्विसेज का एग्जाम दिया. वह अक्टूबर ३० को सामान्य ज्ञान का द्वितीय पेपर दे रहा था. आई बी की सब्सिडियरी यूनिट ने सर्विलांस के जरिये पाया कि सफीर ने अपने शर्ट के बटन में एक मिनी कैमरा फिट किया है जो बाहर रखे एक मॉडेम से कनेक्टेड है और जिसके जरिये हैदराबाद में वह अपनी पत्नी के नेत्रित्व वाली एक टीम से प्रश्नों का जवाब हासिल कर रहा था. उसके कान में एक माइक्रोट्रांसमीटर फिट था. गिरफ्तारी के बाद पूछ ताछ में जो बड़ा खुलासा हुआ वह यह कि सफीर भारत के पांच राज्यों कोचिंग सेंटर चलता था और शक है कि वह बड़ी रकम ले कर अभ्यर्थियों को इसी तरह सिविल सर्विस की परीक्षा में पास भी करवाता था. आई बी यह भी जांच कर रही हैं कि केरल निवासी इस अधिकारी के तार और कहाँ कहाँ जुड़े हैं.
यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं. पहला : देश की सबसे बड़ी ब्यूरोक्रेसी को चुनने वाली प्रक्रिया में नैतिकता को परखने के लिए यह प्रश्न पत्र तमाम समितियों की सिफारिश के बाद सन २०१३ में शुरू किया गया था. लेकिन अगर तोते की तरह रट कर कोई सफीर अधिक नंबर हासिल करता है लेकिन वह एक बड़े गैंग के सरगना के रूप में उभरता है तो क्या हमें नैतिकता मापने के लिए कोई नयी प्रक्रिया शुरू करनी होगी? सफीर अगर पकड़ा न गया होता तो अगले २४ घंटे में फिर से (३१ अक्टूबर को) नैतिकता का पेपर देता और उसमें जो सवाल संख्या ९ आया था वह था : आप एक एक ईमानदार और जिम्मेदार लोकसेवक हैं. आप प्रायः निम्नलिखित को प्रेक्षित करते हैं () एक सामान्य धारणा है कि नैतिक आचरण का पालन करने से स्वयं को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है और परिवार के लिए भी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं , जबकि अनुचित आचरण जीविका लक्ष्यों तक पहुँचने में सहायक हो सकता है ।
इस प्रश्न में तीन अंश और हैं और सबका जवाब मात्र २५० शब्दों में देना हैं. याने उप -प्रश्न के लिए केवल ६३ शब्द. जरा सोचे यह रटने के अलावा और क्या हो सकता है जो कोचिंग इंस्टिट्यूट में रटाया जता है. इसी पर उस अभ्यर्थी की नैतिकता का फैसला यूं पी एस से करेगा. ऐसे में सफीर पैदा होते हैं तो गलत क्या है? कहना न होगा कि सफीर जो जवाब देता वह उसकी करनी से अलग होता. वह और उसकी पत्नी बड़े जोर शोर से पांच कोचिंग चला रहे थे और जीविका लक्ष्यों के लिए सफीर ने आपराधिककृत्य का सहारा लिया था.
इस पेपर का क्या मतलब है जब उम्मीदवार तोते की तरह जवाब रट लेते हैं और अफसर बनने के बाद फिर वह भ्रष्टाचार के उसी मकडजाल में फंसा रहता है जिससे उसकी तथाकथित जीविका लक्ष्यों की सिद्धि होती है याने अच्छी पोस्टिंग , अच्छे कॉन्टेक्ट्स , अच्छा पैसा और कुल मिलकर एक आपराधिक-अनैतिक चक्र जिसमें नेता व अफसर मिल कर इस देश को लूटते रहते हैं. मध्य प्रदेश के आई ए एस दम्पत्ति अरविन्द जोशी और टीनू जोशी भी सिविल सर्विसेज में अच्छे रैंक से उत्तीर्ण हुए थे और भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन कर जेल में हैं. नीरा यादव का केस आज उत्तर प्रदेश के हर अफसर की जुबान पर है. कैसी है यह चुनाव प्रक्रिय जिसमें जिन अफसरों को असीमित शक्ति (जनता पर गोली चलने के अधिकार से लेकर लाखों करोड रुपये का विकास फण्ड खर्च करने का अधिकार ) दिया जाता है लेकिन हम आज तक यह व्यवस्था नहीं कर पायें हैं कि उनके नैतिक लब्धि (मारल कोशेंट) का अंदाज़ा नहीं लगा पाये और अंत में यह उम्मीदवार रटे रटाये उत्तर देकर फिर तोते की तरह उसी जाल में फंस जाता है ?

सफीर का मामला केवल अनैतिक होने का हीं नहीं है बल्कि आपराधिक भी है. आज जांच एजेंसियां यह देख रही है कि सफीर ने किसी गैंग के सरगना की तरह पैसे लेकर पिछले तीन सालों में कहीं अन्य कई उम्मीदवारों को भी अपनी हीं तरह सवाल के जवाब तो नहीं लिखवाए थे ?

lokmat    

Monday 6 November 2017

विकास: रणनीति बदलनी होगी


भूख से मुक्ति भी “स्वच्छ भारत” की तरह अभियान बने 

विश्व स्तर पर व्यापारिक, आर्थिक, जीवन संतुष्टि व मानव विकास के १६ सूचकांकों में पिछले तीन सालों में भारत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले १० सूचकांकों पर नीचे गिरा है जब कि तीन पर लगभग समान स्तर पर रहा और बाकी तीन पर बेहतर हुआ है. इसका मतलब यह है कि दुनिया के अन्य देश खासकर विकसित देशों में सरकारें बेहतर प्रदर्शन कर रहीं हैं. ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के प्रति देश में एक विश्वास बना और तीन साल पहले जनता ने भारतीय जनता पार्टी को सन २००९ के मुकाबले डेढ़ गुना (प्रतिशत के रूप में १८.६ से बढ़ा कर ३१.७) वोट दे कर जिताया तो आज साढ़े तीन साल बाद अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपने विकास की नीति का पुनरावलोकन करे. इसमें दो राय नहीं है कि मोदी की विकास की समझ और इच्छा अभूतपूर्व है और यह भी सच है कि उनकी अप्रतिम ईमानदारी और निष्ठा देश सत्तावर्ग में एक चिर-अपेक्षित दहशत के रूप में विद्यमान हैं फिर समस्या कहाँ है? शायद राज्य सरकारें विकास की नीति को जनता तक नहीं ले जा सकी हैं. ध्यान रहे कि भारत के संविधान के अनुसार अर्ध-संघीय व्यवस्था है जिसमें अधिकतर विकास के कार्य राज्य सरकारों के माध्यम से होते हैं. हालांकि आज देश की ६८ प्रतिशत आबादी पर भारतीय जनता पार्टी राज्य सरकारों के माध्यम से शासन कर रही हैं और मोदी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सन्देश उनके लिए ईश्वरीय आदेश से कम नहीं होते. इससे अब उम्मीद बंधती है कि राज्य सरकारें विकास कार्यों को गति देंगी. मोदी सरकार की अद्भुत फसल बीमा योजना भी इसी राज्य सरकारों के इसी निकम्मेपन की वजह से असफल हो रही है और एक साल के भीतर (ऋण न लेने वाले) मात्र ३.७ प्रतिशत किसानों को हीं बीमित किया जा सका है   
विश्व की तमान विश्वसनीय रेटिंग संस्थाओं जिनमें संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुषांगिक संगठन भी है की ताज़ा रिपोर्ट को अगर एक साथ रखा जाये तो पता चलता है इन तीन सालों में तमाम विकासशील देशों ने विकास के मामले में काफी रफ़्तार पकड़ी है. इनमें वो देश भी हैं जिन्हें एक दशक पहले तक सबसे नीचे पायदान पर शाश्वत रूप से पाया गया था जैसे निकारागुआ , घाना और सोमालिया. जिन तीन मानकों पर भारत दुनिया के कुछ देशों से बेहतर कर सका है वे हैं : व्यापार करने में सुगमता, विश्व प्रतिस्पर्धा सूचकांक और विश्व इनोवेशन (नवोंमेषण) सूचकांक. जिन अन्य तीन में भारत लगभग समान स्तर पर रहा या थोडा ऊपर-नीचे के खाने में पहुंचा वे हैं : विश्व मानव सूचकांक, विश्व शांति सूचकांक और करप्शन परसेप्शन (भ्रष्टाचार अनुभूति) सूचकांक. 
लेकिन जिन १० पैरामीटर्स पर देश तीन सालों में बुरी तरह पिछड़ा है वे हैं : विश्व भूख सूचकांक जिसमें इन तीन वर्षों में भारत अन्य देशों की अपेक्षा काफी नीचे चला गया. सन २०१४ में हम दुनिया के १२० देशों में ५५ नंबर पर थे लेकिन २०१७ में यह देश ११९ देशों में १०० नंबर पर है. यह एक बड़ी गिरावट है जो उस पैरामीटर पर हैं जो भारत को दुनिया की नज़रों में वास्तविकरूप से “समृद्ध” बताने की पहली शर्त है. देश जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद ) वृद्धि दर से नहीं बल्कि उस उत्पाद वृद्धि से गरीब के आंसू पोंछने में सफलता से आंका जाता है. यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि सन २०१४ में हीं भारत ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाया याने हर गरीब को भूख से निजात का कानूनी वादा. पर हकीकत यह थी कि देशव्यापी भ्रष्टाचार का दंश राज्य सरकारों की अकर्मण्यता से  मिल कर भूखे के पेट तक अनाज पहुँचाने में बड़ा रोड़ा बना रहा. मोदी सरकार को इस पर शायद सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. अगर बुलेट ट्रेन विकास के इंजन का एक पहिया है तो दूसरा शाश्वत भूख से निजात दिलाना दूसरा. साथ हीं अगर “व्यापार करने में सुगमता” के पैरामीटर पर भारत सन २०१४ में १८९ देशों में १४२ वें नंबर से कूद कर सन २०१७ में १९० देशों में १०० नंबर पर आ गया और देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पूरी उत्साह से प्रेस कांफ्रेंस कर बताया कि भारत कैसे तरक्की कर रहा है तो उन्हें उस दिन भी प्रेस कांफ्रेंस करना चाहिए था जिस दिन भूख सूचकांक में हमारा देश घाना, वियतनाम, मलावी, बांग्लादेश और नेपाल तो छोडिये, रवांडा, माली और नाइजीरिया और कमरून से भी पीछे चला गया. हमारा सत्ताधारी वर्ग पिछले २५ सालों में जी डी पी बढ़ने पर कसीदे तो काढ़ता रहा “भारत महान “ बताता हुआ,  पर भूख से मरते -बिलबिलाते नवनिहालों पर केवल “खाद्य सुरक्षा कानून”  बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लिया. 
अन्य नौ पैरामीटर्स जिनपर देश फिसला है वे हैं : मानव संसाधन (सन २०१३ में दुनिया के १२२ देशों में ७८ लेकिन २०१७ में १३० देशों में १०३), कनेक्टिविटी में २०१४ में २५ देशों में १५ पर आज ५० देशों में ४३, एफ डी आई भरोसा में २५ देशों में ७ से आज ८, खुशी के पैमाने पर १५८ देशों में ११७ से आज १५५ देशों में १२२, बौद्धिक संपदा में ३० देशों में २९ से ४५ देशों में ४३, आर्थिक स्वतन्त्रता में १८६ में १२० से आज १४३, समृधि में १४२ देशों में १० से १४९ देशों में १०४, टिकाऊ विकास में १४९ देशों में ११० से १५७ देशों में ११६ और मेधा प्रतिस्पर्धा में ९३ देशों में ३९ से ११८ देशों में ९२. 
आज सरकार को पूरे विकास के प्रति दृष्टि बदलनी होगी. सबसे चौकाने वाली स्थिति दो पैरामीटर्स को लेकर है – भूख कम करने और मेधा प्रतिस्पर्धा में भारत का विश्व स्तर पर बेहद नीचे जाना. अगर देश के व्यापार सुगमता में ३० अंकों की बढ़ोत्तरी पर वित्त मंत्री प्रेस कोनेफेरेंस कर सकते हैं तो मेधा प्रतिस्पर्धा में ५३ अंकों की गिरावट पर भी उन्हें चिंता दिखानी होगी. भारत की मेधा जो हमारे करोड़ों युवा में पैदा होनी चाहिए थी वह अन्य देशों को मुकाबले अगर कम रही तो “ युवा शक्ति” का क्या मतलब होगा जिसके बारे में प्रधानमंत्री अपने भाषणों में जिक्र करते हैं. समस्या न तो मोदी या वित्त मंत्री के प्रयासों में है न हीं  सरकार की नियत या नैतिकता में. केवल प्रयासों की दिशा मोड़नी  होगी और प्रथम चरण में भूख पर काबू पाने की कोशिश उसी तरह अभियान के रूप में करनी होगी जिस तरह “स्वच्छ भारत” आज हर अधिकारी-मंत्री की जुबान पर है और हर अधिकारी -मंत्री के हाथ में झाडू.                          
कुपोषण-जनित व्याधियों में चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार बच्चों का शारीरिक हीं नहीं मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है. अगर भूख को नहीं जीतेंगे तो भारत की युवा शक्ति बीमार नागरिक के रूप में खडी होगी. सरकार को समझना होगा कि अगर भूख और कुपोषण से बच्चे कम वजन के, ठूंठ (स्टंटेड) याने छोटे कद के और मानसिकरूप से कुंद होंगे तो जाहिर हैं मेधा की कमी होगी और विश्व स्तर पर वे कहीं भी नहीं टिक पाएंगे. सरकार को डिलीवरी का माडल बदलना होगा ताकि राज्य सरकारों का शाश्वत उनीदापन और भ्रष्ट तंत्र इन नौनिहालों के रुदन को ख़त्म करने में सक्रिय हो सके या फिर संविधान संशोधन के जरिये इन्हें डिलीवरी में कोताही या भ्रष्टाचार करने पर प्रशासनिक कार्रवाई का अधिकार केंद्र के हाथों में हो.

lokmat

Thursday 26 October 2017

टीपू का सच और कोविंद का राजपुरुष -भाव


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मोदी सरकार को भी इस भाव के लिए साधुवाद

ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित सत्य के अनुरूप राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए जान देने वाला बतायाकर्णाटक विधान सभा के ६० साल पूरे होने के उपलक्ष्य में कर्नाटक विधान सौदा (विधान सभा भवनमें राज्य विधायिका के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में बोलते हुए उन्होंने ने पद की गरिमा अक्षुण्ण रखते हुए अपनी छवि एक स्टेट्समैन (राजपुरुषके रूप में स्थापित कीचूंकि भारतीय संविधान में राष्ट्राध्यक्ष के भाषण का विषयवस्तु केंद्र सरकार के माने जाते हैं लिहाज़ा मोदी सरकार को भी इस धन्यवाद का पात्र माना जाना चाहिएयह अलग बात है कि कर्णाटक भारतीय जनता पार्टी इस भाषण को लेकर सकते में है क्योंकि वह अभी तक जबरदस्त टीपू -विरोध में आन्दोलन करती रही है और हाल हीं में केंद्र सरकार के इस राज्य से आने वाले एक मंत्री ने तो टीपू को आतताई और बलात्कारी तक कहा और कर्नाटका सरकार को आगामी १० नवम्बर को सुल्तान का जन्म-दिवस न मनाने की ताकीद की थीउधर कांग्रेस राष्ट्रपति के इस उदगार पर बेहद खुश नज़र आ रही हैराष्ट्रपति के इस भाषण में सत्य के प्रति एक आग्रह और उनकी विद्वता की झलक भी देखी जा सकती हैइससे यह भी स्पष्ट होता है कि एक समुदाय से आने वाले प्रतिमानों को अतार्किक और बेजा दुराग्रह से नीचा दिखने के इस प्रयासों से न तो राष्ट्रपति खुश हैं न हीं मोदी और उनकी सरकार.
अब जरा ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करें जिन्हें तोड़ने -मरोड़ने की कोशिश की गयीटीपू सुलतान के बारे में उत्तर भारत के पाठ्यक्रमों में कुछ दशक पहले एक पाठ आया जिसमें यह बताया गया कि मैसूर में टीपू सुल्तान के धर्म-परिवर्तन अभियान के डर से तीन हज़ार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर लीइस पाठ के लेखक हरिप्रसाद शास्त्री थे जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष थेतत्कालीन प्रख्यात इतिहासकार बी डी पाण्डेय ने अचानक जब यह तथ्य पाठ्यक्रम में देखा तो उन्होंने प्रोफेसर शास्त्री को पत्र लिखकर जानना चाहा कि यह तथ्य उन्हें कहाँ से मिलाकई पत्र लिखने के बाद अंत में प्रोफेसर शास्त्री का जवाब आया कि उन्होंने यह जानकारी मैसूर गजेटियर से हासिल की हैप्रोफेसर पाण्डेय ने तब मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर श्रीकान्तिया को पत्र लिख कर इस तथ्य के बारे में जानना चाहाजवाब आया “ऐसा कोई तथ्य मैसूर गजेटियर में उल्लिखित नहीं है”बल्कि पता यह चला कि टीपू सुल्तान का प्रधानमंत्री पुन्नैया नाम का एक ब्राह्मण था और सेनापति जेनरल कृष्णा राव भी एक ब्राह्मण थासाथ हीं प्रोफेसर श्रीकान्तिया ने १५६ ऐसे मंदिरों की लिस्ट भेजी जिनके रखरखाव के लिए टीपू शाही खजाने से हर माह पैसा मुहैया करवाता थायह भी जानकारी मिली कि तत्कालीन शंकराचार्य (श्रृंगेरी मठसे उनकी बेहद करीबी रिश्ते थेध्यान रहे कि गज़ेटीयर अंग्रोजों का बनाया हुआ है न कि मुसलमान शासकों का.प्रोफेसर शास्त्री का यह पाठ बिहार बंगाल असम तत्कालीन उड़ीसा उत्तर प्रदेश राजस्थान और मध्य प्रदेश के हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में थाप्रोफेसर पाण्डेय जो उड़ीसा के राज्यपाल रहे और राज्यसभा के सांसद भी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाईस-चांसलर प्रोफेसर आशुतोष मुख़र्जी को पत्र लिख कर इन तथ्यों और सम्बंधित दस्तावेजों से अवगत करायातब जा कर यह पाठ तमाम राज्यों के पाठ्यपुस्तक से बाहर किया गयालेकिन सबसे ताज्जुब की बात यह थी कि कुछ साल बाद सन १९७२ में ब्राह्मणों के टीपू सुल्तान के शासनकाल में आत्महत्या का किस्सा फिर से उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गयाइस घटनाक्रम का जिक्र प्रोफेसर पाण्डेय ने राज्य सभा में किया जो आज भी संसद के रिकार्ड्स में दर्ज है.
राष्ट्रपति ने टीपू सुल्तान की शहादत और उनके युद्ध कौशल जिसका आज भी दुनिया में लोहा माना जाता है और जिसे प्रक्षेपास्त्र का दुनिया में जनक कहा जाता है की बात कह कर एक तरह से देश को इतिहास की निरपेक्ष समझ विकसित करने का आह्वान किया है.
हमने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि अंग्रेजों ने किस तरह मक्कारी से हिंदू और मुसलमानों के बीच तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कियाउनकी मंशा की कुछ बानगी देखें :
14 जनवरी 1887 को लॉर्ड क्रॉस ने लॉर्ड डफरिन को पत्र लिखा “धर्म के आधार पर बंटवारा जो हमने किया है उससे हमें ज़बरदस्त फ़ायदा पहुंचा है और हमें उस दिन का इंतज़ार है जब भारत में शिक्षा एवं पाठ्यक्रम संबंधी इंक्वायरी कमिटी के कुछ अच्छे परिणाम मिलेंगे
…….. ब्रिटिश सेकेट्री ऑफ स्टेट(विदेश मंत्रीने 1862-63 के तत्कालीन गवर्नर जनरल एल्गिन को एक चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी में कहा गया था “हमने अपनी सत्ता भारत में इसलिए बरकरार रखी क्योंकि हमने सफलतापूर्वक मुसलमानों को हिंदुओं से लड़वाया। हमें यह सिलसिला जारी रखना होगा। तुमसे जो संभव बने सुनिश्चित करो कि दोनों समुदायों के बीच में मैत्री ना रहे
…….. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके रैम्से मेक्डोनल्ड ने भी अपनी एक पुस्तक में इस बात का जिक्र किया था कि “हिंदुस्तान में मुसलमानों को विशेष रियायत देने का मकसद दोनो समुदायों में फूट डालना था
   उपरोक्त तीन तथ्य इस बात की तस्दीक है कि सन्1857 की बगावत के बाद अंग्रेज़ शासकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत किस तरह हिंदू और मुसलमानों को अलग करने की सफल कोशिश की और अगले 80साल देश पर शासन करते रहे। लेकिन इस पूरी रणनीति के जो अन्य दो दुखद पहलू रहे वे यह कि भारत का बंटवारा हुआ और उससे भी बड़ा जख्म रहा भारत में ही हिंदू और मुसलमानों के बीच न पटने वाली खांई। अंग्रेजों ने इतिहास बदल दिया और तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों का एक वर्ग उनके जाल में इस कदर फंसा कि आज तक उसका प्रभाव देखने को मिल रहा है।
   यहां कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मुगल शासकों का एक वर्ग अतिवादी नहीं था या सोमनाथ मंदिर गजनवी ने नहीं तोड़ा था। या फिर मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिर नहीं तोड़ा था। लेकिन अगर इन्हीं तथ्यों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए और अन्य सकारात्मक तथ्यों को दबा दिया जाए तब दो समुदायों के बीच जो दरार पड़ेगी वह शताब्दियों तक मिटना मुश्किल होगा और अंग्रेजों ने यही किया।
   आज जब हम पाकिस्तान बनने और आजादी हासिल करने के ७० साल बाद जब तथ्यों का विश्लेषण करते हैं तब भी कई बार हमारे दिलो-दिमाग से टीपू सुल्तान की गलत व्याख्या कहीं मन में अटकी रहती है। नतीजा यह होता है कि भारत में ही रहने वाले दो समुदायों के बीच में “अस वर्सेज़ देम” (हमारे बनाम उनकेका एक शाश्वत भाव बना रहता है।  
  क्या आज हमें यह तथ्य नहीं बताना चाहिए कि मध्यप्रदेश के सतना के नज़दीक मैहर में बाबा अलाउद्दीन खां मुसलमान होने के बावजूद नियमित रूप से माँ शारदा के मंदिर में जाने के बाद ही अपना रोज़मर्रा का काम शुरू किया करते थे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने पोते का नाम ध्यानेश खां और आशीष खां रखा। बाबा अलाउद्दीन खां के शिष्यों में कई हिंदू शिष्य थेक्या संघ को यह नहीं मालूम कि मुस्लिम लीग के सम्मेलन में मुहम्मद इक़बाल ने जब अलग मुस्लिम राज्य की बात कही तब दारूल-उलूम से जुड़े मौलाना हुसैन अहमद मदनी इस बात का विरोध करने वाले शुरूआती व्यक्तियों में से एक थे। यही वजह थी कि गांधी जी के नमक सत्याग्रह में तकरीबन12 हज़ार मुसलमानों ने हिस्सा लिया था।
   भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास नामक पुस्तक में प्रोफेसर ताराचंद्र ने साफ लिखा है कि देवबंद के दारूल-उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेज़ों को खदेड़ने के लिए चलाया गया था। दारूल उलूम के प्रमुख की ज़िम्मेदारी मौलाना महमूद-उलहसन को मिली तो उनकी ज़िन्दगी का मकसद भी देश की आज़ादी था।
   आज जरूरत इस बात की है कि भारतीय समाज को इतिहास का दूसरा पक्ष दिखाया जाए और समाज का दुराग्रह विहीन बुद्धिजीवी वर्ग आजादी के मकसद को कामयाब करने के लिए दो समुदायों के बीच नैसर्गिक एकता बहाल करने को उद्यत हों 

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